Saturday, July 2, 2011

मीडिया की गलाकाट प्रतिश्प्रधा ..एक उदहारण.और कुछ जव्व्लंत मुद्दे. (Media Is Not Botherd for His News..)

मीडिया  अपनी टीआरपी की हवस में किसी भी हद तक जा सकता है। खासतौर से इलैक्ट्रॉनिक मीडिया ने तो जैसे सारी नैतिकता ही खत्म कर दी है उसको कोई मतलब नहीं है की इस देश और देश की जनता के साथ क्या हो रहा है,, आज के युग में  जब " लोकतंत्र शब्द " जब एक गाली बन चूका है, तो लोकतंत्र का चौथा स्तम्ब कहलाये जाने "बिकाऊ" मीडिया की कोई प्रासंगिकता नहीं रह  गयी है..
26 तारीख को मुंबई में आतंकवादी हमला हुआ हुआ तो पूरे देश में अफरा तफरी का माहौल था, लोग समझ नहीं प् रहे थे की क्या हो रहा है.. जिसने भी ये सुना की देश पर सबसे बड़ा आतंकवादी हमला हुआ "वो स्तब्ध था". प्रिंट इलेक्ट्रोनिक मीडिया के तमाम कर्मचारी कुछ देर में ही होटल ताज और नरीमन हाउस के पास अपने ताम झाम के साथ पहुँच गए. और जैसा की होता आ रहा है, हर खबर को एक्सक्लूसिव बता बता कर दिखा रहे थे, मतलब साफ़ है की ढहते किलों के बीच इलेक्ट्रानिक मीडिया को नया मंत्र मिल गया था . वह मंत्र था - आतंकवाद. आतंकवाद से इस लड़ाई में मीडिया सीधे जनता के साथ मिलकर मोर्चेबंदी कर रहा था.
वैश्विक मंदी के इस दौर में आतंकवाद ही एक ऐसा मंत्र था  जो ज्यादा देर तक दर्शकों को बुद्धूबक्से से जोड़कर रख सकता था. इलेक्ट्रानिक मीडिया इस मौके को किसी कीमत पर नहीं चूकना चाहता था. वही ताज होटल और नरीमन हाउस में अपनी जान की बाज़ी लगाकर लोहा लेते "राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड" (NSG) के अधिकारी और खुद मेजर दत्ता मीडिया से बार बार आग्रह कर रहे थे, की इस बात की पूरी संभावना है की आतंकवादी होटल में लगे टीवी सेट्स से हमारी हमारी कदम कदम की रणनीति की जानकारी ले रहे है,,, और ये बाद में साबित भी हो गयी की न्यूज़ अपडेट पाकर की आतंकवादी अपनी कदम कदम की रणनीति बना रहे थे.. पर उस समय मीडिया को सबसे जयादा अपनी टी आर पी की फिकर ज्यादा थी और कोई चैनल इससे चूकना नहीं चाहता था.

अगर आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में मीडिया इतना ही ईमानदार होता तो बीच में विज्ञापनों का ब्रेक न चलाता. अगर आतंकवाद के खिलाफ  मीडिया इतना ही ईमानदार होता तो चिल्ला-चिल्लाकर अपनी प्रामाणिकता सिद्ध करने की दुहाई न देता. अगर असल मुद्दा आतंकवाद है तो फिर चैनलों के ब्राण्डों पर असली पत्रकारिता की अलाप क्यों लगायी जाती है? क्यों टीवी के नौसिखिए लड़के/लड़कियां हमेशा अपने ब्राण्ड द्वारा ही सच्ची पत्रकारिता करने की दुहाई देते रहते हैं? क्यों टीवी वाले यह बताते हैं कि उन्हें इस मुद्दे पर इतने एसएमएस मिले हैं जबकि एक एसएमएस भेजने के लिए उपभोक्ता की जेब से जो पैसा निकलता है उसका एक हिस्सा टीवी चैनलों को भी पहुंचता है. इन सारे सवालों का जवाब यही है कि आखिरकार टीवी न्यूज बहुत संवेदनशाली धंधा है. और जिन पर इस बार हमला हुआ है वे भी धंधेवाले लोग हैं. एक धंधेबाज दूसरे धंधेबाज के लिए गला फाड़कर नहीं चिल्लाएगा तो क्या करेगा? आतंकवाद के खिलाफ लड़ने के उनके मंसूबे तब दगा देने लगते हैं जब पता चलता है कि जिस चैनल की टीआरपी बढ़ी उसने अपनी विज्ञापन दर बढ़ा दी. है कोई चैनलवाला जो इस बात से इंकार कर दे?

मीडिया ने कुछ ऐसे मुद्दों को इतना ज्यादा बढावा दिया जितना की वो नहीं थे..जैसे आरुषि हत्याकाण्ड क्या हुआ लगता है कोई बहुत बड़ा विस्फोट हो गया। अगर इस प्रकार की कोई घटना किसी निम्न तबके की होती तो शायद खबर भी नहीं छपती। माना हत्याकाण्ड काफी गंभीर है लेकिन एक ही बात को लेकर सभी चैनल हाथ धोकर पीछे पड़ गए हैं जैसे उनको कोई बहुत बड़ा सुराग मिल गया है या कोई खजाना। मैंने काफी सारे केस देखें हैं जिन्हें आज तक किसी भी चैनल ने हाथ धोकर पीछे नहीं पड़े - लेकिन इस आरुषि हत्याकाण्ड को लेकर चैनल वालों ने तो कमाल ही कर दिया। मेरे हिसाब से एक बात को अगर दिखाया जाए तो कम से कम शब्द और साफ तरीके से दिखाया जाए न कि उसे लगातार दिखाना। किसी को ये विचार गलत लगे तो माफ करना -लेकिन इस भारत में और भी आरुषि हत्याकाण्ड है जिनका कोई जिक्र नहीं किया या जिनको मीडिया ने दफना दिया क्यूंकि कोई बड़ा नेता या बड़ा नौकरशाह इसमें शामिल था..
आजकल मीडिया का स्तर इतना ज्यादा गिर चूका है की कोई भी नेता और नौकरशाह कभी भी अपने लिए पैड आर्टिकल छापवा सकते है फिर चाहे उसका असर जो भी हो..  हम सब जानते है मीडिया की कमान आजकल सता के गलियारों में  है लेकिन इतना भी क्या गिरना की उठने लायक ही नहीं रहो.. नवभारत , एन डी टीवी, आजतक, जैसे कुछ चेन्नल है जो सिर्फ "तुरीन सरकार" के लिए काम करते है, ये एक लाबी है जिसका काम यही है की "सेकुलर और मुल्ला" बिरादरी को कैसे खुश रखा जाये,, चाहे इसके लिए इन्हें शांतिपसंद हिन्दुओं को चाहे "आतंकवादी" ही क्यूँ न बताना पड़े.. चाहे " भगत सिंह, वीर सावरकर, सुभाषचंद्र बोस और बिस्मिलाह " जैसे देशभक्तों को आतंकवादी बताना पड़े. पर "तुरीन सरकार" को खुश रखने के लिए उसके काले कारनामो पर  तेल लगाना जैसे इसकी आदत बन गयी है.. आज जरूरत है मीडिया को अपनी साख बचाकर अपने मूल सिद्दांत वापस अपनी कार्यशैली में लाने की.
मेरे कुछ दोस्त बात करते है की बढ़ाते इन्टरनेट की चलन के 5 साल में मीडिया खुद अपनी मौत मरेगा,, भगवान् करे ऐसा ही हो. ताकि हम खुद अपने स्तर पर भले बुरे की पहचान कर सके. ताकि फिर  कोई "मैकाले" हमें फिर से गुलामी के तरीके और  दास्ताँ न पढ़ाने आये..
(नीचे एक सम्मानित अखबार भास्कर की फोटो दे रहा हूँ, जिसमे बंगलोरे को आँध्रप्रदेश की राजधानी बताया गया है.. क्या कर्नाटक भाजपा शाशित है सिर्फ इसलिए या आन्ध्रप्रदेश "कांग्रेस" शाशित है इसलिए.   बात जो भी हो मीडिया को अपने काम की जिम्मेदारी लेनी होगी..)

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