अमिता त्यागी |
"खंडित खंडित देश हो रहा, खंडित सी पहचान!
खद्दर धारी बेच रहें हैं, फिर से हिंदुस्तान!
सच कहने वाले के तन पे, लाठी की बौछारें,
और खुद को बतलाते हैं वो, सच्चा, नेक, ईमान!
मजदूरों को मेहनत की भी, मजदूरी ना मिलती!
उनके घर के चूल्हों में तो, चिंगारी ना जलती!
आम आदमी हुआ है बूढ़ा, नेता हुए जवान!
खद्दर धारी बेच रहें हैं, फिर से हिंदुस्तान.............
शीतलहर में रहने वाले, गर्मी क्या जानेंगे!
कितनी भी तुम करो मन्ववत, वो कैसे मानेंगे!
उनके खून की एक बूंद से, अखबारें छप जातीं,
बाल बराबर करेंगे लेकिन, सौ गज की तानेंगे!
आम आदमी की झुग्गी पे, तिरपालें ना मिलतीं!
उनके घर के चूल्हों में तो, चिंगारी ना जलती!
उनकी पशु प्रवत्ति से तो, थर्राता इन्सान!
खद्दर धारी बेच रहें हैं, फिर से हिंदुस्तान.............
सत्ता उनकी बनी बपौती, ऐसा है व्यवहार!
जनता को ये बेच रहें हैं, जैसे हो बाज़ार!
मिन्नत कर लो लेकिन उनसे, "देव" नहीं मिलते हैं,
उनके घर के चहुऔर है, पर्वत सी दीवार!
आम आदमी सिसक रहा है, दवा तलक ना मिलती!
उनके घर के चूल्हों में तो, चिंगारी ना जलती!
देश की कोई फ़िक्र नहीं है, खुद को कहें महान!
खद्दर धारी बेच रहें हैं, फिर से हिंदुस्तान!"
"अगर देश को बेचने से रोकना है तो, स्वयं जागना होगा! उनकी इस पशु प्रवत्ति को उनके सींग पकड़ के, मृत करना होगा! अगर नहीं जागे तो
हिंदुस्तान की तस्वीर सिर्फ इतिहासों में होग
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