Tuesday, August 2, 2011

परिवर्तन की चाह और नयी संविधान सभा

|| शीतला सिंह ||
आज के हालात पर नजर डालिए. सरकार भ्रष्टाचार के खिलाफ़ लोकपाल कानून पर विचार के लिए बनी कमेटी में विधायी संस्थाओं के बजाय अपरिभाषित सिविल सोसाइटी के लोगों को शामिल करने पर विवश है.
सत्ता पक्ष के नेता जिन्हें प्रधानमंत्री पद के दावेदार और देश के कर्णधार बता रहे हैं, वही राहुल गांधी कह रहे हैं कि पूरी प्रणाली सड़ चुकी है और इसमें परिवर्तन की जरूरत है. सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एसएच कपाड़िया अपने साथियों को सीख दे रहे हैं कि उन्हें सुपर विधायिका बनने का प्रयास नहीं करना चाहिए. निर्णय आस्थाओं और विश्वासों के आधार पर नहीं, बल्कि कानून के आधार पर होना चाहिए. साथ ही वे यह भी मान रहे हैं कि अदालत की अवमानना कानून में ऐसा परिवर्तन होना चाहिए, जिससे उसके निर्णयों की स्वस्थ आलोचना हो सके. जस्टिस कपाड़िया यह भी कहते हैं कि काले कोट में हमें साफ़-सुथरे लोगों की जरूरत है.
भारत के संविधान के संकल्प में कहा गया है कि‘हम भारत के लोग इसे आत्मार्पित करते हैं’तो इसका अर्थ यही निकलता है कि जिसे आत्मार्पित किया गया, उससे वे लोग कहीं बड़े हैं. यह लोकशक्ति की सर्वोच्चता का परिचायक है. समाज की परिवर्तनशीलता के गुणों का वरण करते हुए इसीलिए उसमें समय-समय पर संशोधन और परिवर्तन का भी समावेश किया गया है.
असहजताजन्य आंदोलन, असहमति के स्वर, कुछ पाने की अकुलाहट जब बढ़ रही हो तो इसे हम बढ़ती हुई आपराधिक प्रवृत्ति के रूप में देख सकते हैं. दोषों के समावेश को कानून की लाठियों और जेल की दीवारों से रोका नहीं जा सकता. यह ठीक उसी प्रकार से है, जैसे रेल या मोटर कार में चलते हुए भी तरंगों द्वारा कोई बात सुन या सुना सकते हैं, वह भले ही दृश्य के रूप में सामने न हो. लेकिन इसके मूल कारण व्‍यक्तियों, शरीरों और उनकी आवश्यकताओं तथा उससे जन्मी मान्यताओं में निहित हैं. चिंतन प्रक्रिया भी उसी का अंग है. इसे परिवर्तित करना आसान नहीं. इसीलिए संविधान के दायित्वों में वैज्ञानिक तेवर के विकास का लक्ष्य रखा गया है. लेकिन इसे सम्यक रूप से स्वीकारना हमारे वश में नहीं है, क्योंकि यह पूरा समाज ही विभिन्न स्वार्थो में बंटा है.
अब सवाल यह उठता है कि यदि विद्यमान युग की विसंगतियों से हमें मुक्त होना है, तो उसका रास्ता क्या होगा ? हमने अन्ना हजारे अनशन प्रकरण पर अपनी स्थापित मान्यताओं के विपरीत आचरण करके विधायिका पर भी चोट की है कि उसकी जीवंतता के लिए बाहर से प्राण वायु चाहिए. यह प्राणहीनता की स्थिति क्या इसलिए आयी है कि वर्तमान निर्वाचन पद्धति और प्रणाली द्वारा इसे ग्रहण नहीं किया जा रहा है ? जब विधाता ही संकट में आ जायेगा तो रचना भी दोषपूर्ण होगी ही. जिस संविधान को हमने आत्मार्पित किया था, उसमें गण और लोक दोनों को ही रखा है और उनकी भूमिकाएं भी, लेकिन हम यह मानने को तैयार नहीं हैं कि मानव शरीर में स्थापित मन है, वह पूर्ण हो सकता है, पर समाधान हम मिलकर निकालते हैं. जब समाज के विभिन्न वर्ग और समुदाय, उनका नेतृत्व करने वाले लोग और भावी सोच के विचारकों को यह दोष जगह-जगह और विभिन्न अंगों में दिखने लगे तो यही कहा जा सकता है कि जरूरत अब औषधियों की नहीं, परिवर्तन के लिए अपेक्षित ऑपरेशन की है. हमारे मन में ऑपरेशन को लेकर जो डर है वही हमें रोकता है, क्योंकि यह निश्चिंतता नहीं है कि इससे हम ऐसे सर्वागीण अंगों का विकास कर लेंगे, जिनमें परिवर्तन का विधान तो होगा लेकिन आवश्यकता त्वरित नहीं होगी.
इसलिए अब एक नयी संविधान सभा का गठन किया जाना चाहिए जो कम से कम विद्यमान दोषों से मुक्त हो. इसी के साथ विसंगतियों का जन्म जिन श्रोंतों से हो रहा है उन्हें कैसे रोका या बंद किया जाये, यह मूल प्रश्न होगा. पुरानी संविधान सभा का प्रतिनिधिक चरित्र लोकवादी नहीं था, क्योंकि तब देश के सभी वयस्कों को भी मताधिकार हासिल नहीं था. चयन पद्धति भी पूर्ण रूप से स्वस्थ नहीं थी. इसलिए अब कार्यपालिका के स्थायित्व, इसके दुर्गुणों से मुक्ति, विधायिका के दोषों, पैसे पर आधारित चुनाव प्रक्रियाओं, ऐसी न्यायपालिका जो अपनी सर्वोच्चता बोध से ग्रस्त हो तथा कार्यपालिका से जुड़े.
अधिकारों के कारण शक्ति अर्जित करने के लिए आचार संहिताओं का स्वत पालन उनकी आत्माओं के आधार पर न हो रहा हो, उसे लोक सर्वोच्चता की श्रेणी में लाना ही होगा. इसी के साथ ही निर्वाचित लोगों को वापस बुलाने के अधिकार पर भी विचार करना होगा.नयी सोच की स्थितियों में अलग-अलग टुकड़े में इलाज के बजाय समग्र परिवर्तन की यथार्थता को मानकर हमें नया समाज बनाने की आवश्यकता को स्वीकार करने के लिए नयी संविधान सभा की आवश्यकता होगी ही. इसके विरोधी यथास्थितिवादी हो सकते हैं और ओर्थक वर्चस्व के कारण अपने स्वाथरें की रक्षा में प्रयत्नशील लोग

महात्मा गांधी को भी आये थे कम नंबर

नौ साल की उम्र में आत्महत्या ! बाल मन के झूले पर सुनहरे सपने की पेंग भरनेवाले इस उम्र के बच्चे की आत्महत्या की खबर ने आपको भी जरूर विचलित किया होगा. आत्महत्या इस कदर बढ़ रही है कि इस पर चिंतन की जरूरत है. प्रभात खबर आज से जिंदगी जीने के लिए विशेष श्रंखला शुरू कर रहा है. इसके तहत जीवन में हताशा, परीक्षाफ़ल से निराश और उलझनों से परेशान लोगों को उन उदाहरणों से परिचित कराया जायेगा, जिन्होंने विपरीत परिस्थितियों में न केवल जीने की जिजीविषा कायम रखी, बल्कि सफ़ल भी हुए.
जीवन जीने के लिए –1
दुनिया की सबसे डरावनी बीमारी का नाम कैंसर है. कैंसर अगर गंभीर स्तर पर पहुंच गया है, तब तो लोग मान बैठते हैं कि मौत बस चंद दिनों की बात है. पर, क्या किसी ने कैंसर पीड़ित व्यक्‍ति को आत्महत्या करते सुना है. उदाहरण खोजना मुश्किल होगा. वह सामने खड़े यमराज से ओखरी सांस तक लड़ता है.
वहीं हम आसपास फूल-से किशोरों या स्वस्थ युवकों को आत्महत्या करते पाते हैं.हाल में एक छात्र ने सुसाइडल नोट में लिखा-सॉरी पापा, मैं आपके सपने को पूरा नहीं कर पाया.
जिस छात्र ने अपने बारे में ऐसा मूल्यांकन किया, उसने खुद को पहचानने में भूल की. शायद उसे नहीं मालूम था कि जिस आदमी ने मानवता का नया इतिहास लिख दिया, वही आदमी आठवीं कक्षा में इतिहास में बेहद कमजोर था. जी हां, हम बात कर रहे हैं महात्मा गांधी की. उन्हें इतिहास में कम नंबर आते थे, पर वह अपने कर्मो से ऐतिहासिक बन गये.
पूर्व राष्ट्रपति डॉ एपीजे अब्दुल कलाम ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि आदमी को अपनी प्रतिभा की तुलना कभी अपने कॉलेज के रिपोर्ट कार्ड से नहीं करनी चाहिए. आत्महत्या कायरता है. काश, उस युवक ने लिखा होता, सॉरी पापा, मेरे कम नंबर आये, लेकिन मैं हार नहीं मानूंगा. मैं अपनी प्रतिभा का इस्तेमाल दुनिया को सुंदर बनाने में करना चाहता हूं. अपना छोटा-सा ही सही, लेकिन योगदान देना चाहता हूं.

दो बार फेल हुए थे गणितज्ञ रामानुजन

जीवन जीने के लिए –2
देश के महान गणितज्ञ श्रीनिवास अयंगर रामानुजन 12वीं में दो बार फेल हुए. उनका वजीफा बंद हो गया. उन्हें क्लर्क की नौकरी करनी पड़ी. इससे पहले उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा पहले दरजे से पास की थी. जिस गवर्नमेंट कॉलेज में पढ़ते हुए वे दो बार फेल हुए, बाद में उस कॉलेज का नाम बदल कर उनके नाम पर ही रखा गया.
पटना सहित कई शहरों में उनके नाम पर शिक्षण संस्थान हैं. तब उनकी प्रतिभा को समझनेवाले लोग देश में नहीं थे. उन्होंने तब के बड़े गणितज्ञ जीएच हार्डी को अपना पेपर भेजा. इसमें 120 थ्योरम (प्रमेय) थे. उन्हें कैंब्रिज से बुलावा आया. फेलो ऑफ रॉयल सोसाइटी से सम्मानित किया गया. उनके सूत्र कई वैज्ञानिक खोजों में मददगार बने.
अगर रामानुजन 12वीं में फेल होने पर निराश हो गये होते, तो कल्पना कीजिए, दुनिया को कितना बड़ा नुकसान होता. ठीक है, सभी रामानुजन नहीं हो सकते, पर यह भी अकाट्य सत्य है कि हर किसी कि अपनी विशिष्टता है. इस विशिष्टता का व्यक्तिगत व सामाजिक मूल्य भी है. इसे नष्ट नहीं, बल्कि पहचानने व मांजने की जरत है.
फ्रांस के इमाइल दुर्खीम आत्महत्या पर शोध करनेवाले पहले आधुनिक समाज विज्ञानी हैं.1897 में उन्होंने इसके तीन कारण बताये, जिनमें पहला है आत्मकेंद्रित होना. व्यक्ति का समाज से कट जाना. जिंदगी को अकेलेपन में धकेलने के बदले, आइए हम खुद को सतरंगी समाज का अंग बना दें