Friday, August 5, 2011

छहो शास्त्र सब ग्रंथन को रस गोस्वामी तुलसीदास कवि से ज्यादा एक समर्पित रामभक्त और धर्म तथा लोक-व्यवस्थापक के रूप में और उनकी ख्यात रचना "रामचरितमानस" एक काव्य ग्रंथ से ज्यादा एक आदर्श धर्म ग्रंथ के रूप में पूज्य और मान्य है। यद्यपि उनकी सर्जना का फलक व्यापक है, जिसमें विनय पत्रिका जैसी अनेक ख्यात रचनाएं शामिल हैं, फिर भी तुलसीदास का मूल्यांकन और उनकी प्रशंसा का सबसे बड़ा केंद्र "रामचरितमानस" ही रही है। इस अद्भुत रचना में समाज, राष्ट्र, मानव धर्म, परस्पर प्रीति, मोह, दया, करूणा व लैंगिक विभेद, तुलसीदास इन सब मोर्चो पर अपनी शास्त्रसम्मत व्याख्या करते दिखाई पड़ते हैं। सामाजिक समरसता के लिए तुलसीदास का जो मौलिक चिंतन है, वह संस्कृत से इतर ज्ञात रचनाओं में विलक्षण तो है ही, इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि उसमें जिसे वर्णाश्रम व्यवस्था के तहत अछूता माना गया है, उसे रामभक्ति की सर्वसुलभ सुगंध से तुलसीदास पवित्र कर न केवल चारित्रिक रूप से ही वरन तात्कालिक सामाजिक स्वरूप में भी उन्नत पद पर प्रतिष्ठित दिखाते हैं। तुलसीदास उस पवित्रता का आधारभूत चूर्ण मानते हैं ईमानदार रामभक्ति को। यही कारण था कि श्रीराम की खोज में भरत के साथ निकले ब्राह्मण संस्कृति के श्रेष्ठ प्रतिमान गुरूवर वशिष्ठ निषादराज को गले लगाते हैं, तो मानो कि धरती पर गिरी हुई निषादरूपी रामभक्ति को वशिष्ठ अपने भीतर समेट रहे हैं। इसीलिए तुलसीदास के राम जाति-पांति, कुल, धर्म और बड़ाई आदि बड़प्पन की बातों को मानते ही नहीं हैं। तुलसीदास तो किंचित भी विद्वेष स्वीकार नहीं कर पाते हैं। सीता वनवास की कथा तुलसीदास कह ही नहीं पाते। वे सीता निर्वासन की कथा में राम का ही निर्वासन देखते हैं। नर-नारी के गुण-अवगुणों की चर्चा करते हुए तुलसीदास नारी की सदा रहने वाली परतंत्रता से विह्वल हो जाते हैं- कत बिध सृजी नारी जग माहीं। पराधीन सपनेहुं सुख नाहीं।। तुलसीदास ने दोयम दर्जे का जीवन जी रही नारी को अपने राम से सबसे ज्यादा जोड़ा। भीलनी शबरी श्रीराम की चौखट पर नहीं जाती, बल्कि तुलसी के राम खुद ही शबरी को ढूंढ़ते हुए नंगे पांव मतंग आश्रम तक पहुंचते हैं। न केवल शबरी, बल्कि श्रीराम तो स्वयं शापित प्रस्तरमयी गौतमनारी अहिल्या का उद्धार भी करते हैं। तुलसी के राम शबरी से कहते हैं "मानहूं एक भगति का नाता।" पर यह बात समझने की है कि यह सिद्धांत तुलसी का अपना नहीं, वरन "मैं पुनि निज गुर सन सुनी" में वे इस उदार शास्त्र परंपरा को अपनी गुरू परंपरा से प्राप्त करते हैं। स्वामी रामानंदाचार्य का उदारतम चिंतन ही तुलसीदास की विचारसरणि है। तुलसी के रामराज में राम अकेले ही निर्णय नहीं लेते, बल्कि सबसे पूछकर ही राज-काज चलाते हैं। राम राज्याभिषेक के समय महाराज दशरथ अपने सभासदों से पूछकर ही श्रीराम को युवराज पद देते हैं - जो पांचहीं मत लागै नीका। इसी कारण तुलसी उस शासक को निश्चित ही नरक का अधिकारी मानते हैं, जिसके राज में उसकी प्रजा दु:खी हो-जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी। सो नृप अवसी नरक अधिकारी।। भ्रष्टाचार का ऎसा समाधान "मानस" देती है, जो आज के संदर्भ में सर्वाधिक सटीक है-"मुखिया मुख सो चाहिये खान पान कहुं एक।" शासक को मुख की तरह सबको पालित और पोषित करना चाहिए। विनय पत्रिका में बड़े श्रेष्ठ उदाहरण से तुलसी बताते हैं कि "भूप भानु सम होई।" अर्थात राजा को सूर्य के समान होना चाहिए, जो बादल के समान बरसे, तो सारे लोग सुखी हो जाएं, पर वह जनता से कर वैसे ही ग्रहण करे जैसे बादल बिना किसी को कष्ट दिए धीरे-धीरे जल सोखकर करता है। तुलसीदास का राजधर्म पालन बहुत कठिन है, पर तुलसीदास कहते हैं कि वेद धर्म के मर्यादा पालन से कठोर से कठोर स्थिति में भी व्यक्ति तटस्थ रह सकता है।

संस्कृत का श्लोक
न चार्थदानतो दाता दाता सम्मान दायक:।
धन देने वाला दाता नहीं होता। दाता वह है जो दूसरों को सम्मान देना जानता है। बहुत बड़ी बात है दूसरों को सम्मान देना। यह प्रमोद भावना का उत्कृष्ट उदाहरण है। जिन
लोगों ने अपनी बहुमूल्य सेवाएं दीं, उन्हें पुस्तकें देना,
शॉल देना या और कुछ देना- क्या यह उनकी सेवा का मूल्य है लेने वाले इतने समर्थ हैं कि दी जा रही वस्तु उनके लिए कुछ भी नहीं है, किंतु यह सम्मान जो उन्हें दिया जाता है, वह बहुमूल्य है। इसकी कीमत नहीं आंकी जा सकती। जिन्हें यह सम्मान दिया जाता है, वे भी गौरवान्वित होते हैं और उनके मन में एक उत्साह और कृतार्थता का भाव आता है। उनमें यह भावबोध जागता है कि उपकार और सेवा की वृत्ति का मेरे जीवन में अधिकाधिक विकास हो।
तेरापंथ के किसी भी बड़े से बड़े साधु-साध्वी से पूछ लें कि आपका कोई शिष्य है वह यही कहेगा कि मेरा कोई शिष्य-शिष्या नहीं है। मैं स्वयं अपने गुरू का एक शिष्य हूं। हमारा धर्मसंघ एक आचार्य केंद्रित धर्मसंघ है। ऎसी स्थिति में न तो अहंकार को पनपने का मौका मिलता है और न ममकार की वृत्ति जागती है। संगठन और समुदाय पर विचार करते समय हमारा दृष्टिकोण स्पष्ट होना चाहिए। स्पष्ट दृष्टिकोण उलझनें पैदा नहीं करता और हमारा काम निर्बाध रूप से चलता है। हर क्षेत्र के लोगों का विवेक के अनुसार महत्व और मूल्यांकन हो तो समाज और संगठन में आशातीत मजबूती आएगी।



No comments:

Post a Comment