" आज़ादी के दौर में पत्रकारिता परवान चढी थी. "उद्दंड मार्तंड" और "सरस्वती" के दौर
में एक विज्ञापन निकलता है --"आवश्यकता है सम्पादक की, वेतन /भत्ता - दो
समय की रोटी -दाल, अंग्रेजों की जेल और मुकदमें" लाहौर का एक युवक आवेदन
करता है और प्रख्यात पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी उसको सम्पादक नियुक्त
करते हैं. सरदार भगत सिंह इस प्रकार अपने पत्रकारीय जीवन की शुरुआत करते
हैं. तब पत्रकारिता प्रवृत्ति थी अब आज़ाद...ी के बाद वृत्ति यानी आजीविका
का साधन हो गयी. पहले पत्रकारिता मिसन थी अब कमीनो का कमीसन हो गयी. भगत
सिंह ने जब असेम्बली बम काण्ड किया तो अंग्रेजों को उनके विरुद्ध कोइ
भारतीय गवाह नहीं मिल रहा था. तब दिल्ली के कनाटप्लेस पर फलों के जूस की
धकेल लगाने वाले सरदार सोभा सिंह ने अंग्रेजों के पक्ष में भगत सिंह के
विरुद्ध झूटी गवाही देकर भगत सिंह को फांसी दिलवाई और इस गद्दारी के बदले
सरदार शोभा सिंह को अंग्रेजों ने पुरुष्कृत करके " सर" की टाइटिल दी और
कनाट प्लेस के बहुत बड़े भाग का पत्ता भी उसके हक़ में कर दिया. मशहूर
पत्रकार खुशवंत सिंह इसी सरदार शोभा सिंह के पुत्र हैं. अब पत्रकारों को तय
ही करना होगा कई वह पुरुष्कृतों के प्रवक्ता हैं या तिरष्कृतों के. यानी
पत्रकारों की दो बिरादरी साफ़ हैं एक -- गणेश शंकर विद्यार्थी /भगत सिंह के
विचार वंशज और दूसरे सरदार शोभा सिंह के विचार बीज. 2G की कुख्याति में
हमने बरखा दत्त, वीर सिंघवी, प्रभु चावला और इनके तमाम विचार वंशज
पत्रकारों को "दलाल" के आरोप से हलाल किया फिर भी पत्रकारिता के तमाम गुप
चुप पाण्डेय अभी बचे हैं. विशेषकर इलेक्ट्रोनिक मीडिया की मंडी की फ्राडिया
राडिया रंडीयाँ और दलाल अभी भी सच से हलाल होना शेष हैं. "पेड न्यूज" और
"मीडिया मेनेजमेंट" जैसे शब्द संबोधन वर्तमान मीडिया का चरित्र साफ़ कर देते
हैं कि मीडिया का सच अब बिकाऊ है टिकाऊ नहीं. क्या है कोई संस्था जो
पत्रकारों पर आय की ज्ञात श्रोतों से अधिक धन होने की विवेचना करे ? पहले
सच मीडिया बताती थी और न्याय न्याय पालिका करती थी. मीडिया और न्याय पालिका
ही दो हाथ थे जो रोते हुए जन -गन -मन के आंसू पोंछते थे. अब ये दोनों हाथ
जनता के चीर हरण में लगे हैं. पत्रकारों से प्रश्न है --"सच" में तो
सामर्थ्य है पर क्या वर्तमान में मीडिया सच की सारथी है या इतनी स्वार्थी
है कि सच की अर्थी निकाल रही है." ---- राजीव चतुर्वेदी
By: Rajiv
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