Sunday, July 31, 2011

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वैदिक गणित के सोलह सूत्र एवं उपसूत्र

जगद्गुरु भारती कृष्ण तीर्थ जी द्वारा प्रतिपादित वैदिक गणित के 16 सूत्र एवं 13 उपसूत्र

16 सूत्र
1. एकाधिकेन पूर्वेण - पहले से एक अधिक के द्वारा
2. निखिलं नवतश्चरमं दशत: - सभी नौ में से तथा अन्तिम दस में से
3. उध्र्वतिर्यक् भ्याम् - सीधे और तिरछे दोनों विधियों से
4. परावत्र्य योजयेत् - विपरीत उपयोग करें।
5. शून्यं साम्यसमुच्चये - समुच्चय समान होने पर शून्य होता है।
6. आनुररूप्ये शून्यमन्यत् - अनुरूपता होने पर दूसरा शून्य होता है।
7. संकलनव्यवकलनाभ्याम् - जोड़कर और घटाकर
8. पूरणापूराणाभ्याम् - पूरा करने और विपरीत क्रिया द्वारा
9. चलनकलनाभ्याम् - चलन-कलन की क्रियाओं द्वारा
10. यावदूनम् - जितना कम है।
11. व्यष्टिसमिष्ट: - एक को पूर्ण और पूर्ण को एक मानते हुए।
12. शेषाण्यङ्केन चरमेण - - अंतिम अंक के सभी शेषों को।
13. सोपान्त्यद्वयमन्त्यम् - अंतिम और उपान्तिम का दुगुना।
14. एकन्यूनेन पूर्वेण - पहले से एक कम के द्वारा।
15. गुणितसमुच्चय: - गुणितों का समुच्चय।
16. गुणकसमुच्चय: - गुणकों का समुच्चय।

उपसूत्र 
1. आनुरूप्येण - अनुरूपता के द्वारा।
2. शिष्यते शेषसंज्ञ: - बचे हुए को शेष कहते हैं।
3. आद्यमाद्येनान्त्यमन्त्येन - - पहले को पहले से, अंतिम को अंतिम से।
4. केवलै: सप्तकं गुम्यात् - "क", "व", "ल" से 7 गुणा करें।
5. वेष्टनम् - भाजकता परीक्षण की एक विशिष्ट क्रिया का नाम।
6. यावदूनं तावदूनम् - जितना कम उतना और कम।
7. यावदूनं तावदूनीकृत्य वर्ग च योजयेत्
8. अन्त्ययोर्दशकेऽपि
9. अन्त्ययोरेव
10. समुच्चयगुणित:
11. लोपनस्थापनाभ्याम्
12. विलोकनम्
13. गुणितसमुच्चय: समुच्चयगुणित:
 
 

गणित शास्त्र-२ : जब विश्व १०,००० जानता था, तब भारत ने अनंत खोजा

लेखक -सुरेश सोनी
संस्कृत का एकं हिन्दी में एक हुआ, अरबी व ग्रीक में बदल कर ‘वन‘ हुआ। शून्य अरबी में सिफर हुआ, ग्रीक में जीफर और अंग्रेजी में जीरो हो गया। इस प्रकार भारतीय अंक दुनिया में छाये।

अंक गणित- अंकों का क्रम से विवेचन यजुर्वेद में मिलता है - सविता प्रथमेऽहन्नग्नि र्द्वितीये वायुस्तृतीयऽआदिचतुर्थे चन्द्रमा: पञ्चमऽऋतु:षष्ठे मरूत: सप्तमे बृहस्पतिरष्टमे। मित्रो नवमे वरुणो दशमंऽइन्द्र एकादशे विश्वेदेवा द्वादशे। (यजुर्वेद-३९-६)। इसमें विशेषता है अंक एक से बारह तक क्रम से दिए हैं।

गणना की दृष्टि से प्राचीन ग्रीकों को ज्ञात सबसे बड़ी संख्या मीरीयड थी, जिसका माप १०४ यानी १०,००० था। और रोमनों को ज्ञात सबसे बड़ी संख्या मिली थी, जिसकी माप १०३ यानी १००० थी। जबकि भारतवर्ष में कई प्रकार की गणनाएं प्रचलित थीं। गणना की ये पद्धतियां स्वतंत्र थीं तथा वैदिक, जैन, बौद्ध ग्रंथों में वर्णित इन पद्धतियों के कुछ अंकों में नाम की समानता थी परन्तु उनकी संख्या राशि में अन्तर आता था।

प्रथम दशगुणोत्तर संख्या- अर्थात्‌ बाद वाली संख्या पहले से दस गुना अधिक। इस संदर्भ में यजुर्वेद संहिता के १७वें अध्याय के दूसरे मंत्र में उल्लेख आता है। जिसका क्रम निम्नानुसार है- एक, दस, शत, सहस्र, अयुक्त, नियुक्त, प्रयुक्त, अर्बुद्ध, न्यर्बुद्र, समुद्र, मध्य, अन्त और परार्ध। इस प्रकार परार्ध का मान हुआ १०१२ यानी दस खरब।

द्वितीय शतगुणोत्तर संख्या-अर्थात्‌ बाद वाली संख्या पहले वाली संख्या से सौ गुना अधिक। इस संदर्भ में ईसा पूर्व पहली शताब्दी के ‘ललित विस्तर‘ नामक बौद्ध ग्रंथ में गणितज्ञ अर्जुन और बोधिसत्व का वार्तालाप है, जिसमें वह पूछता है कि एक कोटि के बाद की संख्या कौन-सी है? इसके उत्तर में बोधिसत्व कोटि यानी १०७ के आगे की शतगुणोत्तर संख्या का वर्णन करते हैं।

१०० कोटि, अयुत, नियुत, कंकर, विवर, क्षोम्य, निवाह, उत्संग, बहुल, नागबल, तितिलम्ब, व्यवस्थान प्रज्ञप्ति, हेतुशील, करहू, हेत्विन्द्रिय, समाप्तलम्भ, गणनागति, निखध, मुद्राबाल, सर्वबल, विषज्ञागति, सर्वज्ञ, विभुतंगमा, और तल्लक्षणा। अर्थात्‌ तल्लक्षणा का मान है १०५३ यानी एक के ऊपर ५३ शून्य के बराबर का अंक।

तृतीय कोटि गुणोत्तर संख्या-कात्यायन के पाली व्याकरण के सूत्र ५१, ५२ में कोटि गुणोत्तर संख्या का उल्लेख है। अर्थात्‌ बाद वाली संख्या पहले वाली संख्या से करोड़ गुना अधिक।

इस संदर्भ में जैन ग्रंथ ‘अनुयोगद्वार‘ में वर्णन आता है। यह संख्या निम्न प्रकार है-कोटि-कोटि, पकोटी, कोट्यपकोटि, नहुत, निन्नहुत, अक्खोभिनि, बिन्दु, अब्बुद, निरष्बुद, अहह, अबब, अतत, सोगन्धिक, उप्पल कुमुद, पुण्डरीक, पदुम, कथान, महाकथान और असंख्येय। असंख्येय का मान है १०१४० यानी एक के ऊपर १४० शून्य वाली संख्या।

उपर्युक्त वर्णन से ज्ञात होता है कि प्राचीन काल में अंक विद्या कितनी विकसित थी, जबकि विश्व १०,००० से अधिक संख्या नहीं जानता था।

उपर्युक्त संदर्भ विभूति भूषण दत्त और अवधेश नारायण सिंह द्वारा लिखित पुस्तक ‘हिन्दू गणित शास्त्र का इतिहास‘ में विस्तार के साथ दिए गए हैं।

आगे चलकर देश में आर्यभट्ट, भास्कराचार्य, श्रीधर आदि अनेक गणितज्ञ हुए। उनमें भास्कराचार्य ने ११५० ई. में ‘सिद्धान्त शिरोमणि‘ नामक ग्रंथ लिखा। इस महान ग्रंथ के चार भाग हैं। (१) लीलावती (२) बीज गणित (३) गोलाध्याय (४) ग्रह गणित।

श्री गुणाकर मुले अपनी पुस्तक ‘भास्कराचार्य‘ में लिखते हैं कि भास्कराचार्य ने गणित के मूल आठ कार्य माने हैं-

(१) संकलन (जोड़) (२) व्यवकलन (घटाना) (३) गुणन (गुणा करना) (४) भाग (भाग करना) (५) वर्ग (वर्ग करना) (६) वर्ग मूल (वर्ग मूल निकालना) (७) घन (घन करना) (८) घन मूल (घन मूल निकालना)। ये सभी गणितीय क्रियाएं हजारों वर्षों से देश में प्रचलित रहीं। लेकिन भास्कराचार्य लीलावती को एक अदभुत बात बताते हैं कि ‘इन सभी परिक्रमों के मूल में दो ही मूल परिकर्म हैं- वृद्धि और हृ◌ास।‘ जोड़ वृद्धि है, घटाना हृ◌ास है। इन्हीं दो मूल क्रियाओं में संपूर्ण गणित शास्त्र व्याप्त है।‘

आजकल कम्प्यूटर द्वारा बड़ी से बड़ी और कठिन गणनाओं का उत्तर थोड़े से समय में मिल जाता है। इसमें सारी गणना वृद्धि और ह्रास के दो चिन्ह (अ,-) द्वारा होती है। इन्हें विद्युत संकेतों में बदल दिया जाता है। फिर सीधा प्रवाह जोड़ने के लिए, उल्टा प्रवाह घटाने के लिए। इसके द्वारा विद्युत गति से गणना होती है।

आजकल गणित एक शुष्क विषय माना जाता है। पर भास्कराचार्य का ग्रंथ ‘लीलावती‘ गणित को भी आनंद के साथ मनोरंजन, जिज्ञासा आदि का सम्मिश्रण करते हुए कैसे पढ़ाया जा सकता है, इसका नमूना है। लीलावती का एक उदाहरण देखें-

‘निर्मल कमलों के एक समूह के तृतीयांश, पंचमांश तथा षष्ठमांश से क्रमश: शिव, विष्णु और सूर्य की पूजा की, चतुर्थांश से पार्वती की और शेष छ: कमलों से गुरु चरणों की पूजा की गई। अये, बाले लीलावती, शीघ्र बता कि उस कमल समूह में कुल कितने फूल थे?‘ उत्तर-१२० कमल के फूल।

वर्ग और घन को समझाते हुए भास्कराचार्य कहते हैं ‘अये बाले, लीलावती, वर्गाकार क्षेत्र और उसका क्षेत्रफल वर्ग कहलाता है। दो समान संख्याओं का गुणन भी वर्ग कहलाता है। इसी प्रकार तीन समान संख्याओं का गुणनफल घन है और बारह कोष्ठों और समान भुजाओं वाला ठोस भी घन है।‘

‘मूल‘ शब्द संस्कृत में पेड़ या पौधे की जड़ के अर्थ में या व्यापक रूप में किसी वस्तु के कारण, उद्गम अर्थ में प्रयुक्त होता है। इसलिए प्राचीन गणित में वर्ग मूल का अर्थ था ‘वर्ग का कारण या उद्गम अर्थात्‌ वर्ग एक भुजा‘। इसी प्रकार घनमूल का अर्थ भी समझा जा सकता है। वर्ग तथा घनमूल निकालने की अनेक विधियां प्रचलित थीं।

इसी प्रकार भास्कराचार्य त्रैराशिक का भी उल्लेख करते हैं। इसमें तीन राशियों का समावेश रहता है। अत: इसे त्रैराशिक कहते हैं। जैसे यदि प्र (प्रमाण) में फ (फल) मिलता है तो इ (इच्छा) में क्या मिलेगा?

त्रैराशिक प्रश्नों में फल राशि को इच्छा राशि से गुणा करना चाहिए और प्राप्त गुणनफल को प्रमाण राशि से भाग देना चाहिए। इस प्रकार भाग करने से जो परिणाम मिलेगा वही इच्छा फल है। आज से दो हजार वर्ष पूर्व त्रैराशिक नियम का भारत में आविष्कार हुआ। अरब देशों में यह नियम आठवीं शताब्दी में पहुंचा। अरबी गणितज्ञों ने त्रैराशिक को ‘फी राशिकात अल्‌-हिन्द‘ नाम दिया। बाद में यह यूरोप में फैला जहां इसे गोल्डन रूल की उपाधि दी गई। प्राचीन गणितज्ञों को न केवल त्रैराशिक अपितु पंचराशिक, सप्तराशिक व नवराशिक तक का ज्ञान था।

बीज गणित-बीज गणित की उत्पत्ति का केन्द्र भी भारत ही रहा है। इसे अव्यक्त गणित या बीज गणित कहा जाता था। अरबी विद्वान मूसा अल खवारिज्मी ने नौं◌ैवी सदी में भारत आकर यह विद्या सीखी और एक पुस्तक ‘अलीजेब ओयल मुकाबिला‘ लिखी। वहां से यह ज्ञान यूरोप पहुंचा।

भारत वर्ष में पूर्व काल में आपस्तम्ब, बोधायन, कात्यायन तथा बाद में व्रह्मगुप्त, भास्कराचार्य आदि गणितज्ञों ने इस पर काम किया। भास्कराचार्य कहते हैं, बीज गणित- का अर्थ है अव्यक्त गणित, इस अव्यक्त बीज का आदिकारण होता है, व्यक्त। इसलिए सबसे पहले ‘लीलावती‘ में इस व्यक्त गणित अंकगणित का चर्चा की। बीजगणित में भास्कराचार्य शून्य और अनंत की चर्चा करते हैं।
वधा दौ वियत्‌ खं खेनधाते,

खहारो भवेत्‌ खेन भक्तश्च राशि:।

अर्थात्‌ यदि शून्य में किसी संख्या का भाग गिया जाए या शून्य को किसी संख्या से गुणा किया जाए तो फल शून्य ही आता है। यदि किसी संख्या में शून्य का भाग दिया जाए, तो परिण ख हर (अनन्त) आता है।

शून्य और अनंत गणित के दो अनमोल रत्न हैं। रत्न के बिना जीवन चल सकता है, परन्तु शून्य और अनंत के बिना गणित कुछ भी नहीं।

शून्य और अनंत भौतिक जगत में जिनका कहीं भी नाम निशान नहीं, और जो केवल मनुष्य के मस्तिष्क की उपज है, फिर भी वे गणित और विज्ञान के माध्यम से विश्व के कठिन से कठिन रहस्यों को स्पष्ट करते हैं।

व्रह्मगुप्त ने विभिन्न ‘समीकरण‘ खोज निकाले। इन्हें व्रह्मगुप्त ने एक वर्ण, अनेक वर्ण, मध्यमाहरण और मापित नाम दिए। एक वर्ण समीकरण में अज्ञात राशि एक तथा अनेक वर्ण में अज्ञात राशि एक से अधिक होती थी।

रेखा गणित-रेखा गणित की जन्मस्थली भी भारत ही रहा है। प्राचीन काल से यज्ञों के लिए वेदियां बनती थीं। इनका आधार ज्यामिति या रेखागणित रहता था। पूर्व में बोधायन एवं आपस्तम्ब ने ईसा से ८०० वर्ष पूर्व अपने शुल्ब सूत्रों में वैदिक यज्ञ हेतु विविध वेदियों के निर्माण हेतु आवश्यक स्थापत्यमान दिए हैं।

किसी त्रिकोण के बराबर वर्ग खींचना, ऐसा वर्ग खींचना जो किसी वर्ग का द्विगुण, त्रिगुण अथवा एक तृतीयांश हो। ऐसा वृत्त बनाना, जिसका क्षेत्र उपस्थित वर्ग के क्षेत्र के बराबर हो। उपर्युक्त विधियां शुल्ब सूत्र में बताई गई हैं।

किसी त्रिकोण का क्षेत्रफल उसकी भुजाओं से जानने की रीति चौथी शताब्दी के ‘सूर्य सिद्धान्त‘ ग्रंथ में बताई गई है। इसका ज्ञान यूरोप को क्लोबियस द्वारा सोलहवीं शताब्दी में हुआ।
 

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साधारणतया यह माना जाता है कि पक्षियों की तरह आकाश में उड़ने का मानव का स्वप्न राइट बंधुओं ने १७ दिसम्बर, १९०३ में विमान बनाकर पूरा किया। और विमान विद्या विश्व को पश्चिम की देन है। इसमें संशय नहीं कि आज विमान विद्या अत्यंत विकसित अवस्था में पहुंची है। परन्तु महाभारत काल तथा उससे पूर्व भारतवर्ष में भी विमान विद्या का विकास हुआ था। न केवल विमान अपितु अंतरिक्ष में स्थित नगर रचना भी हुई थी। इसके अनेक संदर्भ प्राचीन वाङ्गमय में मिलते हैं।

विद्या वाचस्पति पं. मधुसूदन सरस्वती ‘इन्द्रविजय‘ नामक ग्रंथ में ऋग्वेद के छत्तीसवें सूक्त के प्रथम मंत्र का अर्थ लिखते हुए कहते हैं कि ऋभुओं ने तीन पहियों वाला ऐसा रथ बनाया था जो अंतरिक्ष में उड़ सकता था। पुराणों में विभिन्न देवी-देवता, यक्ष, विद्याधर आदि विमानों द्वारा यात्रा करते हैं, इस प्रकार के उल्लेख आते हैं। त्रिपुरासुर यानी तीन असुर भाइयों ने अंतरिक्ष में तीन अजेय नगरों का निर्माण किया था, जो पृथ्वी, जल व आकाश में आ जा सकते थे और भगवान शिव ने जिन्हें नष्ट किया। रामायण में पुष्पक विमान का वर्णन आता है। महाभारत में श्रीकृष्ण, जरासंध आदि के विमानों का वर्णन आता है। भागवत में कर्दम ऋषि की कथा आती है। तपस्या में लीन रहने के कारण वे अपनी पत्नी की ओर ध्यान नहीं दे पाए। इसका भान होने पर उन्होंने अपने विमान से उसे संपूर्ण विश्व का दर्शन कराया।

उपर्युक्त वर्णन जब आज का तार्किक व प्रयोगशील व्यक्ति सुनता या पढ़ता है तो उसके मन में स्वाभाविक विचार आता है कि ये सब कपोल कल्पनाएं हैं। मानव के मनोरंजन हेतु गढ़ी गई कहानियां हैं। ऐसा विचार आना सहज व स्वाभाविक है। क्योंकि आज देश में न तो कोई प्राचीन अवशेष मिलते हैं जो यह सिद्ध करें कि प्राचीन काल में विमान थे, न ऐसे ग्रंथ मिलते हैं जिनसे यह ज्ञात हो कि प्राचीन काल में विमान बनाने की तकनीक लोग जानते थे।

केवल सौभाग्य से एक ग्रंथ उपलब्ध है, जो बताता है कि भारत में प्राचीन काल में न केवल विमान विद्या थी, अपितु वह बहुत प्रगत अवस्था में भी थी। यह ग्रंथ, इसकी विषय सूची व इसमें किया गया वर्णन विगत अनेक वर्षों से देश-विदेश में अध्येताओं का ध्यान आकर्षित करता रहा है।

गत वर्ष दिल्ली के एक उद्योगपति श्री सुबोध से प्राचीन भारत में विज्ञान की स्थिति के संदर्भ में बात हो रही थी। बातचीत में उन्होंने अपना एक अनुभव बताया। सुबोध जी के छोटे भाई अमरीका के नासा में काम करते हैं। १९७३ में एक दिन उनका नासा से फोन आया कि भारत में महर्षि भारद्वाज का विमानशास्त्र पर कोई ग्रंथ है, वह नासा में कार्यरत उनके अमरीकी मित्र वैज्ञानिक को चाहिए। यह सुनकर सुबोध जी को आश्चर्य हुआ, क्योंकि उन्होंने भी प्रथम बार ही इस ग्रंथ के बारे में सुना था। बाद में उन्होंने प्रयत्न करके मैसूर से वह ग्रंथ प्राप्त कर उसे अमरीका भिजवाया। सन्‌ १९५० में गोरखपुर से प्रकाशित ‘कल्याण‘ के ‘हिन्दू संस्कृति‘ अंक में श्री दामोदर जी साहित्याचार्य ने ‘हमारी प्राचीन वैज्ञानिक कला‘ नामक लेख में इस ग्रंथ के बारे में विस्तार से उल्लेख किया था।

अभी दो तीन वर्ष पूर्व बंगलूरू के वायुसेना से सेवानिवृत्त अभियंता श्री प्रह्लाद राव की इस विषय में जिज्ञासा हुई और उन्होंने अपने साथियों के साथ एरोनॉटिकल सोसाइटी आफ इंडिया के सहयोग से एक प्रकल्प ‘वैमानिक शास्त्र रीडिस्कवर्ड‘ लिया तथा अपने गहन अध्ययन व अनुभव के आधार पर यह प्रतिपादित किया कि इस ग्रंथ में अत्यंत विकसित विमान विद्या का वर्णन मिलता है। नागपुर के श्री एम.के. कावड़कर ने भी इस ग्रंथ पर काफी काम किया है।

महर्षि भरद्वाज ने ‘यंत्र सर्वस्व‘ नामक ग्रंथ लिखा था, उसका एक भाग वैमानिक शास्त्र है। इस पर बोधानंद ने टीका लिखी थी। आज ‘यंत्र सर्वस्व‘ तो उपलब्ध नहीं है तथा वैमानिक शास्त्र भी पूरा उपलब्ध नहीं है। पर जितना उपलब्ध है, उससे यह विश्वास होता है कि पूर्व में विमान एक सच्चाई थे।

वैमानिक शास्त्र के पहले प्रकरण में प्राचीन विज्ञान विषय के पच्चीस ग्रंथों की एक सूची है, जिनमें प्रमुख हैं अगस्त्य कृत-शक्तिसूत्र, ईश्वर कृत-सौदामिनी कला, भरद्वाज कृत-अंशुबोधिनी, यंत्र सर्वस्व तथा आकाश शास्त्र, शाक्टायन कृत- वायुतत्व प्रकरण, नारद कृत-वैश्वानरतंत्र, धूम प्रकरण आदि। विमान शास्त्र की टीका लिखने वाले बोधानंद लिखते हैं- 

निर्मथ्य तद्वेदाम्बुधिं भरद्वाजो महामुनि:।
नवनीतं समुद्घृत्य यंत्रसर्वस्वरूपकम्‌॥
प्रायच्छत्‌ सर्वकोकानामीपिस्तार्थफलप्रदम्‌
नानाविमानवैतित्र्यरचनाक्रमबोधकम्‌।
अष्टाध्यायैर्विभजितं शताधिकरणैयुर्तम्‌॥
सूत्रै: पश्चशतैर्युक्तं व्योमयानप्रधानकम्‌।
वैमानिकाधिकरणमुक्तं भगवता स्वयम्‌॥ 

अर्थात्‌-भरद्वाज महामुनि ने वेदरूपी समुद्र का मन्थन करके यंत्र सर्वस्व नाम का एक मक्खन निकाला है, जो मनुष्य मात्र के लिए इच्छित फल देने वाला है। उसके चालीसवें अधिकरण में वैमानिक प्रकरण है जिसमें विमान विषयक रचना के क्रम कहे गये हैं। यह ग्रंथ आठ अध्याय में विभाजित है तथा उसमें एक सौ अधिकरण तथा पांच सौ सूत्र हैं तथा उसमें विमान का विषय ही प्रधान है।

ग्रंथ के बारे में बताने के बाद भरद्वाज मुनि विमान शास्त्र के उनसे पूर्व हुए आचार्य तथा उनके ग्रंथों के बारे में लिखते हैं। वे आचार्य तथा उनके ग्रंथ निम्नानुसार थे। 

(१) नारायण कृत-विमान चंद्रिका (२) शौनक कृत- व्योमयान तंत्र (३) गर्ग कृत-यंत्रकल्प (४) वाचस्पतिकृत-यान बिन्दु (५) चाक्रायणीकृत- खेटयान प्रदीपिका (६) धुण्डीनाथ- वियोमयानार्क प्रकाश

इस ग्रंथ में भरद्वाज मुनि ने विमान का पायलट, जिसे रहस्यज्ञ अधिकारी कहा गया, आकाश मार्ग, वैमानिक के कपड़े, विमान के पुर्जे, ऊर्जा, यंत्र तथा उन्हें बनाने हेतु विभिन्न धातुओं का वर्णन किया है।

विमान की परिभाषा 

नारायण ऋषि कहते हैं-जो पृथ्वी, जल तथा आकाश में पक्षियों के समान वेगपूर्वक चल सके, उसका नाम विमान है।

शौनक के अनुसार-एक स्थान से दूसरे स्थान को आकाश मार्ग से जा सके, विश्वम्भर के अनुसार- एक देश से दूसरे देश या एक ग्रह से दूसरे ग्रह जा सके, उसे विमान कहते हैं।

रहस्यज्ञ अधिकारी (घ्त्थ्दृद्य)-भरद्वाज मुनि कहते हैं, विमान के रहस्यों को जानने वाला ही उसे चलाने का अधिकारी है। शास्त्रों में विमान चलाने के बत्तीस रहस्य बताए गए हैं। उनका भलीभांति ज्ञान रखने वाला ही सफल चालक हो सकता है क्योंकि विमान बनाना, उसे जमीन से आकाश में ले जाना, खड़ा करना, आगे बढ़ाना, टेढ़ी-मेढ़ी गति से चलाना, चक्कर लगाना और विमान के वेग को कम अथवा अधिक करना- इसे जाने बिना यान चलाना असम्भव है। अत: जो इन रहस्यों को जानता है वह रहस्यज्ञ अधिकारी है तथा उसे विमान चलाने का अधिकार है। इन बत्तीस रहस्यों में कुछ प्रमुख रहस्य निम्न प्रकार हैं।

(३) कृतक रहस्य- बत्तीस रहस्यों में यह तीसरा रहस्य है, जिसके अनुसार विश्वकर्मा, छायापुरुष, मनु तथा मयदानव आदि के विमान शास्त्र के आधार पर आवश्यक धातुओं द्वारा इच्छित विमान बनाना, इसमें हम कह सकते हैं कि यह ‘हार्डवेयर‘ का वर्णन है।

(५) गूढ़ रहस्य-यह पांचवा रहस्य है जिसमें विमान को छिपाने की विधि दी गई है। इसके अनुसार वायु तत्व प्रकरण में कही गई रीति के अनुसार वातस्तम्भ की जो आठवीं परिधि रेखा है उस मार्ग की यासा, वियासा तथा प्रयासा इत्यादि वायु शक्तियों के द्वारा सूर्य किरण में रहने वाली जो अन्धकार शक्ति है, उसका आकर्षण करके विमान के साथ उसका सम्बंध बनाने पर विमान छिप जाता है।

(९) अपरोक्ष रहस्य-यह नवां रहस्य है। इसके अनुसार शक्ति तंत्र में कही गई रोहिणी विद्युत के फैलाने से विमान के सामने आने वाली वस्तुओं को प्रत्यक्ष देखा जा सकता है।

(१०) संकोचा-यह दसवां रहस्य है। इसके अनुसार आसमान में उड़ते समय आवश्यकता पड़ने पर विमान को छोटा करना।

(११) विस्तृता-यह ग्यारहवां रहस्य है। इसके अनुसार आवश्यकता पड़ने पर विमान को बड़ा करना। यहां यह ज्ञातव्य है कि वर्तमान काल में यह तकनीक १९७० के बाद विकसित हुई है।

(२२) सर्पागमन रहस्य-यह बाईसवां रहस्य है जिसके अनुसार विमान को सर्प के समान टेढ़ी-मेढ़ी गति से चलाना संभव है। इसमें कहा गया है दण्ड, वक्र आदि सात प्रकार के वायु और सूर्य किरणों की शक्तियों का आकर्षण करके यान के मुख से जो तिरछे फेंकने वाला केन्द्र है उसके मुख में उन्हें नियुक्त करके बाद उसे खींचकर शक्ति पैदा करने वाले नाल में प्रवेश कराना चाहिए। इसके बाद बटन दबाने से विमान की गति सांप के समान टेढ़ी-मेढ़ी हो जाती है।

(२५) परशब्द ग्राहक रहस्य-यह पच्चसीवां रहस्य है। इसमें कहा गया है कि सौदामिनी कला ग्रंथ के अनुसार शब्द ग्राहक यंत्र विमान पर लगाने से उसके द्वारा दूसरे विमान पर लोगों की बातचीत सुनी जा सकती है।

(२६) रूपाकर्षण रहस्य- इसके द्वारा दूसरे विमान के अंदर सब देखा जा सकता है।

(२८) दिक्प्रदर्शन रहस्य-दिशा सम्पत्ति नामक यंत्र द्वारा दूसरे विमान की दिशा ध्यान में आती है।

(३१) स्तब्धक रहस्य-एक विशेष प्रकार के अपस्मार नामक गैस स्तम्भन यंत्र द्वारा दूसरे विमान पर छोड़ने से अंदर के सब लोग बेहोश हो जाते हैं।

(३२) कर्षण रहस्य-यह बत्तीसवां रहस्य है। इसके अनुसार अपने विमान का नाश करने आने वाले शत्रु के विमान पर अपने विमान के मुख में रहने वाली वैश्रवानर नाम की नली में ज्वालिनी को जलाकर सत्तासी लिंक (डिग्री जैसा कोई नाप है) प्रमाण हो तब तक गर्म कर फिर दोनों चक्की की कीलि (बटन) चलाकर शत्रु विमानों पर गोलाकार से उस शक्ति को फैलाने से शत्रु का विमान नष्ट हो जाता है।



विमानशास्त्र का भारतीय इतिहास-२

महर्षि शौनक आकाश मार्ग का पांच प्रकार का विभाजन करते हैं तथा धुण्डीनाथ विभिन्न मार्गों की ऊंचाई पर विभिन्न आवर्त्त दृद्ध ध्र्ण्त्द्धथ्द्रदृदृथ्द्म का उल्लेख करते हैं और उस-उस ऊंचाई पर सैकड़ों यात्रा पथों का संकेत देते हैं। इसमें पृथ्वी से १०० किलोमीटर ऊपर तक विभिन्न ऊंचाईयों पर निर्धारित पथ तथा वहां कार्यरत शक्तियों का विस्तार से वर्णन करते हैं।

आकाश मार्ग तथा उनके आवर्तों का वर्णन निम्नानुसार है- 

(१) रेखा पथ- शक्त्यावृत-
ध्र्ण्त्द्धथ्द्रदृदृथ्द्म दृढ ड्ढदड्ढद्धढ़न्र्‌

(२) मंडलपथ - वातावृत्त-
ज़्त्दड्ड

(३) कक्ष पथ - किरणावृत्त-
च्दृथ्ठ्ठद्ध द्धठ्ठन्र्द्म

(४) शक्ति पथ - सत्यावृत्त-
क्दृथ्ड्ड ड़द्वद्धद्धड्ढदद्य

(५) केन्द्र पथ - घर्षणावृत्त-
क्दृथ्थ्त्द्मत्दृद 

वैमानिक का खाद्य-इसमें किस ऋतु में किस प्रकार का अन्न हो, इसका वर्णन है। उस समय के विमान आज से कुछ भिन्न थे। आज तो विमान उतरने की जगह निश्चित है पर उस समय विमान कहीं भी उतर सकते थे। अत: युद्ध के दौरान जंगल में उतरना पड़ा तो जीवन निर्वाह कैसे करना, इसीलिए १०० वनस्पतियों का वर्णन दिया है जिनके सहारे दो-तीन माह जीवन चलाया जा सकता है।

एक और महत्वपूर्ण बात वैमानिक शास्त्र में कही गई है कि वैमानिक को खाली पेट विमान नहीं उड़ाना चाहिए। इस संदर्भ में बंगलोर के श्री एम.पी. राव बताते हैं कि भारतीय वायुसेना में सुबह जब फाइटर प्लेन को वैमानिक उड़ाते थे तो कभी-कभी दुर्घटना हो जाती थी। इसका विश्लेषण होने पर ध्यान में आया की वैमानिक खाली पेट विमान उड़ाते हैं तब ऐसा होता है। अत: १९८१ में वायु सेना में खाना देने की व्यवस्था शुरू की।

विमान के यंत्र- विमान शास्त्र में ३१ प्रकार के यंत्र तथा उनका विमान में निश्चित स्थान का वर्णन मिलता है। इन यंत्रों का कार्य क्या है? इसका भी वर्णन किया गया है। कुछ यंत्रों की जानकारी निम्नानुसार है- 

(१) विश्व क्रिया दर्पण-इस यंत्र के द्वारा विमान के आस-पास चलने वाली गति-विधियों का दर्शन वैमानिक को विमान के अंदर होता था, इसे बनाने में अभ्रक (ग्त्ड़ठ्ठ) तथा पारा (थ्र्ड्ढद्धड़द्वद्धन्र्‌) आदि का प्रयोग होता था।

(२) परिवेष क्रिया यंत्र- इसमें स्वचालित यंत्र वैमानिक (ॠद्वद्यदृ घ्त्थ्दृद्य द्मन्र्द्मद्यड्ढथ्र्‌) का वर्णन है।

(३) शब्दाकर्षण यंत्र- इस यंत्र के द्वारा २६ कि.मी. क्षेत्र की आवाज सुनी जा सकती थी तथा पक्षियों की आवाज आदि सुनने से विमान को दुर्घटना से बचाया जा सकता था।

(४) गुह गर्भ यंत्र-इस यंत्र के द्वारा जमीन के अन्दर विस्फोटक खोजने में सफलता मिलती थी।

(५) शक्त्याकर्षण यंत्र- विषैली किरणों को आकर्षित कर उन्हें उष्णता में परिवर्तित करना और वह उष्णता वातावरण में छोड़ना।

(६) दिशा दर्शी यंत्र- दिशा दिखाने वाला यंत्र।

(७) वक्र प्रसारण यंत्र-इस यंत्र के द्वारा शत्रु विमान अचानक सामने आ गया तो उसी समय पीछे मुड़ना संभव होता था।

(८) अपस्मार यंत्र- युद्ध के समय इस यंत्र से विषैली गैस छोड़ी जाती थी।

(९) तमोगर्भ यंत्र-इस यंत्र के द्वारा युद्ध के समय विमान को छिपाना संभव था। इनके निर्माण में तमोगर्भ लौह प्रमुख घटक रहता था। 

उर्जा स्रोत- विमान को चलाने के लिए चार प्रकार के ऊर्जा स्रोतों का महर्षि भारद्वाज उल्लेख करते हैं। (१) वनस्पति तेल, जो पेट्रोल की भांति काम करता है। (२) पारे की भाप (ग्ड्ढद्धड़द्वद्धन्र्‌ ध्ठ्ठद्रदृद्वद्ध) प्राचीन शास्त्रों में इसका शक्ति के रूप में उपयोग किये जाने का वर्णन है। इसके द्वारा अमरीका में विमान उड़ाने का प्रयोग हुआ, पर वह ऊपर गया, तब विस्फोट हो गया। परन्तु यह तो सिद्ध हुआ कि पारे की भाप का ऊर्जा के रूप में उपयोग किया जा सकता है। आवश्यकता अधिक निर्दोष प्रयोग करने की है। (३) सौर ऊर्जा-इसके द्वारा भी विमान चलता था। (४) वातावरण की ऊर्जा- बिना किसी अन्य साधन के सीधे वातावरण से शक्ति ग्रहण कर विमान, उड़ना जैसे समुद्र में पाल खोलने पर नाव हवा के सहारे तैरती है उसी प्रकार अंतरिक्ष में विमान वातावरण से शक्ति ग्रहण कर चलता रहेगा। अमरीका में इस दिशा में प्रयत्न चल रहे हैं। यह वर्णन बताता है कि ऊर्जा स्रोत के रूप में प्राचीन भारत में कितना व्यापक विचार हुआ था।

विमान के प्रकार- विमान विद्या के पूर्व आचार्य युग के अनुसार विमानों का वर्णन करते है। मंत्रिका प्रकार के विमान, जिसमें भौतिक एवं मानसिक शक्तियों के सम्मिश्रण की प्रक्रिया रहती थी, वह सतयुग और त्रेता युग में संभव था। इसमें २५ प्रकार के विमान का उल्लेख है। द्वापर युग में तांत्रिका प्रकार के विमान थे। इनके ५६ प्रकार बताये गए हैं तथा कलियुग में कृतिका प्रकार के यंत्र चालित विमान थे, इनके २५ प्रकार बताये गए हैं। इनमें शकुन, रूक्म, हंस, पुष्कर, त्रिपुर आदि प्रमुख थे।

उपर्युक्त वर्णन पढ़ने पर कुछ समस्याएं व प्रश्न हमारे सामने आकर खड़े होते हैं। समस्या यह कि आज के विज्ञान की शब्दावली व नियमावली से हम परिचित हैं, परन्तु प्राचीन विज्ञान, जो संस्कृत में अभिव्यक्त हुआ, उसकी शब्दावली, उनका अर्थ तथा नियमावली हम जानते नहीं। अत: उसमें निहित रहस्य को अनावृत (क़्ड्ढड़दृड्डड्ढ) करना पड़ेगा। दूसरा, प्राचीनकाल में गलत व्यक्ति के हाथ में विद्या न जाए, इस हेतु बात को अप्रत्यक्ष ढंग से, गूढ़ रूप में, अलंकारिक रूप में कहने की पद्धति थी। अत: उसको भी समझने के लिए ऐसे लोगों के इस विषय में आगे प्रयत्न करने की आवश्यकता है, जो संस्कृत भी जानते हों तथा विज्ञान भी जानते हों। 

विमान शास्त्र में वर्णित धातुएं
दूसरा प्रश्न उठता है कि क्या विमान शास्त्र ग्रंथ का कोई भाग ऐसा है जिसे प्रारंभिक तौर पर प्रयोग द्वारा सिद्ध किया जा सके। यदि ऐसा कोई भाग है तो क्या इस दिशा में कुछ प्रयोग हुए हैं? क्या उनमें कुछ सफलता मिली है?

सौभाग्य से उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर हां में दिए जा सकते हैं। हैदराबाद के डा. श्रीराम प्रभु ने वैमानिक शास्त्र ग्रंथ के यंत्राधिकरण को देखा, तो उसमें वर्णित ३१ यंत्रों में से कुछ यंत्रों की उन्होंने पहचान की तथा इन यंत्रों को बनाने हेतु लगने वाली मिश्र धातुओं को बनाने की जो विधि लोहाधिकरण में दी गई है, उनके अनुसार मिश्र धातुओं का निर्माण संभव है या नहीं, इस हेतु प्रयोग करने का विचार उनके मन में आया। प्रयोग हेतु डा. प्रभु तथा उनके साथियों ने हैदराबाद स्थित बी.एम.बिरला साइंस सेन्टर के सहयोग से प्राचीन भारतीय साहित्य में वर्णित धातु, दर्पण आदि का निर्माण प्रयोगशाला में करने का प्रकल्प लिया और उनके परिणाम आशास्पद हैं। अपने प्रयोगों के आधार पर प्राचीन ग्रंथ में वर्णित वर्णन के आधार पर दुनिया में अनुपलब्ध कुछ धातुएं बनाने में सफलता उन्हें मिली है। इडद्ध/ऊ
प्रथम धातु है तमोगर्भ लौह। विमान शास्त्र में वर्णन है कि यह विमान को अदृश्य करने के काम आता है। इस पर प्रकाश छोड़ने से ७५ से ८० प्रतिशत प्रकाश को सोख लेता है। यह धातु रंग में काली तथा शीशे से कठोर तथा कान्सन्ट्रेटेड सल्फ्युरिक एसिड में भी नहीं गलती।

दूसरी धातु जो बनाई है उसका नाम है पंच लौह। यह रंग में स्वर्ण जैसा है तथा कठोर और भारी है। तांबा आधारित इस मिश्र धातु की विशेषता यह है कि इसमें सीसे का प्रमाण ७.९५ प्रतिशत है जबकि अमरीका में भी अमरीकन सोसायटी ऑफ मेटल्स ने कॉपर बेस्ट मिश्र धातु में सीसे का अधिकतम प्रमाण ०.३५ से ३ प्रतिशत तक संभव है, यह माना है। इस प्रकार ७.९५ सीसे के मिश्रण वाली यह धातु अनोखी है।

तीसरी धातु है आरर। यह तांबा आधारित मिश्र धातु है जो रंग में पीली और कठोर तथा हल्की है। इस धातु में ङड्ढद्मत्द्मद्यठ्ठदड़ड्ढ द्यदृ थ्र्दृत्द्मद्यद्वद्धड्ढ का गुण है। बी.एम. बिरला साइंस सेन्टर (हैदराबाद) के डायरेक्टर डा. बी.जी. सिद्धार्थ ने इन धातुओं को बनाने में सफलता की जानकारी १८ जुलाई, १९९१ को एक पत्रकार परिषद्‌ में देते हुए बताया कि इन धातुओं को बनाने में खनिजों के साथ विभिन्न औषधियां, पत्ते, गौंद, पेड़ की छाल आदि का भी उपयोग होता है। इस कारण जहां इनकी लागत कम आती है, वहीं कुछ विशेष गुण भी उत्पन्न होते हैं। उन्होंने कहा कि ग्रंथ में वर्णित अन्य धातुओं का निर्माण और उस हेतु आवश्यक साधनों की दिशा में देश के नीति निर्धारक सोचेगें तो यह देश के भविष्य के विकास की दृष्टि से अच्छा होगा। उपर्युक्त पत्रकार परिषद्‌ को ‘वार्ता‘ न्यूज एजेन्सी ने जारी किया तथा म.प्र. के नई दुनिया, एम.पी.क्रानिकल सहित देश के अनेक समाचार पत्रों में १९ जुलाई को यह प्रकाशित हुए।

इसी प्रकार आई.आई.टी. (मुम्बई) के रसायन शास्त्र विभाग के. डा. माहेश्वर शेरोन ने भी इस ग्रंथ में वर्णित तीन पदार्थों को बनाने का प्रयत्न किया। ये थे चुम्बकमणि, जो गुहगर्भ यंत्र में काम आती है और उसमें परावर्तन (रिफ्लेक्शन) को अधिगृहीत (कैप्चर) करने का गुण है। पराग्रंधिक द्रव-यह एक प्रकार का एसिड है, जो चुम्बकमणि के साथ गुहगर्भ यंत्र में काम आता है।

इसी प्रकार महर्षि भरद्वाज कृत अंशुबोधनी ग्रंथ में विभिन्न प्रकार की धातु तथा दर्पणों का वर्णन है। इस पर वाराणसी के हरिश्चंद्र पी.जी. कालेज के रीडर डा. एन.जी. डोंगरे ने क्ष्दड्डत्ठ्ठद ग़्ठ्ठद्यत्दृदठ्ठथ्‌ च्ड़त्ड्ढदड़ड्ढ ॠड़ठ्ठड्डड्ढर्थ्न्र्‌ के सहयोग से एक प्रकल्प लिया। प्रकल्प का नाम था च्ण्ड्र्ढ द्मद्यद्वड्डन्र्‌ दृढ ध्ठ्ठद्धत्दृद्वद्म थ्र्ठ्ठद्यड्ढद्धत्ठ्ठथ्द्म ड्डड्ढद्मड़द्धत्डड्ढड्ड त्द ॠथ्र्द्मद्वडदृड्डण्त्दत्‌ दृढ ग्ठ्ठण्ठ्ठद्धद्मण्त्‌ एण्ठ्ठद्धठ्ठड्डध्र्ठ्ठत्र्ठ्ठ.

इस प्रकल्प के तहत उन्होंने महर्षि भरद्वाज वर्णित दर्पण को बनाने का प्रयत्न नेशनल मेटलर्जीकल लेबोरेटरी (जमशेदपुर) में किया तथा वहां के निदेशक पी.रामचन्द्र राव, जो आजकल बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के कुलपति हैं, के साथ प्रयोग कर एक विशेष प्रकार का कांच बनाने में सफलता प्राप्त की, जिसका नाम प्रकाश स्तंभन भिद्‌ लौह है। इसकी विशेषता है कि यह दर्शनीय प्रकाश को सोखता है तथा इन्फ्र्ारेड प्रकाश को जाने देता है। इसका निर्माण इनसे होता है- 

कचर लौह- च्त्थ्त्ड़ठ्ठ
भूचक्र सुरमित्रादिक्षर- ख्र्त्थ्र्ड्ढ
अयस्कान्त- ख्र्दृड्डड्ढद्मद्यदृदड्ढ
रुरुक- क़्ड्ढड्ढद्धडदृदड्ढ ठ्ठद्मण्‌ 

इनके द्वारा अंशुबोधिनी में वर्णित विधि से किया गया। प्रकाश स्तंभन भिद्‌ लौह की यह विशेषता है कि यह पूरी तरह से नॉन हाइग्रोस्कोपिक है। हाइग्रोस्कोपिक इन्फ्र्ारेड वाले कांचों में पानी की भाप या वातावरण की नमी से उनका पॉलिश हट जाता है और वे बेकार हो जाते हैं। आजकल क्ठ्ठक़२ यह बहुत अधिक हाईग्रोस्कोपिक है। अत: इनके यंत्रों के प्रयोग में बहुत सावधानी रखनी पड़ती है जबकि प्रकाश स्तंभन भिद्‌ लौह के अध्ययन से यह सिद्ध हुआ है कि इन्फ्र्ारेड सिग्नल्स में (२ द्यदृ ५छ) (१थ्र्उ१०-४क्थ्र्‌) तक की रेंज में यह आदर्श काम करता है तथा इसका प्रयोग वातावरण में मौजूद नमी के खतरे के बिना किया जा सकता है।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि महर्षि भरद्वाज प्रणीत ग्रंथ के विभिन्न अध्यायों में से एक अध्याय पर हुए कुछ प्रयोगों की सत्यता यह विश्वास दिलाती है कि यदि एक ग्रंथ का एक अध्याय ठीक है तो अन्य अध्याय भी ठीक होंगे और प्राचीनकाल में विमान विद्या कपोल-कल्पना न होकर एक यथार्थ थी। इसका विश्वास दिलाती है। यह विश्वास सार्थक करने हेतु इस पुस्तक के अन्य अध्याय अपनी सत्यता की सिद्धि हेतु साहसी संशोधकों की राह देख रहे हैं।

भारत : अतीत एवं वर्तमान

विश्व के रंगमंच पर अनेक देश हैं। इतिहास की गहराइयों में जाकर हम झांकते हैं तो जो दृश्य हमारे नेत्रों के सामने उभरता है वह यह कि भारत सदियों से विश्व में मानव जाति के लिए प्रेरणा का केन्द्र रहा है। हमारे पूर्वजों ने ‘कृण्वन्तो विश्वम्आर्यम्‘ अर्थात्‌ सम्पूर्ण विश्व को श्रेष्ठ बनाएंगे और ‘वसुधैव कुटुम्बकम्‌‘ संपूर्ण वसुधा एक कुटुम्ब है तथा ‘स्वदेशो भुवनत्रयम्‌‘ तीनों लोक हमारे लिए स्वदेश हैं, की उदात्त भावना ले सम्पूर्ण विश्व में संचार किया तथा विश्व की सुख, समृद्धि हेतु कला, कौशल तथा दर्शन का अवदान दिया। इसी कारण भारत प्राचीन काल से जगद्गुरु कहलाता रहा, जिसकी झलक पाश्चात्य चिंतक मार्क ट्वेन के निम्न वक्तव्य में दिखाई देती है-

‘भारत उपासना पंथों की भूमि, मानव जाति का पालना, भाषा की जन्मभूमि, इतिहास की माता, पुराणों की दादी एवं परंपरा की परदादी है। मनुष्य के इतिहास में जो भी मूल्यवान एवं सृजनशील सामग्री है, उसका भंडार अकेले भारत में है। यह ऐसी भूमि है जिसके दर्शन के लिए सब लालायित रहते हैं और एक बार उसकी हल्की सी झलक मिल जाए तो दुनिया के अन्य सारे दृश्यों के बदले में भी वे उसे छोड़ने के लिए तैयार नहीं होंगे।‘

इतिहास में भारत मात्र धर्म, दर्शन, तत्वज्ञान एवं श्रेष्ठ जीवन मूल्यों में ही नहीं अपितु व्यापार, व्यवसाय, कला, कौशल में भी अग्रणी था। एक प्रसिद्ध स्विस लेखक बेजोरन लेण्डस्ट्राम, जिसने पुरातन मिस्रियों से लेकर अमरीका की खोज तक ३००० वर्ष की साहसी यात्राओं और महान खोजकर्ताओं की गाथा का अध्ययन किया, अपनी पुस्तक ‘भारत की खोज‘ में लिखता है, ‘मार्ग और साधन कई थे, परंतु उद्देश्य सदा एक ही रहा-प्रसिद्ध भारत भूमि पर पहुंचने का, जो देश सोना, चांदी, कीमती मणियों और रत्नों, मोहक खाद्यों, मसालों, कपड़ों से लबालब भरा पड़ा था।‘ (सोने की चिड़िया लुटेरे अंग्रेज-सुरेन्द्र नाथ गुप्त-पृष्ठ १०) बेजोरन लेण्डस्ट्राम से ही मिलते-जुलते अनुभव अनेक चिंतकों, शोधकों तथा हीगल, गैलवैनो, मार्क‌◌ोपोलो आदि के हैं। इसी कारण सदियों से भारत को सोने की चिड़िया भी कहा जाता रहा है।

हजारों वर्षों तक जो देश जगद्गुरू व सोने की चिड़िया रहा, उस पर पिछले १५०० वर्षों में हुए बर्बर आक्रमणों, कुछ अपने सामाजिक दोषों तथा मुसलमानों के मजहबी आक्रमणों, लूट और अंग्रेजों के १९० वर्षों के शासन में आर्थिक दृष्टि से देश का इतना शोषण हुआ कि सोने की चिड़िया कंगाल हो गई। यहां के कृषि, उद्योग, व्यापार को नष्ट किया गया। इस कारण आज जब हम देखते हैं कि दुनिया के देशों की पंक्ति में भारत का कौन सा स्थान है, तो हम पाते हैं कि उसका १२४ वां स्थान है। दुनिया में भारत को फिर से जगद्गुरू और सोने की चिड़िया बनाने की चुनौती आज की पीढ़ी के सामने हैं। स्वाधीनता संग्राम के अनेक सेनानियों तथा चिंतकों ने भव्य भारत का जो स्वप्न देखा, उसे साकार करने का आह्वान आज की पीढ़ी के सामने है।

ऊपर उल्लिखित स्वप्न को साकार करना है तो आवश्यकता है कि देश के कला, कौशल, व्यापार, वाणिज्य, कृषि आदि सभी क्षेत्रों में पुन:प्रगति हो। सैद्धांतिक दृष्टि से धर्म, दर्शन के क्षेत्रों में देश की श्रेष्ठता आज भी विश्व को मान्य है। पर जहां भौतिक समृद्धि का प्रश्न आता है या तत्वज्ञान के अनुकूल समाज जीवन में व्यवहार का प्रश्न आता है, तो उत्तर देना कठिन हो जाता है। अत:सर्वांगीण उन्नति की परिकल्पना एवं उसके उपायों पर विचार करने की आवश्यकता है।

हजारों वर्ष पूर्व महर्षि कणाद ने सर्वांगीण उन्नति की व्याख्या करते हुए कहा था ‘यतो भ्युदयनि:श्रेय स सिद्धि:स धर्म:‘ जिस माध्यम से अभ्युदय अर्थात्‌ भौतिक दृष्टि से तथा नि:श्रेयस याने आध्यात्मिक दृष्टि से सभी प्रकार की उन्नति प्राप्त होती है, उसे धर्म कहते हैं।

दुर्भाग्य से विगत अनेक वर्षों से हमारे देश में धर्म, दर्शन, तत्वज्ञान द्वारा आध्यात्मिक दृष्टि से उन्नति हेतु तो प्रयत्न चलते रहे, परंतु समग्र उन्नति की परिधि में भौतिक उन्नति के पक्ष की समाज जीवन में उपेक्षा हुई, जबकि भौतिक उन्नति सर्वांगीण विकास हेतु आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी मानी गई थी।

जब समाज में भौतिक दृष्टि से उन्नति का प्रश्न आता है और इसके माध्यम या साधनों पर हम विचार करते हैं तो ध्यान में आता है कि समय के प्रवाह में ये परिवर्तित होते रहे हैं। जैसे एक समय में हमारे देश में भौतिक समृद्धि का माध्यम था-कृषि, गोरक्षा, वाणिज्य अर्थात्‌ पारिवारिक और सामाजिक धरातल पर समृद्धि का आधार खेती और खेती के आधारभूत गौवंश तथा व्यापार थे। हजारों वर्षों तक ये ही समाज जीवन में समृद्धि के माध्यम रहे। सम्पूर्ण विश्व में भारत की कृषि व समृद्ध व्यवसाय की मान्यता थी। सम्पूर्ण विश्व में भारत का व्यवसाय फैला हुआ था। बहुत पुराने काल का वर्णन छोड़ भी दें तो अभी-अभी सन्‌ १७५० तक विश्व में उत्पादन के मामलों में भारत की क्या स्थिति थी, इसका हम विचार करें तो सेम्युअल हंटिंग्टन द्वारा लिखित पुस्तक ‘दी क्लैश आफ सिविलाइजेशन‘ में जो तुलनात्मक चार्ट दिया है, उससे यह स्पष्ट होता है कि १७५० में भारत का उत्पादन समूचे यूरोप और सोवियत संघ (इसकी परिधि में टूटने के पूर्व के सोवियत संघ तथा वारसा पेक्ट के सभी देश) से अधिक था। भारत का उत्पादन २४.५ प्रतिशत था, जबकि यूरोप का १८.२ प्रतिशत तथा सोवियत संघ का ५.० प्रतिशत था। (दी क्लैश आफ सिविलाइजेशन, सेम्युअल इंटिंग्टन, पृष्ठ, ८६) 

विज्ञान का महत्व
समय के साथ परिवर्तन आता है। एक समय कृषि और व्यापार समृद्धि के मानक थे, परंतु आज विज्ञान के विकास के साथ उत्पादन के साधनों में परिवर्तन आया है। आज विज्ञान और तकनीकी भौतिक समृद्धि के साधनों के आविष्कार, उत्पादन तथा वितरण हेतु माध्यम बने हैं। आज जिस देश में विज्ञान जितना विकसित होगा, जिसके पास जितनी प्रगत एवं अद्यतन तकनीकी होगी, वह देश दुनिया के रंगमंच पर उतनी ही तीव्र गति से आगे बढ़ पायेगा।

इस परिप्रेक्ष्य में हमारा देश पुन: समृद्धि के शिखर पर पहुंचे और विश्व को अपना कुछ अवदान दे सके, इस दृष्टि से देश में जहां एक ओर वैज्ञानिक एवं तकनीकी विकास को गति देने की आवश्यकता है, वहीं दूसरी ओर यह भी ध्यान रखना होगा कि यह विकास अपनी संस्कृति, प्रकृति और आवश्यकता के विपरीत भी न हो। ये दोनों उद्देश्य प्राप्त हों, इस दृष्टि से कुछ प्रश्नों पर हमें विचार करना पड़ेगा। 

१-विज्ञान और तकनीकी मात्र पश्चिम की देन है या भारत में भी इसकी कोई परंपरा थी?

२-भारत में किन-किन क्षेत्रों में वैज्ञानिक विकास हुआ था?

३-विज्ञान और तकनीकी के अंतिम उद्देश्य को लेकर क्या भारत में कोई विज्ञान दृष्टि थी? और यदि थी तो आज की विज्ञान दृष्टि से उसकी विशेषता क्या थी?

४-आज विश्व के सामने विज्ञान एवं तकनीक के विकास के साथ जो समस्याएं खड़ी हैं उनका समाधान क्या भारतीय विज्ञान दृष्टि में है? 

आज का यथार्थ
भारत में विज्ञान के इतिहास को जानने के लिए जब हम प्रथम प्रश्न ‘विज्ञान और तकनीकी मात्र पश्चिम की देन है या भारत में भी इसकी कोई परंपरा थी?‘ पर विचार करें तो जो आज का यथार्थ हमारे सामने आता है, उसे हम निम्नलिखित दो-तीन घटनाओं से समझ सकते हैं।

१-संस्कृत भारती नामक संगठन देश में संस्कृत के प्रचार-प्रसार और उसे जन भाषा बनाने की दृष्टि से विगत कुछ वर्षों से कार्य कर रहा है। इस संगठन ने संस्कृत मात्र धर्म-दर्शन ही नहीं अपितु विज्ञान तथा तकनीक की भी भाषा है, इसे लोगों को बताने की दृष्टि से गणित, भौतिक शास्त्र, रसायन शास्त्र, नक्षत्र विज्ञान आदि के जो संदर्भ प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में उपलब्ध हैं, उनका आधुनिक वैज्ञानिक खोजों से कैसा साम्य है, यह बताने वाले पांच भित्तिचित्र तैयार किये हैं। उसे प्रचारित-प्रसारित किया जाए, इस दृष्टि से भारत सरकार के विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय के प्रमुख अधिकारियों के साथ वार्तालाप हेतु फरवरी २००१ में संस्कृत भारती के राष्ट्रीय संगठन मंत्री च.मू.कृष्णशास्त्री अपने साथ पांचों भित्तिचित्र लेकर गये। वार्तालाप के समय वे भित्तिचित्र अधिकारियों के देखने के लिए उनके सामने रखे गये।

उनमें गणित से संबंधित भित्तिचित्र के प्रारंभ में ही उन अधिकारियों ने देखा कि शताब्दियों पूर्व आर्यभट्ट ने (पाई) का मान ३.१४१६ निकाला था तो आश्चर्य के साथ उन्होंने उद्गार व्यक्त किये, ‘अच्छा (पाई) का मान हमारे पूर्वजों ने इतने वर्ष पूर्व निकाल लिया था।' यह घटना इंगित करती है कि भारत वर्ष में विज्ञान के विकास की दिशा निर्धारित करने वाले व्यक्ति भारत वर्ष में विज्ञान की परंपरा की सामान्य जानकारी से भी अनभिज्ञ हैं।

क्यों आत्मविस्मृत हुए हम?

दूसरी थोड़ी पुरानी घटना है। पुरी के पूर्व शंकराचार्य भारती कृष्ण तीर्थ जी ने अपनी साधना द्वारा शुल्ब सूत्रों और वेद की पृष्ठभूमि से गणित के कुछ अद्भुत सूत्रों और उपसूत्रों का आविष्कार किया। इन १६ मुख्य सूत्रों और १३ उपसूत्रों के द्वारा सभी प्रकार की गणितीय गणनाएं, समस्याएं अत्यंत सरलता और शीघ्रता से हल की जा सकती हैं। इन सूत्रों के आधार पर उन्होंने एक पुस्तक लिखी ‘वैदिक मैथेमेटिक्स।‘ पुस्तक के महत्व को ध्यान में रखते हुए मुम्बई में टाटा द्वारा मूलभूत शोध हेतु स्थापित संस्थान (टाटा इंस्टीट्यूट फार फन्डामेंटल रिसर्च) में कुछ लोग गये और वहां के प्रमुख से आग्रह किया कि गणित के क्षेत्र में यह एक मौलिक योगदान है, इसका परीक्षण किया जाये तथा इसे पुस्तकालय में रखा जाये। तब इस संस्थान ने इसे यह कहकर स्वीकृति नहीं दी कि हमारा इस पर विश्वास नहीं है। जिस पुस्तक को नकार दिया गया वह देश में विचार का विषय आगे चलकर तब बनी जब एक विदेशी गणितज्ञ निकोलस ने इंग्लैंड से मुम्बई आकर कुछ गणितज्ञों के सामने इन अद्भुत सूत्रों के प्रयोग बताकर कहा कि यह तो ‘मैजिक‘ है। इसका प्रचार-प्रसार टाइम्स आफ इंडिया ने किया। यह घटना बताती है कि एक विदेशी इसका महत्व न बतलाता तो उसे मानने की हमारी मानसिकता नहीं थी।

३-एक तीसरी घटना-भूतपूर्व मानव संसाधन विकास तथा विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्री डा.मुरली मनोहर जोशी १९६२ में उत्तर प्रदेश की पाठ्यक्रम समिति के सदस्य बने। अपने अध्ययन के दौरान उनके ध्यान में आया कि गणित का विद्यार्थी जिस पायथागोरस थ्योरम के कारण भयभीत रहता है उस प्रमेय को पायथागोरस के पूर्व भारत वर्ष में बोधायन ने हल किया था। पायथागोरस की पद्धति जहां दीर्घ, क्लिष्ट व उबाऊ थी वहीं बोधायन की पद्धति अत्यंत संक्षिप्त व सरल थी। अत: उन्होंने पाठ्यक्रम समिति के सदस्यों को यह तथ्य बताया और आग्रह किया कि हमारे यहां इसे बोधायन प्रमेय कहा जाए तो इससे जहां एक ओर विद्यार्थियों को एक सरल पद्धति मिलेगी, वहीं दूसरी ओर हमारे देश का यह अवदान है, यह जानकर उनका आत्मविश्वास भी बढ़ेगा। लेकिन पाठ्यक्रम समिति के सदस्य तैयार नहीं हुए। लोगों को सहमत करने का वे प्रयत्न करते रहे। इसी कड़ी में एक और तथ्य उनके ध्यान में आया। एडवर्ड टेलर, जो विश्व के एक प्रमुख भौतिक शास्त्री रहे तथा हाइड्रोजन बम, परमाणु बम बनाने में जिनका योगदान रहा और जो नोबल पुरस्कार से सम्मानित हुए, ने एक पुस्तक लिखी है ‘सिम्पलिसिटी एंड साइंस‘। इस पुस्तक में उन्होंने कहा कि विज्ञान की पढ़ाई, दुरूह, जटिल व उबाऊ नहीं होनी चाहिए अपितु सरल, सुगम व आनंद देने वाली होनी चाहिए। इस दृष्टि से गणितीय समस्याएं कितनी सरलता से हल हो सकती हैं, उसके उदाहरण के रूप में उन्होंने बोधायन प्रमेय का उदाहरण दिया था। डा.जोशी ने जब एडवर्ड टेलर के प्रमाण को पाठ्यक्रम समिति को बताया, तब उन्होंने कहा अच्छा आपका इतना आग्रह है तो हम इसे ‘पायथागोरस बोधायन प्रमेय‘ कर देते हैं।

उपर्युक्त घटनाएं बताती हैं कि साधारणत: समाज में भारत में विज्ञान के विकास की कोई परंपरा थी, इस संबंध में विश्वास ही नहीं है। एक अन्य तथ्य भी अनुभव में आता है कि देश में प्राथमिक शाला से लेकर स्नातक, स्नातकोत्तर अथवा शोध छात्रों से कहीं भी चर्चा हो और उनसे प्रश्न किया जाए कि आपने प्रारंभ से अब तक जो अध्ययन किया है, उसमें आपके अध्ययन का विषय चाहे राजनीति शास्त्र रहा हो या अर्थशास्त्र या विज्ञान के विविध विषय-उन विषयों में भारत वर्ष के चिंतन अथवा अवदान के संदर्भ में कहीं कुछ पढ़ा है, तो साधारणत: उत्तर नकारात्मक मिलता है। इस प्रकार सामान्य विद्यार्थी से लेकर देश के प्रमुख व्यक्तियों तक में अपने देश की विज्ञान परंपरा और उसके जनक के संदर्भ में जानकारी का अभाव दिखाई देता है।

विस्मृति का कारण
भारत वर्ष की आने वाली पीढ़ी में अपनी परंपरा, संस्कृति और इतिहास के प्रति गौरव का भाव न रहे, इस हेतु १८३५ में लार्ड थॉमस बॉबिंग्टन मैकाले ने अंग्रेजी शिक्षा पद्धति लागू की। धीरे-धीरे संस्कृत पाठशालाएं समाप्त कर अंग्रेजी स्कूल अनिवार्य हुए। इन स्कूलों के लिए जो पाठ्यक्रम बना, जो पुस्तकें बनीं, उनमें किसी भी विषय में, विशेषकर विज्ञान के क्षेत्र में भारत का कोई अवदान है, इस प्रकार का संदर्भ नहीं आने दिया गया। परिणामस्वरूप कालांतर में इन विद्यालयों से पढ़कर निकले उपाधि-धारी भारत के अवदान की जानकारी से वंचित रहते थे।

अंग्रेजों का तो साम्राज्यवादी उद्देश्य था, अत: उन्होंने शिक्षा को यहां की जड़ों से काटने का प्रयत्न किया। परंतु देश आजाद होने के बाद कल्पना थी कि देश में आत्मविश्वास का भाव जगाने हेतु शिक्षा में भारत की परंपरागत देन को जोड़ा जायेगा, परंतु दुर्भाग्य से स्वतंत्रता के बाद भी वही पाठ्यक्रम जारी रहे जो विश्व में यूरोपीय देशों की देन को अभिव्यक्त करने वाले थे। परिणामस्वरूप पूर्वकाल में भारतवर्ष में विविध विषयों में हुए अध्ययन, प्रयोग और निष्कर्ष १७० वर्षों से चली आ रही इस शिक्षा का अंग नहीं बन पाये। भारतीयता से कटे इस पाठ्यक्रम को पढ़ते हुए समाज के मानस पर एक दुष्परिणाम हुआ। दुनिया में विकास की दृष्टि से जो कुछ भी देन है वह यूरोप की दी हुई है, इसमें हमारा भी कोई योगदान रहा है, कुछ हो सकता है, इस प्रकार के स्वाभिमान के स्थान पर अनुकरण की, दासता की मनोवृत्ति चारों ओर दिखाई देती है।

विस्मृति का परिणाम
समाज में अपने बारे में आत्मविश्वास के अभाव की स्थिति जानने के लिए वर्तमान राष्ट्रपति एवं प्रख्यात वैज्ञानिक डा.अब्दुल कलाम के दो अनुभव सहायक होंगे। डा.कलाम की आंखों में एक समर्थ एवं विकसित भारत का सपना है। इसे उन्होंने अपनी पुस्तक ‘इंडिया टू थाउसैण्ड ट्वेन्टी- ए विजन फार न्यू मिलेनियम‘ में व्यक्त किया है। प्रस्तुत पुस्तक में जहां एक ओर विकसित भारत के निर्माण के मार्ग का वर्णन है वहीं दूसरी ओर इसमें सबसे बड़ी बाधा कौन सी है, इसे भी उन्होंने अपने जीवन के दो अनुभवों से अभिव्यक्त किया है।

प्रथम अनुभव में वे लिखते हैं कि ‘मेरे कमरे की दीवार पर एक बहुरंगी कैलेंडर टंगा है। यह सुंदर कैलेंडर जर्मनी में छपा है तथा इसमें आकाशस्थ उपग्रहों द्वारा यूरोप और अफ्रीका के खींचे गये चित्र अंकित हैं। कोई भी व्यक्ति इन चित्रों को देखता है तो प्रभावित होता है। परंतु जब उसे यह बताया जाता है कि जो चित्र इसमें छपे हैं, वे भारतीय दूरसंवेदी उपग्रह ने खींचे हैं तो उसके चेहरे पर अविश्वास के भाव उभरते हैं और वे तब तक शांत नहीं होते जब तक उस कैलेंडर में नीचे उक्त कंपनी द्वारा भारतीय दूरसंवेदी उपग्रह द्वारा खींचे गये चित्रों की प्राप्ति का कृतज्ञता ज्ञापन वे नहीं पढ़ लेते।‘

दूसरे अनुभव में वे लिखते हैं ‘एक बार मैं एक रात्रिभोज में आमंत्रित था, जहां बाहर के अनेक वैज्ञानिक तथा भारत के कुछ प्रमुख लोग आमंत्रित थे। वहां चर्चा चलते-चलते राकेट की तकनीक के विषय पर चली गई। किसी ने कहा चीनी लोगों ने हजार वर्ष पूर्व बारूद की खोज की, बाद में तेरहवीं सदी में इस बारूद की सहायता से अग्नि तीरों का प्रयोग युद्धों में प्रारंभ हुआ। इस चर्चा में भाग लेते हुए मैंने अपना एक अनुभव बताया कि कुछ समय पूर्व मैं इंग्लैण्ड गया था, वहां लंदन के पास वुलीच नामक स्थान पर रोटुंडा नाम का संग्रहालय है। इस संग्रहालय में टीपू के श्रीरंगपट्टनम्‌ में अंग्रेजों के साथ हुए युद्ध में टीपू सुल्तान की सेना द्वारा प्रयुक्त राकेट देखे और यह विश्व में राकेट का युद्ध में सर्वप्रथम प्रयोग था। मेरे इतना कहते ही एक प्रमुख भारतीय ने तुरंत टिप्पणी की कि वह तकनीक फ्र्ेंच लोगों ने टीपू को दी थी। इस पर मैंने नम्रतापूर्वक उनको कहा आप जो कह रहे हैं वह ठीक नहीं है। मैं आपको प्रमाण बताऊंगा। कुछ समय बाद मैंने उन्हें प्रख्यात व्रिटिश वैज्ञानिक सर बर्नाड लॉवेल की पुस्तक ‘द ओरिजिन्स एन्ड इन्टरनल इकानामिक्स आफ स्पेश एक्सप्लोरेशन‘ बताई, जिसमें वे लिखते हैं कि विलियम कोनग्रेव्ह ने टीपू की सेना द्वारा प्रयुक्त रॉकेट का अध्ययन किया, उसमें कुछ सुधार कर सन्‌ १८०५ में तत्कालीन व्रिटिश प्रधानमंत्री विलियम पिट तथा युद्ध सचिव क्रेसर लीध के सामने प्रस्तुत किया। वे इसे देखकर प्रभावित हुए और उन्होंने इसे सेना में सम्मिलित करने की स्वीकृति दी तथा १८०६ में नेपोलियन के साथ वाउलांग हारबर के पास हुए युद्ध तथा १८०७ में कोपेनहेगन पर किये आक्रमण में उनका प्रयोग किया।

पुस्तक में रेखांकित अंश को बड़े ध्यानपूर्वक पढ़कर वह पुस्तक मेरे हाथ में देते हुए उन विशिष्ट भारतीय सज्जन ने कहा कि बड़ा रोचक मामला है। उन्हें यह रोचक बात लगी, परंतु किसी प्रकार का गौरव का भाव इस भारतीय खोज के प्रति नहीं जगा। दुर्भाग्य से भारत में हम अपने श्रेष्ठतम सृजनात्मक पुरूषों को भूल चुके हैं। व्रिटिश लोग कोनग्रेव्ह के बारे में सारी जानकारी रखते हैं, पर हम कुछ नहीं जानते उन महान इंजीनियरों के बारे में, जिन्होंने टीपू की सेना के लिए रॉकेट बनाया। इसका कारण यह है कि विदेशियत का प्रभाव और अपने बारे में हीनता बोध की मानसिक ग्रंथि से देश के बुद्धिमान लोग ग्रस्त हैं और यह मानसिकता देश के लिए सबसे बड़ी बाधा है।



स्थापत्य शास्त्र-२ : अजंता, एलोरा, कोणार्क, खजुराहो - ये हैं भारतीय शिल्प की चमत्कारिक धरोहर


लेखक - सुरेश सोनी
२५००-३००० ई.पू. से लेकर १७वीं शताब्दी तक के देश के विविध हिस्सों में जल प्रदाय की व्यवस्था के आश्चर्यजनक नमूने मिलते हैं जिसमें बड़े तालाब, नहरें तथा अन्य स्थान से पानी का मार्ग परिवर्तित कर पानी लाने के अनेक उदाहरण प्राप्त होते हैं।

कौटिल्य आज से २५०० वर्ष पूर्व अपने अर्थशास्त्र में कहते हैं कि राजा जिस पवित्र भाव से मन्दिर का निर्माण करता है उसी भाव से उसे जल रोकने का प्रयत्न करना चाहिए। आज पानी को लेकर चारों ओर हाहाकार है। लोग कहते हैं कि कहीं तीसरा विश्वयुद्ध पानी को लेकर न हो जाए। ऐसे समय में चाणक्य की बात ध्यान देने योग्य है। चाणक्य राजा को पवित्र भाव से जल रोकने का प्रयास करने की सलाह देकर ही नहीं रुके, अपितु आगे वे कहते हैं कि जनता को भी जल संरक्षण के लिए प्रेरित करना चाहिए। उस हेतु आर्थिक सहयोग देना चाहिए, आवश्यकता पड़ने पर वस्तु का सहयोग करना चाहिए, इतना ही नहीं तो व्यक्ति का भी सहयोग करना चाहिए।

कौटिल्य जल रोकने हेतु बांध बनाने का भी उल्लेख करते हैं तथा इसका भी वर्णन करते हैं कि बांध वहां नहीं बनाना चाहिए जहां दो राज्यों की सीमाएं मिलती हैं, क्योंकि ऐसा होने पर वह झगड़े की जड़ बनेगा। आज कावेरी तथा नर्मदा नदी के विवादों को देखकर लगता है वे बहुत दूरद्रष्टा थे।

दक्षिण में पेरुमामिल जलाशय अनंतराजा सागर ने बनवाया था। यह भारत में सिंचाई, शिल्प और प्रौद्योगिकी की कहानी कहता है। समीप के मंदिर की ओर दो पत्थर-शिलाओं पर बने शिलालेख (सन्‌ १३६९) से पता लगता है कि जलागार के निर्माण में दो वर्ष लगे। एक हजार श्रमिक लगाए गए और एक सौ गाड़ियां पत्थर निर्माण स्थल तक पहुंचाने में प्रयुक्त हुएं। शिलालेख में इस जलागार (जलाशय) के निर्माण स्थल के चयन और निर्माण के संबंध में बारह विशेष बातों का उल्लेख हैं, जो एक अच्छे तालाब के निर्माण के लिए आवश्यक हैं।

(१) शासक में कुछ भलाई, समृद्धि, खुशहाली के माध्यम से यश पाने की अभिलाषा हो। (२) पायस शास्त्र यानी जल विज्ञान में निपुणता हो। (३) जलाशय का आधार सख्त मिट्टी पर आधारित हो। (४) नदी जल का भण्डार करीब ३८ किलोमीटर से ला रही हो। (५) बांध के दो तरफ किसी पहाड़ी के ऊंचे शिखर हों। (६) इन दो पहाड़ी टीलों के बीच बांध ठोस पत्थर का बने। भले ही लंबा न हो, लेकिन सख्त हो। (७) ये पहाड़ियां ऐसी जमीन से भिन्न हों जो उद्यानिकी के अनुकूल और उर्वर होती हैं। (८) जलाशय का वेड (तल) लंबा, चौड़ा और गहरा हो। (९) सीधे, लम्बे पत्थरों वाली जमीन हो। (१०) समीप में निचली, उर्वर जमीन सिंचाई के लिए उपलब्ध हो। (१२) जलाशय बनाने में कुशल शिल्पी लगाए जाएं।

छह वर्जनाएं भी शिलालेख में उत्कीर्ण हैं, इन्हें हर हाल में टाला जाना चाहिए-

(१) बांध से रिसाव। (२) क्षारीय भूमि। (३) दो अलग शासित क्षेत्रों की सीमा में जलाशय का निर्माण। (४) जलाशय बांध के बीच में ऊंचाई वाला क्षेत्र। (५) कम जलापूर्ति आगम और सिंचाई के लिए अधिक फैला क्षेत्र। (६) सिंचाई के लिए अपर्याप्त भूमि और अधिक जलागम।

इसके अतिरिक्त ग्यारहवीं शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी में जल संरक्षण की संरचना के लिए जलाशयों के निर्माण को रोचक इतिहास देश में दर्ज है।

(१) अरिकेशरी मंगलम्‌ जलाशय (१०१०-११) के साथ मन्दिर की संरचना। (२) गंगा हकोदा चोपुरम्‌ जलाशय (१०१२-१०१४) के बांध, स्तूप और नहरों का विस्तार १६ मील लम्बा है। (३) भोजपुर झील (११वीं सदी) भोपाल से लगी हुई २४० वर्गमील में फैली है। इसका निर्माण राजा भोज ने किया था। इस झील में ३६५ जल धाराएं मिलती हैं। (४) अलमंदा जलाशय (ग्यारहवीं) विशाखापट्टनम्‌ में है। (५) राजत टाका तालाब (ग्यारहवीं शताब्दी) (६) भावदेव भट्ट जलाशय बंगाल में (७) सिंधुघाटी जलाशय (११०६-०७) मैसूर में स्लूस तक निर्माण किया गया है। (८) पेरिया क्याक्कल स्लूस (१२१९) त्रिचलापल्ली जिले में। (९) पखाला झील (१३वीं शताब्दी)। वारंगल जिले में हल संरचना का उदाहरण है। (१०) फिरंगीपुरम्‌ जलाशय (१४०९) गुंटूर जिले में शिल्प की विशिष्टता है। (११) हरिद्रा जलाशय (१४१०) व्राह्मणों ने अपने खर्चे से निर्मित कराया था। तब विजयनगर में राजा देवराज सत्तासीन थे। (१२) अनंतपुर जिले में नरसिंह वोधी जलाशय (१४८९) का उल्लेख भी आवश्यक है। (१३) १५२० में नागलपुर जलाशय-राजा कृष्णराज ने नागलपुर की पेयजल पूर्ति के लिए बनवाया था। कृष्णराज को भूजल सुरंग बनाने का पहला गौरव प्राप्त हुआ। विजयपुर, महमदनगर, औरंगाबाद, कोरागजा, वासगन्ना चैनलों का निर्माण इसी श्रृंखला की कड़ी है। (१४) शिवसमुद्र (१५३१-३२) आज भी बंगलुरू की जलपूर्ति का स्रोत है। (१५) तुगलकाबाद में बांध के जनक अनंगपाल (११५१) थे (१६) सतपुला बांध दिल्ली (१३२६) में ३८ फुट ऊंची महराबें है। (१६) जमुना की पुरानी नहर, जिसे फिरोजशाह तुगलक नहर (१३वीं शताब्दी) कहा गया, रावी पर बनी है।

कलात्मक स्थापत्य के अमर उदाहरण-
प्राचीन मंदिर

प्राचीनकाल में शिल्पियों के समूह होते थे, जो एक कुल की तरह रहते थे और कोई राजकुल या धनिक व्यक्ति भक्ति भावना से भव्य मन्दिर निर्माण कराना चाहता तो ये वहां जाकर वर्षों अंत:करण की भक्ति से, पूजा के भाव से, व्यवसायी बुद्धि से रहित होकर, मूर्ति उकेरने की साधना में संलग्न रहते थे। उनकी मूक साधना प्रस्तर में प्राण फूंकती थी। इसी कारण आज भी प्राचीन मंदिरों की मूर्तिकला मानो जीवंत हो अपनी कहानी कहती है। कोणार्क के सूर्य मन्दिर का निर्माण लगातार १२ वर्ष तक अनेक शिल्पियों की साधना का परिणाम है।

इस श्रेष्ठ भारतीय कला के अनेक नमूने देश के विभिन्न स्थानों पर दिखाई देते हैं।

एलोरा के मन्दिर जिनमें व्राह्मण मंदिर कैलास सबसे विशाल और सुन्दर है, इसके सभी भाग निर्दोष और कलापूर्ण हैं। इसकी लंबाई १४२ फुट, चौड़ाई ६२ फुट तथा ऊंचाई १०० फुट है। इस पर पौराणिक दृश्य उत्कीर्ण हैं।

एलीफेंटा की गुफा में शिव-पार्वती के विवाद वाले दृश्यों में मानो शिल्पी की सारी साधना मुखर हुई है।

उड़ीसा का लिंगराज मंदिर कला का श्रेष्ठतम नमूना है। यह मन्दिर ५२०न्४६५ वर्गफुट में स्थित है, मंदिर की ऊंचाई १४४.०५ फुट है तथा ७.५ फुट भारी दीवार से घिरा है। इसके चार प्रमुख भाग हैं:- विमान-जगमोहन-नट मन्दिर-भाग मंडप। मंदिर में अनेक देवताओं की सुंदर उकेरी गई मूर्तियों के साथ-साथ रामायण और महाभारत के अनेक प्रसंगों को उकेरा गया है।

खजुराहो के मन्दिर-यह नवीं शताब्दी के मंदिर हैं। पहले ८५ मंदिर थे, अब लगभग २० ही शेष रह गए हैं। खजुराहो के मन्दिर शिल्पकला के महान्‌ प्रतीक हैं। बाह्य दीवारों पर भोग मुद्रायें हैं। गर्भगृह में शिवलिंग स्थापित है।

इसके अतिरिक्त गुजरात में गिरनार के मन्दिर प्रसिद्ध हैं। दक्षिण भारत में श्रीरंगपट्टन का मंदिर सबसे बड़ा और स्थापत्य का उत्कृष्ट नमूना है। यहां पर एक सहस्र स्तंभों वाला (१६न्७०) मण्डप है, जिसका कमरा ४५०न्१३० फुट है। यहां गोकुल जैसा बड़ा और कलात्मक गोपुर और कहीं-कहीं कुण्डलाकार बेलें, पुष्पाकृतियों आदि अनोखी छटा उत्पन्न करते हैं।

११वीं शताब्दी का रामेश्वरम्‌ मंदिर चार धामों में से एक धाम है। मदुरई का मीनाक्षी मन्दिर कला का अप्रतिम नमूना है। इसकी लम्बाई ८४७ फुट, चौड़ाई ७९५ फुट ऊंचाई १६० फुट है। इसके परकोटे में ११ गोपुर हैं। एक सहस्र स्तंभों वाला मंडप यहां भी है और इसकी विशेषता है कि प्रत्येक स्तंभ की कारीगीरी, मूर्तियां व मुद्राएं भिन्न-भिन्न है। दक्षिण भारत में कला का यह सर्वश्रेष्ठ नमूना है।

इस प्रकार पूरे भारत में सहस्रों मंदिर, महल, प्रासाद प्राचीन शिल्पज्ञान की गाथा कह रहे हैं।

शिल्प के कुछ अद्भुत नमूने- (१) अजंता की गुफा में एक बुद्ध प्रतिमा है। इस प्रतिमा को यदि अपने बायीं ओर से देखें तो भगवान बुद्ध गंभीर मुद्रा में दृष्टिगोचर होते हैं, सामने से देखें तो गहरे ध्यान में लीन शांत दिखाई देते हैं और दायीं ओर देखें तो उनके मुखमंडल पर हास्य अभिव्यक्त होता है। एक ही मूर्ति के भाव कोण बदलने के साथ बदल जाते हैं।

(२) दक्षिण में विजयनगर साम्राज्य में बना विट्ठल मंदिर शिल्पकला का अप्रतिम नमूना है। इसका संगीत खण्ड यह बताता है कि पत्थर, उनके प्रकार, विशेषता और किस पत्थर को कैसे तराशने से और किस कोण पर स्थापित करने पर उसमें से विशेष ध्वनि निकलेगी। इस खण्ड के विभिन्न स्तंभों से संपूर्ण संगीत व वाद्यों का अनुभव होता है। इसमें प्रवेश करते ही सर्वप्रथम सात स्तंभ हैं। इसमें प्रथम स्तंभ पर कान लगाएं और उस पर आघात दें। तो स की ध्वनि निकलती है और सात स्वरों के क्रम से आगे के स्तम्भों में से रे,ग,म,प,ध,नी की ध्वनि निकलती है। आगे अलग-अलग स्तंभों से अलग-अलग वाद्यों की ध्वनि निकलती है। किसी स्तम्भ से तबले की, किसी स्तंभ से बांसुरी की, किसी से वीणा की। जिन्होंने यह बनाया, उन्होंने पत्थरों में से संगीत प्रकट कर दिया। आज भी उन अनाम शिल्पियों की ये अमर कृतियां भारतीय शिल्प शास्त्र की गौरव गाथा कहती हैं।

चित्रकला
महाराष्ट्र में औरंगाबाद के पास स्थित अजंता की प्रसिद्ध गुफाओं के चित्रों की चमक हजार से अधिक वर्ष बीतने के बाद भी आधुनिक समय से विद्वानों के लिए आश्चर्य का विषय है। भगवान बुद्ध से संबंधित घटनाओं को इन चित्रों में अभिव्यक्त किया गया है। चावल के मांड, गोंद और अन्य कुछ पत्तियों तथा वस्तुओं का सम्मिश्रमण कर आविष्कृत किए गए रंगों से ये चित्र बनाए गए। लगभग हजार साल तक भूमि में दबे रहे और १८१९ में पुन: उत्खनन कर इन्हें प्रकाश में लाया गया। हजार वर्ष बीतने पर भी इनका रंग हल्का नहीं हुआ, खराब नहीं हुआ, चमक यथावत बनी रही। कहीं कुछ सुधारने या आधुनिक रंग लगाने का प्रयत्न हुआ तो वह असफल ही हुआ। रंगों और रेखाओं की यह तकनीक आज भी गौरवशाली अतीत का याद दिलाती है।

व्रिटिश संशोधक मि। ग्रिफिथ कहते हैं ‘अजंता में जिन चितेरों ने चित्रकारी की है, वे सृजन के शिखर पुरुथ थे। अजंता में दीवारों पर जो लंबरूप (खड़ी) लाइनें कूची से सहज ही खींची गयी हैं वे अचंभित करती हैं। वास्तव में यह आश्चर्यजनक कृतित्व है। परन्तु जब छत की सतह पर संवारी क्षितिज के समानान्तर लकीरें, उनमें संगत घुमाव, मेहराब की शक्ल में एकरूपता के दर्शन होते हैं और इसके सृजन की हजारों जटिलताओं पर ध्यान जाता है, तब लगता है वास्तव में यह विस्मयकारी आश्चर्य और कोई चमत्कार है।


स्थापत्य शास्त्र-१ : नगर रचना के श्रेष्ठतम उदाहरण

लेखक - सुरेश सोनी
हमारे यहां स्थापत्य शास्त्र की परिधि काफी व्यापक रही है। इसमें नगर रचना, भवन, मन्दिर, मूर्तियां, चित्रकला- सब कुछ आता था। नगरों में सड़कें, जल-प्रदाय व्यवस्था, सार्वजनिक सुविधा हेतु स्नानघर, नालियां, भवन के आकार-प्रकार, उनकी दिशा, माप, भूमि के प्रकार, निर्माण में काम आने वाली वस्तुओं की प्रकृति आदि का विचार किया गया था और यह सब प्रकृति से सुसंगत हो, यह भी देखा जाता था। जल प्रदाय व्यवस्था में बांध, कुआं, बावड़ी, नहरें, नदी आदि का भी विचार होता था।

किसी भी प्रकार के निर्माण हेतु शिल्प शास्त्रों में विस्तार से विचार किया गया है। हजारों वर्ष पूर्व वे कितनी बारीकी से विचार करते थे, इसका भी ज्ञान होता है। शिल्प कार्य के लिए मिट्टी, एंटें, चूना, पत्थर, लकड़ी, धातु तथा रत्नों का उपयोग किया जाता था। इनका प्रयोग करते समय कहा जाता था कि इनमें से प्रत्येक वस्तु का ठीक से परीक्षण कर उनका निर्माण में आवश्यकतानुसार प्रयोग करना चाहिए। परीक्षण हेतु वह माप कितने वैज्ञानिक थे, इसकी कल्पना हमें निम्न उद्धरण से आ सकती है-

महर्षि भृगु कहते हैं कि निर्माण उपयोगी प्रत्येक वस्तु का परीक्षण निम्न मापदंडों पर करना चाहिए।

वर्णलिंगवयोवस्था: परोक्ष्यं च बलाबलं।
यथायोग्यं, यथाशक्ति: संस्कारान्कारयेत्‌ सुधी:॥
(भृगु संहिता)

अर्थात्‌ वस्तु का वर्ण (रंग), लिंग (गुण, चिन्ह), आयु (रोपण काल से आज तक) अवस्था (काल खंड के परिणाम) तथा इन सबके कारण वस्तु की ताकत देखकर उस पर जो खिंचाव पड़ेगा, उसे देख-परखकर यथोचित रूप में सभी संस्कारों को करना चाहिए।

इनमें वर्ण का अर्थ रंग है। पर शिल्प शास्त्र में इसका उपयोग प्रकाश को परावृत करता है। अत: इसे उत्तम वर्ण कहा गया।

निर्माण के संदर्भ में अनेक प्राचीन ऋषियों के शास्त्र मिलते हैं, जैसे-

(१) विश्वकर्मा वास्तुशास्त्र-इसमें विश्वकर्मा निर्माण के संदर्भ में प्रथम बात बताते हैं- ‘पूर्व भूमिं परिक्ष्येत पश्चात्‌ वास्तु प्रकल्पयेत्‌‘ अर्थात्‌ पहले भूमि परीक्षण कर फिर वहां निर्माण करना चाहिए। इस शास्त्र में विश्वकर्मा आगे कहते हैं उस भूमि में निर्माण नहीं करना चाहिए जो बहुत पहाड़ी हो, जहां भूमि में बड़ी-बड़ी दरारें हों आदि।

(२) काश्यप शिल्प-इसमें कश्यप ऋषि कहते हैं नींव तब तक खोदनी चाहिए जब तक जल न दिखे, क्योंकि इसके बाद चट्टानें आती हैं।

(३) भृगु संहिता-इसमें भृगु कहते हैं कि जमीन खरीदने के पहले भूमि का पांच प्रकार अर्थात्‌ रूप, रंग, रस, गन्ध और स्पर्श से परीक्षण करना चाहिए। वे इसकी विधि भी बताते हैं।

इसके अतिरिक्त भवन निर्माण में आधार के हिसाब से दीवारें, उनकी मोटाई, उसकी आन्तरिक व्यवस्था आदि का भी विस्तार से वर्णन मिलता है। इस ज्ञान के आधार पर हुए निर्माणों के अवशेष सदियां बीतने के बाद भी अपनी कहानी कहते हैं, जिसके कुछ निम्नानुसार हैं-

मोहनजोदड़ो (सिंध)-पुरातात्विक उत्खनन में प्राप्त ईसा से ३००० वर्ष पूर्व के नगर मोहनजोदड़ो की रचना देखकर आश्चर्य होता है। अत्यंत सुव्यवस्थित ढंग से बसा हुआ है यह नगर मानो उसके भवन तथा सड़कें - सब रेखागणितीय माप के साथ बनाए गए थे। इस नगर में मिली सड़कें एकदम सीधी थीं तथा पूर्व से पश्चिम व उत्तर से दक्षिण बनी हुई थीं। दूसरी आश्चर्य की बात यह कि ये एक-दूसरे से ९० अंश के कोण पर थीं।

भवन निर्माण अनुपात में था। एंटों के जोड़, दीवारों की ऊंचाइयां बराबर थीं। भोजनालय, स्नानघर रहने के कमरे आदि की उचित व्यवस्था थी। नगर में रिहायशी भवन, बगीचे, सार्वजनिक भवन के साथ ही बहुत बड़ा सार्वजनिक स्नानागार भी मिला था, जो ११.८२ मीटर लम्बा, ७.०१ मी. चौड़ा तथा २.४४ मीटर ऊंचा है, जिसमें पानी हेतु दो धाराएं थीं। दूसरी बात, दीवारों में एंटों पर ऐसा पदार्थ लगा था जिस पर पानी का असर न हो। इस नगर को देखकर ध्यान में आता है कि नगर को बसाने वाले निर्माण शास्त्र में बहुत पारंगत थे।

(२) द्वारका- इसी प्रकार डा. एस.आर.राव ने पुरातात्विक उत्खनन में द्वारका को खोजा और वहां जो पुरावशेष मिले वे बताते हैं कि द्वारका नगर भी सुव्यवस्थित बसा था। नगर के चारों ओर दीवार थी। भवन निर्माण जिन पत्थरों से होता था उनका समुद्री पानी में क्षरण नहीं होता था। दो मंजिले भवन, सड़कें तथा पानी की व्यवस्था वहां दृष्टिगोचर होती है। इस खुदाई में तांबा, पीतल व कुछ मिश्र धातुएं प्राप्त हुई हैं जिनमें जस्ता ३४ प्रतिशत तक मिश्रित है। निर्माण में आने वाले स्तंभ, खिड़कियों के पट आदि का माप व आकार पूर्ण गणितीय ढंग से था।

(३) लोथल बंदरगाह (सौराष्ट्र)-ईसा से २५०० वर्ष पूर्व लोथल का बंदरगाह बनाया गया, जहां छोटी नावें ही नहीं अपितु बड़े-बड़े जहाज भी रुका करते थे। यहां बंदरगाह होने के कारण एक बड़ा शहर भी बसा था। इसकी रचना लगभग मोहनजोदड़ो, हड़प्पा जैसी ही थी। सड़कें, भवन, बगीचे, सार्वजनिक उपयोग के भवन आदि थे। दूसरे, यहां श्मशान शहरी बस्ती से दूर बनाया गया था।

लोथल बंदरगाह ३०० मीटर उत्तर-दक्षिण तथा ४०० मीटर पूर्व-पश्चिम था और बाढ़, तूफान रोकने हेतु १३ मीटर की दीवार एंट, मिट्टी आदि की बनी थी। यह बंदरगाह बाद के काल बने में फोनेशियन और रोमन बंदरगाहों से बहुत विकसित था।

(४) वाराणसी-क्लॉड वेटली ने भारतीय शिल्प के बारे में लिखा है कि भारत की महान शिल्प विरासत की उपेक्षा की गयी है। बहुत सारी आधुनिक इमारतें भव्यता के बाद भी भारत को आबोहवा, मानसूनी हवाओं, जलवृष्टि और लंबरूप सूर्य के प्रकाश के कारण प्रतिकूल हैं।

भारत के परम्परागत वास्तु शिल्प की आवश्यक बातें पत्थर की कुर्सी, मोटी दीवारें, खिड़कियों का फर्स की ओर झुकाव, जिससे हवा का आगम-निर्गम (सरकुलेशन) उन्मुक्त रहे, भीतरी आंगन, तलघर, टेरेसनुमा छप्पर का निर्माण प्रचलित रहे हैं। भारतीय वास्तु शिल्प में इन बातों का ध्यान समुदाय की सुविधाओं और वृद्धिशील स्वास्थ्य के मद्देनजर रखा गया। वाराणसी विश्व का पहला नियोजित नगर माना गया है। प्राचीन भारत में जलशक्ति अभियांत्रिकी के विद्वान प्रो. भीमचन्द्र चटर्जी भारत के जल अभियांत्रिकी विज्ञान के बारे में लिखते हैं कि अयोध्या की राज्य परम्परा की चार पीढ़ियां अनवरत हिमालय से गंगा को लाने के लिए समर्पित रहीं और महान भगीरथ गंगा अवतरण में सफल हुए। गंगा का प्रवाह बंगाल की खाड़ी की ओर प्रवर्तित किया गया। वाराणसी के सामने गंगा को घुमाव दिया गया। यहां यह उत्तरामुखी होती है और इसकी दो शाखाएं होती हैं- वरुणा और असी। इनका जल पोषण गंगा ने किया। ऐसे घनत्व के स्थान जहां बाढ़ में जलागम बढ़ने पर अति जलागार को दूर प्रवाहित किया जा सके। बाढ़ रोकने का ऐसा अप्रतिम उदाहरण दूसरा नहीं।

(५) नगर नियोजन की नौ आवश्यक बातें (नवागम नगरम्‌ प्राहु:)

१. जलापूर्ति- पेयजल, जल-मल की शुद्धि।

२. मंडप-यात्रियों के लिए विश्रामालय, धर्मशालाएं, अतिथि गृह।

३. हाट-उपभोक्ता सामग्री क्रय-विक्रय स्थल।

४. दांडिक और पुलिस- अपराध अनुसंधान, दंड विधान की व्यवस्था, न्याय व्यवस्था, अराजक तत्वों से सुरक्षा।

५. बगीचा उद्यान- बाग-बगीचा, आमोद-प्रमोद और शिक्षा संस्थाओं के लिए।

६. आबादी- आवासीय व्यवस्था, कार्यशालाएं, कल कारखाने।

७. श्मशान- अन्तेष्टि स्थल और अस्थि विसर्जन की व्यवस्था।

८. स्वास्थ्य- अस्पताल, स्वास्थ्य निदान केन्द्र।

९. मन्दिर- देवी-देवता स्थल, सभी मतावलंबियों की सुविधा, समागम स्थल, सार्वजनिक समारोह।

(६) प्राचीन भारत में नगर नियोजन का दुर्लभ उदाहरण- कांजीवरम्‌ नगर नियोजन का अनुपम उदाहरण है। विश्व के नगर नियोजन विज्ञानी कांजीवरम्‌ का नियोजन देखकर दांतों तले अंगुली दबा लेते हैं। प्राचीन भारत में दक्षिण के नगर नियोजन के विशिष्ट वैभव के विषय में सी.पी.वेंकटराम अय्यर ने १९१६ में लिखा है कि प्राचीन नगर कांजीवरम्‌ परम्परागत श्रेष्ठ नगर नियोजन का एक दुर्लभ नमूना है। प्रोफेसर गेडेड ने इसे नगर नियोजन के भारत के चिन्तन और नागरिक सोच का उत्कर्ष कहा है और उसकी भूरि-भूरि सराहना की है। यहां अनुकूल आराम, कामकाजी दक्षता के अनुरूप नगर नियोजन ने प्रो.गेडेड की अत्यंत प्रभावित किया है। यह प्राचीन भारत में नगर नियोजन का ठोस सबूत है। प्रोफेसर गेडेड के विचार से नगर की योजना की यह उत्कृष्ट सोच है। नागरिक सोच की जितनी उत्कृष्ट कल्पना हो सकती है, शिल्पियों ने यहां उसे मूर्त रूप दिया है। उन्होंने मौलिक रूप से मन्दिरों के नगर को बहुत ही विलक्षण कल्पना से संवारा है। नगर को मंदिरों से मात्र आकार ही नहीं दिया गया है अपितु अनेक दृष्टियों से यह छोटी-छोटी बातों में समृद्ध है, जो आनंदित करता है। यहां समुदायों का अलग-अलग सपना साकार होता है। मानव की कल्पना तथा व्यवहार की गरिमा मूर्तरूप होती है। साथ ही व्यक्तिगत कलाकार को अपनी सुरुचिपूर्ण स्वायत्तता सुलभ है। अन्यत्र कहीं भी, यहां तक कि दुनिया के समृद्धतम नगरों में भी यह दुर्लभ है।

सेंट एम्ड्रयूज से ईडन, लिंकन से न्यूयार्क, आक्सफोर्ड से सेल्सबरी, एक्सेला चोपेले से कोलोग और फ्र्ीबर्ग रोबर से नाइम्स तक इसके विपरीत परिस्थितियां दृष्टिगोचर होती हैं। वहां नगर नियोजन के मामले में सम्यक्‌ बोध का अभाव और गिरावट है। झुग्गी-झोपड़ियों की बसावट है। इस सब विकृति से भारतीय नगर नियोजन कल्पना का मुक्त होना भारत के वास्तुवैभव, शिल्प की श्रेष्ठता और नगर नियोजन की समृद्धि का प्रमाण है।


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भारतीय संस्कृति को गन्दा करने वाले आपत्तिजनक टीवी प्रोग्राम के खिलाफ आवाज उठायें

आज कल कुछ टीवी चंनेल्स के प्रोग्राम्स (जैसे MTV roadies, Big Boss आदि ) ने  भारतीय संस्कृति को बर्बाद करने का ठेका ले रखा हैं  ये चंनेल्स है जैसे


MTV,
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अगर आप एसे टीवी प्रोग्राम से विचलित व्  परेशान है  जो भारतीय  यूवाओ को पश्चिमी संस्कृति की गंदगी व् अश्लिलिलता की  तरफ धीरे धीरे धकेल कर भारतीय  संस्कृति को  बर्बाद कर रहे हैं तो आप उनके खिलाफ आवाज NATIONAL BRODCASTING  ASSOCIATION में आवाज उठा सकते हैं
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Unbelivable.....But True

"Indians are poor but India is NOT a poor country" says one of the Swiss Bank directors...
He said that, "280 lac Crore" of Indian money is deposited in Swiss Bank, which can be used for 'Taxless' budget for next 30 yrs....Can give 60 crore jobs to all Indians.... 4 lane roads from ANY village to Delhi.... Forever free power supply to more than 500 social projects..... Every citizen can get monthly 2000/- for 60 yrs... No need of World Bank & IMF loan... 

Think how our money is blocked by rich personalities and politicians... We have full right against corrupt politicians........

Itna forward karo ki pura  INDIA padhe... Take This seriously.. We can forwards Jokes... then why not this??? 
Be a responsible citizen..................Thanks!!!

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  1.  हिवरे बाजार में स्वराज :   (हिवरे बाजार गाव के लोग  ) : ग्राम उत्थान  का अनोखा उदहारण 
  2. Khelein Hum Jee Jaan Sey(Abhishek Bachchan ) -  how krantikari worked against British govt
  3. Knock Out ( Sanjay Dutt) - On Black money deposited by Indian Polititions in Swiss Banks 
  4. 3 Idiots ( Amir Khan ) - Pressure of education on students due to English education system
  5. Swadesh (Shahrukh Khan ) - Request for reverse Brain Drain
  6. Lage Raho Munnabhai ( Sanjay Dutt) - On Gandhi Giri
  7. Road to Sangam (Paresh Raval) - On Hindu Muslim Unity
  8. Dharm ( Pankaj Kapoor) - On Hindu Muslim Unity
  9. Wednesday ( Nasirudeen Shah ) - whistle blowing against terrorism
  10. Rang de basanti ( Aamir Khan ) - whistle blowing against Corrupt System
  11. Khuda ke liye ( Nasirudeen Shah ) - misinterpretation of Islam
  12. Legend of Bhagat Singh ( Ajay Devgan ) - Story of  Bhagat Singh
  13. Naayak ( Anil Kapoor) - Improvement of Political system
  14. Sardar  (Paresh Raval) - Story of Sardar Patel       
  15. Neta Ji Subhas Chandra Bose ‘The forgotten Hero’ (starring Sachin Khandvekar)
  16. Veer Savarkar - Story of Veer savarkar
  17. Hindustani ( kamal Hassan) - War against Corruption
  18. Sparsh ( Nasirudeen Shah ) - Eye Donation

we can create most of totaly employment in india for indian if we start totaly swadeshi make goods use then so please help one people for his employment from buy 1 year of swadeshi make- made in india company goods --and proud ur self as a helper of ur brother from die by hungar please buy indian goods ----jai hind


बड़ी समस्यों के सरल उपाय - Simple solutions of complex problems of India

 Unemployment: Only use of Khadi cloths can give employment to 60 crore people in India 


 Water: Using One Roof of 100 Sq yard we can collect 50,000 liter clean rain water every year.

 Money for Development : Around 300 Lakh crore rupees is deposited in swiss bank  by our corrupt politicians . If we can take this money back to India ,From these funds we can repay 13 times of our country's foreign debt. The interest alone can take care of the Center’s yearly budget. People need not pay any taxes and we can pay Rs. 1 lakh to each of 45 crore poor families.

वायु प्रदुषण ( solution of Air pollution ) : एक पेड़ अपने 50 वर्ष की उम्र  तक एक करोड़ रूपए मूल्य की ओक्सिजन हमें दे देता है , इस लिए अपने घर / ऑफिस  के पास पेड़ लगाये और वातावरण को सिर्फ एक पेड़ के खर्चे पर इतनी सारी ओक्सिजन  दे

 रिश्वतखोरी / काला धन / आतंकवाद / नकली नोट/भ्रस्टाचार: 1000 व् 500 के नोट को अगर बंद कर दिया जाए और जो छपे हुए है उनको सरकार द्वारा वापस ले लिया जाए  तो इस से बड़े स्तर की   रिश्वतखोरी, बड़े स्तर का भ्रस्टाचार  , काला  धन की समस्या  , नकली नोटों से हो रही देश की  अर्थव्यवस्था  की हानि , आतंकवाद  को आसानी से काबू किया जा सकता है 


भ्रस्टाचार को ख़तम करने के आसन उपाय : 
1) सभी सरकारी कामो को कंप्यूटर द्वारा ऑनलाइन किया जाए ,  जैसे रेलवे आरक्षण , पासपोर्ट आवदेन  के ऑनलाइन होने से इन विभागों में भ्रस्टाचार में भारी कमी आयी है
2) 1000 व् 500 के नोट को अगर बंद कर दिया जाए तो बड़े स्तर का भ्रस्टाचार ख़तम हो जायगा क्योंकि करोडो रूपए को छुपाने के लिए एक सूटकेस की नहीं गोदोमो की जरुरत पड़ेगी ,
 3) सारा लेनदेन का काम , चेक , ड्राफ्ट , ऑनलाइन पेमेंट , आदि से होने से काला  धन की समस्या  ख़तम हो जायगी
4) ऐसे कानून बने जिसके अंतर्गत भ्रस्टाचार के मामलो की सुनवाई फास्ट ट्रैक अदालत  में हो और 2-3 महीनो में फैसला होना चाहिये ( नहीं तो केस के सम्बंधित वकीलों  व् जज के खिलाफ सजा का प्रावधान होना चाहिये ) , आरोप सिद्ध होने पर  कड़ी सजा और बड़े स्तर के भ्रस्टाचार के मामलो में फांसी की सजा  का प्रावधान होना चाहिये
 
and we can  create most of totaly employment in india for indian if we start totaly swadeshi make goods use then so please help  one people for his employment from buy 1 year of swadeshi make- made in india company goods  --and proud ur self as a helper of ur brother from die by hungar please

Know some Negative Facts about India to find solutions for them

• 70 lakhs crores rupees of India are lying in Swiss bank. This is the highest amount lying outside any country, from amongst 180 countries of the world, as if India is the champion of Black Money. In total if we include other 69 banks the amount is more than 300 lakh crores.

• In our country 84 crore people live with just 20 Rs Daily.

• 25 crore people sleep hungry everyday.

• In 1947 poverty was 10% now it has increased to 70% in 2010.

• Every year 2 crore children take birth in India out of which 42% children drop the school before 5th class, only 11% people reach to colleges • we pay 64 type of different tax.

• At the time of Mugal Emperor Aurangzeb total export by India was 22% of the total export of the world . Now it is only 2%.

• In 1760 according to Macaulay 100% people were employed and 100% people were educated .and there were no baggers and theives in India at that time. 

• Every year 20 lakh crore Rs are being sent to Swiss bank as black money by corrupt politicians and bureaucrats.

• Every year 50 lakh ton grain is roted by mismanagement of government (35 % the total production of  grains) which could be used to feed PBL family for two years .  
• Only 35% people are able to afford the medical treatment. Remaining is living without any treatment. 

• In 1947 one dollar was equal to one Rupee; now in 2010 one dollar is equal to 45 Rupees due to a treaty of India with World Bank.

• Every Year 50000 girl children are lost in India to make them sex workers

• 7 Rape cases per hour.

• One Death for Dowry per hour 

• 40 lakh Girl children die before birth (foeticide ) every year .
 35 crore (350 million) Indians can't read and write.

 Twenty-five crore (250 million) people do not have access to safe drinking water,

 75 crore (750 million) have no access to sanitation facilities

 3 crore children die due to hunger every year . 

 India has an installed electricity generation capacity of 145 gigawatts but only 84 gigawatts are available

 304 members of Lok Sabha, who contested the 2009 elections, had recorded an increase of assets by nearly 300 per cent during their previous term.

•Out of 625 districts 250 districts are Naxal-affected

Tips on Social Service From Home This blog is to tell what we can do for our country sitting at home and how to do social service from home. And remember the first step - अपने आप को सुधारना ही संसार की सबसे बड़ी सेवा है


Know some Positive Facts about India to feel proud about them

· Maharishi Brahamagupt invented Addition , substraction, multiplication , division 

· Maharishi Brahamagupt invented algebra , square , square root , cube , cube root 

· We Invented ship making, 

· We Invented cloth making, 

· We Invented steel technology


· We Invented Wheel

· We created Zink 

· We created Mercury

· We Invented Gun powder

· We Invented Chess game .

· We Invented Organic pesticides and organic manure

· We were the first to Invent agriculture tools and method of agriculture in straight line

·Aryabhaat Invented 0 ( zero) and decimal thousand years ago.

· Aryabhaat Invented 7 days of week e.g. Sunday , Monday, Tuesday...... .

· Aryabhaat was the first to find out the timing of solar eclipse and lunar eclipse.


· Aryabhaat was the first to find  the exact distance between Earth and Sun.

· Aryabhaat Invented Trignomatry ( Trikonmiti )


· Aryabhaat Invented NUMBER SYSTEM i.e. counting from 0 to 9 .

· Differentiation , Integration ,  and  Binomial thoerm ( dwi ayami pramey) are Invented by India

. Maharishi Bodhyan inventer bodhyan pramay which is now we know as Pythagoras Theorem

· We Invented First Language of the world " Sanskrit"

· आधुनिक युग में राकेट का प्रथम प्रयोग श्रीरंगपट्टनममें टीपूसुल्तान पर जब अंग्रेजों ने आक्रमण किया था, उस युध्द में भारतीय सेना नें किया था।    ज्यादा जानकारी के लिए ब्रिटिश वैज्ञानिक सर बर्नाड लावेल द्वारा लिखी पुस्तक  ''द ओरिजन एण्ड इंटरनेशनलइकोनॉमिक्स ऑफ स्पेस एक्सप्लोरेशन'' पढ़ें

· We Invented first alphabet system  "Devnagri".

see more from http://www.amazingincredibleindia.com/doyou-india.html

and some more from 
http://www.zeenews.com/IndiaFirst/india.aspx?aid=557216

and lot more  from   भारत का वैज्ञानिक चिन्तन


and did u know that nowdays in competition level mathemetics teach hot trick is come from almost from vedic mathemetics of ancient indian education system that easily solve any type of mathematics problems

did u know how india is great and great monetary system in past time because indian is only have a great ideas forever but not now 1947 to2011


Know some Negative Facts about India to find solutions for them

• 70 lakhs crores rupees of India are lying in Swiss bank. This is the highest amount lying outside any country, from amongst 180 countries of the world, as if India is the champion of Black Money. In total if we include other 69 banks the amount is more than 300 lakh crores.

• In our country 84 crore people live with just 20 Rs Daily.

• 25 crore people sleep hungry everyday.

• In 1947 poverty was 10% now it has increased to 70% in 2010.

• Every year 2 crore children take birth in India out of which 42% children drop the school before 5th class, only 11% people reach to colleges • we pay 64 type of different tax.

• At the time of Mugal Emperor Aurangzeb total export by India was 22% of the total export of the world . Now it is only 2%.