संस्कृत का श्लोक
न चार्थदानतो दाता दाता सम्मान दायक:।
धन देने वाला दाता नहीं होता। दाता वह है जो दूसरों को सम्मान देना जानता है। बहुत बड़ी बात है दूसरों को सम्मान देना। यह प्रमोद भावना का उत्कृष्ट उदाहरण है। जिन
लोगों ने अपनी बहुमूल्य सेवाएं दीं, उन्हें पुस्तकें देना,
शॉल देना या और कुछ देना- क्या यह उनकी सेवा का मूल्य है लेने वाले इतने समर्थ हैं कि दी जा रही वस्तु उनके लिए कुछ भी नहीं है, किंतु यह सम्मान जो उन्हें दिया जाता है, वह बहुमूल्य है। इसकी कीमत नहीं आंकी जा सकती। जिन्हें यह सम्मान दिया जाता है, वे भी गौरवान्वित होते हैं और उनके मन में एक उत्साह और कृतार्थता का भाव आता है। उनमें यह भावबोध जागता है कि उपकार और सेवा की वृत्ति का मेरे जीवन में अधिकाधिक विकास हो।
तेरापंथ के किसी भी बड़े से बड़े साधु-साध्वी से पूछ लें कि आपका कोई शिष्य है वह यही कहेगा कि मेरा कोई शिष्य-शिष्या नहीं है। मैं स्वयं अपने गुरू का एक शिष्य हूं। हमारा धर्मसंघ एक आचार्य केंद्रित धर्मसंघ है। ऎसी स्थिति में न तो अहंकार को पनपने का मौका मिलता है और न ममकार की वृत्ति जागती है। संगठन और समुदाय पर विचार करते समय हमारा दृष्टिकोण स्पष्ट होना चाहिए। स्पष्ट दृष्टिकोण उलझनें पैदा नहीं करता और हमारा काम निर्बाध रूप से चलता है। हर क्षेत्र के लोगों का विवेक के अनुसार महत्व और मूल्यांकन हो तो समाज और संगठन में आशातीत मजबूती आएगी।
न चार्थदानतो दाता दाता सम्मान दायक:।
धन देने वाला दाता नहीं होता। दाता वह है जो दूसरों को सम्मान देना जानता है। बहुत बड़ी बात है दूसरों को सम्मान देना। यह प्रमोद भावना का उत्कृष्ट उदाहरण है। जिन
लोगों ने अपनी बहुमूल्य सेवाएं दीं, उन्हें पुस्तकें देना,
शॉल देना या और कुछ देना- क्या यह उनकी सेवा का मूल्य है लेने वाले इतने समर्थ हैं कि दी जा रही वस्तु उनके लिए कुछ भी नहीं है, किंतु यह सम्मान जो उन्हें दिया जाता है, वह बहुमूल्य है। इसकी कीमत नहीं आंकी जा सकती। जिन्हें यह सम्मान दिया जाता है, वे भी गौरवान्वित होते हैं और उनके मन में एक उत्साह और कृतार्थता का भाव आता है। उनमें यह भावबोध जागता है कि उपकार और सेवा की वृत्ति का मेरे जीवन में अधिकाधिक विकास हो।
तेरापंथ के किसी भी बड़े से बड़े साधु-साध्वी से पूछ लें कि आपका कोई शिष्य है वह यही कहेगा कि मेरा कोई शिष्य-शिष्या नहीं है। मैं स्वयं अपने गुरू का एक शिष्य हूं। हमारा धर्मसंघ एक आचार्य केंद्रित धर्मसंघ है। ऎसी स्थिति में न तो अहंकार को पनपने का मौका मिलता है और न ममकार की वृत्ति जागती है। संगठन और समुदाय पर विचार करते समय हमारा दृष्टिकोण स्पष्ट होना चाहिए। स्पष्ट दृष्टिकोण उलझनें पैदा नहीं करता और हमारा काम निर्बाध रूप से चलता है। हर क्षेत्र के लोगों का विवेक के अनुसार महत्व और मूल्यांकन हो तो समाज और संगठन में आशातीत मजबूती आएगी।
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