इस स्तवन (आ०हृ०स्तो०) में गायत्री महामन्त्र के अधिष्ठाता सविता देवता की प्रार्थना है । इसे अग्नि का अभिवन्दन, अभिनन्दन भी कह सकते हैं । सभी लोग हाथ जोड़कर स्तवन की मूल भावना को हृदयगंम करें । हर टेक में कहा गया है- 'वह वरण करने योग्य सविता देवता हमें पवित्र करें ।' दिव्यता-पवित्रता के संचार की पुलकन का अनुभव करते चलें ।
यन्मण्डलं दीप्तिकरं विशालम्, रतनप्रभं तीव्रमनादिरूपम् ।
दारिद्र्य-दुःखक्षयकारणं च, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्॥१॥
शुभ ज्योति के पंुज, अनादि, अनुपम । ब्रह्माण्ड व्यापी आलोक कर्त्ता ।
दारिद्र्य, दुःख भय से मुक्त कर दो । पावन बना दो हे देव सविता॥१॥
यन्मण्डलं देवगणैः सुपूजितम्, विप्रैः स्तुतं मानवमुक्तिकोविदम् ।
तं देवदेवं प्रणमामि भ्ार्गं, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्॥२॥
ऋषि देवताओं से नित्य पूजित । हे भर्ग! भव बन्धन मुक्ति कर्त्ता ।
स्वीकार कर लो वन्दन हमारा । पावन बना दो हे देव सविता॥२॥
यन्मण्डलं ज्ञानघनं त्वगम्यं, त्रैलोक्यपूज्यं त्रिगुणात्मरूपम् ।
समस्त-तेजोेमय-दिव्यरूपं, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्॥३॥
हे ज्ञान के घन, त्रैलोक्य पूजित । पावन गुणों के विस्तार कर्त्ता ।
समस्त प्रतिभा के आदि कारण । पावन बना दो हे देव सविता॥३॥
यन्मण्डलं गूढमतिप्रबोधं, धर्मस्य वृद्धिं कुरुते जनानाम् ।
यत् सर्वपापक्षयकारणं च, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्॥४॥
हे गूढ़ अन्तःकरण में विराजित । तुम दोष-पापादि संहार कर्त्ता ।
शुभ धर्म का बोध हमको करा दो । पावन बना दो हे देव सविता॥४॥
यन्मण्डलं व्याधिविनाशदक्षं, यदृग्-यजुः सामसु सम्प्रगीतम् ।
प्रकाशितं येन च र्भूभुवः स्वः, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्॥५॥
हे व्याधि-नाशक, हे पुष्टि दाता । ऋग् साम, यजु वेद संचार कर्त्ता ।
हे भ्र्ाूभुवः स्वः में स्व प्रकाशित । पावन बना दो हे देव सविता॥५॥
यन्मण्डलं वेदविदो वदन्ति, गायन्ति यच्चारण- सिद्धसङ्घाः ।
यद्योगिनो योगजुषां च सङ्घाः, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्॥६॥
सब वेदविद्, चारण, सिद्ध योगी । जिसके सदा से हैं गान कर्त्ता ।
हे सिद्ध सन्तों के लक्ष्य शाश्वत् । पावन बना दो हे देव सविता॥६॥
यन्मण्डलं सर्वजनेषु पूजितं, ज्योतिश्च कुर्यादिह र्मत्यलोके ।
यत्काल-कालादिमनादिरूपम्, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्॥७॥
हे विश्व मानव से आदि पूजित । नश्वर जगत् में शुभ ज्योति कर्त्ता ।
हे काल के काल-अनादि ईश्वर । पावन बना दो हे देव सविता॥७॥
यन्मण्डलं विष्णुचर्तुमुखास्यं, यदक्षरं पापहरं जनानाम् ।
यत्कालकल्पक्षयकारणं च, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्॥८॥
हे विष्णु ब्रह्मादि द्वारा प्रचारित । हे भ्ाक्त पालक, हे पाप हर्त्ता ।
हे काल-कल्पादि के आदि स्वामी । पावन बना दो हे देव सविता॥८॥
यन्मण्डलं विश्वसृजां प्रसिद्धं, उत्पत्ति-रक्षा प्रलयप्रगल्भम् ।
यस्मिन् जगत्संहरतेऽखिलं च, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्॥९॥
हे विश्व मण्डल के आदि कारण । उत्पत्ति-पालन-संहार कर्त्ता ।
होता तुम्हीं में लय यह जगत् सब । पावन बना दो हे देव सविता॥९॥
यन्मण्डलं सर्वगतस्य विष्णोः, आत्मा परंधाम विशुद्धतत्त्वम् ।
सूक्ष्मान्तरैर्योगपथानुगम्यं, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्॥१०॥
हे स्ार्वव्यापी, प्रेरक नियन्ता । विशुद्ध आत्मा, कल्याण कर्त्ता ।
शुभ योग पथ्ा पर हमको चलाओ । पावन बना दो हे देव सविता॥१०॥
यन्मण्डलं ब्रह्मविदो वदन्ति, गायन्ति यच्चारण-सिद्धसंघाः ।
यन्मण्डलं वेदविदः स्मरन्ति, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्॥११॥
हे ब्रह्मनिष्ठों से आदि पूजित । वेदज्ञ जिसके गुणगान कर्त्ता ।
सद्भावना हम सबमें जगा दो । पावन बना दो हे देव सविता॥११॥
यन्मण्डलं वेद- विदोपगीतं, यद्योगिनां योगपथानुगम्यम् ।
तत्सर्ववेदं प्रणमामि दिव्यं, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्॥१२॥
हे योगियों के शुभ मार्गदर्शक । सद्ज्ञान के आदि संचारकर्त्ता ।
प्रणिपात स्वीकार लो हम सभ्ाी का । पावन बना दो हे देव सविता॥१२
यन्मण्डलं दीप्तिकरं विशालम्, रतनप्रभं तीव्रमनादिरूपम् ।
दारिद्र्य-दुःखक्षयकारणं च, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्॥१॥
शुभ ज्योति के पंुज, अनादि, अनुपम । ब्रह्माण्ड व्यापी आलोक कर्त्ता ।
दारिद्र्य, दुःख भय से मुक्त कर दो । पावन बना दो हे देव सविता॥१॥
यन्मण्डलं देवगणैः सुपूजितम्, विप्रैः स्तुतं मानवमुक्तिकोविदम् ।
तं देवदेवं प्रणमामि भ्ार्गं, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्॥२॥
ऋषि देवताओं से नित्य पूजित । हे भर्ग! भव बन्धन मुक्ति कर्त्ता ।
स्वीकार कर लो वन्दन हमारा । पावन बना दो हे देव सविता॥२॥
यन्मण्डलं ज्ञानघनं त्वगम्यं, त्रैलोक्यपूज्यं त्रिगुणात्मरूपम् ।
समस्त-तेजोेमय-दिव्यरूपं, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्॥३॥
हे ज्ञान के घन, त्रैलोक्य पूजित । पावन गुणों के विस्तार कर्त्ता ।
समस्त प्रतिभा के आदि कारण । पावन बना दो हे देव सविता॥३॥
यन्मण्डलं गूढमतिप्रबोधं, धर्मस्य वृद्धिं कुरुते जनानाम् ।
यत् सर्वपापक्षयकारणं च, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्॥४॥
हे गूढ़ अन्तःकरण में विराजित । तुम दोष-पापादि संहार कर्त्ता ।
शुभ धर्म का बोध हमको करा दो । पावन बना दो हे देव सविता॥४॥
यन्मण्डलं व्याधिविनाशदक्षं, यदृग्-यजुः सामसु सम्प्रगीतम् ।
प्रकाशितं येन च र्भूभुवः स्वः, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्॥५॥
हे व्याधि-नाशक, हे पुष्टि दाता । ऋग् साम, यजु वेद संचार कर्त्ता ।
हे भ्र्ाूभुवः स्वः में स्व प्रकाशित । पावन बना दो हे देव सविता॥५॥
यन्मण्डलं वेदविदो वदन्ति, गायन्ति यच्चारण- सिद्धसङ्घाः ।
यद्योगिनो योगजुषां च सङ्घाः, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्॥६॥
सब वेदविद्, चारण, सिद्ध योगी । जिसके सदा से हैं गान कर्त्ता ।
हे सिद्ध सन्तों के लक्ष्य शाश्वत् । पावन बना दो हे देव सविता॥६॥
यन्मण्डलं सर्वजनेषु पूजितं, ज्योतिश्च कुर्यादिह र्मत्यलोके ।
यत्काल-कालादिमनादिरूपम्, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्॥७॥
हे विश्व मानव से आदि पूजित । नश्वर जगत् में शुभ ज्योति कर्त्ता ।
हे काल के काल-अनादि ईश्वर । पावन बना दो हे देव सविता॥७॥
यन्मण्डलं विष्णुचर्तुमुखास्यं, यदक्षरं पापहरं जनानाम् ।
यत्कालकल्पक्षयकारणं च, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्॥८॥
हे विष्णु ब्रह्मादि द्वारा प्रचारित । हे भ्ाक्त पालक, हे पाप हर्त्ता ।
हे काल-कल्पादि के आदि स्वामी । पावन बना दो हे देव सविता॥८॥
यन्मण्डलं विश्वसृजां प्रसिद्धं, उत्पत्ति-रक्षा प्रलयप्रगल्भम् ।
यस्मिन् जगत्संहरतेऽखिलं च, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्॥९॥
हे विश्व मण्डल के आदि कारण । उत्पत्ति-पालन-संहार कर्त्ता ।
होता तुम्हीं में लय यह जगत् सब । पावन बना दो हे देव सविता॥९॥
यन्मण्डलं सर्वगतस्य विष्णोः, आत्मा परंधाम विशुद्धतत्त्वम् ।
सूक्ष्मान्तरैर्योगपथानुगम्यं, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्॥१०॥
हे स्ार्वव्यापी, प्रेरक नियन्ता । विशुद्ध आत्मा, कल्याण कर्त्ता ।
शुभ योग पथ्ा पर हमको चलाओ । पावन बना दो हे देव सविता॥१०॥
यन्मण्डलं ब्रह्मविदो वदन्ति, गायन्ति यच्चारण-सिद्धसंघाः ।
यन्मण्डलं वेदविदः स्मरन्ति, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्॥११॥
हे ब्रह्मनिष्ठों से आदि पूजित । वेदज्ञ जिसके गुणगान कर्त्ता ।
सद्भावना हम सबमें जगा दो । पावन बना दो हे देव सविता॥११॥
यन्मण्डलं वेद- विदोपगीतं, यद्योगिनां योगपथानुगम्यम् ।
तत्सर्ववेदं प्रणमामि दिव्यं, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्॥१२॥
हे योगियों के शुभ मार्गदर्शक । सद्ज्ञान के आदि संचारकर्त्ता ।
प्रणिपात स्वीकार लो हम सभ्ाी का । पावन बना दो हे देव सविता॥१२
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