Thursday, May 19, 2011

BHARAT DARSHAN

गायत्री महामंत्र के 24 अक्षरों में इतना ज्ञान-विज्ञान भरा हुआ है कि उसका अन्वेषण करने से सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है । ब्रह्माजी ने गायत्री के चार चरणों की व्याख्या स्वरूप चार मुखों से चार वेदों का वर्णन किया ।

महर्षि वाल्मीक ने अपनी वाल्मीक रामायण की रचना करते हुए एक-एक हजार श्लोकों के बाद क्रमशः गायत्री के एक-एक अक्षर से आरंभ होने वाले श्लोक बनाये । इस प्रकार वाल्मीक रामायण में प्रत्येक एक हजार श्लोकों के बाद गायत्री के एक-एक अक्षर का सम्पुट लगा हुआ है । महर्षि वाल्मीक गायत्री के महत्व को जानते थे उन्होंने अपने महाकाव्य में एक प्रकार का सम्पुट लगाकर अपने ग्रंथ की महत्ता में और भी अधिक अभिवृद्धि कर ली ।
श्रीमद्भागवत पुराण की भी गायत्री महामंत्र की व्याख्या स्वरूप ही रचना हुई । श्रीधरी टीका में इस रहस्य को स्पष्ट रूप से स्वीकार किया गया है ।

सत्यं परं धीमहि-तं धीमहि इति गायत्र्या प्रारम्भेण गायत्र्याख्य ब्रह्मविद्या रूपभेत्पुराण इति । (श्री धरी)
वेद व्यास जी ने गायत्री प्रतिपाद्य सत्यं परं धीमहि तत्व में ही भागवत का प्रारंभ मूल है । गायत्री के ही दो अक्षरों की व्याख्या में एक-एक स्कन्ध बनाकर 12 स्कन्ध पूरे किये हैं ।

देवी भागवत पुराण के सम्बंध में भी यही मान्यता है कि उसकी रचना गायत्री मंत्र के अक्षरों में निहित तत्वों का उद्घाटन करने के लिए ही की गई है । मत्स्य पुराणों में इस तथ्य का स्पष्ट उल्लेख है ।

यत्राधिकृत्य गायत्री र्वण्यन्ते धर्म विस्तरः ।
वृत्रासुरवधोपेतं तद् भागवत मुच्यते॥
मत्स्य पुराण 53/20
जिसमें गायत्री के माध्यम से धर्म का विस्तार पूर्वक वर्णन है । जिसमें सृत्तासुर वध का वृतान्त है, वह भागवत ही कही जाती है ।

देवी भागवत पुराण का आरंभ गायत्री के रहस्योद्घाटन के रूप में ही होता है ।

ॐ सर्व चैतन्य रूपां तामाद्यां विद्यां च धीमहि । बुद्धिर्यो नः प्रचोदयात् । (देवी भागवत)
जो आदि अन्त रहित, सर्व चैतन्य स्वरूप वाली, ब्रह्म विद्या स्वरूपिणी आदि शक्ति है उसका हम ध्यान करते हैं । वह हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर प्रेरित करे ।

देवी भागवत, बारहवें स्कन्ध के अन्त में समाप्ति का श्लोक भी गायत्री तत्व के सम्पुट के साथ ही पूर्ण हुआ है ।

सच्चिदानंद रूपां ता गायत्री प्रतिपिदताम् ।
नमामि ह्रीं मयीं देवी धियो योनः प्रचोदयात् ।

उन ह्रीं मयी सच्चिदानंद स्वरूपा गायत्री शक्ति को प्रणाम है । वे हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर प्रेरित करें ।

चारों वेद, रामायण, श्रीमद् भागवत, देवी भागवत ही नहीं-न जाने कितने बड़े ज्ञान-भण्डार का प्रणयन, गायत्री के आधार पर हुआ है । वस्तुतः भारतीय धर्म का सारा ज्ञान-विज्ञान गायत्री रूपी सूर्य के सामने छोटे-बड़े ग्रह-उपग्रहों के रूप में भ्रमण करता है ।

Wednesday, May 18, 2011

gyan

. तिलैया अल्ट्रा मेगा पॉवर परियोजना किस राज्य में स्थापित की जायेगी ?
उत्तर: झारखण्ड में
2. हाल ही में दिवालिया घोषित की गयी अमरीकी कंपनी नारटेल किस क्षेत्र की कंपनी है ?
उत्तर: टेलीफोन उपकरण
3. केंद्र सरकार द्वारा गठित राष्ट्रीय कौशल विकास परिषद् के अध्यक्ष कौन हैं ??
उत्तर: प्रधानमंत्री हैं
4. रिटेल चेन 'क्रोमा' किस औद्योगिक घराने की पहल है ?
उत्तर: टाटा
5. किसको उद्योग व्यापर जगत के संगठन PHDCCI का अध्यक्ष हाल ही में चुना ही गया है ?
उत्तर: सतीश बागरोडिया
6. केंद्र सरकार ने बी.के. चतुर्वेदी की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किस क्षेत्र की कंपनियों की आर्थिक स्थिति की समीक्षा के लिए किया था ?
उत्तर: पेट्रोलियम
7. भारतीय स्टेट बैंक ने अपनी 11,111 वीं शाखा किस जिले में जनवरी 2009 में स्थापित की है ?
उत्तर: कामरूप (असम)
8. भारतीय स्टेट बैंक के चेयरमैन हैं ?
उत्तर: ओ. पी. भट्ट
9. विशेष आहरण अधिकार(SDR)मूलतः सम्बंधित है -
उत्तर: अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से
10. तनिष्क नाम से वाणिज्यिक उपक्रम किस औद्योगिक समूह से सम्बद्ध है ?
उत्तर: टाटा

Sunday, May 15, 2011

सोये हुए बंधू जग जाओ ४ जून को डेल्ही में एक बाबा रामदेव को देश बचाओ आन्दोलन में मदद करो और इस देश को जरूरत है --- माँ भारती पुकार रही अपने लाल को लाल देखो सो रहा है माँ देखो लूट रही है फिर भी जगे हुए इस समाज के लाल को शर्म नहीं आ रही माँ भारती फिर भी है पुकार रही  अपने लाल को बुलावा आया है माँ भारती ने बुलाया है अरे जागो अपनी माँ को बचाओ जो देखती है दुनिया तुम्हे न बचाओ अगर अपने माँ को धिकार है तुम जैसे लाल को जो है सच मुच लाल आ जायेगा 4 जून को डेल्ही में बचाओ अपनी माँ भारती को तुम्हे कसम है माँ भारती की ----धन्यवाद् 

desh bachao

भाइयो मुझे अच्छा लगा की आप सभी सचाई से रूबरू है श्रेष्ठ भारत को सचे दिल से बड़ाई करना चाहूँगा की वे हमारे को एक आगाह करते रहते है दिखाते है की सचाई इस सरकार की जो भी है वो सचमुच निन्दनिये है मगर एक बात नहीं समझ में नहीं आती भाइयो की जब ये सरकार corrputfull है और ये हमारे देश की जनता और देश के साथ खेलवाड कर रही है और तो और एक तरफ अनाज सड जाते है और हमारे देश के बंधू  भूखे तड़प के मर जाते है मगर सरकार कोई कदम नहीं उठती है ये आखिर क्यों हो रहा है और कब तक होता रहेगा आप और हम सभी जानते है की ये पाप है भूमि अधिग्रहण कर के पेट पे लत मार सरकार ज़मीन ले लेती है और उसपे सभी पार्टी राजनीती खेलती है और ये सबकुछ जानते हुए भी हम मुर्ख अंधे और कर्तव्य हिन्  क्यों बने है और सबसे बड़ी कमी हममे है की ये सरकार गवर्नमेंट बना लेती है और इतने पैसे देती है विदेशी कंपनी की ये आसानी से इन्हें हमे लूटने देते है में सचाई से इतेफाक की तरफ मुद रहा हु की देश में आज हम सब जैसे के जरूरत है कुछ लोग ऐसे काम रहे है मगर राजनीती से नहीं बच पाते और सयंत्र करके मार दिए जाते है मगर जब हम सभी एक साथ रहे और इसी काम को इसी तरह से जोर शोर से करे तो समुन्द्र में एक अंश अच्छाई के भी पड़ेंगे और इसी से बूँद बूँद करके अच्छाई और सचाई सभी तक पहुचेगा और हम कुछ भला काम कर सकेंगे तो भाई बंधुयो आप विदेशी सामान का उसे करना बंद करदे और वन्दे मातरम और स्वदेशी को अपनाये ताकि ये comopany  अपना कारोबार खत्म करके zero return करके भाग जाये और दूसरी बात हम इन  लोगो की सरकार न बनने में मदद करे और तीसरी की आप सभी एक मंच से जुड़े और इस देश के लिए नेक और श्रेष्ठ काम करके आप हम सभी इस देश को मुक्ति दिलाये.धन्यवाद  

सुमेश्‍वर क़िला बिहार

सुमेश्‍वर क़िला बिहार

यह क़िला समुद्र तल से 2884 फीट की उंचाई पर सुमेश्‍वर पहाड़ी पर स्थित हे। हालांकि यह क़िला अब खण्‍डहर में तब्‍दील हो चुका है। इस पहाड़ी से बर्फीले हिमालय का बड़ा सुन्‍दर नजारा दिखाई देता है और इसकी चोटी धौलागिरी, गोसाईथान और गौरीशंकर को भी साफ-साफ देखा जा सकता है।यह पश्चिम चम्पारण में है

गांधी जी

गांधी जी के सामानों की नीलामी हुई और हमारे देश के माल्या जी ने देश की लाज रख ली। एक अरब आबादी ने राहत की साँस ली। सवाल यह है कि ऐसी स्थिति क्यों पैदा होती है।
सरकार नीलामी के समय हाथ पैर मारना शुरू करती है जबकि उसे पहले से ही पता होता है। क्या इस देश में गांधी की विरासत बचने के लिए किसी विवादस्पद व्यवसायी का आगे आना जरूरी है। हमारी आबादी सौ करोड़ है और हर आदमी से एक रुपये का चंदा भी किया जाता तो गांधी की विरासत को जनता के सहयोग से बचाया जा सकता था। नौ दशमलव तीन करोड़ की बोली में यह विरासत खरीदी जा सकी। सवाल यह है कि क्या हमारे देश की पार्टीयाँ जो गांधी के नाम पर सालों से राजनीति कर रही हैं उनके पार्टी फंड में इतना भी पैसा नहीं था कि वे जा कर इस विरासत को हासिल करतीं। हमारे देश के सांसद क्या इतने गरीब थे कि अपनी संसद निधि का उपयोग इस विरासत को बचा ने के लिए नहीं कर सकते थे।
क्या हमारे देश की सर्वोच्च संस्था में यह प्रावधान नहीं है कि राष्ट्रपिता के सामानों को किसी भी कीमत पर प्राप्त करने के लिए कदम उठाये जा सकें। बात करेंगे तो सभी चिंतित और अंतिम स्तर पर प्रयास करते दिखाई देंगे। जैसा कि हमारे देश में हर केस में होता है। बाद में बयान जारी हो जाता है कि तमाम प्रयासों के बाद भी हम बापू की विरासत हासिल नहीं कर सके। लानत है जिसने बिना किसी साधन के मात्र अपने आत्मबल सत्य अहिंसा के सहारे देश को स्वाधीनता दिला दी उस देश के समर्थ नेता उसकी विरासत तक नहीं बचा सके। मैं उद्योगपति के प्रयास को कमतार कर के नहीं आंक रहा और न ही उनके द्वारा किया गया प्रयास सराहनीय नहीं है। सवाल देश के जिम्मेदार नेताओं का है।
सोचने की बात है कि हमारे देश के नेता कितने संवेदन हीन हैं कितने स्वार्थी और निकृष्ट हैं। बेशरम तो खैर हैं ही। जरा सोचिये हर अखबार में चिंता थी हर रिक्शेवाला और चाय वाला कहा रहा था क्या हमारे गांधी बाबा का चश्मा घड़ी और चप्पल नीलाम होगी। अर्थ यह कि देश की गरीब जनता जिस गांधी को पूजती है और जिस से वह भावनात्मक रुप से जुड़ी है उस गांधी को हमारे देश के बड़े लोग हमारे नेता क्या महत्व देते हैं अगर उनके मन में गांधी के लिए ज़रा भी सम्मान होता तो देश की राजनीति में इतना पराभव कभी नहीं आता। हमारे देश का आम आदमी आज भी इसीलिये परेशान है कि उसे आज़ादी के बाद गांधी नहीं मिला। किसकी जिम्मेदारी है गांधी की विरासत बचाने की आम आदमी तो बस अभिमन्यु की तरह है जो बस चिंता कर सकता है और चक्रव्युह के अंतिम द्वार तक लड़ सकता है लेकिन चक्रव्युह नहीं भेद सकता। वह लड़ भी रहा है इस चक्रव्यूह को भेदने के लिए पर क्या करें उसके राष्ट्रपिता उसे उसी तरह छोड़ गए हैं जैसे अर्जुन चक्रव्यूह वाले दिन अभिमन्यु को छोड़ गए थे और उसका भाग्य तो गर्भ में ही माता के सोने के कारण सोया हुआ है। देखिये कब तक लड़ता है अभिमन्यु।

हिन्दू मापन प्रणाली

हिन्दू मापन प्रणाली

हिन्दू मापन प्रणाली
प्राचीन हिन्दू खगोलीय और पौराणिक पाठ्यों में वर्णित समय चक्र आश्चर्यजनक रूप से एक समान हैं. प्राचीन भारतीय भार और मापन पद्धतियां, अभी भी प्रयोग में हैं, मुख्यतः हिन्दू और जैन धर्म के धार्मिक उद्देश्यों में. यह सभी सूरत शब्द योग में भी पढ़ाई जातीं हैं. इसके साथ साथ ही हिन्दू ग्रन्थों मॆं लम्बाई , भार, क्षेत्रफ़ल मापन की भी इकाइयाँ परिमाण सहित उल्लेखित हैं.
हिन्दू ब्रह्माण्डीय समय चक्र सूर्य सिद्धांत के पहले अध्याय के श्लोक 11–23 में आते हैं.[१]:
"(श्लोक 11). वह जो कि श्वास (प्राण) से आरम्भ होता है, यथार्थ कहलाता है; और वह जो त्रुटि से आरम्भ होता है, अवास्तविक कहलाता है. छः श्वास से एक विनाड़ी बनती है. साठ श्वासों से एक नाड़ी बनती है.
(12). और साठ नाड़ियों से एक दिवस (दिन और रात्रि) बनते हैं. तीस दिवसों से एक मास (महीना) बनता है. एक नागरिक (सावन) मास सूर्योदयों की संख्याओं के बराबर होता है.
(13). एक चंद्र मास, उतनी चंद्र तिथियों से बनता है. एक सौर मास सूर्य के राशि में प्रवेश से निश्चित होता है. बारह मास एक वरष बनाते हैं. एक वरष को देवताओं का एक दिवस कहते हैं.
(14). देवताओं और दैत्यों के दिन और रात्रि पारस्परिक उलटे होते हैं. उनके छः गुणा साठ देवताओं के (दिव्य) वर्ष होते हैं. ऐसे ही दैत्यों के भी होते हैं.
(15). बारह सहस्र (हज़ार) दिव्य वर्षों को एक चतुर्युग कहते हैं. यह चार लाख बत्तीस हज़ार सौर वर्षों का होता है.
(16) चतुर्युगी की उषा और संध्या काल होते हैं। कॄतयुग या सतयुग और अन्य युगों का अन्तर, जैसे मापा जाता है, वह इस प्रकार है, जो कि चरणों में होता है:
अनुक्रम
• १ समय
o १.१ नाक्षत्रीय मापन
 १.१.१ छोटी वैदिक समय इकाइयाँ
o १.२ चाँद्र मापन
o १.३ ऊष्ण कटिबन्धीय मापन
o १.४ अन्य अस्तित्वों के सन्दर्भ में काल-गणना
o १.५ पाल्या
• २ वर्तमान तिथि
• ३ लम्बाई की इकाइयाँ
o ३.१ छोटी इकाइयां
o ३.२ रजलोक
• ४ क्षेत्रफ़ल की इकाइयां
o ४.१ बीघा
• ५ भार की इकाइयाँ
o ५.१ रत्ती
• ६ इन्हें भी देखें
• ७ टिप्पणी
• ८ सन्दर्भ
• ९ बाहरी कड़ियां


(17). एक चतुर्युगी का दशांश को क्रमशः चार, तीन, दो और एक से गुणा करने पर कॄतयुग और अन्य युगों की अवधि मिलती है. इन सभी का छठा भाग इनकी उषा और संध्या होता है.
(18). इकहत्तर चतुर्युगी एक मन्वन्तर या एक मनु की आयु होते हैं. इसके अन्त पर संध्या होती है, जिसकी अवधि एक सतयुग के बराबर होती है, और यह प्रलय होती है. (19). एक कल्प में चौदह मन्वन्तर होते हैं, अपनी संध्याओं के साथ; प्रत्येक कल्प के आरम्भ में पंद्रहवीं संध्या/उषा होती है. यह भी सतयुग के बराबर ही होती है।
(20). एक कल्प में, एक हज़ार चतुर्युगी होते हैं, और फ़िर एक प्रलय होती है. यह ब्रह्मा का एक दिन होता है. इसके बाद इतनी ही लम्बी रात्रि भी होती है.
(21). इस दिन और रात्रि के आकलन से उनकी आयु एक सौ वर्ष होती है; उनकी आधी आयु निकल चुकी है, और शेष में से यह प्रथम कल्प है.
(22). इस कल्प में, छः मनु अपनी संध्याओं समेत निकल चुके, अब सातवें मनु (वैवस्वत: विवस्वान (सूर्य) के पुत्र) का सत्तैसवां चतुर्युगी बीत चुका है.
(23). वर्तमान में, अट्ठाईसवां चतुर्युगी का कॄतयुग बीत चुका है. उस बिन्दु से समय का आकलन किया जाता है.
समय
नाक्षत्रीय मापन
• एक परमाणु = मानवीय चक्षु के पलक झपकने का समय = लगभग 4 सैकिण्ड
• एक विघटि = ६ परमाणु = (विघटि) is २४ सैकिण्ड
• एक घटि या घड़ी = 60 विघटि = २४ मिनट
• एक मुहूर्त = 2 घड़ियां = 48 मिनट
• एक नक्षत्र अहोरात्रम या नाक्षत्रीय दिवस = 30 मुहूर्त (दिवस का आरम्भ सूर्योदय से अगले सूर्योदय तक, ना कि अर्धरात्रि से)
विष्णु पुराण में दिया गया अक अन्य वैकल्पिक पद्धति समय मापन पद्धति अनुभाग, विष्णु पुराण, भाग-१, अध्याय तॄतीय निम्न है:
• 10 पलक झपकने का समय = 1 काष्ठा
• 35 काष्ठा= 1 कला
• 20 कला= 1 मुहूर्त
• 10 मुहूर्त= 1 दिवस (24 घंटे)
• 50 दिवस= 1 मास
• 6 मास= 1 अयन
• 2 अयन= 1 वर्ष, = १ दिव्य दिवस
छोटी वैदिक समय इकाइयाँ
• एक तॄसरेणु = 6 ब्रह्माण्डीय अणु.
• एक त्रुटि = 3 तॄसरेणु, या सैकिण्ड का 1/1687.5 भाग
• एक वेध = 100 त्रुटि.
• एक लावा = 3 वेध.[२]
• एक निमेष = 3 लावा, या पलक झपकना
• एक क्षण = 3 निमेष.
• एक काष्ठा = 5 क्षण, = 8 सैकिण्ड
• एक लघु =15 काष्ठा, = 2 मिनट.[३]
• 15 लघु = 1 नाड़ी, जिसे दण्ड भी कहते हैं. इसका मान उस समय के बराबर होता है, जिसमें कि छः पल भार के (चौदह आउन्स) के ताम्र पात्र से जल पूर्ण रूप से निकल जाये, जबकि उस पात्र में चार मासे की चार अंगुल लम्बी सूईं से छिद्र किया गया हो. ऐसा पात्र समय आकलन हेतु बनाया जाता है.
• 2 दण्ड = 1 मुहूर्त.
• 6 या 7 मुहूर्त = 1 याम, या एक चौथाई दिन या रत्रि. [४]
• 4 याम या प्रहर = 1 दिन या रात्रि. [५]
चाँद्र मापन
• एक तिथि वह समय होता है, जिसमें सूर्य और चंद्र के बीच का देशांतरीय कोण बारह अंश बढ़ जाता है। तुथियां दिन में किसी भी समय आरम्भ हो सकती हैं, और इनकी अवधि उन्नीस से छब्बीस घंटे तक हो सकती है.
• एक पक्ष या पखवाड़ा = पंद्रह तिथियां
• एक मास = २ पक्ष ( पूर्णिमा से अमावस्या तक कॄष्ण पक्ष; और अमावस्या से पूर्णिमा तक शुक्ल पक्ष)[६]
• एक ॠतु = २ मास
• एक अयन = 3 ॠतुएं
• एक वर्ष = 2 अयन [७]
ऊष्ण कटिबन्धीय मापन
• एक याम = 7½ घटि
• 8 याम अर्ध दिवस = दिन या रात्रि
• एक अहोरात्र = नाक्षत्रीय दिवस (जो कि सूर्योदय से आरम्भ होता है)
अन्य अस्तित्वों के सन्दर्भ में काल-गणना
पितरों की समय गणना
• 15 मानव दिवस = एक पितॄ दिवस
• 30 पितॄ दिवस = 1 पितॄ मास
• 12 पितॄ मास = 1 पितॄ वर्ष
• पितॄ जीवन काल = 100 पितॄ वर्ष= 1200 पितृ मास = 36000 पितॄ दिवस= 18000 मानव मास = 1500 मानव वर्ष
देवताओं की काल गणना

• 1 मानव वर्ष = एक दिव्य दिवस
• 30 दिव्य दिवस = 1 दिव्य मास
• 12 दिव्य मास = 1 दिव्य वर्ष
• दिव्य जीवन काल = 100 दिव्य वर्ष= 36000 मानव वर्ष

विष्णु पुराण के अनुसार काल-गणना विभाग, विष्णु पुराण भाग १, तॄतीय अध्याय के अनुसार:
• 2 अयन (छः मास अवधि, ऊपर देखें) = 1 मानव वर्ष = एक दिव्य दिवस
• 4,000 + 400 + 400 = 4,800 दिव्य वर्ष = 1 कॄत युग
• 3,000 + 300 + 300 = 3,600 दिव्य वर्ष = 1 त्रेता युग
• 2,000 + 200 + 200 = 2,400 दिव्य वर्ष = 1 द्वापर युग
• 1,000 + 100 + 100 = 1,200 दिव्य वर्ष = 1 कलि युग
• 12,000 दिव्य वर्ष = 4 युग = 1 महायुग (दिव्य युग भी कहते हैं)
ब्रह्मा की काल गणना
• 1000 महायुग= 1 कल्प = ब्रह्मा का 1 दिवस (केवल दिन) (चार खरब बत्तीस अरब मानव वर्ष; और यहू सूर्य की खगोलीय वैज्ञानिक आयु भी है).
(दो कल्प ब्रह्मा के एक दिन और रात बनाते हैं)
• 30 ब्रह्मा के दिन = 1 ब्रह्मा का मास (दो खरब 59 अरब 20 करोड़ मानव वर्ष)
• 12 ब्रह्मा के मास = 1 ब्रह्मा के वर्ष (31 खरब 10 अरब 4 करोड़ मानव वर्ष)
• 50 ब्रह्मा के वर्ष = 1 परार्ध
• 2 परार्ध= 100 ब्रह्मा के वर्ष= 1 महाकल्प (ब्रह्मा का जीवन काल)(31 शंख 10 खरब 40अरब मानव वर्ष)
ब्रह्मा का एक दिवस 10,000 भागों में बंटा होता है, जिसे चरण कहते हैं:
चारों युग
4 चरण (1,728,000 सौर वर्ष)
सत युग

3 चरण (1,296,000 सौर वर्ष) त्रेता युग

2 चरण (864,000 सौर वर्ष) द्वापर युग

1 चरण (432,000 सौर वर्ष) कलि युग

यह चक्र ऐसे दोहराता रहता है, कि ब्रह्मा के एक दिवस में 1000 महायुग हो जाते हैं
• एक उपरोक्त युगों का चक्र = एक महायुग (43 लाख 20 हजार सौर वर्ष)
• श्रीमद्भग्वदगीता के अनुसार "सहस्र-युग अहर-यद ब्रह्मणो विदुः", अर्थात ब्रह्मा का एक दिवस = 1000 महायुग. इसके अनुसार ब्रह्मा का एक दिवस = 4 अरब 32 खरब सौर वर्ष. इसी प्रकार इतनी ही अवधि ब्रह्मा की रात्रि की भी है.
• एक मन्वन्तर में 71 महायुग (306,720,000 सौर वर्ष) होते हैं. प्रत्येक मन्वन्तर के शासक एक मनु होते हैं.
• प्रत्येक मन्वन्तर के बाद, एक संधि-काल होता है, जो कि कॄतयुग के बराबर का होता है (1,728,000 = 4 चरण) (इस संधि-काल में प्रलय होने से पूर्ण पॄथ्वी जलमग्न हो जाती है.)
• एक कल्प में 1,728,000 सौर वर्ष होते हैं, जिसे आदि संधि कहते हैं, जिसके बाद 14 मन्वन्तर और संधि काल आते हैं
• ब्रह्मा का एक दिन बराबर है:
(14 गुणा 71 महायुग) + (15 x 4 चरण)
= 994 महायुग + (60 चरण)
= 994 महायुग + (6 x 10) चरण
= 994 महायुग + 6 महायुग
= 1,000 महायुग
पाल्या
एक पाल्य समय की इकाई है, यह बराबर होती है, भेड़ की ऊन का एक योजन ऊंचा घन बनाने में लगा समय, यदि प्रत्येक सूत्र एक शताब्दी में चढ़ाया गया हो। इसकी दूसरी परिभाषा अनुसार, एक छोटी चिड़िया द्वारा किसी एक वर्ग मील के सूक्ष्म रेशों से भरे कुंए को रिक्त करने में लगा समय, यदि वह प्रत्येक रेशे को प्रति सौ वर्ष में उठाती है।
यह इकाई भगवान आदिनाथ के अवतरण के समय की है। यथार्थ में यह 100,000,000,000,000 पाल्य पहले था।

वर्तमान तिथि
हम वर्तमान में वर्तमान ब्रह्मा के इक्यावनवें वर्ष में सातवें मनु, वैवस्वत मनु के शासन में श्वेतवाराह कल्प के द्वितीय परार्ध में, अठ्ठाईसवें कलियुग के प्रथम वर्ष के प्रथम दिवस में विक्रम संवत २०६४ में हैं। इस प्रकार अबतक पंद्रह शंख पचास खरब वर्ष इस ब्रह्मा को सॄजित हुए हो गये हैं।
वर्तमान कलियुग दिनाँक 17 फरवरी / 18 फरवरी को 3102 ई.पू. में हुआ था, ग्रेगोरियन कैलेण्डर के अनुसार।
लम्बाई की इकाइयाँ
पृथ्वी की लम्बाई हेतु सर्वाधिक प्रयोगित इकाई है योजन । धार्मिक विद्वान भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद द्वारा उनके पौराणिक अनुवादों में सभी स्थानों पर योजन की लम्बाई को 8 मील (13 कि.मी.) बताया गया है. [२] . अधिकांश भारतीय विद्वान इसका माप 13 कि.मी. से 16 कि.मी. (8-10 मील) के लगभग बताते हैं.
छोटी इकाइयां
इसकी अन्य इकाइयां इस प्रकार हैं:

हिन्दू हस्त परिमाण- अंगुष्ठ से विभिन्न अंगुलियों की दूरियां
• 8 यव = 1 अंगुल
• 1 अंगुल = 16 मिमी से 21 मिमी (mm)
• 4 अंगुल = एक धनु ग्रह = 62 मिमी से 83 मिमी;
• 8 अंगुल = एक धनु मुष्टि (अंगुष्ठ उठा के) = 125 mm से 167 mm ;
• 12 अंगुल = 1 वितस्ति (अंगुष्ठ के सिरे से पूरे हाथ को खोल कर कनिष्ठिका अंगुली के सिरे तक की दूरी) = 188 mm से 250 mm
• 2 वितस्ति = 1 अरत्नि (हस्त) = 375 mm से 500 mm
• 4 अरति = 1 दण्ड = 1.5 से 2.0 m
• 2 दण्ड = 1 धनु = 3 से 4 m
• 5 धनु = 1 रज्जु = 15 m से 20 m
• 2 रज्जु = 1 परिदेश = 30 m से 40 m
• 100 परिदेश = 1 क्रोश या कोस (या गोरत) = 3 किमी (km) से 4 किमी
• 4 कोस या कोश = 1 योजन = 13 km से 16 km
• 1,000 योजन = 1 महायोजन = 13,000 Km से 16,000 Km
रजलोक
एक रजलोक होता है - एक देवता द्वारा 2,057,152 योजन प्रति समय की गति से छः मास में तय की दूरी। यह लगभग 2,047,540,985,856,000 किलोमीटर या 216.5 प्रकाश वर्ष) के बराबर होगी। इसे १००० भार की लौह गेंद को छः मास मुक्त गति से स्वर्ग, इंद्र के गृह से गिराया जाये, तो उससे तय हुई दूरी के बराबर भी माना जा सकता है।
• 7 रज्जु = 1 जगश्रेणी
क्षेत्रफ़ल की इकाइयां
बीघा
एक बीघा बराबर है:
• 2500 वर्ग मीटर (राजस्थान) में
• 1333.33 वर्ग मीटर (बंगाल)में
• 14,400 वर्ग फ़ीट (1337.8 m²) या 5 कथा (आसाम) में, एक कथा = 2,880 वर्ग फ़ीट (267.56 m²).
• एक कठ्ठा= 720 वर्ग फ़ीट
नेपाल में
• 1 बीघा = 20 कठ्ठा (लगभग 2,603.7 m²)

• 1 आना= 4 पैसा (लगभग 31.80 m²)
• 1 पैसा= 4 दाम (7.95 m²)

भार की इकाइयाँ

रत्ती
एक रत्ती भारतीय पारंपरिक भार मापन इकाई है, जिसे अब 0.12125 ग्राम पर मानकीकृत किया गया है।यह रत्ती के बीज के भार के बराबर होता था।
• 1 तोला = 12 माशा = 11.67 ग्राम (यह तोला के बीज के भार के बराबर्होता था, जो कि कुछ स्थानों पर जरा बदल जाता था)[३]
• 1 माशा = 8 रत्ती = 0.97 ग्राम
• 1 धरनी = 2.3325 किलोग्राम (लगभग 5.142 पाउण्ड) = 12 पाव (यह नेपाल में प्रयोग होती थी)।
• १ सेर = १ लीटर = 1.06 क्वार्ट (इसे सन १८७१ में यथार्थ १ लीटर मानकीकृत किया गया था, जो कि बाद में अप्रचलित हो गयी थी)
• १ पंसेरी = 4.677 kg (10.3 पाउण्ड) = पांच सेर
• १ सेर = ८० तोला चावल का भार

BHARAT DARSHAN

भारतीय दर्शन
भारतीय मनीषियों के उर्वर मस्तिष्क से जिस कर्म, ज्ञान और भक्तिमय त्रिपथगा का प्रवाह उद्भूत हुआ, उसने दूर-दूर के मानवों के आध्यात्मिक कल्मष को धोकर उन्हेंने पवित्र, नित्य-शुद्ध-बुद्ध और सदा स्वच्छ बनाकर मानवता के विकास में योगदान दिया है। इसी पतितपावनी धारा को लोग दर्शन के नाम से पुकारते हैं। अन्वेषकों का विचार है कि इस शब्द का वर्तमान अर्थ में सबसे पहला प्रयोग वैशेषिक दर्शन में हुआ।
अनुक्रम
• १ ‘दर्शन’ शब्द का अर्थ
• २ भारतीय दर्शन का प्रतिपाद्य विषय
• ३ दर्शन की विकास यात्रा
• ४ दर्शन का महत्त्व
• ५ भारतीय दर्शन का स्त्रोत
• ६ अवैदिक दर्शनों का विकास
• ७ वैदिक दर्शन परंपरा
o ७.१ वैदिक दर्शनों का संक्षिप्त परिचय
 ७.१.१ न्याय दर्शन
 ७.१.२ वैशेषिक दर्शन
 ७.१.३ सांख्य दर्शन
 ७.१.४ योग दर्शन
 ७.१.५ मीमांसा दर्शन
 ७.१.६ वेदांत दर्शन
• ८ शैव और शाक्त संप्रदाय
• ९ बाहरी कड़ियाँ

‘दर्शन’ शब्द का अर्थ
दर्शन शब्द पाणिनीय व्याकरणनुसार दृशिर् प्रेक्षणे धातु से ल्युट् प्रत्यय करने से निष्पन्न होता है। अतएव दर्शन शब्द का अर्थ दृष्टि या देखना, ‘जिसके द्वारा देखा जाय’ या ‘जिसमें देखा जाय’ होगा। दर्शन शब्द का शब्दार्थ केवल देखना या सामान्य देखना ही नहीं है। इसीलिए पाणिनी ने धात्वर्थ में ‘प्रेक्षण’ शब्द का प्रयोग किया है। प्रकृष्ट ईक्षण, जिसमें अन्तश्चक्षुओं द्वारा देखना या मनन करके सोपपत्तिक निष्कर्ष निकालना ही दर्शन का अभिधेय है। इस प्रकार के प्रकृष्ट ईक्षण के साधन और फल दोनों का नाम दर्शन है। जहाँ पर इन सिद्धान्तों का संकलन हो, उन ग्रन्थों का भी नाम दर्शन ही होगा, जैसे-न्याय दर्शन, वैशेषिक दर्शन मामांसा दर्शन आदि-आदि।
दर्शन ग्रन्थों को दर्शन शास्त्र भी कहते हैं। यह शास्त्र शब्द ‘शासु अनुशिष्टौ’ से निष्पन्न होने के कारण दर्शन का अनुशासन या उपदेश करने के कारण ही दर्शन-शास्त्र कहलाने का अधिकारी है। दर्शन अर्थात् साक्षात्कृत धर्मा ऋषियों के उपदेशक ग्रन्थों का नाम ही दर्शन शास्त्र है।
भारतीय दर्शन का प्रतिपाद्य विषय
दर्शनों का उपदेश वैयक्तिक जीवन के सम्मार्जन और परिष्करण के लिए ही अधिक उपयोगी है। आध्यात्मिक पवित्रता एवं उन्नयन, बिना दर्शनों को होना दुर्लभ है। दर्शन-शास्त्र ही हमें प्रमाण और तर्क के सहारे अन्धकार में दीपज्योति प्रदान करके हमारा मार्ग-दर्शन करने में समर्थ होता है। गीता के अनुसार किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिता: संसार में करणीय क्या है और अकरणीय क्या है ? इस विषय में विद्वान भी अच्छी तरह नहीं जान पाते। परम लक्ष्य एवं पुरुषार्थ की प्राप्ति दार्शनिक ज्ञान से ही संभव है, अन्यथा नहीं।
दर्शन द्वारा विषयों को हम संक्षेप में दो वर्गों में रख सकते हैं। लौकिक और अलौकिक अथवा भौतिक और आध्यात्मिक। दर्शन या तो विस्तृत सृष्टि प्रपंच के विषय में सिद्धान्त या आत्मा के विषय में हमसे चर्चा करता है। इस प्रकार दर्शन के विषय जड़ और चेतन दोनों ही हैं। प्राचीन ऋग्वैदिक काल से ही दर्शनों के मूल तत्त्वों के विषय में कुछ न कुछ संकेत हमारे आर्ष साहित्य में मिलते हैं।
दर्शन की विकास यात्रा
वेदों में जो आधार तत्त्व बीज रूप में बिखरे दिखाई पड़ते थे, वे ब्राह्मणों में आकर कुछ उभरे; परन्तु वहाँ कर्मकाण्ड की लताओं के प्रतानों में फँसकर बहुत अधिक नहीं बढ़ पाये। आरण्यकों में ये अंकुरित होकर उपनिषदों में खूब पल्लवित हुए। दर्शनों का विकास जो हमें उपनिषदों में हमें दृष्टिगोचर होता है, आलोचकों ने उसका श्रीगणेश लगभग दौ सौ वर्ष ईसा पूर्व स्थिर किया है। महात्मा बुद्ध से यह प्राचीन हैं। इतना ही नहीं विद्वानों ने सांख्य, योग और मीमांसा को भी बुद्ध से प्राचीन माना है। संभव है कि ये दर्शन वर्तमान रूप में उस समय न हों, तथापि वे किसी रूप में अवश्य विद्यमान थे। वैशेषिकदर्शन भी शायद बुद्ध से प्राचीन ही है; क्योंकि जैसा आज के युग में न्याय और वैशेषिक समान तन्त्र समझे जाते हैं, उसी प्रकार पहले पूर्व मीमांस और वैशेषिक समझे जाते थे। बुद्ध दर्शन पद्धति का आविर्भाव ईसा से पूर्व दो सौ वर्ष माना जाता है, परन्तु जैन दर्शन, बुद्ध दर्शन से भी प्राचीन ठहरता है। इसकी पुष्टि में यह प्रमाण दिया जाता है कि प्राचीन जैन दर्शनों में न तो बुद्ध दर्शन और न किसी हिन्दू दर्शन का ही खण्डन उपलब्ध होता है। महावीर स्वामी, जो जैन सम्प्रदाय के प्रवर्तक माने जाते हैं, वे भी बुद्ध से प्राचीन थे। अतएव जैन दर्शन का बुद्ध दर्शन से प्राचीन होना युक्तियुक्त अनुमान है।
भारतीय दर्शनों का ऐतिहासिक क्रम निश्चित करना कठिन है। इन सब भिन्न-भिन्न दर्शनों का लगभग साथ ही साथ समान रूप से प्रादुर्भाव एवं विकास हुआ है। इधर-उधर तथा बीच में भी कई कड़ियाँ छिन्न-भिन्न हो गई हैं। अत: जो कुछ शेष है, उसी का आधार लेकर चलना है। इस क्रम में शुद्ध ऐतिहासिकता न होने पर भी क्रमिक विकास की श्रृंखला आदि से अन्त तक चलती रही है। इसलिए प्राय: विद्वानों ने इसी क्रम का अनुसरण किया है।
दर्शन का महत्त्व
तत्त्वों के अन्वेषण की प्रवृत्ति भारतवर्ष में उस सुदूर काल से है, जिसे हम ‘वैदिक युग’ के नाम से पुकारते हैं। ऋग्वेद के अत्यन्त प्राचीन युग से ही भारतीय विचारों में द्विविध प्रवृत्ति और द्विविध लक्ष्य के दर्शन हमें होते हैं। प्रथम प्रवृत्ति प्रतिभा या प्रज्ञामूलक है तथा द्वितीय प्रवृत्ति तर्कमूलक है। प्रज्ञा के बल से ही पहली प्रवृत्ति तत्त्वों के विवेचन में कृतकार्य होती है और दूसरी प्रवृत्ति तर्क के सहारे तत्त्वों के समीक्षण में समर्थ होती है। अंग्रेजी शब्दों में पहली की हम ‘इन्टयूशनिस्टिक’ कह सकते हैं और दूसरी को रैशनलिस्टिक। लक्ष्य भी आरम्भ से ही दो प्रकार के थे-धर्म का उपार्जन तथा ब्रह्म का साक्षात्कार।
प्रज्ञामूलक और तर्क-मूलक प्रवृत्तियों के परस्पर सम्मिलन से आत्मा के औपनिषदिष्ठ तत्त्वज्ञान का स्फुट आविर्भाव हुआ। उपनिषदों के ज्ञान का पर्यवसान आत्मा और परमात्मा के एकीकरण को सिद्ध करने वाले प्रतिभामूलक वेदान्त में हुआ।
भारतीय दर्शन का स्त्रोत
भारतीय दर्शन का आरंभ वेदों से होता है। "वेद" भारतीय धर्म, दर्शन, संस्कृति, साहित्य आदि सभी के मूल स्त्रोत हैं। आज भी धार्मिक और सांस्कृतिक कृत्यों के अवसर पर वेद-मंत्रों का गायन होता है। अनेक दर्शन-संप्रदाय वेदों को अपना आधार और प्रमाण मानते हैं। आधुनिक अर्थ में वेदों को हम दर्शन के ग्रंथ नहीं कह सकते। वे प्राचीन भारतवासियों के संगीतमय काव्य के संकलन है। उनमें उस समय के भारतीय जीवन के अनेक विषयों का समावेश है। वेदों के इन गीतों में अनेक प्रकार के दार्शनिक विचार भी मिलते हैं। चिंतन के इन्हीं बीजों से उत्तरकालीन दर्शनों की वनराजियाँ विकसित हुई हैं। अधिकांश भारतीय दर्शन वेदों को अपना आदिस्त्रोत मानते हैं। ये "आस्तिक दर्शन" कहलाते हैं। प्रसिद्ध षड्दर्शन इन्हीं के अंतर्गत हैं। जो दर्शनसंप्रदाय अपने को वैदिक परंपरा से स्वतंत्र मानते हैं वे भी कुछ सीमा तक वैदिक विचारधाराओं से प्रभावित हैं।
वेदों का रचनाकाल बहुत विवादग्रस्त है। प्राय: पश्चिमी विद्वानों ने ऋग्वेद का रचनाकाल 1500 ई.पू. से लेकर 2500 ई.पू. तक माना है। इसके विपरीत भारतीय विद्वान् ज्योतिष आदि के प्रमाणों द्वारा ऋग्वेद का समय 3000 ई.पू. से लेकर 75000 वर्ष ई.पू. तक मानते हैं। इतिहास की विदित गतियों के आधार पर इन प्राचीन रचनाओं के समय का अनुमान करना कठिन है। प्राचीन काल में इतने विशाल और समृद्ध साहित्य के विकास में हजारों वर्ष लगे होंगे, इसमें कोई संदेह नहीं। उपलब्ध वैदिक साहित्य संपूर्ण वैदिक साहित्य का एक छोटा सा अंश है। प्राचीन युग में रचित समस्त साहित्य संकलित भी नहीं हो सका होगा और संकलित साहित्य का बहुत सा भाग आक्रमणकारियों ने नष्ट कर दिया होगा। वास्तविक वैदिक साहित्य का विस्तार इतना अधिक था कि उसके रचनाकाल की कल्पना करना कठिन है। निस्संदेह वह बहुत प्राचीन रहा होगा। वेदों के संबंध में यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि कुरान और बाइबिल की भाँति "वेद" किसी एक ग्रंथ का नाम नहीं है और न वे किसी एक मनुष्य की रचनाएँ हैं। "वेद" एक संपूर्ण साहित्य है जिसकी विशाल परंपरा है और जिसमें अनेक ग्रंथ सम्मिलित हैं। धार्मिक परंपरा में वेदों को नित्य, अपौरुषेय और ईश्वरीय माना जाता है। ऐतिहासिक दृष्टिकोण से हम उन्हें ऋषियों की रचना मान सकते हैं। वेदमंत्रों के रचनेवाले ऋषि अनेक हैं।
वैदिक साहित्य का विकास चार चरणों में हुआ है। ये संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद् कहलाते हैं। मंत्रों और स्तुतियों के संग्रह को "संहिता" कहते हैं। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद मंत्रों की संहिताएँ ही हैं। इनकी भी अनेक शाखाएँ हैं। इन संहिताओं के मंत्र यज्ञ के अवसर पर देवताओं की स्तुति के लिए गाए जाते थे। आज भी धार्मिक और सांस्कृतिक कृत्यों के अवसर पर इनका गायन होता है। इन वेदमंत्रों में इंद्र, अग्नि, वरुण, सूर्य, सोम, उषा आदि देवताओं की संगीतमय स्तुतियाँ सुरक्षित हैं। यज्ञ और देवोपासना ही वैदिक धर्म का मूल रूप था। वेदों की भावना उत्तरकालीन दर्शनों के समान संन्यासप्रधन नहीं है। वेदमंत्रों में जीवन के प्रति आस्था तथा जीवन का उल्लास ओतप्रोत है। जगत् की असत्यता का वेदमंत्रों में आभास नहीं है। ऋग्वेद में लौकिक मूल्यों का पर्याप्त मान है। वैदिक ऋषि देवताओं से अन्न, धन, संतान, स्वास्थ्य, दीर्घायु, विजय आदि की अभ्यर्थना करते हैं।
वेदों के मंत्र प्राचीन भारतीयों के संगीतमय लोककाव्य के उत्तम उदाहरण हैं। ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद् ग्रंथों में गद्य की प्रधानता है, यद्यपि उनका यह गद्य भी लययुक्त है। ब्राह्मण ग्रंथों में यज्ञों की विधि, उनके प्रयोजन, फल आदि का विवेचन है। आरण्यकग्रंथों में आध्यात्मिकता की ओर झुकाव दिखाई देता है। जैसा कि इस नाम से ही विदित होता है, ये वानप्रस्थों के उपयोग के ग्रंथ हैं। उपनिषदों में आध्यात्मिक चिंतन की प्रधानता है। चारों वेदों की मंत्रसंहिताओं के ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद् अलग अलग मिलते हैं। शतपथ, तांडय आदि ब्राह्मण प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण हैं। ऐतरेय, तैत्तिरीय आदि के नाम से आरण्यक और उपनिषद् दोनों मिलते हैं। इनके अतिरिक्त ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुंडक, मांडूक्य आदि प्राचीन उपनिषद् भारतीय चिंतन के आदिस्त्रोत हैं।
उपनिषदों का दर्शन आध्यात्मिक है। ब्रह्म की साधना ही उपनिषदों का मुख्य लक्ष्य है। ब्रह्म को आत्मा भी कहते हैं। "आत्मा" विषयजगत्, शरीर, इंद्रियों, मन, बुद्धि आदि सभी अवगम्य तत्वों स परे एक अनिर्वचनीय और अतींद्रिय तत्व है, जो चित्स्वरूप, अनंत और आनंदमय है। सभी परिच्छेदों से परे होने के कारण वह अनंत है। अपरिच्छन्न और एक होने के कारण आत्मा भेदमूलक जगत् में मनुष्यों के बीच आंतरिक अभेद और अद्वैत का आधार बन सकता है। आत्मा ही मनुष्य का वास्तविक स्वरूप है। उसका साक्षात्कार करके मनुष्य मन के समस्त बंधनों से मुक्त हो जाता है। अद्वैतभाव की पूर्णता के लिए आत्मा अथवा ब्रह्म से जड़ जगत् की उत्पत्ति कैसे होती है, इसकी व्याख्या के लिए माया की अनिर्वचनीय शक्ति की कल्पना की गई है। किंतु सृष्टिवाद की अपेक्षा आत्मिक अद्वैतभाव उपनिषदों के वेदांत का अधिक महत्वपूर्ण पक्ष है। यही अद्वैतभाव भारतीय संस्कृति में ओतप्रोत है। दर्शन के क्षेत्र में उपनिषदों का यह ब्रह्मवाद आदि शंकराचार्य, रामानुजाचार्य आदि के उत्तरकालीन वेदांत मतों का आधार बना। वेदों का अंतिम भाग होने के कारण उपनिषदों को "वेदांत" भी कहते हैं। उपनिषदों का अभिमत ही आगे चलकर वेदांत का सिद्धांत और संप्रदायों का आधार बन गया। उपनिषदों की शैली सरल और गंभीर है। अनुभव के गंभीर तत्व अत्यंत सरल भाषा में उपनिषदों में व्यक्त हुए हैं। उनको समझने के लिए अनुभव का प्रकाश अपेक्षित है। ब्रह्म का अनुभव ही उपनिषदों का लक्ष्य है। वह अपनी साधना से ही प्राप्त होता है। गुरु का संपर्क उसमें अधिक सहायक होता है। तप, आचार आदि साधना की भूमिका बनाते हैं। कर्म आत्मिक अनुभव का साधक नहीं है। कर्म प्रधान वैदिक धर्म से उपनिषदों का यह मतभेद है। संन्यास, वैराग्य, योग, तप, त्याग आदि को उपनिषदों में बहुत महत्व दिया गया है। इनमें श्रमण परंपरा के कठोर संन्यासवाद की प्रेरणा का स्रोत दिखाई देता है। तपोवादी जैन और बौद्ध मत तथा गीता का कर्मयोग उपनिषदों की आध्यात्मिक भूमि में ही अंकुरित हुए हैं।
अवैदिक दर्शनों का विकास
उपनिषदों के अध्यात्मवाद तथा तपोवाद में ही वैदिक कर्मकांड के विरुद्ध एक प्रतिक्रिया ने एक प्रकट क्रांति का रूप ग्रहण कर लिया। जैन धर्म का आरंभ बौद्ध धर्म से पहले हुआ। महावीर स्वामी के पूर्व 23 जैन तीर्थकर हो चुके थे। महावीर स्वमी ने जैन धर्म का प्रचार किया। बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध उनके समकालीन थे। दोनों का समय ई.पू. छठी शताब्दी माना जाता है। इन्होंने वेदों से स्वतंत्र एक नवीन धार्मिक परंपरा का प्रवर्तन किया। वेदों को न मानने के कारण जैन और बौद्ध दर्शनों को "नास्तिक दर्शन" भी कहते हैं। इनका मौलिक साहित्य क्रमश: महावीर और बुद्ध के उपदेशों के रूप मे है जो क्रमश: प्राकृत और पालि की लोकभाषाओं में मिलता है तथा जिसका संग्रह इन महापुरुषों के निर्वाण के बाद कई संगीतियों में उनके अनुयायियों के परामर्श के द्वारा हुआ। बुद्ध और महावीर दोनों हिमालय प्रदेश के राजकुमार थे। युवावय में ही संन्यास लेकर उन्होने अपने धर्मो का उपदेश और प्रचार किया। उनका यह सन्यास उपनिषदों की परंपरा से प्रेरित है। जैन और बौद्ध धर्मों में तप और त्याग की महिमा भी उपनिषदों के दशर्न के अनुकूल है। अहिंसा और आचार की महत्ता तथा जातिभेद का खंडन इन धर्मों की विशेषता है। अहिंसा के बीज भी उपनिषदों में विद्यमान हैं। फिर भी अहिंसा की ध्वजा को धर्म के आकाश में फहराने का श्रेय जैन और बौद्ध संप्रदायों को देना होगा।
जैन दर्शन
महावीर स्वामी के उपदेशों से लेकर जैन धर्म की परंपरा आज तक चल रही है। महावीर स्वामी के उपदेश 41 सूत्रों में संकलित हैं, जो जैनागमों में मिलते हैं। उमास्वाति का "तत्वार्थाधिगम सूत्र" (300 ई.) जैन दर्शन का प्राचीन और प्रामाणिक शास्त्र है। सिद्धसेन दिवाकर (500 ई.), हरिभद्र (900 ई.), मेरुतुंग (14वीं शताब्दी), आदि जैन दर्शन के प्रसिद्ध आचार्य हैं। सिद्धांत की दृष्टि से जैन दर्शन एक ओर अध्यात्मवादी तथा दसरी ओर भौतिकवादी है। वह आत्मा और पुद्गल (भौतिक तत्व) दोनों को मानता है। जैन मत में आत्मा प्रकाश के समान व्यापक और विस्तारशील है। पुनर्जन्म में नवीन शरीर के अनुसार आत्मा का संकोच और विस्तार होता है। स्वरूप से वह चैतन्य स्वरूप और आनंदमय है। वह मन और इंद्रियों के माध्यम के बिना परोक्ष विषयों के ज्ञान में समर्थ है। इस अलौकिक ज्ञान के तीन रूप हैं - अवधिज्ञान, मन:पर्याय और केवलज्ञान। पूर्ण ज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं। यह निर्वाण की अवस्था में प्राप्त हाता है। यह सब प्रकार से वस्तुओं के समस्त धर्मों का ज्ञान है। यही ज्ञान "प्रमाण" है। किसी अपेक्षा से वस्तु के एक धर्म का ज्ञान "नय" कहलाता है। "नय" कई प्रकार के होते हैं। ज्ञान की सापेक्षता जैन दर्शन का सिद्धांत है। यह सापेक्षता मानवीय विचारों में उदारता और सहिष्णुता को संभव बनाती है। सभी विचार और विश्वास आंशिक सत्य के अधिकारी बन जाते हैं। पूर्ण सत्य का आग्रह अनुचित है। वह निर्वाण में ही प्राप्त हो सकता है। निर्वाण अत्मा का कैवल्य है। कर्म के प्रभाव से पुद्गल की गति आत्मा के प्रकाश को आच्छादित करती है। यह "आस्रव" कहलाता है। यही आत्मा का बंधन है। तप, त्याग, और सदाचार से इस गति का अवरोध "संवर" तथा संचित कर्मपुद्गल का क्षय "निर्जरा" कहलाता है। इसका अंत "निर्वाण" में होता है। निर्वाण में आत्मा का अनंत ज्ञान और अनंत आनंद प्रकाशित होता है।
बौद्ध दर्शन
बुद्ध के उपदेश तीन पिटकों में संकलित हैं। ये सुत्त पिटक, विनय पिटक और अभिधम्म पिटक कहलाते हैं। ये पिटक बौद्ध धर्म के आगम हैं। क्रियाशील सत्य की धारणा बौद्ध मत की मौलिक विशेषता है। उपनिषदों का ब्रह्म अचल और अपरिवर्तनशील है। बुद्ध के अनुसार परिवर्तन ही सत्य है। पश्चिमी दर्शन में हैराक्लाइटस और बर्गसाँ ने भी परिवर्तन को सत्य माना। इस परिवर्तन का कोई अपरिवर्तनीय आधार भी नहीं है। बाह्य और आंतरिक जगत् में कोई ध्रुव सत्य नहीं है। बाह्य पदार्थ "स्वलक्षणों" के संघात हैं। आत्मा भी मनोभावों और विज्ञानों की धारा है। इस प्रकार बौद्धमत में उपनिषदों के आत्मवाद का खंडन करके "अनात्मवाद" की स्थापना की गई है। फिर भी बौद्धमत में कर्म और पुनर्जन्म मान्य हैं। आत्मा का न मानने पर भी बौद्धधर्म करुणा से ओतप्रोत हैं। दु:ख से द्रवित होकर ही बुद्ध ने संन्यास लिया और दु:ख के निरोध का उपाय खोजा। अविद्या, तृष्णा आदि में दु:ख का कारण खोजकर उन्होंने इनके उच्छेद को निर्वाण का मार्ग बताया।
अनात्मवादी होने के कारण बौद्ध धर्म का वेदांत से विरोध हुआ। इस विरोध का फल यह हुआ कि बौद्ध धर्म को भारत से निर्वासित होना पड़ा। किंतु एशिया के पूर्वी देशों में उसका प्रचार हुआ। बुद्ध के अनुयायियों में मतभेद के कारण कई संप्रदाय बन गए। जैन संप्रदाय वेदांत के समान ध्यानवादी है। इसका चीन में प्रचार है।
सिद्धांतभेद के अनुसार बौद्ध परंपरा में चार दर्शन प्रसिद्ध हैं। इनमें वैभाषिक और सौत्रांतिक मत हीनयान परंपरा में हैं। यह दक्षिणी बौद्धमत हैं। इसका प्रचार भी लंका में है। योगाचार और माध्यमिक मत महायान परंपरा में हैं। यह उत्तरी बौद्धमत है। इन चारों दर्शनों का उदय ईसा की आरंभिक शब्ताब्दियों में हुआ। इसी समय वैदिक परंपरा में षड्दर्शनों का उदय हुआ। इस प्रकार भारतीय पंरपरा में दर्शन संप्रदायों का आविर्भाव लगभग एक ही साथ हुआ है तथा उनका विकास परस्पर विरोध के द्वारा हुआ है। पश्चिमी दर्शनों की भाँति ये दर्शन पूर्वापर क्रम में उदित नहीं हुए हैं।
वसुबंधु (400 ई.), कुमारलात (200 ई.) मैत्रेय (300 ई.) और नागार्जुन (200 ई.) इन दर्शनों के प्रमुख आचार्य थे। वैभाषिक मत बाह्य वस्तुओं की सत्ता तथा स्वलक्षणों के रूप में उनका प्रत्यक्ष मानता है। अत: उसे बाह्य प्रत्यक्षवाद अथवा "सर्वास्तित्ववाद" कहते हैं। सैत्रांतिक मत के अनुसार पदार्थों का प्रत्यक्ष नहीं, अनुमान होता है। अत: उसे बाह्यानुमेयवाद कहते हैं। योगाचार मत के अनुसार बाह्य पदार्थों की सत्ता नहीं। हमे जो कुछ दिखाई देता है वह विज्ञान मात्र है। योगाचार मत विज्ञानवाद कहलाता है। माध्यमिक मत के अनुसार विज्ञान भी सत्य नहीं है। सब कुछ शून्य है। शून्य का अर्थ निरस्वभाव, नि:स्वरूप अथवा अनिर्वचनीय है। शून्यवाद का यह शून्य वेदांत के ब्रह्म के बहुत निकट आ जाता है।
चार्वाक दर्शन
वेदविरोधी होने के कारण नास्तिक संप्रदायों में चार्वाक मत का भी नाम लिया जाता है। भौतिकवादी होने के कारण यह आदर न पा सका। इसका इतिहास और साहित्य भी उपलब्ध नहीं है। "बृहस्पति सूत्र" के नाम से एक चार्वाक ग्रंथ के उद्धरण अन्य दर्शन ग्रंथों में मिलते हैं। चार्वाक मत एक प्रकार का यथार्थवाद और भौतिकवाद है। इसके अनुसार एक प्रत्यक्ष ही प्रमाण है। अनुमान और आगम संदिग्ध होते हैं। प्रत्यक्ष पर आश्रित भौतिक जगत् ही सत्य है। आत्मा, ईश्वर, स्वर्ग आदि सब कल्पित हैं। भूतों के संयोग से देह में चेतना उत्पन्न होती है। देह के साथ मरण में उसका अंत हो जाता है। आत्मा नित्य नहीं है। उसका पुनर्जन्म नहीं होता। जीवनकाल में यथासंभव सुख की साधना करना ही जीवन का लक्ष्य होना चाहिए।
वैदिक दर्शन परंपरा
उपनिषद काल में एक ओर बौद्ध और जैन धर्मों की अवैदिक परंपराओं का आविर्भाव हुआ तथा दूसरी ओर वैदिक दर्शनों का उदय हुआ। ईसा के जन्म के पूर्व और बाद की एक दो शताब्दियों में अनेक दर्शनों की समानांतर धाराएँ भारतीय विचारभूमि पर प्रवाहित होने लगीं। बौद्ध और जैन दर्शनों की धाराएँ भी इनमें सम्मिलित हैं। वैदिक दर्शनों में षड्दर्शन अधिक प्रसिद्ध हैं। गीतादर्शन भी इनका समकालीन है। गीता का कर्मयोग उपनिषदों के ब्रह्मवाद के बाद एक महत्वपूर्ण मौलिक दर्शन है। सभी वैदिक दर्शनों ने कर्मयोग का महत्व स्वीकार किया है। व्यावहारिक होने के कारण उसे प्रतिनिधि भारतीय जीवनदर्शन कहा जा सकता है। गीता के कर्मयोग में अध्यात्म और जीवन का अद्भुद समन्वय हुआ है। ऐतिहासिक दृष्टि से यह वैदिक कर्मकांड और उपनिषदों के ब्रह्मवाद का समन्वय है। अध्यात्म और कर्म का यह समन्वय अत्यंत महत्वपूर्ण है। उपनिषदों के वेदांत तथा बौद्ध और जैन धर्म के संन्यासवाद के प्रभाव स भारतीय जनता में विरक्ति और निवृत्ति का प्रभाव इतना बढ़ रहा था कि समाज के लिए घातक बन जाता। ऐसी स्थिति में गीता ने कर्मयोग का संदेश देकर देश को एक संजीवन मंत्र प्रदान किया। अध्यात्म को स्वीकार कर गीता ने सन्यास को एक नई परिभाषा दी। "सन्यास" का सामान्य अर्थ "त्याग" है। किंतु इस त्याग में प्राय: भ्रांति हो जाती है। भोजन, शयन आदि प्राकृतिक कर्मों का त्याग किया जा सकता है। काम्य कर्मों का भी त्याग संभव है। यही गीता का संन्यास है। फल की कामना त्याग कर लोक संभव है। यही गीता का सन्यास है। फल की कामना त्याग कर लोक संग्रह के लिए निष्काम कर्म करना जीवन का आदर्श है। यही मोक्ष का साधन है। गीता का यह निष्काम कर्मयोग अधिकांश भारतीय दर्शनों ने अपनाया है। ज्ञानयोग उसका आध्यात्मिक आधार है और भक्तियोग उसका भावात्मक दर्शन है।
गीता के कर्मयोग के अतिरिक्त वैदिक दर्शनों में षड्दर्शन प्रसिद्ध हैं। ये सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा और वेदांत के नाम से विदित है। इनके प्रणेता कपिल, पतंजलि, गौतम, कणाद, जैमिनि के बादरायण थे। ईसा के जन्म के आसपास इन दर्शनों का उदय माना जाता है। इनके आरंभिक संकेत उपनिषदों में भी मिलते हैं। प्रत्येक दर्शन का आधारग्रंथ एक दर्शनसूत्र है। "सूत्र" भारतीय दर्शन की एक अद्भुत शैली है। गिने-चुने शब्दों में सिद्धांत के सार का संकेत सूत्रों में रहता है। संक्षिप्त होने के कारण सूत्रों पर विस्तृत भाष्य और अनेक टीकाओं की रचना हुई। भारतीय दर्शन की यह शैली स्वतंत्र दर्शनग्रंथों की पश्चिमी शैली से भिन्न है। गुरु-शिष्य-परंपरा के अनुकूल दर्शन की शिक्षा और रचना इसका आधार है। यह परंपरा षड्दर्शनों के बाद नवीन दर्शनों के उदय में बाधक रही। व्याख्याओं के प्रसंग में कुछ नवीनता और मतभेद के कारण मुख्य दर्शनों में उपभेद अवश्य पैदा हो गए।
प्रमाणविचार, सृष्टिमीमांसा और मोक्षसाधना षड्दर्शनों के सामान्य विषय हैं। ये छ: दर्शन किसी न किसी रूप में आत्मा को मानते हैं। आत्मा की प्राप्ति ही मोक्ष है। पुनर्जन्म, आचार, योग आदि को भी ये मानते हैं। न्याय, योग आदि कुछ दर्शन ईश्वर में विश्वास करते हैं। सांख्य और मीमांसा दर्शन निरीश्वरवादी हैं। प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द ये चार प्रमाण सामान्यत: सभी दर्शनों को मान्य हैं। मीमांसा मत में अर्थापत्ति और अनुपलब्धि ये दो प्रमाण और माने जाते हैं।
उपनिषन्मूलक होने के कारण इनमें वेदांतदर्शन सबसे अधिक प्राचीन है। किंतु ब्रह्मसूत्र में अन्य दर्शनों का खंडन है तथा उसका प्राचीनतम भाष्य आदि शंकराचार्य का है (8 वीं शताब्दी)। अन्य दर्शन सूत्रों के भाष्य ईसा की आरंभिक शताब्दियों में रचे गए। सांख्यसूत्र संभवत: लुप्त हो गया। ईश्वरकृष्ण (5वीं शताब्दी) की "सांख्यकारिका" सांख्य दर्शन का प्रामाणिक ग्रंथ है। सांख्य दर्शन निरीश्वरवादी द्वैतवाद है। इसके अनुसार प्रकृति और पुरुष दो स्वतंत्र और सनातन सत्ताएँ हैं। "प्रकृति" जड़ है और जगत् का सूक्ष्म कारण् है। वह सत्व, रजस्, और तमस् इन तीन गुणों की साम्यावस्था का नाम प्रकृति है। प्रकृति के साथ पुरुष का संपर्क होने से सर्ग का आरंभ होता है। सर्ग पुरुष का बंधन है। तत्वज्ञान से मोक्ष होता है। अपने शुद्ध चेतन कर्तृत्व भोक्तृत्व रहित स्वरूप के ज्ञान से पुरुष मुक्त होता है।
योग दर्शन के सिद्धांत सांख्य के समान हैं। योगसूत्र पर रचित भाष्य और टीकाएँ योगदर्शन की विस्तृत परंपरा का आधार हैं। योगदर्शन का मुख्य लक्ष्य समाधि के मार्ग को प्रशस्त करना है। समाधि में चित्त की समस्त वृत्तियों का निरोध हो जाता है। अभ्यास, वैराग्य और ध्यान योग के मुख्य साधन हैं। ईश्वर को भी ध्यान का लक्ष्य बनाया जा सकता है इतना ही योगदर्शन में ईश्वर का महत्व है। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि के आठ अंगों से युक्त अष्टांगयोग योग का सर्वजन सुलभ मार्ग है।
न्याय-वैशेषिक प्रमाणप्रधान दर्शन हैं। न्याय एक प्रकार का भारतीय तर्कशास्त्र है। न्यायसूत्र पर अनेक प्रसिद्ध टीकाएँ हैं। गंगेश उपाध्याय (12वीं शताब्दी) की "तत्वचिंतामणि" से नवद्वीप में नव्य न्याय की परंपरा का आरंभ हुआ। न्यायदर्शन के पहले ही सूत्र में 16 पदार्थों का उल्लेख है। इनके द्वारा तत्वज्ञान होता है जो नि:श्रेयस अथवा मोक्ष का साधन है। प्रमाणों को विशेष विस्तार न्यायदर्शन में मिलता है। ईश्वरभक्ति को न्याय में मोक्ष का साधन माना गया है। वैशेषिक दर्शन एक प्रकार से न्याय का समान तंत्र है। विशेष अथवा परमाणु उसका मुख्य विषय है। परमाणु सृष्टि का मूल उपादान कारण है। ईश्वर को न्याय-वैशेषिक-दशर्न सृष्टि का निमित्त कारण मानते हैं। वैशेषिक दर्शन में संपूर्ण सत्ता को सात पदार्थों में विभाजित किया गया है - द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव। न्याय के 16 पदार्थों की अपेक्षा अधिक संगत होने के कारण यही विभाजन आगे चलकर अधिक मान्य हुआ तथा न्याय-वैशेषिक-दर्शन की उस संयुक्त परंपरा का आधार बना जिसका प्रतिनिधित्व "न्यायमुक्तावली" आदि अर्वाचीन ग्रंथ करते हैं।
षड्दर्शनों में अंतिम दो दर्शनों को "मीमांसा" कहा जाता है। ये पूर्वमींमांसा और उत्तरमीमांसा कहलाती हैं। अन्य दर्शनों की अपेक्षा इनका वेदों से अधिक घनिष्ठ संबंध है। एक प्रकार से ये वैदिक दर्शन की व्याख्याएँ हैं। पूर्वमीमांसा, मंत्रसंहिता और ब्राह्मणों के कर्मकांड की व्याख्या है। उत्तरमीमांसा उपनिषदों के अध्यात्मदर्शन का तार्किक विवेचन है। वेदों का अंतिम भाग होने के कारण उपनिषदों को "वेदांत" कहते हैं। उत्तर मीमांसा का नाम भी "वेदांत" है। इन दोनों मीमांसाओं के सिद्धांतों का आधार वेदों में है, किंतु व्यवस्थित दर्शनों के रूप में इनका आरंभ अन्य दर्शनों के साथ साथ ही ईसा के जन्म के आसपास हुआ। इसीलिए इनकी गणना षड्दर्शनों में की जाती है। दोनों मीमांसाओं के इतिहास के तीन चरण हैं। तीनों ही चरणों में इनका विकास एक ही पूर्वोत्तर क्रम में हुआ। वैदिक युग में वेदों के पूर्वभाग (संहिता, ब्राह्मण) में कर्मकांड का विधान हुआ। वेदों के उत्तर भाग (उपनिषदों) में अध्यात्म की प्रतिष्ठा हुई। ईसा की आरंभिक शताब्दी में जैमिनि और बादरायण के "मीमांसासूत्र" तथा "ब्रह्मसूत्र" भी संभवत: इसी क्रम में रचे गए। ईसा की सातवीं शताब्दी में कुमारिल भट्ट और शंकराचार्य ने इसी पूर्वापर क्रम में पूर्व और उत्तरमीमांसाओं का उद्धार एवं प्रचार किया।
अनात्मवादी होने के कारण बौद्धदर्शन का आत्मवादी वैदिक दर्शन से विरोध है। वैदिक धर्म के विरुद्ध क्रांति के रूप में ही ईसवी पूर्व छठी शताब्दी में बौद्ध धर्म का उदय हुआ था। अनेक कारणों से ईसा की छठी शताब्दी में बौद्ध धर्म का ह्रास होने लगा। उसी समय कुमारिल और शंकराचार्य ने वैदिक धर्म के दोनों पक्षों की प्रतिष्ठा की। इनके बाद पार्थसारथि मिश्र (14वीं शताब्दी) तथा माधवचार्य (14वीं शताब्दी) न पूर्वमीमांसा दर्शन का विस्तार किया। माधवाचार्य विजयनगर के राजा वुक्का के मंत्री थे। बाद में संन्यास लेकर विद्यारण्य के नाम से श्रृंगेरी पीठ के शंकराचार्य पद पर आसीन हुए और "पंचदशी" नामक प्रद्धि वेदांत ग्रंथ की रचना की। वेदांतमत की प्रतिष्ठा के लिए शंकराचार्य ने देश के चारों कोनों पर जिन चार पीठों की स्थापना की उनमें श्रृंगेरी पीठ दक्षिण में नीलगिरि पर्वत पर स्थित है। अन्य तीन पीठ पुरी, बदरिकाश्रम और द्वारका में हैं। शंकराचार्य ने उपनिषदों, ब्रह्मसूत्र और गीता पर भाष्यों की रचना की। शंकराचार्य के बाद वाचस्पति मिश्र (9वीं शताब्दी), श्री हर्ष (12वं शताब्दी) आदि आचार्यों ने वेदांत परंपरा का विस्तार किया।
पूर्वमीमांसा का मुख्य लक्ष्य वैदिक कर्मकांड की व्यवस्था करना है। इसके अनुसार वेदमंत्रों का मुख्य अर्थ विधि अथवा कर्म के आदेश में है। जिन मंत्रों में विधिवाचक क्रिया नहं है वे "अर्थवाद" हैं तथा देवताओं आदि की प्ररोचना करते हैं। यदि यज्ञादि कर्म से एक दिव्य शक्ति उत्पन्न होती है जिसे "अपूर्व" कहते हैं। यही अपूर्व कर्मफल का नियामक है। पूर्वमीमांसा में ईश्वर मान्य नहीं है। वेद नित्य और अपौरुषेय हैं। नित्य शब्द का कल्प कल्प में यथापूर्व स्फोट होता है और अपूर्व की शक्ति से यथापूर्व सृष्टि की उत्पत्ति होती है। पूर्वमीमांसा की आत्मा वैशेषिक के समान चेतनातीत है। न्याय दर्शन के चर प्रमाणों के अतिरिक्त अर्थापत्ति और अनुपलब्धि दो प्रमाण और मीमांसा दर्शन में माने जाते हैं।
उत्तर मीमांसा वेदों के उत्तर भाग (उपनिषदों) पर आश्रित है। उपनिषद् वेदों के अंतिम भाग हैं, अत: वे वेदांत कहलाते हैं। उत्तर मीमांसा का अधिक प्रसिद्ध नाम "वेदांत" ही है। ब्रह्मसूत्र और उपनिषदों की व्याख्याओं के द्वारा वेदांत का विस्तार हुआ है। अनेक आचार्यों ने भिन्न भिन्न दृष्टिकोण से ब्रह्मसूत्रों और उपनिषदों की व्याख्या की है। आचार्यों के विभिन्न मतों के आधार पर वेदांत के अनेक संप्रदाय बन गए। ये अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, द्वैत आदि के नाम से प्रसिद्ध हैं। वेदांत के ये संप्रदाय सांख्य आदि की भाँति दार्शनिक नहीं हैं; इन सभी संप्रदायों के धार्मिक पीठ देश के विभिन्न स्थानों में प्रतिष्ठित हैं। इन पीठों की आचार्य-परंपरा आज तक अक्षुण्ण चली आ रही है।
वेदांत के इन अनेक संप्रदायों में शंकराचार्य का अद्वैतमत सबसे प्राचीन है। यह संभवत: सबसे अधिक प्रतिष्ठित भी है। शंकराचार्य का अद्वैतवाद उपनिषदों पर आश्रित है। उनके अनुसार ब्रह्म ही एक मात्र सत्य है। जगत् का विक्षेप और जीव के ब्रह्मभाव का आवरण करती है। अज्ञान का निवारण होने पर जीव को अपने ब्रह्मभाव का साक्षात्कार होता है। यही मोक्ष है। ब्रह्म सच्चिदानंद है। ब्रह्म की सत्ता और चेतना तथा उसका आनंद अनंत है। जागृत, स्वप्न और सुषुप्त की अवस्थाओं से परे तथा बाह्य और आंतरिक विषयों से अतीत अनुभव में ब्रह्म का प्रकाश होता है। विषयातीत होने के कारण ब्रह्म अनिर्वचनीय है। संख्यातीत होने के कारण उसे "अद्वैत" कहा जाता है। त्याग और प्रेम के व्यवहारों में यह अद्वैत भाव विभासित होता है। समाधि में इसका आंतरिक साक्षात्कार होता है। अद्वैत भाव को सिद्ध करने के लिए ब्रह्म को जगत् का कारण माना गया है। ब्रह्म को जगत् का उपादान कारण मानकर दोनों का अद्वैत सिद्ध हो जाता है। उपादान के परिणाम की आशंका को विवर्तवाद के द्वारा दूर किया गया है। विवर्तकारण अविकार्य होता है। उसका कार्य मिथ्या होता है जैसे रज्जु में सर्प का भ्रम। रज्जु सर्प और स्वप्न प्रातिभासिक सत्य हैं। जगत् व्यावहारिक सत्य है। मोक्ष पर्यंत वह मान्य है। ब्रह्म ही पारमार्थिक सत्य है जो मोक्ष में शेष रह जाता है। माया से युक्त ब्रह्म "ईश्वर" कहलाता है। वह सृष्टि का कर्ता है किंतु वह पारमार्थिक सत्य नहीं है। ब्रह्मानुभव का साधन ज्ञान है। कर्म के साध्य शाश्वत नहीं होते। "ब्रह्म" कर्म के द्वारा साध्य नहीं है। कर्म और भक्ति मोक्ष के सहकारी कारण हैं। श्रवण, मनन और निदिध्यासन मोक्षसाधना के तीन चरण हैं। मोक्ष में आत्मा समस्त बंधनों से मुक्त हो जाती है और अनंत आनंद से आप्लावित रहती है। यह मोक्ष जीवनकाल में प्राप्य है तथा जीवन के व्यवहार से इसकी पूर्ण संगति है।
शंकराचार्य के लगभग 300 वर्ष बाद 11वीं शताब्दी में रामानुजाचार्य ने ब्रह्मसूत्रों की नवीन व्याख्या के आधार पर विशिष्टाद्वैत मत की स्थापना की। रामानुजकृत "श्रीभाष्य" के आधार पर यह श्रीसंप्रदाय कहलाता है। रामानुज शंकर के मायावाद को नहीं मानते। उनके अनुसार जीव, जगत् और ब्रह्म तीनों पारमार्थिक सत्य हैं। जगत् ब्रह्म का विवर्त नहीं वरन् ब्रह्म की वास्तविक रचना है। ब्रह्म और ईश्वर एक दूसरे के पर्याय हैं। जीव ब्रह्म का अंश है। मोक्ष में जगत् का विलय नहीं होता और जीव का स्वतंत्र अस्तित्व बना रहता है। ब्रह्म निर्विशेष और निर्गुण नहीं वरन् सविशेष्य और सगुण है। ब्रह्म ही स्वतंत्र सत्ता है। जीव और जगत् उसके अपृथक्सिद्ध विशेषण हैं। ब्रह्म से पृथक् उनका अस्तित्व संभव नहीं है। अत: रामानुज का मत भी अद्वैत ही है। जीव और जगत् के विशेषणों से युक्त ब्रह्म का इनके सथ विशिष्ट अद्वैतभाव है। ब्रह्म इनका अंतर्यामी स्वामी है। रामानुज के मत में भक्ति मोक्ष का मुख्य साधन है। भगवान् के गुणों का ज्ञान भक्ति का प्रेरक है। साधारण जन और शूद्रों के लिए प्रपत्ति अर्थात् शरणागति सर्वोत्तम मार्ग हैं।
रामानुज के कुछ वर्ष बाद 11वीं शताब्दी में ही निंबार्काचार्य ने द्वैताद्र्वत मत की प्रतिष्ठा की। ब्रह्मसूत्रों पर "वेदांत-पारिजात-सौरभ" नाम से उनका भाष्य इस मत का आधार है। रामानुज के समान निंबार्क भी जीव और जगत् को सत्य तथा ब्रह्म का आश्रित मानते हैं। रामानुज के मत में अद्वैत प्रधान है। निंबार्क मत में द्वैत का अनुरोध अधिक है। रामानुज के अनुसार जीव और ब्रह्म में स्वरूपगत साम्य है, उनकी शक्ति में भेद हैं। निंबार्क के मत में उनमें स्वरूपगत भेद है। निंबार्क के अद्वैत का आधार जीव की ब्रह्म पर निर्भरता है। निंबार्क का ब्रह्म सगुण ईश्वर है। कृष्ण के रूप में उसकी भक्ति ही मोक्ष का परम मार्ग है। यह भक्ति भगवान् के अनुग्रह से प्राप्त होती है। भक्ति से भगवान् का साक्षात्कार होता है। यही मोक्ष है। रामानुज और निंबार्क दोनो के मत में विदेह मुक्ति ही मान्य है।
निंबार्क के बाद 13वीं शताब्दी में मध्वाचार्य ने द्वैत मत का प्रतिपादन किया। वे पूर्णप्रज्ञ तथा आनंदतीर्थ के नाम से भी प्रसिद्ध हैं। उन्होंने शंकराचार्य के अद्वैत और निंबार्क के द्वैताद्वैत का खंडन करके द्वैतवाद की स्थापना की है। उनके अनुसार भेद और अभेद दोनों की एकत्र स्थति संभव नहीं है। शंकराचार्य का मायावाद भी उन्हें मान्य नहीं है। जगत् मिथ्या नहीं यथार्थ है। सत् और असत् से भिन्न माया की तीसरी अनिर्वचनीय कोटि संभव नहीं है। ईश्वर, जीव और जगत् तीनों एक दूसरे से भिन्न हैं। भेद के पाँच प्रकार हैं। ईश्वरजीव, ईश्वर-जगत्, जीव-जगत्, जीव-जीव और जड़ पदार्थों में परस्पर भेद है। ईश्वर जगत् का उपादान कारण नहीं, निमित्त कारण है। उपादान करण प्रकृति है। ईश्वर उसका नियामक है। ईश्वर की भक्ति के द्वारा मोक्ष प्राप्त होता है। मुक्त जीवों में परस्पर भेद रहता है। वे ईश्वर से भिन्न रहकर अपनी सामथ्र्य के अनुसार ईश्वर की विभूति में भाग लेते हैं।
15वीं शताब्दी में वल्लभाचार्य ने शुद्धाद्वैत मत का प्रचार किया। इस मत का आधार "ब्रह्मसूत्रों" पर लिखित वल्लभाचार्य का "अणुभाष्य" है। वे माया से अलिप्त शुद्ध ब्रह्म का अद्वैत भाव मानते हैं। यह ब्रह्म निर्गुण नहीं, सगुण है तथा माया के संबंध से रहित है। ब्रह्म अपनी अनंत शक्ति से जगतृ के रूप में व्यक्त होता है। चित् और आनंद का तिरोधान होने के कारण जगत् में केवल सत् रूप से ब्रह्म की अभिव्यक्ति होती है। जीव और ब्रह्म स्वरूप से एक हैं। अग्नि के स्फुर्लिगों की भांति जीव ब्रह्म का अंश है, विशेषण नहीं। इस प्रकार सर्वत्र अद्वैत है, कहीं भी द्वैत नहीं। मर्यादा और पुष्टि दो प्रकार की भक्ति मोक्ष का साधन हैं।
16वीं शताब्दी में चैतन्य महाप्रभु ने "अचिंत्य भेदाभेद" का प्रवर्तन किया। उनके शिष्य रूप गोस्वामी ने गौडीय वैष्णव संप्रदाय का प्रतिष्ठापन किया। इनके अनुसार भगवान् की शक्ति अचिंत्य है। वह विरोधी गुणों का समन्वय कर सकती है। भेदाभेद का चिंतन न करके मोक्ष की साधना करना ही जीवन का धर्म है। मोक्ष का अर्थ भगवान् की प्रीति का निरंतर अनुभव है।
इस प्रकार वैदिक युग के उत्तरकाल में उपनिषदों में जिस वेदांत का उदय हुआ उसका नवीन उत्थान सातवीं शताब्दी से लेकर 16वीं शताब्दी तक अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, द्वैत, शुद्धाद्वैत आदि संप्रदायों के रूप में हुआ। उपनिषदों का वेदांत पश्चिमी और उत्तरीय भारत की देन है। अद्वैत आदि संप्रदायों का उदय दक्षिण से हुआ। इनके प्रवर्तक दक्षिण देशों के निवासी थे। चैतन्य का मत बंगाल से उदित हुआ। किंतु इन सभी संप्रदायों ने वृदांवन आदि उत्तरी स्थानों में अपने पीठ बनाए। शंकराचार्य ने देश के चारों कोनों पर पीठ स्थापित किए। उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम सभी प्रदेशों के लोग इन संप्रदायों में सम्मिलित हुए। सिद्धांत में भिन्न होते हुए भी वेदांत के ये विभिन्न संप्रदाय भारतवर्ष की आंतरिक एकता के सूत्र बने।

वैदिक दर्शनों का संक्षिप्त परिचय
न्याय दर्शन
महर्षि गौतम रचित इस दर्शन में पदार्थों के तत्वज्ञान से मोक्ष प्राçप्त का वर्णन है। पदार्थों के तत्वज्ञान से मिथ्या ज्ञान की निवृत्ति होती है। फिर अशुभ कर्मो में प्रवृत्त न होना, मोह से मुक्ति एवं दुखों से निवृत्ति होती है। इसमें परमात्मा को सृष्टिकर्ता, निराकार, सर्वव्यापक और जीवात्मा को शरीर से अलग एवं प्रकृति को अचेतन तथा सृष्टि का उपादान कारण माना गया है और स्पष्ट रूप से त्रैतवाद का प्रतिपादन किया गया है। इसके अलावा इसमें न्याय की परिभाषा के अनुसार न्याय करने की पद्धति तथा उसमें जय-पराजय के कारणों का स्पष्ट निर्देश दिया गया है।
वैशेषिक दर्शन
महर्षि कणाद रचित इस दर्शन में धर्म के सच्चे स्वरूप का वर्णन किया गया है। इसमें सांसारिक उन्नति तथा निश्श्रेय सिद्धि के साधन को धर्म माना गया है। अत: मानव के कल्याण हेतु धर्म का अनुष्ठान करना परमावश्यक होता है। इस दर्शन में द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य विशेष और समवाय इन छ: पदाथों के साधम्र्य तथा वैधम्र्य के तत्वाधान से मोक्ष प्राप्ति मानी जाती है। साधम्र्य तथा वैधम्र्य ज्ञान की एक विशेष पद्धति है, जिसको जाने बिना भ्रांतियों का निराकरण करना संभव नहीं है। इसके अनुसार चार पैर होने से गाय-भैंस एक नहीं हो सकते। उसी प्रकार जीव और ब्रह्म दोनों ही चेतन हैं। किंतु इस साधम्र्य से दोनों एक नहीं हो सकते। साथ ही यह दर्शन वेदों को, ईश्वरोक्त होने को परम प्रमाण मानता है।
सांख्य दर्शन
इस दर्शन के रचयिता महर्षि कपिल हैं। इसमें सत्कार्यवाद के आधार पर इस सृष्टि का उपादान कारण प्रकृति को माना गया है। इसका प्रमुख सिद्धांत है कि अभाव से भाव या असत से सत की उत्पत्ति कदापि संभव नहीं है। सत कारणों से ही सत कार्यो की उत्पत्ति हो सकती है। सांख्य दर्शन प्रकृति से सृष्टि रचना और संहार के क्रम को विशेष रूप से मानता है। साथ ही इसमें प्रकृति के परम सूक्ष्म कारण तथा उसके सहित ख्ब् कार्य पदाथों का स्पष्ट वर्णन किया गया है। पुरुष ख्भ् वां तत्व माना गया है, जो प्रकृति का विकार नहीं है। इस प्रकार प्रकृति समस्त कार्य पदाथो का कारण तो है, परंतु प्रकृति का कारण कोई नहीं है, क्योंकि उसकी शाश्वत सत्ता है। पुरुष चेतन तत्व है, तो प्रकृति अचेतन। पुरुष प्रकृति का भोक्ता है, जबकि प्रकृति स्वयं भोक्ती नहीं है।
योग दर्शन
इस दर्शन के रचयिता महर्षि पतंजलि हैं। इसमें ईश्वर, जीवात्मा और प्रकृति का स्पष्ट रूप से वर्णन किया गया है। इसके अलावा योग क्या है, जीव के बंधन का कारण क्या है? चित्त की वृत्तियां कौन सी हैं? इसके नियंत्रण के क्या उपाय हैं इत्यादि यौगिक क्रियाओं का विस्तृत वर्णन किया गया है। इस सिद्धांत के अनुसार परमात्मा का ध्यान आंतरिक होता है। जब तक हमारी इंद्रियां बहिüगामी हैं, तब तक ध्यान कदापि संभव नहीं है। इसके अनुसार परमात्मा के मुख्य नाम ओ३म् का जाप न करके अन्य नामों से परमात्मा की स्तुति और उपासना अपूर्ण ही है।
मीमांसा दर्शन
इस दर्शन में वैदिक यज्ञों में मंत्रों का विनियोग तथा यज्ञों की प्रक्रियाओं का वर्णन किया गया है। इस दर्शन के रचयिता महर्षि जैमिनि हैं। यदि योग दर्शन अंत: करण शुçद्ध का उपाय बताता है, तो मीमांसा दर्शन मानव के पारिवारिक जीवन से राष्ट्रीय जीवन तक के कत्तüव्यों और अकत्तüव्यों का वर्णन करता है, जिससे समस्त राष्ट्र की उन्नति हो सके। जिस प्रकार संपूर्ण कर्मकांड मंत्रों के विनियोग पर आधारित हैं, उसी प्रकार मीमांसा दर्शन भी मंत्रों के विनियोग और उसके विधान का समर्थन करता है। धर्म के लिए महर्षि जैमिनि ने वेद को भी परम प्रमाण माना है। उनके अनुसार यज्ञों में मंत्रों के विनियोग, श्रुति, वाक्य, प्रकरण, स्थान एवं समाख्या को मौलिक आधार माना जाता है।
वेदांत दर्शन
वेदांत का अर्थ है वेदों का अंतिम सिद्धांत। महर्षि व्यास द्वारा रचित इस दर्शन को ब्रह्म सूत्र अथवा उत्तर मीमांसा भी कहते हैं। इस दर्शन के अनुसार ब्रह्म जगत का कर्ता-धर्ता व संहार कर्ता होने से जगत का निमित्त कारण है। उपादान अथवा अभिन्न कारण नहीं। ब्रह्म सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, आनंदमय, नित्य, अनादि, अनंतादि गुण विशिष्ट शाश्वत सत्ता है। साथ ही जन्म मरण आदि क्लेशों से रहित और निराकार भी है। इस दर्शन के प्रथम सूत्र `अथातो ब्रह्म जिज्ञासा´ से ही स्पष्ट होता है कि जिसे जानने की इच्छा है, वह ब्रह्म से भिन्न है, अन्यथा स्वयं को ही जानने की इच्छा कैसे हो सकती है। और यह सर्वविदित है कि जीवात्मा हमेशा से ही अपने दुखों से मुक्ति का उपाय करती रही है। परंतु ब्रह्म का गुण इससे भिन्न है।
शैव और शाक्त संप्रदाय
वैदिक और अवैदिक दर्शनों के अतिरिक्त भारतीय दर्शन परंपरा में एक तीसरी धारा शैव तथा शाक्त संप्रदायों की प्रवाहित होती रही है। कुछ रहस्यमय साधना के रूप में होने के कारण यह वैदिक और अवैदिक धाराओं के संगम में कुछ सरस्वती के समान गुप्त रही है। किंतु प्रत्यक्ष उपासना के रूप में भी शिव की मान्यता बहुत है। प्राचीन ऐतिहासिक खोजों से शिव की प्राचीनता प्रमाणित होती है। गाँव गाँव में शिव के मंदिर हैं। प्रति सप्ताह और प्रति पक्ष में शिव का व्रत होता है। महादेव पार्वती का दिव्य दांपत्य भारतीय परिवारों में आदर्श के रूप से पूजित होता है। ऋग्वेद और यजुर्वेद के रुद्र के रूप में शिव का वर्णन है। किंतु प्राय: शिव को अवैदिक लोकदेवता माना जाता है। दक्ष के यज्ञघ्वंस के प्रसंग के द्वारा शिव की अवैदिकता का समर्थन किया जाता है पौराणिक युग में भी त्रिदेवों की तुलना के प्रसंग में विरोध के आभास मिलते हैं। किंतु आगे चलकर शिव एक अत्यंत लोकप्रिय देवता बन गए। शैव संप्रदाय प्राय: गुप्त तंत्रों के रूप में रहे हैं। उनका बहुत कम साहित्य प्रकाशित है। प्रकाशित साहित्य भी प्रतीकात्मक होने के कारण दुरूह है। शैव परंपरा के अनेक संप्रदाय हैं। इनमें शैव, पाशुपत, वीरशैव, कालामुख, कापालिक, काश्मीर शैव मत तथा दक्षिणी मत अधिक प्रसिद्ध हैं। इन्हें शैव परंपरा के षड्दर्शन कह सकते हैं। शैव सिद्धात का प्रचार दक्षिण में तमिल देश में है। इसका आधार आगम ग्रंथों में है। 14वीं शताब्दी में नीलकंठ ने "ब्रह्मसूत्रों" पर शैवभाष्य की रचना कर वेदांत परंपरा के साथ शैवमत का समन्वय किया। पाशुपत मत नकुलीश पाशुपत के नाम से प्रसिद्ध है। पाशुपत सूत्र इस संप्रदाय का मूल ग्रंथ है। कालामुख और कापालिक संप्रदाय कुछ भयंकर और रहस्यमय रहे हैं। काश्मीर शैव मत अद्वैत वेदांत के समान है। तांत्रिक होते हुए भी इनका दार्शनिक साहित्य विपुल है। इसकी स्पंद और प्रत्यभिज्ञा दो शाखाएँ हैं। एक का आधार वसुगुप्त की स्पंदकारिका और दूसरी का आधार उनके शिष्य सोमानंद (9वीं शती) का "प्रत्यभिज्ञाशास्त्र" है। जीव और परमेश्वर का अद्वैत दोनों शाखाओं में मान्य है। परमेश्वर "शिव" वेदांत के ब्रह्म के ही समान हैं। वीरशैव मत दक्षिण देशों से प्रचलित है। इनके अनुयायी शिवलिंग धारण करते हैं। अत: इन्हें "लिंगायत" भी कहते हैं। 12वीं शताब्दी में वसव ने इस मत का प्रचार किया। वीरशैव मत एक प्रकार का विशिष्टाद्वैत है। शक्ति विशिष्ट विश्व को परम तत्व मानने के कारण इसे शक्ति विशिष्टाद्वैत कह सकते हैं। उत्तर और दक्षिण में प्रचलित शैव संप्रदाय भी उत्तर वेदांत संप्रदायों की भाँति भारत की धार्मिक एकता के सूत्र हैं। कैलास से रामेश्वरम् तक पूजित शिव भारतीय एकता के मंगल देवता है। दोनों की यात्राओं के द्वारा भारतीय एकता का व्यावहारिक अनुष्ठान होता है।
शक्तिपूजा का स्त्रोत संभवत: प्राचीन भारत के मातृतंत्र में है। भारतीय परिवारों में देवी की महिमा बहुत है। स्त्रियों के नाम में प्राय: उत्तरपद के रूप में "देवी" शब्द का प्रयोग होता है। शक्ति के अनेक रूप हैं। लक्ष्मी, सरस्वती, पार्वती काली, आदि के रूप में देवी की उपासना होती है। "शक्ति" इच्छारूप है। शिवसूत्र में इच्छाशक्ति को उमा कुमारी का रूप दिया है (इच्छा शक्ति: उमा कुमारी)। पर तत्व के चिन्मय रूप में इच्छाशक्ति का समन्वय शक्ति दर्शन का एक महत्वपूर्ण पक्ष है

वैदिक आरती

वैदिक आरती


ॐ ये देवासो दिव्येकादश स्थ पृथिव्यामध्येकादश स्थ।
अप्सुक्षितो महिनैकादश स्थ ते देवासो यज्ञमिमं जुषध्वम्।।


ॐ आ रात्रि पार्थिवाँ रज: पितुरप्रायि धामभि:।
दिव: सदाँसि बृहती वितिष्ठिस आ त्वेषं वर्तते तम:।।


ॐ इदाँ हवि: प्रजननं मे अस्तु दशवीराँ सर्वगण स्वस्तये।
आत्मसनि प्रजासनि पशुसनि लोकसन्यभयसनि।
अग्निः प्रजां बहुलां मे करोत्वन्नं पयो रेतो अस्मासु धत्त।।

Saturday, May 14, 2011

history

महत्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्य (प्राचीन भारतीय इतिहास)

·                     महात्मा गौतम बुध्द को शाक्यमुनि एवं तथागत के नाम से भी जाना जाता है.
·                     गौतम बुध्द का जन्म " लुम्बनी " में तथा परिनिर्माण " कुशीनगर " में हुआ था.
·                     बौध्ध साहित्यों की भाषा मुख्यतः पाली थी.
·                     गौतम बुध्द का प्रथम उपदेश "धर्मचक्रप्रवर्तन" कहलाता है.
·                     मध्य एशिया और चीन में बौध्ध धर्म के प्रचार का श्रेय " कनिष्क " को जाता है.
·                     जैन धर्म में वर्णित त्रिरत्न  १) सम्यक श्रध्दा  २) सम्यक ज्ञान  ३) सम्यक आचरण
·                     जैन धर्म ग्रन्थ प्राकृत भाषा में  लिखे गये है.
·                     हर्यंक वंश का संथापक "बिम्बिसार" बुध्द का समकालीन था.
·                     अजातशत्रु के शासनकाल में 483 ई.पू. प्रथम बौध्ध संगीति का आयोजन किया गया.
·                     पाटलीपुत्र  नगर की स्थापना हर्यंक वंश के शासक उदयन ने की थी.
·                     द्रविड़ वैष्णव भक्त अलवार कहलाते है.
·                     सिकंदर के आक्रमण के समय भारत का शासक "धनानंद" था.
·                     मौर्य वंश का संस्थापक चन्द्रगुप्त मौर्य ने भारत में प्रथम अखिल भारतीय राज्य की स्थापना की.
·                     जूनागढ़ स्थित "सुदर्शन झील" का निर्माण चन्द्रगुप्त मौर्य ने किया था.
·                     अशोक ने राज्याभिषेक के 8वे वर्ष में कलिंग युध्द (261ई.पू.) से द्रवित होकर बौध्द धर्म स्वीकार कर लिया.
·                     मौर्य शासक अशोक को बौध्द धर्म से दीक्षित करने वाला भिक्षु "उपगुप्त" था.
·                     अशोक के अधिकांश शिलालेखों की लिपि  " ब्राम्ही " है जबकि कुछ खरोष्ठी लिपि में है.
·                     अजंता की गुफाएं (महाराष्ट्र) बौध्द और जैन धर्म से भी सम्बंधित है.
·                     गुप्त वंश का संस्थापक " श्रीगुप्त " था जिसके सबसे प्रतापी राजा समुद्रगुप्त को भारत का नेपोलियन कहते है.
·                     समुद्रगुप्त के दरबारी कवि हरिषेण ने उनकी सफलताओं का वर्णन इलाहबाद प्रशस्ति में किया है.
·                     आयुर्वेद का विद्वान एवं चिकित्सक " धन्वन्तरी " चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के दरबार में था.
·                     नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना कुमारगुप्त ने की थी. नालंदा को 12वी सदी में  मुहम्मद गौरी के सेनापति बख्तियार खिलजी ने नष्ट कर दिया था.
·                     पाल वंश का शासक गोपाल (750ई.) था इसी वंश के धर्मपाल ने " विक्रमशिला विश्वविद्यालय (भागलपुर, बिहार) " की स्थापना की थी.
·                     चालुक्य वंश के पुलकेशिन-II ने हर्षवर्धन को नर्मदा के तट पर पराजित किया जिसका उल्लेख एहोल प्रशस्ति में है.
·                     चोल वंश के शासक राजराज-I ने तंजौर (तमिलनाडु) में वृहदेश्वर मंदिर का निर्माण किया. 
·                     महाबलीपुरम के रथ मंदिर का निर्माण " नरसिंहवर्मन-I " ने किया था.

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महत्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्य (प्राचीन भारतीय इतिहास)

·                     महात्मा गौतम बुध्द को शाक्यमुनि एवं तथागत के नाम से भी जाना जाता है.
·                     गौतम बुध्द का जन्म " लुम्बनी " में तथा परिनिर्माण " कुशीनगर " में हुआ था.
·                     बौध्ध साहित्यों की भाषा मुख्यतः पाली थी.
·                     गौतम बुध्द का प्रथम उपदेश "धर्मचक्रप्रवर्तन" कहलाता है.
·                     मध्य एशिया और चीन में बौध्ध धर्म के प्रचार का श्रेय " कनिष्क " को जाता है.
·                     जैन धर्म में वर्णित त्रिरत्न  १) सम्यक श्रध्दा  २) सम्यक ज्ञान  ३) सम्यक आचरण
·                     जैन धर्म ग्रन्थ प्राकृत भाषा में  लिखे गये है.
·                     हर्यंक वंश का संथापक "बिम्बिसार" बुध्द का समकालीन था.
·                     अजातशत्रु के शासनकाल में 483 ई.पू. प्रथम बौध्ध संगीति का आयोजन किया गया.
·                     पाटलीपुत्र  नगर की स्थापना हर्यंक वंश के शासक उदयन ने की थी.
·                     द्रविड़ वैष्णव भक्त अलवार कहलाते है.
·                     सिकंदर के आक्रमण के समय भारत का शासक "धनानंद" था.
·                     मौर्य वंश का संस्थापक चन्द्रगुप्त मौर्य ने भारत में प्रथम अखिल भारतीय राज्य की स्थापना की.
·                     जूनागढ़ स्थित "सुदर्शन झील" का निर्माण चन्द्रगुप्त मौर्य ने किया था.
·                     अशोक ने राज्याभिषेक के 8वे वर्ष में कलिंग युध्द (261ई.पू.) से द्रवित होकर बौध्द धर्म स्वीकार कर लिया.
·                     मौर्य शासक अशोक को बौध्द धर्म से दीक्षित करने वाला भिक्षु "उपगुप्त" था.
·                     अशोक के अधिकांश शिलालेखों की लिपि  " ब्राम्ही " है जबकि कुछ खरोष्ठी लिपि में है.
·                     अजंता की गुफाएं (महाराष्ट्र) बौध्द और जैन धर्म से भी सम्बंधित है.
·                     गुप्त वंश का संस्थापक " श्रीगुप्त " था जिसके सबसे प्रतापी राजा समुद्रगुप्त को भारत का नेपोलियन कहते है.
·                     समुद्रगुप्त के दरबारी कवि हरिषेण ने उनकी सफलताओं का वर्णन इलाहबाद प्रशस्ति में किया है.
·                     आयुर्वेद का विद्वान एवं चिकित्सक " धन्वन्तरी " चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के दरबार में था.
·                     नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना कुमारगुप्त ने की थी. नालंदा को 12वी सदी में  मुहम्मद गौरी के सेनापति बख्तियार खिलजी ने नष्ट कर दिया था.
·                     पाल वंश का शासक गोपाल (750ई.) था इसी वंश के धर्मपाल ने " विक्रमशिला विश्वविद्यालय (भागलपुर, बिहार) " की स्थापना की थी.
·                     चालुक्य वंश के पुलकेशिन-II ने हर्षवर्धन को नर्मदा के तट पर पराजित किया जिसका उल्लेख एहोल प्रशस्ति में है.
·                     चोल वंश के शासक राजराज-I ने तंजौर (तमिलनाडु) में वृहदेश्वर मंदिर का निर्माण किया. 
·                     महाबलीपुरम के रथ मंदिर का निर्माण " नरसिंहवर्मन-I " ने किया था.