Monday, July 11, 2011

पीएसएलवी मिशन की सफ़लता की कहानी

ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान या पीएसएलवी भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान केंद्र द्वारा संचालित एक प्रक्षेपण यान है. भारत ने इसे अपने सुदूर संवेदी उपग्रह को सूर्य समकालिक कक्षा में प्रक्षेपित करने के लिए विकसित किया.
पीएसएलवी के विकास से पूर्व यह सुविधा केवल रूस के पास थी. पीएसएलवी छोटे आकार के उपग्रहों को भू-स्थिर कक्षा में भी भेजने में सक्षम है. यह अपनी विश्वसनीयता और कार्य क्षमता को समय-समय पर सिद्ध करता रहा है. पीएसएलवी के एक उड़ान में 17 मिलियन डॉलर की लगत आती है. यह चार चरणों वाला रॉकेट है. जिसमें ईंधन के रूप में पहले और तीसरे चरण में ठोस और दूसरे और चौथे चरण में द्रव प्रणोदक प्रयोग किये जाते हैं. यह ठोस व द्रव संचालन प्रणाणी का बारी-बारी से इस्तेमाल करता है.
पीएसएलवी का यह लगातार 17वां सफ़ल मिशन है. पीएसएलवी मिशन सिर्फ़ एक बार विफ़ल हुआ था, जब सबसे पहले पीएसएलवी-डी1 को 20 सितंबर 1993 को प्रक्षेपित किया गया था. वर्ष 1994 से पीएसएलवी को इसरो का तिरुवनंतपुरम स्थित विक्रम साराभाई अंतरिक्ष केंद्र विकसित कर रहा है. पीएसएलवी के जरिये 44 उपग्रह प्रक्षेपित हो चुके हैं, जिनमें से 25 विदेशी उपग्रह हैं. इससे इसरो ने काफ़ी आय प्राप्त किया है. पीएसएलवी ने जो खास प्रक्षेपण किये हैं, उनमें भारत का चंद्र अभियान चंद्रयान-1 शामिल है, जिसे अक्तूबर 2008 में भेजा गया था. इसके अलावा काटरेसैट और रिसोर्ससैट-1 भी अहम प्रक्षेपणों में शामिल हैं.
मानक पीएसएलवी 44 मीटर लंबा होता है और इसका वजन 295 टन होता है. यह अपने साथ 1,600 किलोग्राम वजनी उपग्रह ले जा सकता है और उन्हें सूर्य समकालिक ध्रुवीय कक्षा में 620 किलोमीटर की ऊंचाई पर स्थापित कर सकता है. पीएसएलवी भू-समकालिक स्थानांतरण कक्षा में भी 1,050 किलोग्राम वजनी उपग्रह स्थापित कर सकता है. पीएसएलवी ऐसा परिवर्तनशील यान बन गया है जो ध्रुवीय सूर्य समकालिक कक्षा, निम्न पृथ्वी कक्षा और समकालिक स्थानांतरण कक्षा में कई उपग्रहों को स्थापित कर सकता है. पीएसएलवी में एक ही प्रक्षेपण में कई पेलोड और कई मिशन को साथ ले जाने की क्षमता है.
- पीएसएलवी-डी1 आइआरएस-1 -20 सितंबर 1993 – विफ़ल.
- पीएसएलवी-डी2 आइआरएस-पी2 -15 अक्तूबर 1994- सफ़ल.
- पीएसएलवी-डी3 आइआरएस-पी3 -21 मार्च 1996 – सफ़ल.
- पीएसएलवी-सी1 आइआरएस-1डी -29 सितंबर 1997 – सफ़ल.
- पीएसएलवी-सी1 ओशियनसैट और दो अन्य उपग्रह -26 मई 1999 – सफ़ल.
- पीएसएलवी-सी3 टीइएस -22 अक्तूबर 2001 – सफ़ल.
- पीएसएलवी-सी4 कल्पना-1 -12 सितंबर 2002 – सफ़ल.
- पीएसएलवी-सी5 रिसोर्ससैट-1 -17 अक्तूबर 2003 – सफ़ल.
- पीएसएलवी-सी6 काटरेसैट-1 और हैमसैट -5 मई 2005 – सफ़ल.
- पीएसएलवी-सी7 काटरेसैट-2 और तीन अन्य उपग्रह -10 जनवरी 2007 – सफ़ल.
- पीएसएलवी-सी8 एजाइल -23 अप्रैल 2007 – सफ़ल.
- पीएसएलवी-सी10 टीइसीएसएएआर -23 जनवरी 2008 – सफ़ल.
- पीएसएलवी-सी9 काटरेसैट - 2ए आईएमएस-1 और आठ नैनो उपग्रह -28 अप्रैल 2008 – सफ़ल.
- पीएसएलवी-सी11 चंद्रयान-1 -22 अक्तूबर 2008 – सफ़ल.
- पीएसएलवी-सी12 आरआइसैट-2 और एएनयूसैट -20 अप्रैल 2009 – सफ़ल.
- पीएसएलवी-सी14 ओशियनसैट-2 व छह अन्य उपग्रह -23 सितंबर 2009- सफ़ल.
- पीएसएलवी-सी15 काटरेसैट-2बी व चार अन्य उपग्रह -12 जुलाई 2010- सफ़ल.
- पीएसएलवी-सी16 रिसोर्ससैट-2 और दो अन्य उपग्रह -20 अप्रैल 2011 – सफ़ल.

अमेरिका को मेगाथ्रस्ट भूकंप का डर

जापान में आये भूकंप के बाद अमेरिका को अपने पश्चिमी तट पर मेगाथ्रस्ट भूकंप आने का डर सताने लगा है.
अमेरिकी वैज्ञानिकों का मानना है कि अमेरिका के पश्चिमी तट पर कभी भी तीव्र शक्ति का भूकंप आ सकता है और इससे काफ़ी शक्तिशाली सुनामी भी आ सकती है. वैज्ञानिकों का मानना है कि भूकंप के साथ आने वाली सुनामी इतनी शक्तिशाली होगी कि इससे उत्तर-पश्चिमी तट का काफ़ी बड़ा हिस्सा तबाह हो सकता है. वैज्ञानिकों का कहना है कि पश्चिमी तट के समीप समुद्र के भीतर कास्केडिया भ्रंश रेखा करीब 300 वर्षो से निष्क्रिय पड़ी हुई है. काफ़ी संभावना है कि इस प्लेट में निकट समय में तेज हलचल देखने को मिले. जापान में आये भूकंप के बाद वैज्ञानिकों ने ज्यां-द-फ़ुका प्लेट की स्थिति की समीक्षा की. इस अध्ययन के आधार पर कहा गया कि अमेरिका के पश्चिमी तट के पास समुद्र के भीतर एक मेगाथ्रस्ट भूकंप आने की प्रबल संभावना है. यह भूकंप ज्यां द फ़ुका प्लेट के कास्केडिया भ्रंश रेखा के सहारे अमेरिकी प्लेट के भीतर धक्का लगाने के कारण पैदा हो सकता है. वैज्ञानिकों का मानना है कि 11 मार्च को जापान में आयी सुनामी को जन्म देनेवाला भूकंप मेगाथ्रस्ट भूकंप की श्रेणी का था.
इसी तरह अमेरिकी पश्चिमी तट से 50 मील दूर कास्केडिया भ्रंश रेखा के चटकने की आशंका है, जिससे भूकंप और सुनामी का जन्म हो सकता है. इस भूकंप की आशंका इस कारण जतायी जा रही है, क्योंकि भ्रंश रेखाओं के साथ आने वाले भूकंपों के बीच की औसत अवधि 8 से 240 वर्ष की है और इस भ्रंश रेखा के सहारे आनेवाला अंतिम भूकंप करीब 300 वर्ष पहले आया था. यानि अगर औसत समय अंतराल के हिसाब से बात करें तो, इस क्षेत्र में किसी भी पल भूकंप आ सकता है. गौरतलब है कि कास्केडिया भ्रंश उत्तर-पश्चिमी तट पर स्थित वैंकूवर द्वीप से उत्तरी कैलिफ़ोर्निया तक फ़ैला हुआ है और इस भ्रंश के सहारे 300 वर्षो से कोई भूकंप नहीं आया है. गणना के आधार पर यह कहा गया है कि अगले 50 वर्षो के भीतर इस क्षेत्र में रिक्टर स्केल पर 8 पैमाने वाले भूकंप के आने की संभावना 45 प्रतिशत है, जबकि इससे ज्यादा तीव्रता वाले भूकंप के आने की संभावना करीब 15 फ़ीसदी है.
क्या है मेगा थ्रस्ट भूकंप-
सन् 1900 के बाद आने वाले सभी 9 तीव्रता वाले भूकंप मेगाथ्रस्ट भूकंप की श्रेणी में आते हैं. ऐसा भूकंप तब आता है जब कोई टेक्टोनिक प्लेट धरती के किसी दूसरे टेक्टोनिक प्लेट के भीतर घुसती है और भीतर से उसे धक्का लगाती है. 2004 में 26 दिसंबर को हिंद महासागर में आयी सुनामी का कारण ऐसा ही मेगाथ्रस्ट भूकंप था. 11 मार्च को जापान में आये भूकंप को भी मेगाथ्रस्ट भूकंप की श्रेणी में रखा जा सकता है

स्विट्जरलैंड में खिला दुनिया का सबसे बदबूदार फ़ूल

टाइटन एरम पौधे का फ़ूल
दुनिया का सबसे बदबूदार और सबसे बड़ा फ़ूल इन दिनों खिला है. स्वीट्जरलैंड में करीब 75 वर्षों के बाद टाइटन एरम पौधे ने अपनी पत्तियां खोली हैं और इसमें फ़ूल आये हैं.
हालांकि, अपने आकार के कारण यह फ़ूल लोगों के लिए आकर्षण का केंद्र बना है लेकिन इस फ़ूल से निकलने वाली गंध इतनी खराब होती है, कि आप शायद ही इस अजूबे फ़ूल को ज्यादा वक्त तक निहारने का साहस जुटा पायें. आपको इस बात से आश्चर्य होगा कि इस फ़ूल की बदबू सड़े हुए मांस जैसी होती है. यह फ़ूल जिसे कॉर्प्स फ्लावर नाम से पुकारा जाता है, गुड फ्राइडे के दिन स्वीटजरलैंड स्थित बेसल के बॉटैनिकल गार्डन में खिला. इस फ़ूल की ऊंचाई दो मीटर से ज्यादा है. एरम टाइटन नामक इस पौधे के बीज से इस अवस्था तक पहुंचने में 17 वर्षो का समय लगा है.
यह पिछले कुछ दिनों से हर रोज 6 सेंटीमीटर बढ़ रहा था और शुक्रवार शाम को पूरी तरह खिल गया. दिलचस्प बात यह है कि इस पौधे को जहां अपने पूरे आकार में आने में 17 वर्षों का वक्त लगा है, वहीं फ़ूल खिलने के महज दो दिन बाद ही रविवार से इसने मुरझाना भी शुरू कर दिया है. इस फ़ूल के खिलने के बाद इसे देखने वालों की भीड़ जमा हो गयी. अंदाजा है कि सिर्फ़ दो दिनों में ही दस हजार से ज्यादा लोग इसे देखेंगे. इस फ़ूल की खोज 1878 में इटली के वैज्ञानिक बेक्कारी ने की थी. इसकी खोज किये जाने के बाद अब तक, दुनिया-भर में इसके खिलने की 134 घटनाएं दर्ज हुई हैं. एक दशक में इस पौधे में औसतन एक बार ही फ़ूल आते हैं. इस पौधे का मूल स्थान इंडोनेशियाई वर्षा वन हैं. यह बिना किसी शाखा के सबसे ज्यादा प्रसार करने वाला पौधा है.
दुनिया भर में वनस्पति शास्त्रियों के भीतर टाइटन एरम को लेकर खासा उत्साह देखा जाता है. इसके फ़ूल की पत्तियां छतरी के आकार की होती हैं. इस फ़ूल का कुल व्यास करीब तीन से चार फ़ीट के बराबर होता है. इसकी गंध को करीब एक मील की दूरी से ही पहचाना जा सकता है.