संस्कृत सुभाषितानि - ०४
- सुभाषित 201
छोटीछोटी वस्तूएÐ एकत्र करनेसे बडे काम भी हो सकते हैं| घास से बनायी हुर्इ डोरी से मत्त हाथी बाÐधा जा सकता है|
- सुभाषित 202
हर एक पर्वतपर माणिक नहीं होते, , हर एक हाथी में ह्मउसके गंडस्थलमें ) मोती नहीं मिलते |
साधु सर्वत्र नहीं होते , हर एक वनमें चंदन नहीं होता |
ह्म दुनिया में अच्छी चीजें बडी तादात में नहीं मिलती |
)
- सुभाषित 203
तथैव धर्मवैचित्र्यं तत्त्वमेकं परं स्मॄतम् //
महाभारतजिस प्रकार विविध रंग की ग}^ एकही रंग का ह्मसफेद) दूध देती है, उसी प्रकार विविध धर्मपंथ एकही तत्त्व की सीख देते है
सर्वं परवशं दु:खं सर्वम् आत्मवशं सुखम् |
एतद् विद्यात् समासेन लक्षणं सुखदु:खयो: //
जो चीजें अपने अधिकार में नही है वह सब दु:ख है तथा जो चीज अपने अधिकार में है वह सब सुख है |
संक्षेप में सुख और दु:ख के यह लक्षण है |
अलसस्य कुतो विद्या अविद्यस्य कुतो धनम् |
अधनस्य कुतो मित्रम् अमित्रस्य कुतो सुखम् //
आलसी मनुष्य को ज्ञान कैसे प्राप्त होगा ? य्दि ज्ञान नही तो धन नही मिलेगा |
यदि धन नही है तो अपना मित्र कौन बनेगा ? और मित्र नही तो सुख का अनुभव कैसे मिलेगा ऋ
आकाशात् पतितं तोयं यथा गच्छति सागरम् |
सर्वदेवनमस्कार: केशवं प्रति गच्छति //
जिस प्रकार आकाश से गिरा जल विविध नदीयों के माध्यम से अंतिमत: सागर से जा मिलता है उसी प्रकार सभी देवताओं को किया हुवा नमन एक ही परमेश्वर को प्राप्त होता है |
नीरक्षीरविवेके हंस आलस्यम् त्वम् एव तनुषे चेत् |
विश्वस्मिन् अधुना अन्य: कुलव्रतं पालयिष्यति क: //
अरे हंस यदि तुम ही पानी तथा दूध भिन्न करना छोड दोगे तो दूसरा कौन तूम्हारा यह कुलव्रत का पालन कर सकता है ? यदि बुद्धीवान तथा कुशल मनुष्य ही अपना कर्तव्य करना छोड दे तो दूसरा कौन वह काम कर सकता है ?
- सुभाषित 208
नष्टप्रज्ञ: पापमेव नित्यमारभते नर: //
विदूरनीतिबार बार पाप करनेसे मनुष्य की विवेकबुद्धी नष्ट होती है और जिसकी विवेकबुद्धी नष्ट हो चुकी हो , ऐसी व्यक्ति हमेशा पापही करती है |
- सुभाषित 209
वॄद्धप्रज्ञ: पुण्यमेव नित्यमारभते नर: //
विदूरनीतिबार बार पुण्य करनेसे मनुष्य की विवेकबुद्धी बढती है और जिसकी विवेकबुद्धी हो , ऐसी व्यक्ति हमेशा पुण्यही करती है |
- सुभाषित 210
पढने के लिए बहौत शास्त्र हैं और ज्ञान अपरिमित है| अपने पास समय की कमी है और बाधाए बहौत है| जैसे हंस पानीमेसे दुध निकाल लेता है उसी तरह उन शास्त्रौंका सार समझलेना चाहिए|
- सुभाषित 211
झगडोंसे परिवार टूट जाते है| गलत शब्दप्रयोग करनेसे दोस्त टूटते है| बुरे शासकोंके कारण राष्ट्रका नाश होता है| बुरे काम करनेसे यश दूर भागता है|
दुर्लभं त्रयमेवैतत् देवानुग्रहहेतुकम् |
मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरूषसश्रय: //
मनुष्य जन्म, मुक्ती की इच्छा तथा महापुरूषोंका सहवास यह तीन चीजें परमेश्वर की कॄपा पर निर्भर रहते है |
सुखार्थी त्यजते विद्यां विद्यार्थी त्यजते सुखम् |
सुखार्थिन: कुतो विद्या कुतो विद्यार्थिन: सुखम् //
जो व्यक्ती सुख के पिछे भागता है उसे ज्ञान नही मिलेगा |
तथा जिसे ज्ञान प्रप्त करना है वह व्यक्ती सुख का त्याग करता है |
सुख के पिछे भागनेवाले को विद्या कैसे प्राप्त होगी ? तथा जिसको विद्या प्रप्त करनी है उसे सुख कैसे मिलेगा?
- सुभाषित क्र.214
यावज्जीवं च तत्कुर्याद् येन प्रेत्य सुखं वसेत् //
विदूरनीतिदिनभर ऐसा काम करो जिससे रातमें चैनकी नींद आ सके |
वैसेही जीवनभर ऐसा काम करो जिससे मॄत्यूपश्चात सुख मिले ह्मअर्थात सद्गती प्राप्त हो )
- सुभाषित 215
कमाए हुए धन का त्याग करनेसे ही उसका रक्षण होता है| जैसे तालब का पानी बहते रहने सेे साफ रहता है|
खल: सर्षपमात्राणि पराच्छिद्राणि पश्यति |
आत्मनो बिल्वमात्राणि पश्यन्नपि न पश्यति //
दुष्ट मनुष्य को दुसरे के भीतर के राइ र्इतने भी दोष दिखार्इ देते है परन्तू अपने अंदर के बिल्वपत्र जैसे बडे दोष नही दिखार्इ पडते |
दानं भोगो नाश: तिस्त्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य |
यो न ददाति न भुङ्क्ते तस्य तॄतीया गतिर्भवति //
धन खर्च होने के तीन मार्ग है |
दान,उपभोग तथा नाश |
जो व्यक्ति दान नही करता तथा उसका उपभोगभी नही लेता उसका धन नाश पाता है |
- सुभाषित क्र. 218
यादॄगिच्छेच्च भवितुं तादॄग्भवति पूरूष: //
मनुष्य , जिस प्रकारके लोगोंके साथ रहता है , जिस प्रकारके लोगोंकी सेवा करता है , जिनके जैसा बनने की इच्छा करता है , वैसा वह होता है |
- सुभाषित 219
बली बलं वेत्ति न वेत्ति निर्बल: |पिको वसन्तस्य गुणं न वायस:
करी च सिंहस्य बलं न मूषक: //गुणी पुरुषही दुसरे के गुण पहचानता है, गुणहीन पुरुष नही| बलवान पुरुषही दुसरे का बल जानता है, बलहीन नही| वसन्त ऋतु आए तो उसे कोयल पहचानती है, कौआ नही| शेर के बल को हाथी पहचानता है, चुहा नही|
- सुभाषित 220
गुणवान शत्रु से भी गुणहीन मित्र अच्छा| शत्रु तो आखिर शत्रु है|
पदाहतं सदुत्थाय मूर्धानमधिरोहति |
स्वस्थादेवाबमानेपि देहिनस्वद्वरं रज: //
जो पैरोंसे कुचलने पर भी उपर उठता है ऐसा मिट्टी का कण अपमान किए जाने पर भी चुप बैठनेवाले व्यक्ति से श्रेष्ठ है |
सा भार्या या प्रियं बू्रते स पुत्रो यत्र निवॄति: |
तन्मित्रं यत्र विश्वास: स देशो यत्र जीव्यते //
जो मिठी वाणी में बोले वही अच्छी पत्नी है, जिससे सुख तथा समाधान प्रााप्त होता है वही वास्तवीक में पुत्र है, जिस पर हम बीना झीझके संपूर्ण विश्वास कर सकते है वही अपना सच्चा मित्र है तथा जहा पर हम काम करके अपना पेट भर सकते है वही अपना देश है |
- सुभाषित क्र. 223
क्रोध: श्रियं , शीलमनार्यसेवा , ह्रियं काम: , सर्वमेवाभिमान: //
वॄद्धत्वसे रूपका हरण होता है , आशासे ह्मतॄष्णासे) धैर्यका , मॄत्युसे प्राणका हरण होता है| मत्सरसे धर्माचरण का , क्रोधसे सम्पत्तीका तथा दुष्टोंकी सेवा करनेसे शील का नाश होता है| कामवासनासे लज्जा का तथा अभिमानसे सभी अच्छी चीजोंका अन्त होता है |
विरला जानन्ति गुणान् विरला: कुर्वन्ति निर्धने स्नेहम् |
विरला: परकार्यरता: परदु:खेनापि दु:खिता विरला: //
दुसरोंके गुण पहचाननेवाले थोडे ही है |
निर्धन से नाता रखनेवाले भी थोडे है |
दुसरों के काम मे मग्न हानेवाले थोडे है तथा दुसरों का दु:ख देखकर दु:खी होने वाले भी थोडे है |
आरोग्यं विद्वत्ता सज्जनमैत्री महाकुले जन्म |
स्वाधीनता च पुंसां महदैश्वर्यं विनाप्यर्थे: //
आरोग्य, विद्वत्ता, सज्जनोंसे मैत्री, श्रेष्ठ कुल में जन्म, दुसरों के उपर निर्भर न होना यह सब धन नही होते हुए भी पुरूषों का एैश्वर्य है |
- सुभाषित 226
- सुभाषित 227
नीयते तद् वॄथा येन प्रामाद: सुमहानहो //
सब रत्न देने पर भी जीवन का एक क्षण भी वापास नही मिलता |
ऐसे जीवन के क्षण जो निर्थक ही खर्च कर रहे है वे कितनी बडी गलती कर रहे है
- सुभाषित 228
आगच्छन् वैनतेयोपि पदमेकं न गच्छति //
यदि चिटी चल पडी तो धीरे धीरे वह एक हजार योजनाएं भी चल सकती है |
परन्तु यदि गरूड जगह से नही हीला तो वह एक पग भी आगे नही बढ सकता |
- सुभाषित 229
- सुभाषित 230
घन मिलता है, नष्ट होता है| (नष्ट होने के बाद) फिरसे मिलता है| परन्तु जवानी एक बार निकल जाए तो कभी वापस नही आती|
आशा नाम मनुष्याणां काचिदाश्चर्यशॄङखला |
यया बद्धा: प्राधावन्ति मुक्तास्तिष्ठन्ति पङ्गुवत् //
आशा नामक एक विचित्र और आश्चर्यकारक शॄंखला है |
इससे जो बंधे हुए है वो इधर उधर भागते रहते है तथा इससे जो मुक्त है वो पंगु की तरह शांत चित्त से एक ही जगह पर खडे रहते है |
शास्त्राण्यधीत्यापि भवन्ति मूर्खा यस्तु क्रियावान् पुरूष: स विद्वान् |
सुचिन्तितं चौषधमातुराणां न नाममात्रेण करोत्यरोगम् //
शास्त्रों का अध्ययन करने के बाद भी लोग मूर्ख रहते है |
परन्तु जो कॄतीशील है वही सही अर्थ से विद्वान है |
किसी रोगी के प्राती केवल अच्छी भावनासे निश्चित किया गया औषध रोगी को ठिक नही कर सकता |
वह औषध नियमानुसार लेनेपर ही वह रोगी ठिक हो सकता है |
- सुभाषित 233
अक्षीणो वित्तत: क्षीणो वॄत्ततस्तु हतो हत: //
विदूरनीतिसदाचार की मनुष्यने प्रयन्तपूर्व रक्षा करनी चाहिए , वित्त तो आता जाता रहता है |
धनसे क्षीण मनुष्य वस्तुत: क्षीण नही , बल्कि सद्वर्तनहीन मनुष्य हीन है |
- सुभाषित 234
महाभारतदुसरोंको दु:ख देकर , धर्मका उल्लंघन करकर या खुद का अपमान सहकर मिले हुए धन से सुख नही प्राप्त होता
जानामि धर्मं न च मे प्रावॄत्ति: |
जानाम्यधर्मं न च मे निवॄत्ति: //
दुर्योधन कहते है "ऐसा नही की धर्म तथा अधर्म क्या है यह मैं नही जानता था |
परन्तू ऐसा होने पर भी धर्म के मार्ग पर चलना यह मेरी प्रावॄत्ती नही बन पायी और अधर्म के मार्ग से मैं निवॄत्त भी नही हो सका |
" अकॄत्वा परसन्तापं अगत्वा खलसंसदं अनुत्सॄज्य सतांवर्तमा यदल्पमपि तद्बहु
दूसरोंको दु:ख दिये बिना ; विकॄती के साथ अपाना संबंध बनाए बिना ; अच्छों के साथ अपने सम्बंध तोडे बिना ; जो भी थोडा कुछ हम धर्म के मार्ग पर चलेंगे उतना पर्याप्त है |
- सुभाषित 237
दूसरोंको उपदेश देकर अपना पांडित्य दिखाना बहौत सरल है| परन्तु केवल महान व्यक्तिही उसतरह से (धर्मानुसार)अपना बर्ताव रख सकता है|
सुभषित 238 अमित्रो न विमोक्तव्य: कॄपणं व*णपि ब्राुवन् कॄपा न तस्मिन् कर्तव्या हन्यादेवापकारिणाम्
शत्रु अगर क्षमायाचना करे, तो भी उसे क्षमा नही करनी चाहिये| वह अपने जीवित को हानि पहुचा सकता है यह सोचके उसको समाप्त करना चाहिये| सुभषित 239 नेह चात्यन्तसंवास: कर्हिचित् केनचित् सह |
राजन् स्वेनापि देहेन किमु जायात्मजादिभि: //
श्रीमद्भागवत हे राजा ह्मधॄतराष्ट)्र इस जगत में कभीभी , किसीका किसीसे चिरंतन संबंध नहीं होता |अपना खुदके देहसे तक नहीं , तो पत्नी और पुत्र की बात तो दूर //
इंद्रियाणि पराण्याहु: इंद्रियेभ्य: परं मन: |
मनसस्तु परा बुद्धि: यो बुद्धे: परतस्तु स: //
गीता 3|42
इंद्रियों के परे मन है मन के परे बुद्धि है और बुद्धि के भी परे आत्मा है |
- सुभाषित 241
जब काल विपरीत हो, तब शत्रुको भी कन्धोंपे उठाना चाहिये| अनुकूल काल आनेपर उसे जैसे घट पथर पे फोड जाता है, वैसे नष्ट करना चाहिये|
- सुभाषित 242
उंटोके विवाहमे गधे गाना गा रहे हैं| दोनो एक दूसरेकी प्रशंसा कर रहे हैं वाह क्या रुप है (उंट का), वाह क्या आवाज है (गधेकी)| वास्तव मे देखा जाए तो उंटों मे सौंदर्य के कोई लक्षण नही होते, न की गधोंमे अच्छी आवाजके| परन्तु कुछ लोगोंने कभी उत्तम क्या है यही देखा नही होता| ऐसे लोग इस तरह से जो प्रशंसा करने योग्य नही है, उसकी प्रशंसा करते हैं
आपूर्यमाणमचलप्रातिष्ठं समुद्रमाप: प्राविशन्ति यद्वत् |
तद्वत् कामा यं प्राविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी //
गीता 2|70
जो व्यक्ती समय समय पर मन में उत्पन्न हुइ आशाओं से अविचलित रहता हैर् जैसे अनेक नदीयां सागर में मिलने पर भी सागर का जल नही बढता, वह शांत ही रहता हैर् ऐसे ही व्यक्ती सुखी हो सकते है |
मैत्री करूणा मुदितोपेक्षाणां| सुख दु:ख पुण्यापुण्य विषयाणां| भावनातश्चित्तप्रासादनम्| पातञ्जल योग 1|33
आनंदमयता, दूसरे का दु:ख देखकर मन में करूणा, दूसरे का पुण्य तथा अच्छे कर्म समाज सेवा आदि देखकर आनंद का भाव, तथा किसी ने पाप कर्म किया तो मन में उपेक्षा का भाव 'किया होगा छोडो' आदि प्रातिक्रियाएँ उत्पन्न होनी चाहिए|
- सुभाषित क्र. 245
न क्रुद्ध: परूषं ब्रूयात् स वै साधूत्तम: स्मॄत: //
मनुस्मॄतिजो सम्मान से गर्वित नहीं होते , अपमान से क्रोधित नहीं होते क्रोधित होकर भी जो कठोर नहीं बोलते, वे ही श्रेष्ठ साधु है |
हर्षस्थान सहस्राणि भयस्थान शतानि च |
दिवसे दिवसे मूढं आविशन्ति न पंडितम् //
मूर्ख मनुष्य के लिए प्राति दिन हर्ष के सौ कारण होते है तथा दु:ख के लिए सहस्र कारण| परन्तु पंडितों के मन का संतुलन ऐसे छोटे कारणों से नही बिगडता|
एका केवलमर्थसाधनविधौ सेना शतेभ्योधिका नन्दोन्मूलन दॄष्टवीर्यमहिमा बुद्धिस्तु मा गान्मम //
Background: Chanakya has uttered the above sentences. After Chanakya and Chandragupta established the 'Maurya' dynasty kingdom (defeating the Nand dynasty king), there were some difference of opinions between Chanakya and other ministers of the Kingdom.
जिन्हे छोडकर जाना था वे चले गए| जो छोड कर जाना चाहते है वे भी चले जाए कोइ चिंता की बात नही| परन्तू इप्सित प्रााप्त करने में जो सैंकडो सेनाओं से भी अधिक बलवान है और नन्द साम्राज्य के निर्मूलन के कार्य में जिसके प्राताप को दुनीया ने देखा है वह केवल मेरी बुद्धि मुझे छोडकर न जाए|
- सुभाषित क्र. 248
दीर्घो बालानां संसार: सद्धर्मम् अविजानताम् //
रातभर जागनेवाले को रात बहुत लंबी मालूम होती है |
जो चलकर थका है, , उसे एक योजन ह्मचार मील ) अंतर भी दूर लगता है |
सद्धर्म का जिन्हे ज्ञान नही है उन्हे जिन्दगी दीर्घ लगती है |
- सुभाषित क्र. 249
तत्क्षणादेव लीयन्ते र्धीह्र्रीश्र्रीकान्र्तिकीर्तय: //
‘दे’ इस शब्द के साथ , याचना करने से देहमें स्थित पांच देवता
बुद्धी, , लज्जा , लक्ष्मी , कान्ति , और कीर्ति उसी क्षण देह छोडकर जाती है |सुभषित 250 यद्यत् परवशं कर्मं तत् तद् यत्नेन वर्जयेत् यद्यदात्मवशं तु स्यात् तत् तत् सेवेत यत्नत: जिस काम मै दुसरोंका सहाय्य लेना पडे, ऐसे काम को टालो| (परन्तु) जिसमे दुसरोंका सहाय्य न लेना पडे, ऐसे काम शीघ्रातासे पुरे करो|
- सुभाषित 251
अरण्यं तेन गन्तव्यं यथाऽरण्यं तथा गॄहम् //
जिस घर में गॄहिणी साध्वी प्रावॄत्ती की न हो तथा मॄदु भाषी न हो ऐसे घर के गॄहस्त ने घर छोड कर वन में जाना चाहिए क्यों की उसके घर में तथा वन में कोइ अंतर नही है ! अकॄत्यं नैव कर्तव्य प्रााणत्यागेऽपि संस्थिते |
न च कॄत्यं परित्याज्यम् एष धर्म: सनातन: //
जो कार्य करने योग्य नही है इअच्छा न होने के कारणउ वह प्रााण देकर भी नही करना चाहिए |
तथा जो काम करना है इअपना कर्तव्य होने के कारणउ वह काम प्रााण देना पडे तो भी करना नही छोडना चाहिए |
- सुभाषित 254
संगात् संजायते काम: कामात् क्रोधोऽभिजायते //
भगवद्गीता 2|62 विषयों का ध्यान करने से उनके प्रति आसक्ति हो जाती है यह आसक्ति ही कामना को जन्म देती है और कामना ही क्रोध को जन्म देती है |
- सुभाषित 254
अन्यतो रोगभीतानां प्रााणिनां प्रााणरक्षणम् //
महाभारत एक ओर विधीपूर्वक सब को अच्छी दक्षिणा दे कर किया गया यज्ञ कर्म तथा दूसरी ओर दु:खी और रोग से पिडीत मनुष्य की सेवा करना यह दोनों भी कर्म उतने ही पुण्यप्राद है |
मातॄवत्परदारेषु परद्रव्येषु लोष्टवत् |
आत्मवत्सर्वभूतेषु य: पश्यति स पश्यति //
जो व्यक्ति धार्मिक प्रावॄत्ती का है वो परस्त्री को माते समान परद्रव्य को माटी समान तथा अन्य सभी प्रााणिमात्रोंको स्वयं के समान मानता है |
यही धर्म के सही लक्षण है |
- सुभाषित 257
- सुभाषित 258
- सुभाषित 259
मणिना भूषित: सर्प: किमसौ न भयङ्कर: //
दूर्जन ,चाहे वह विद्यासे विभूषित क्यू न हो , उसे दूर रखना चाहिए |
मणि से आभूषित संाँप, क्या भयानक नहीं होता ऋ
- सुभाषित 260
चक्रवत् परिवर्तन्ते दु:खानि च सुखानि च //
र् महाभारतजीवन में आनेवाले सुख का आनंद ले, , तथा दु:ख का भी स्वीकार करें |
सुख और दु:ख तो एक के बाद एक चक्रवत आते रहते है //
अज्ञेभ्यो ग्रन्थिन: श्रेष्ठा: ग्रन्थिभ्यो धारिणो वरा: |
धारिभ्यो ज्ञानिन: श्रेष्ठा: ज्ञानिभ्यो व्यसायिन: //
निरक्षर लोगोंसे ग्रंथ पढनेवाले श्रेष्ठ |
उनसे भी अधिक ग्रंथ समझनेवाले श्रेष्ठ |
ग्रंथ समझनेवालोंसे भी अधिक आत्मज्ञानी श्रेष्ठ तथा उनसे भी अधिक ग्रंथ से प्रााप्त ज्ञान को उपयोग में लानेवाले श्रेष्ठ |
उभाभ्यामेव पक्षाभ्यां शथा खे पक्षिणां गति: |
तथैव ज्ञानकर्मभ्यां जायते परमं पदम् //
योगवा| 1|1|7 जिस तरह दो पंखो के आधार से पक्षी आकाश में उंचा उड सकता है उसी तरह ज्ञान तथा कर्म से मनुष्य परब्रह्म को प्रााप्त कर सकता है |
- सुभाषित 263
अन्यलक्षितकार्यस्य यत: सिद्धिर्न जायते //
मनमे की हुई कार्य की योजना दुसरों को न बताये |
दूसरें को उसकी जानकारी होने से कार्य सफल नही होता |
गतेर्भंग: स्वरो हीनो गात्रे स्वेदो महद्भयम् |
मरणे यानि चि*नानि तानि चि*नानि याचके //
चलते समय संतुलन खोना,बोलते समय आवाज न निकलना, पसीना छूटना और बहुत भयभीत होना यह मरनेवाले आदमी के लक्षण याचक के पास भी दिखते है |
शुश्रूषा श्रवणं चैव ग्रहणं धारणं तथा |
उहापोहोर्थ विज्ञानं तत्वज्ञानं च धीगुणा: //
श्रवण करने की इच्छा, प्रात्यक्ष में श्रवण करना, ग्रहण करना, स्मरण में रखना, तर्र्र्कवितर्क, सिद्धान्त निश्चय, अर्थज्ञान तथा तत्वज्ञान ये बुद्धी के आठ अंग है |
द्वयक्षरस् तु भवेत् मॄत्युर् , त्रयक्षरमं ब्रा*म शाश्वतम् |
'मम' इति च भवेत् मॄत्युर, 'नमम' इति च शाश्वतम् //
महाभारत शांतिपर्व मॄत्यु यह दो अक्षरों का शब्द है तथा ब्रा*म जो शाश्वत है वह तीन अक्षरोंका है |
'मम' यह भी मॄत्यु के समानही दो अक्षरोंका शब्द है तथा 'नमम' यह शाश्वत ब्रा*म की तरह तीन अक्षरोंका शब्द है |
- सुभाषित 267
- सुभाषित 268
क्वचिच्छाकाहारी क्वचिदपि च शाल्योदनरुचि:क्वचित्कन्थाधारी क्वचिदपि च दिव्याम्बरधरो
मनस्वी कार्यार्थी न गणयति दु:खं न च सुखम्कभी धरतीपे सोना कभी पलंगपे| कभी सब्जी खाना कभी रोटी–चावल| कभी फटे हुए कपडे पहनना कभी बहौत कीमती कपडे पहनना| जो व्यक्ति अपने कार्यमे सर्वथा मग्न हो, उन्हे ऐसी बाहरी सुखदु:खोसे कोई मतलब नही होता|
- सुभाषित 269
रामरक्षा स्तोत्रराजशिरोमणि,,,,,,,, ,सदा विजयी होनेवाले रमापति राम की मै प्रार्थना करता हूँ |
राक्षसों का नि:पात करनेवाले राम को नमस्कार | राम के अलावा कुछ अधिक महत्त्वपूर्ण नही , मै राम का दास हूँ | मेरा चित्त राममें लीन है , हे राम , मेरा उद्धार करो // बुधकौशिक ऋषी विरचित रामरक्षास्तोत्र मे यह श्लोक है |इस श्लोक की विशेषता ये है कि , राम शब्द की सभी आठ विभक्तियों का इसमें प्रयोग किया है |
- सुभाषित 270
वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये //
रामरक्षा स्तोत्ररामरक्षामें से और एक श्लोक| मन और वायु के समान गतिमान , इन्द्र्र्र्रियों को जितने वाले जितेन्द्र्रिय , बुद्धिमानांे में वरिष्ठ , वानरों के मुख्य तथा श्रीराम के दूत अर्थात् , हनुमान को मै शरण जाता ह^ूंं |
आचाराल्लभते ह्मयु: आचारादीप्सिता: प्राजा: |
आचाराद्धनमक्षय्यम् आचारो हन्त्यलक्षणम् //
मनु|4|156 अच्छे व्यवहार से दीर्घ आयु, श्रेष्ठ सन्तती, चिर समॄद्धी प्रााप्त होती है तथा अपने दोषोंका भी नाष होता है |
शोचन्ति जामयो यत्र विनश्यत्याशु तत्कुलम् |
यत्रैतास्तु न शोचन्ति ह्मप्रासीदन्ति) वर्धते तद्धि सर्वदा //
मनु| 3|57 जिस परिवार में स्त्री ह्ममाता, पत्नी, बहन, पुत्री) दु:खी रहती है उस परिवार का नाश होता है तथा जिस परिवार में वो सुखी रहती है वह परिवार समॄद्ध रहता है |
- सुभाषित 273
- सुभाषित 274
तथा गॄहस्थमाश्रित्य वर्तन्ते सर्व आश्रमा: //
मनु| 3|77 जिस प्राकार इस जगत में सभी का जीवन वायू पर निर्भर है उसी प्राकार मनुष्य जीवन के सभी आश्रम गॄहस्ताश्रम पर निर्भर है |
नारीकेलसमाकारा _श्यन्तेपि हि सज्ज्ना: |
अन्ये बदरिकाकाश बहिरेव मनोहर: //
सज्ज्न लोग नारियल के समान होते हैर् परन्तू दुर्जन लोग बेर के समान होते हैर् केवल बाहर से मनोहर दिखते है पर अन्दर से तो यातनात्मक कठोर होते है |
- सुभाषित 277
- सुभाषित 278
नैको मुनिर्यस्य वच: प्रमाणम्धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां
महाजनो येन गत: स पन्था:तर्क बहौत चंचल होता है| हर श्रुति अलग आज्ञा देती है| हर ऋषी का मत भिन्न होता है, और कोइ भी एक ऋषी दुसरेसे जादा योग्य नही कह सकते| (ऐसेमे) महान व्यक्ती जिस पन्थ पे चलते है, वही सही रास्ता है|
- सुभाषित 279
हितभुक् मितभुक् चैव तथैव विजितेन्द्रिय: //
चरकसत्य बोलनेवाला , मर्यादित खर्चा करनेवाला , हितकारक पदार्थ जरूरी प्रमाण मे खानेवाला , तथा जिसने इन्द्रियोंपर विजय पाया है , वह चैन की नींद सोता है |
परित्यजेदर्थकामौ यौ स्यातां धर्मवर्जितौ |
धर्मं चाप्यसुखोदर्कं लोकनिकॄष्टमेव च //
मनु जो संपत्ती तथा मन की अभिलाषा धर्म के विपरित है उसका त्याग करना चाहिए |
इतना ही नही तो उस धर्म का भी त्याग करना अनुचित नही होगा जो धर्म भविष्य में संकट उत्पन्न कर सकता है तथा जो किसी समाज के प्राति प्रातिकुल सिद्ध हो सकता है |
श्रद्धाभक्तिसमायुक्ता नान्यकार्येषु लालसा: |
वाग्यता: शुचयश्चैव श्रोतार: पुण्यशालिन: //
योग्य श्रोता वही है जिन के पास श्रद्धा तथा भक्ति है, जिनका हेतू केवल ज्ञान प्रााप्त करना है और कुछ भी नही, तथा जिनका अपने वाणी पर नियंत्रण है और जो मन से शुद्ध है |
- सुभाषित 282
स्थिति: उच्चै: पयोदानां पयोधीनां अध: स्थिति: //
दानसे गौरव प्राप्त होता है ,वित्तके संचयसे नहीं |
जल देनेवाले बादलोंका स्थान उच्च है , बल्कि जलका समुच्चय करनेवाले सागर का स्थान नीचे है |
सुभषित 285 न भूतपूर्व न कदापि वार्ता हेम्न: कुरङ्ग: न कदापि दॄष्ट: |
तथापि तॄष्णा रघुनन्दनस्य विनाशकाले विपरीतबुद्धि: //
न पहले कभी सुवर्णमॄग के बारे में सुना ,न कभी देखा फिरभी रघुनन्दन राम को लोभ हुआ |
सचमुच , विनाशकाले विपरीतबुदधी |
नारून्तुद: स्यादार्तोपि न परद्रोहकर्मधी: |
ययास्योद्विजते वाचा नालोक्यां तामुदीरयेत् //
विदूरनीति
दूसरोंसे दु:ख मिलने पर भी वह शांत रहे , विचार से या कॄती से भी वह दूसरों को दु:ख न दे , उस के मुख से ऐसी वाणी न निकले जिससे दूसरे दु:खी हो , सारांश में वह ऐसा कोइ काम न करे जिससे की वो स्वर्ग से वंचित हो |
कर्पूरधूलिरचितालवाल: कस्तूरिकापंकनिमग्ननाल:, गंगाजलै: सिक्तसमूलवाल: स्वीयं गुणं मुञ्चति किं पलाण्डु:
प्याज के पौधेके लिए आप कपूरकी क्यारी बनाओे, कस्तूरिका उपयोग मि+ी की जगह करो, अथवा उसके जडपे गंगाजल डालो वह अपनी दुर्गंध नही छोडेगा |
मनुष्य का स्वभाव बदलना बहुत कठिन है |
- सुभाषित 287
जिस तरह बुन्द बुन्द पानीसे घडा भर जातहै, उसी तरह विद्या, धर्म, और धन का संचय होत है| सारांश, छोटे मात्रा मे होने पर भी इन तिनोंपे दुर्लक्ष नही करना चाहिये|
- सुभाषित 288
अगर मालिक कंजुस हो, और कठोर बोलने वाला हो, तो सेवक उसका द्वेश करता है|किसकी सेवा करनी चाहिये किसकी नही ये जिसे नही समझता,वह अपने आप का द्वेश क्यों नही करताÆ खुदको जो कष्ट होते है उसके लिए बाह्म कारण ढुंडना यह मनुष्य स्वभाव है| अपने उपर आने वाले आपत्ति का कारण जादातर अपने आपमेही ढुंढा जा सकता है|
- सुभाषित 289
एकता समाजका बल है , एकताहीन समाज दुर्बल है| इसलिए , राष्ट्रहित सोचनेवाले एकता को बढावा देते है |
- सुभाषित 290
हस्ते किं ते तालीपत्रं का वा रेखा क ख ग घ //
बाला , तुम कौन हो ऋ कान्चनमाला किनकी पुत्री ? कनकलताकी हाथ में क्या है ? तालीपत्र क्या लिखा है ? क ख ग घ
अप्यब्धिपानान्महत: सुमेरून्मूलनादपि |
अपि वहन्यशनात् साधो विषमश्चित्तनिग्रह: //
अपने स्वयं के मन का स्वामी होना यह संपूर्ण सागर के जल को पिना, मेरू पर्वत को उखाडना या फिर अग्नी को खाना ऐसे असंभव बातों से भी कठिन है |
अधीत्य चतुरो वेदान् सर्वशास्त्राण्यनेकश: |
ब्रम्ह्मतत्वं न जानाति दर्वी सूपरसं यथा //
सिर्फ वेद तथा शास्त्रों का बार बार अध्ययन करनेसे किसी को ब्राह्मतत्व का अर्थ नही होता |
जैसे जिस चमच से खाद्य पदार्थ परोसा जाता है उसे उस खाद्य पदार्थ का गुण तथा सुगंध प्रााप्त नही होता |
यस्य चित्तं निर्विषयं )दयं यस्य शीतलम् |
तस्य मित्रं जगत्सर्वं तस्य मुक्ति: करस्थिता |
जिस का मन इंद्रियोंके वश में नही ह,ै जिस का )दय शांत है, संपूर्ण विश्व जिस का मित्र है ऐसे मनुष्य को मुक्ति सहजता से प्रााप्त होती है |
- सुभाषित 294
अज्ञान के अंध:कारसे अन्धे हुए मनुष्यकी आंखे ज्ञानरुप अंजनसे खोलनेवाले गुरुको मेरा प्रणाम|
- सुभाषित 295
अतॄणे पतितो वन्हि: स्वयमेवोपशाम्यति //
क्षमारूपी शस्त्र जिसके हाथ में हो , उसे दुर्जन क्या कर सकता है ? अग्नि , जब किसी जगह पर गिरता है जहाँ घास न हो , अपने आप बुझ जाता है |
- सुभाषित 296
पलालमिव धान्यार्थी त्यजेत् सर्वमशेषत: //
बुद्धीमान मनुष्य जिसे ज्ञान प्रााप्त करने की तीव्र इच्छा है वह ग्रन्थो में जो महत्वपूर्ण विषय है उसे पढकर उस ग्रन्थका सार जान लेता है तथा उस ग्रन्थ के अनावष्यक बातों को छोड देता है उसी तरह जैसे किसान केवल धान्य उठाता है |
- सुभाषित 297
अशुश्रूषा त्वरा श्लाघा विद्याया: शत्रवस्त्रय: //
विद्यार्थी के संबंध में द्वेश यह मॄत्यु के समान है |
अनावश्यक बाते करने से धन का नाश होता है |
सेवा करने की मनोवॄत्ती का आभाव, जल्दबाजी तथा स्वयं की प्राशंसा स्वयं करना यह तीन बाते विद्या ग्रहण करने के शत्रू है |
- सुभाषित 298
आलसी मनुष्य कभीभी धन नही कमा सकता (वह अपने जीवनमे सफल नही हो सकता)| दुसरों की बुराई चाहने वाला तथा उनकी वंचना करने वाला, लोग क्या कहेंगे यह भय रखनेवाला, और अच्छे मौके के अपेक्षामे कॄतीहीन रहनेवाला भी धन नही कमा सकता|
- सुभाषित 299
- सुभाषित 300
या ब्रह्माच्युतशङ्करप्रभॄतिभिर्देवै: सदा वन्दिता , सा मां पातु सरस्वती भगवती नि:शेषजाड्यापहा //
जो कुन्दपुष्प ,,, चंद्रमा या ,, जलबिन्दुओं के हार के समान धवल है , जिसने शुभ्रवस्त्र परिधान किए है , जिसके हाथ वीणा के दण्डसे सुशोभित है और श्वेतपद्म जिसका आसन है, जिसे ब्रह्मा , विष्णु , महेश आदि सदा वन्दन करते है , बुद्धी की जडता पूर्णत: नष्ट करनेवाली ऐसी भगवती सरस्वती मेरा रक्षण करें |
- सुभाषित 301
दुसरोंकी कोई वस्तु कभी चुरानी नही चाहिए| दुसरेके मर्मस्थानपे आघात हो ऐसा कभी बोलना नही चाहिए| श्री विष्णु के चरणका स्मरण करना चाहिए| ऐसा करनेसे भवसागर पार करना सरल हो जाता है|
- सुभाषित 302
अपने गुण बुद्धीमान मनुष्य को न बताए| वह उन्हे अपने आप जान लेगा| अपने गुण बु_ु मनुष्य को भी न बताए| वह उन्हे समझ नही सकेगा|
- सुभाषित 303
˜क का अर्थ है पानी ह्म कर्इ अर्थाे में से एक ) इसलिए 'के' मतलब ˜पानी में| पाण्डव का एक अर्थ ˜मछली और कौरव का एक अर्थ ˜कौआ भी होता है| इसलिए , इस श्लोक का अर्थ है ,
पानी में गिरा शव देखकर मछलीयाँं हर्षनिर्भर हुर्इ ह्मबल्कि) सब कौए ह्मदुखसे) चिल्लाने लगे ˜अरेरे पानी में शव'|
- सुभाषित 304
उत्पथं प्रातिपन्नस्य न्याय्यं भवति शासनम् //
महाभारत
आदरणीय तथा श्रेष्ठ व्यक्ति यदी व्यक्तीगत अभिमान के कारण धर्म और अधर्म में भेद करना भूल गए या फिर गलत मार्ग पर चले तो ऐसे व्यक्ति को शासन करना न्याय ही है |
शुभाषित 305
यद्यद् राघव संयाति महाजनसपर्यया |
दिनं तदेव सालोकं श,,,,,,,ेषास्त्वन्धदिनालया: //
हे! रघु वंशके वंशज , श्रेष्ठ तथा सज्जनों की सेवा में व्यतीत हुवा दिन ही प्रकाशमान होता है |
अन्य सभी दिन सूर्य प्राकाश रहते हुए भी अंधकार के समान प्रातीत होते है |
- सुभाषित 306
तेन चेदविवादस्ते मा गंगा मा कुरून् व्राज //
यदि विवस्वत के पुत्र भगवान यम आपाके मन म्ंो बसते है तथा उनसे आपका मत भेद नही है तो आपको अपने पाप धोने परम पवित्र गंगा नदी के तट पर या कुरूओंके भूमी को जाने की कोइ आवश्यकता नही है |
- सुभाषित 307
अच्छे कुलमे जन्मी हुई व्यक्ति अगर ज्ञानी न हो, तो (उसके अच्छे कुल का) क्या फायदा| ज्ञानी व्यक्ति अगर कुलीन न हो, तो भी, इश्वर भी उसकी पूजा करते है|
- सुभाषित 308
नोलूकोऽप्यवलोकते यदि दिवा सूर्यस्य किं दूषणम् |
धारा नैव पतन्ति चातकमुखे मेघस्य किं दूषणम् |
यत् पूर्वं विधिना ललाटलिखितं तन्मार्जितुं क: क्षम: |
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करीरवॄक्ष ह्म मरूभूमीमे आनेवाला पर्णहीन वॄक्ष ) को ह्मवसंतऋतू मे भी ) पन्ने नहीं आते है इसमें वसन्त का क्या दोष |
उल्लू को दिन में नही दिखार्इ देता इसमें सूर्य का क्या दोष |
ह्मजल ) धाराए चातक के चोंच में नहीं गिरी तो वह बादल का दोष कैसे |
अर्थात् , विधी ने जो माथे पर लिखा है , उसे कौन बदल सकता है |
- सुभाषित 309
विश्रम्य च पुनर्गच्छेत् तद्वद् भूतसमागम: //
महाभारत
जिस प्राकार यात्रा करनेवाला पथिक थोडे समय वॄक्ष के नीचे विश्राम करने के बाद आगे निकल जाता है उसी समान अपने जीवन में अन्य मनुष्य थोडे समय के लिए उस वॄक्ष की तरह छांव देते है और फिर उनका साथ छूट जाता है |
- सुभाषित 310
इस जगतमे स्वयंकी मूर्खताही सब दु:खोंकी जड होति है| कोई व्याधि, विष, कोई आपत्ति तथा मानसिक व्याधि से उतना दु:ख नही होता|
- सुभाषित 311
दुर्बल मनुष्य विश्वसनीय न होने पर भी बलवान मनुष्य उसे मारता नही है| बलवान पुरुष विश्वसनीय होने पर भी दुर्बल मनुष्य उसे मारता ही है|
शुभाषित 312
वने रणे शत्रुजलाग्निमध्ये |
रक्षन्ति पुण्यानि पुराकॄतानि //
जब हम जंगल के मध्य में या फिर रणक्षेत्र के मध्य में या फिर जल में या फिर अग्नी में फस जाते है तब अपने भूतकाल के अच्छे कर्म ही हम को बचाते है |
- सुभाषित 313
परापवादससेभ्यो गां चरन्तीं निवारय //
चाणक्ययदी किसी एक काम से आपको जग को वश करना है तो परनिन्दारूपी धान के खेत में चरनेवाली जिव्हारूपी गाय को वहाँं से हकाल दो अर्थात दुसरे की निन्दा कभी न करो| संस्कॄत मे गौ: शब्द के अनेक अर्थ है| ; सुभाषितकार ने गौ: के दो अर्थ ह्मइन्द्रिय जिव्हेन्द्रिय तथा गाय) लेकर शब्द का सुन्दर उपयोग किया है|
- सुभाषित 314
अथवा विद्यया विद्या चतुर्थो न उपलभ्यते //
गुरूकी सेवा करने से या भरपूर धन देने से विद्या प्राप्त कर सकते है अथवा एक विद्या का दुसरी विद्या के साथ विनिमय कर सकते है ,ह्मविद्या प्राप्त करने का) चौथा कोर्इ रास्ता उपलब्ध नहीं है |
- सुभाषित 315
भूमिमे पहार से गड्डा करनेवाले को जिस तरह पानी मिलता है, उसी तरह गुरु की सेवा करनेवालेको विद्या प्राप्त होती है|
; सुभाषित 316यदि सन्ति गुणा: पुंसां विकसन्त्येव ते स्वयम् न हि कस्तूरिकामोद: शपथेन विभाव्यते
मनुष्यके गुण अपने आप फैलते है, बताने नही पडते| (जिसतरह), कस्तूरी का गंध सिद्ध नही करना पडता|
शुभाषित 317
यथा काष्ठं च काष्ठं च समेयातां महोदधौ |
समेत्य च व्यपेयातां तद्वद् भूतसमागम: //
महाभारत
जैसे लकडी के दो टुकडे विशाल सागर में मिलते है तथा एक ही लहर से अलग हो जाते है उसी तरह दो व्य्क्ति कुछ क्षणों के लिए सहवास में आते है फिर कालचक्र की गती से अलग हो जाते है |
- सुभाषित 318
स एव वक्ता स च दर्शनीय: , सर्वे गुणा: काञ्चनमाश्रयन्ते //
र् नीतिशतक जिसके पास धन है वही कुलीन ह्मकहलाता है )वही पण्डित , बहुश्रुत , गुणोंकी पहचान रखनेवाला , वक्ता तथा दर्शनीय समझा जाता है| अर्थात , सभी गुण धन का आश्रय लेते है|
- सुभाषित 319
नीतिशतकविधाताने ललाटपर जो थोडा या अधिक धन लिखा है , वो मरूभूमी मे भी मिलेगा| मेरू पर्वत पर जाकर भी उससे ज्यादा नहीं मिलेगा| धीरज रखो , अमीरोंके सामने दैन्य ना दिखाओ , देखो यह गागर कुआँ या सागर में से उतनाही पानी ले सकती है
- सुभाषित 320
आत्मा तु पात्रतां नेय: पात्रमायान्ति संपद: //
विदुरनीति सागर कभी जल के लिए भिक्षा नही मांगता फिर भी वह सदैव जल से भरा रहता है |
यदि हम अपने आप को योग्य बना दे तो सब साधन स्वयंही अपने पास चली आएंगी |
- सुभाषित 321
गोप इव गा गणयन् परेषां न भाग्यवान् श्रामण्यस्य भवति //
धम्मपद 2|19 यदि मनुष्य बहूत से धार्मिक श्लोक स्मरण में भी रखे पर उस प्राकार आचरण न करे तो उस का कोइ लाभ नही है |
जैसे गाय चरानेवाला गौवोंकी संख्या तो जानता है पर वह उस का मालिक नही रहता |
- सुभाषित 322
सुप्तं प्रमत्तं विषमस्थितं वा रक्षन्ति पुण्यानि पुरा कॄतानि //
नीतिशतकअरण्यमे रणभूमी में , शत्रुसमुदाय में , जल , अग्नि , महासागर या पर्वतशिखरपर तथा सोते हुए , उन्मत्त स्थिती में या प्रतिकूल परिस्थिती में मनुष्यके पूर्वपुण्य उसकी रक्षा करतें हैं |
- सुभाषित 323
कालस्य बलमेतावत् विपरीतार्थदर्शनम् //
महाभारत 2|81|11 काल किसी का शस्त्र से शिरच्छेद नही करता पर वह बुद्धीभेद करता है जिससे मनुष्य को गलत रास्ता ही सही लगता है और वह अपने विनाश की ओर बढता है |
बुद्धीभेद ही काल का बल है |
- सुभाषित 324
देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते //
हम सब एक साथ चले; एक साथ बोले; हमारे मन एक हो |
प्रााचीन समय में देवताओं का ऐसा आचरण रहा इसी कारण वे वंदनीय है |
- सुभाषित 325
यदा च पच्यते पापं दु:खं चाथ निगच्छति धम्मपद 5|6 जब तक पाप संपूर्ण रूप से फलित नही होता तब तक वह पाप कर्म मधुर लगता है |
परन्तु पूर्णत: फलित होने के पश्च्यात मनुष्य को उसके कटु परिणाम सहन करने ही पडते है |
- सुभाषित 326
न जयेद् रसनं यावद् जितं सर्वं जिते रसे //
श्रीमद्भागवत 11|8|21
जब तक मनुष्य अपने विविध आहार के उपर स्वनियंत्रण नही रखता तब तक उसने सब इन्द्रियों के उपर विजय पायी है ऐसा नही बोल सकते |
आहार के उपर स्वनियंत्रण यही सब से आवश्यक बात है |
- सुभाषित 327
यो विमुग्धो जडो बालो यो गुणेभ्य: परं गत: //
भागवत 11|9|4
इस जगत में केवल दो प्राकार के लोग परमआनन्द का अनुभव कर सकते है |
एक है नन्हासा बालक तथा दुसरा है परम योगी |
- सुभाषित 328
यथा तुदन्ति मर्मस्था ह्मसतां पुरूषेषव: //
भागवत 11|23|3
मनुष्य के शरीर में लगे बाण उतनी वेदना नही देते जितनी वेदना कठोर शब्द देते है |
- सुभाषित 329
कल किसका क्या होगा कोर्इ नहीं जानता , इसलिए बुद्धिमान लोग कल का काम आजही करते है |
- सुभाषित 330
स तु भवति दरिद्रो यस्य तॄष्णा विशाला मनसि च परितुष्टे कोऽर्थवान को दरिद्र: //
एक योगी राजा से कहता है , œ हम यहाँ है ह्म आश्रममे ) वल्कलवस्त्रसे भी सन्तुष्ट , जब कि तुमने अपने रेशीमवस्त्र पहने है |
हम उतने ही सन्तुष्ट है , कोर्इ भेद नही है |
जिसकी पिपासा अधिक , वही दरिद्री है |
जब की मन में सन्तुष्टता है , दरिद्री कौन और धनवान कौन ?
- सुभाषित 331
ते पुनन्त्युरूकालेन दर्शनादेव साधव: //
भागवत 10|48|31 नदीयों का पवित्र जल या भगवान की मूर्ती के दर्शन मात्र से भक्त का मन शुद्ध नही होता अपितु लंबे समय ध्यान लगाने के बाद ही अंत:करण शुद्ध होता है |
परन्तू संतों के केवल दर्शन मात्र से ही हम पवित्र हो जाते है |
- सुभाषित 332
स्त्रवते ब्रम्ह तस्यापि भिन्नभाण्डात् पयो यथा //
भागवत 4|14|41 समदॄष्टी के अभाव के कारण यदि ब्राम्हण किसी पिडीत व्यक्ति की सहायता नही करता तो उसका ब्रम्हत्व समाप्त हो गया ऐसा समझना चाहिए |
- सुभाषित 333
स्नानदानासनोच्चारान् दैवमेव करिष्यति //
अगर नसीबही आपका कार्य करनेवाला है तो आपको कुछ करनेकी क्या आवष्यकता है ? स्नान दानधर्म बैठना बोलना यह सभी आपका नसीबही करेगा !
- सुभाषित 334
महदप्युपकारोऽपि रिक्ततामेत्यकालत: //
किसीका छोटासाभी काम अगर सही समयपे करे तो वह उपकारक होता है |
परंतु अगर गलत समयपे करे तो बहुत बडा काम भी किसी काम का नही होता है |
- सुभाषित 335
अवश्यं तदवाप्नोति न चेच्छ्रान्तो निवर्तते //
कोर्इ मनुष्य अगर कुछ चाहता है और उसकेलिए अथक प्रयत्न करता है तो वह उसे प्राप्त करकेही रहता है |
- सुभाषित 336
कॄतं च यद् दुष्कॄतमर्थलिप्सया तदेव दोषापहतस्य कौतुकम् //
र् गरूडपुराणप्राणान्तिक परिश्रमों से प्राप्त किया हुआ मॄत आदमी का जो धन होता है , उसके वारिस वह आपसमें बाँंट लेते है |
उस धन के लोभ से उसने जो पाप बटोरा है वह पापी मनुष्य के साथही जाता है ह्मउसेही पापके परिणाम भुगतने पडते है ,पाप का कोर्इ विभाजन नहीं होता) |
- सुभाषित 337
बुभुक्षित: किं न करोति पापं , क्षीणा जना निष्करूणा भवन्ति //
चाणक्यभूख से व्याकूल माता अपने पुत्रका त्याग करेगी भूख से व्याकूल साँप अपने अण्डे खा लेगा भूखा क्या पाप नहीं कर सकता ? भूख से क्षीण लोग निर्दय बन जाते हैं |
- सुभाषित 338
सर्वत: सारमादद्यात् पुष्पेभ्य इव षट्पद: //
भवरा जैसे छोटे बडे सभी फूलोमेसे केवल मधु इक{ा करता है उसी तरह चतुर मनुष्यने शास्त्रोमेसे केवल उनका सार लेना चाहिए |
- सुभाषित 339
न गायत्रया: परो मन्त्रो न मातु: परदैवतम् //
अन्नदान जैसे दान नही है |
द्वादशी जैसे पवित्र तिथी नही है |
गायत्री मन्त्र सर्वश्रेष्ठ मन्त्र है तथा माता सब देवताओंसेभी श्रेष्ठ है |
- सुभाषित 340
यत्र एता: तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्र अफला: क्रिया: //
मनुस्मॄति जहां स्त्रीयोंको मान दिया जाता है तथा उनकी पूजा होती है वहां देवताओंका निवास रहता है |
परन्तू जहां स्त्रीयोंकी निंदा होती है तथा उनका सम्मान नही किया जाता वहां कोइ भी कार्य सफल नही होता |
- सुभाषित 341
एवं कुलीना व्यसनाभिभूता न नीचकर्माणि समाचरन्ति //
जंगल मे मांस खानेवाले शेर भूक लगने पर भी जिस तरह घास नही खाते, उस तरह उच्च कुल मे जन्मे हुए व्यक्ति (सुसंस्कारित व्यक्ति) संकट काल मे भी नीच काम नही करते |
- सुभाषित 342
उदिते तु सहस्रांशौ न खद्योतो न चन्द्रमा: //
जब तक चन्द्रमा उगता नही, जुगनु (भी) चमकता है |
परन्तु जब सुरज उगता है तब जुगनु भी नही होता तथा चन्द्रमा भी नही (दोनो सुरज के सामने फीके पडते है)ा
- सुभाषित 343
कर्पूर: पावकस्पॄष्ट: सौरभं लभतेतराम् //
अच्छी व्यक्ति आपत्काल में भी अपना स्वभाव नहीं छोडती है , कर्पूर अग्निके स्पर्श से अधिक खुशबू निर्माण करता है
- सुभाषित 344
वस्तुसिद्धिर्विचारेण न किंचित्कर्मेकोटिभि: //
विवेकचूडामणी अंत:करण के शुद्धी के लिए कर्म ह,ै पारमार्थिक ज्ञान प्रााप्त करने के लिए नही |
पारमार्थिक ज्ञान तो चिंतन तथा विचार करने से ही प्रााप्त होता ह,ै कोटि कर्म करने से नही |
शुभाषित 345 श्रमेण दु:खं यत्किन्चिकार्यकालेनुभूयते |
कालेन स्मर्यमाणं तत् प्रामोद //
काम करते समय होनेवाले कष्ट के कारण थोडा दु:ख तो होता है |
परन्तु भविष्य में उस काम का स्मरण हुवा तो निश्चित ही आनंद होता है |
- सुभाषित 346
शेते निषद्यमानस्य चरति चरतो भग: //
जो मनुश्य (कुछ काम किए बिना) बैठता है, उसका भाग्य भी बैठता है |
जो खडा रहता है, उसका भाग्य भी खडा रहता है |
जो सोता है उसका भाग्य भी सोता है और जो चलने लगता है, उसका भाग्य भी चलने लगता है |
अर्थात कर्मसेही भाग्य बदलता है |
- सुभाषित 347
यशसि चाभिरूचिव्र्यसनं श्रुतौ प्रकॄतिसिद्धमिदं हि महात्मनाम् //
आपात्काल मे धेेैर्य , अभ्युदय मे क्षमा , सदन मे वाक्पटुता , युद्ध के समय बहादुरी , यशमे अभिरूचि , ज्ञान का व्यसन ये सब चीजे महापुरूषोंमे नैसर्गिक रूपसे पायी जाती हैं |
- सुभाषित 348
अधिकं योभिमन्येत स स्तेनो दण्डमर्हति //
मनुस्मॄती, महाभारत अपने स्वयम के पोषण के लिए जितना धन आवश्यक है उतने पर ही अपना अधिकार है |
यदि इससे अधिक पर हमने अपना अधिकार जमाया तो यह सामाजिक अपराध है तथा हम दण्ड के पात्र है |
- सुभाषित 349
बहुव्रीहिरहं राजन् षष्ठीतत्पुरूषो भवान //
एक भिखारी राजा से कहता है, “हे राजन्, , मै और आप दोनों लोकनाथ है |
ह्मबस फर्क इतना है कि) मै बहुव्रीही समास हंूँ तो आप षष्ठी तत्पुरूष हो !”
- सुभाषित 350
समदॄष्टेस्तदा पुंस: सर्वा: सुखमया दिश: //
श्रीमदभागवत 9|15|15 जो मनुष्य किसी भी जीव के प्राती अमंगल भावना नही रखता,, जो मनुष्य सभी की ओर सम्यक् दॄष्टीसे देखता है, ऐसे मनुष्य को सब ओर सुख ही सुख है |
- सुभाषित 351
शरद ऋतुमे बादल केवल गरजते है, बरसते नही|वर्षा ऋतुमै बरसते है, गरजते नही| नीच मनुश्य केवल बोलता है, कुछ करता नही|परन्तु सज्जन करता है, बोलता नही|
- सुभाषित 352
न तयोर्याति निर्वेशं पित्रोर्मत्र्य: शतायुषा //
श्रीमदभागवत 10|45|5
एक सौ वर्ष की आयु प्रााप्त हुआ मनुष्य देह भी अपने माता पिता के ऋणोंसे मुक्त नही होता |
जो देह चार पुरूषार्थोंकी प्रााप्ती का प्रामुख साधन ह,ै उसका निर्माण तथा पोषण जिन के कारण हुआ है, उनके ऋण से मुक्त होना असंभव है |
- सुभाषित 353
मोहादापद्यते मॄत्यु: सत्येनापद्यतेऽमॄतम् //
श्री शंकराचार्य
मॄत्यु तथा अमरत्व दोनों एक ही देह में निवास करती है |
मोह के पिछे भागनेसे मॄत्यु आती है तथा सत्य के पिछे चलनेसे अमरत्व प्रााप्त होता है |
- सुभाषित 354
स जातो येन जातेन याति वंश: समुन्न्तिम् //
नितीशतक 32 इस जीवन मॄत्यु के अखंडीत चक्र में जिस की मॄत्यु होती ह,ै क्या उसका पुन: जन्म नही होता? परन्तु उसीका जन्म, जन्म होता है जिससे उसके कुल का गौरव बढता है |
- सुभाषित 355
मुख खाद्य से भरकर किसको अंकीत नहि किया जा सकता| आटा लगानेसे मॄदुंग भी मधुर ध्वनि निकालता है|
- सुभाषित 356
जब सर्वनाश निकट आता है, तब बुद्धिमान मनुष्य अपने पास जो कुछ है उसका आधा गवानेकी तैयारी रखता है| आधेसे भी काम चलाया जा सकता है, परंतु सबकुछ गवाना बहुत दु:खदायक होता है|
- सुभाषित 357
स्वयं मे अच्छे गुणों की वॄद्धी करनी चहिए| दिखावा करके लाभ नही होता| दुध न देनेवाली गाय उसके गलेमे लटकी हुअी घंटी बजानेसे बेची नही जा सकती|
शुभाषित 358
साहित्यसंगीतकलाविहीन: साक्षात् पशु: पुच्छविषाणहीन: |
तॄणं न खादन्नपि जीवमान: तद्भागधेयं परमं पशूनाम् //
नीतिशतक जिस व्यक्ती को कला संगीत में रूची नही है वह तो केवल पूंछ तथा सिंग रहीत पशू है |
यह तो पशूओंका सौभाग्य है की वह घास नही खाता! शुभाषित 359
न प्रा)ष्यति सम्माने नापमाने च कुप्यति |
न क्रुद्ध: परूषं ब्रूयात् स वै साधूत्तम: स्मॄत: //
संत तो वही है जो मान देने पर हर्षित नही होता अपमान होने पर क्रोधीत नही होता तथा स्वयं क्रोधीत होने पर कठोर शब्द नही बोलता |
- सुभाषित 360
सभ्दिस्तु लीलया प्राोक्तं शिलालिखितमक्षरम् //
शुभाषित 361
दुर्जनोने ली हुइ शपथ भी पानी के उपर लिखे हुए अक्षरों जैसे क्षणभंगूर ही होती है |
परन्तू संतो जैसे व्यक्तिने सहज रूप से बोला हुआ वाक्य भी शिला के उपर लिखा हुआ जैसे रहता है |
- सुभाषित 361
पात्यते तु क्षणेनाधस्तथात्मा गुणदोषयो: //
शिला को पर्वत के उपर ले जाना कठिन कार्य है परन्तू पर्वत के उपर से नीचे ढकेलना तो बहुत ही सुलभ है |
ऐसे ही मनुष्य को सद्गुणोसे युक्त करना कठिन है पर उसे दुर्गुणों से भरना तो सुलभही है |
- सुभाषित 362
लालचि मनुष्यको धन (का लालच) देकर वश किया जा सकता है| क्रोधित व्यक्तिके साथ नम्र भाव रखकर उसे वश किया जा सकता है| मूर्ख मनुष्य को उसके इछानुरुप बर्ताव कर वश कर सकते है| तथ ज्ञानि व्यक्ति को मुलभूत तत्व बताकर वश कर सकते है|
अधर्मेणैथते पूर्व ततो भद्राणि पश्यति |
तत: सपत्नान् जयति समूलस्तु विनश्यति //
कुटिलता व अधर्म से मानव क्षणिक समॄद्वि व संपन्नता पाता है |
अच्छा दैवका अनुभव भी करता है |
शत्रु को भी जीत लेता है |
परन्तू अन्त मे उसका विनाश निश्चित है |
वह जड समेत नष्ट होता है |
विद्या मित्रं प्रावासेषु भार्या मित्रं गॄहेषु च |
व्याधितस्योषधं मित्रं धर्मो मित्रं मॄतस्य च //
विद्या प्रावास के समय मित्र है |
पत्नी अपने घर मे मित्र है |
व्याधी ग्रस्त शरीर को औषधी मित्र है तथा मॄत्यु के पश्च्यात धर्म अपना मित्र है |
- सुभाषित 365
विद्याहीना: न शोभन्ते निर्गन्धा: किंशुका: इव //
- सुभाषित 367
राजाका कल्याण करनेवालेका लोग द्वेश करते है| लोगोंका कल्याण करनेवालेको राजा त्याग देता है| इस तरह दोनो ओर से बडा विरोध होते हुए भी राजा और प्रजा दोनोका कल्याण करनेवाला मनुष्य दुर्लभ होता है|
- सुभाषित 368
- सुभाषित 369
आयासाय अपरं कर्म विद्या अन्या शिल्पनैपुणम् //
विष्णुपुराण 2|3
जिस कर्म से मनुष्य बन्धन में नही बन्ध जाता वही सच्चा कर्म है |
जो मुक्ति का कारण बनती है वही सच्ची विद्या है |
शेष कर्म तो कष्ट का ही कारण होती है तथा अन्य प्राकार की विद्या तो केवल नैपुण्ययुक्त कारागिरी है |
अक्षरद्वयम् अभ्यस्तं नास्ति नास्ति इति यत् पुरा |
तद् इदं देहि देहि इति विपरीतम् उपस्थितम् संपत्ती के परमोच्च शिखर पर यदि मनुष्य ने याचक को नही नही कहा तो निश्चितही भविष्य में ऐसे मनुष्य को दिजीए दिजीए ऐसे कहनेकी परिस्थिती नियती ले आएगी |
अन्यक्षेत्रे कॄतं पापं पुण्यक्षेत्रे विनश्यति |
पुण्यक्षेत्रे कॄतं पापं वज्रलेपो भविष्यति //
अन्यक्षेत्र में किए पाप पुण्य क्षेत्र में धुल जाते है |
पर पुण्य क्षेत्र में किए पाप तो वज्रलेप की तरह होते है र् अक्षमस्व |
असारे खलु संसारे सारं श्वशुरमन्दिरम् |
हरो हिमालये शेते हरि: शेते महोदधौ //
इस सारहीन जगत में केवल श्वशुर का घर रहने योग्य है |
इसी कारण शंकर भगवान हिमालय में रहते है तथा विष्णू भगवान समुद्र में रहते है |
एकेन अपि सुपुत्रेण सिंही स्वपिति निर्भयम् |
सह एव दशभि: पुत्रै: भारं वहति गर्दभी //
सिंहीन को यदि एक छावा भी है तो भी वह आराम करती है क्योंकी उसका छावा उसे भक्ष्य लाकर देता है |
परन्तु गधी को दस बच्चे होने परभी स्वयं भार का वहन करना पडता है |
- सुभाषित 374
अच्छा बर्ताव रखना यह सबसे जादा महात्त्वपूर्ण है ऐसा पंडीतोने कहा इसलिए अपने प्राणोका मोल देके भी अच्छाा बर्ताव रखना चाहिए| न तथा शीतलसलिलं न चन्दनरसो न शीतला छाया |
प्र*लादयति पुरूषं यथा मधुरभाषिणी वाणी //
शीतल जल चंदन अथवा छाया किसी में भी इतनी शीतलता नही होती जितनी के मधुर वणी में होती है |
- सुभाषित 376
अदर्शयित्वा शूरास्तू कर्म कुर्वन्ति दुष्करम् //
शूर जनों को अपने मुख से अपनी प्राशंसा करना सहन नहीं होता |
वे वाणी के द्वारा प्रादर्शन न करके दुष्कर कर्म ही करते है |
चलन्तु गिरय: कामं युगान्तपवनाहता: |
कॄच्छे्रपि न चलत्येव धीराणां निश्चलं मन: //
युगान्तकालीन वायु के झोंकों से पर्वत भले ही चलने लगें परन्तु धैर्यवान् पुरूषों के निश्चल )दय किसी भी संकट में नहीं डगमगाते |
- सुभाषित 378
मनस्यन्यत् वचस्यन्यत् कर्मण्यन्यत् दुरात्मनाम्
महान व्यक्तियों के मनमे जो विचार होता है वही वे बोलते है और वही कॄतिमेभी लाते है| उसके विपारित नीच लोगोंके मनमे एक होता है वै बोलते दुसरा है और करते तिसरा है|
- सुभाषित 379
इतयेषा प्रार्थनाऽस्माकं भगवन्परिपूर्यताम्
हमारे जीवन में हमारी याचनाओं से अधीक हमारा दान हो यह एक प्रार्थना हे भगवन् तुम पूरी करदो|
- सुभाषित 380
शान्ति: पत्नी क्षमा पुत्र: षडेते मम बान्धवा: //
सत्य मेरी माता, ज्ञान मेरे पिता, धर्म मेरा बन्धु, दया मेरा सखा, शान्ति मेरी पत्नी तथा क्षमा मेरा पुत्र है |
यह सब मेरे रिश्तेदार है |
- सुभाषित 381
नूपुरे तु अभिजानामि नित्यं पादाभिवन्दनात् //
रामायण 4, 6|22 रावण जब बलपुर्वक सीता माता को ले जा रहा था तभी सीता माता ने अपने कुछ आभरण इस आशासे गिराए थे की श्रीराम उन्हे देखकर उन तक पहुंच सके |
यही आभरण लक्ष्मण को श्रीराम ने पहचाननेके लिए कहा |
तब लक्ष्मण ने कहार् “ मैं इन कुण्डलों तथा बाजूबंद को तो नही पहचान सकता |
परन्तु नित्य उनके चरण स्पर्श करते रहने कारण यह नुपूर उनकेही है यह मैं निश्चयसे कह सकता हूं |
“
- सुभाषित 382
करिष्ये प्रतिजाने च , रामो द्विर् न अभिभाषते //
रामायण अयोध्या सर्ग 18|30 भरत का राज्याभिषेक व श्रीराम को वनवास यह वर राजा दशरथ से पाकर , कैकेयी श्रीराम को कहती है की राजा दशरथ अप्रीय वार्ता सुनाने के इच्छुक नही हैं |
इसलिये यदि श्रीराम राजा कि इच्छानुसार करेंगे तो ही माता कैकयी उन्हे वह वर्ता सुनायेंगी |
यह सुनके श्रीराम कहते है , “राजा के आज्ञा पर मै अग्नी प्रव्ेाशभी कर सकताहु |
मै प्रतिज्ञा करता हुं, जो राजा कहेंगे मै वही करूंगा” |
श्रीराम दोबार वचन नही देते थे |
श्रीराम एक एकवचनी थे |
- सुभाषित 383
न हि रामं विना देहे तिष्ठेत् तु मम जीवितम् //
रामायण
कैकेयी जब राजा दशरथ से श्रीराम को वनवास भेजनेका वर मांगती है तब राजा दशरथ कहते है की हो सकता है के सूर्य के बिना सॄष्टी टीकी रहे या पानी के बिना धान्य विकसीत हो |
पर श्रीराम के बिना इस देह में प्रााण रहना असंभव है |
भविष्य में राजा दशरथ की यह बात सिद्ध हुइ |
- सुभाषित 384
युध्यस्य तु कथा रम्या त्रीणि रम्याणि दूरत: //
पहाड दूर से बहुत अच्छे दिखते है |
मुख विभुषित करने के बाद वैश्या भी अच्छी दिखती है |
युद्ध की कहानिया सुनने को बहौत अच्छी लगती है |
ये तिनो चिजे पर्याप्त अंतर रखने से ही अच्छी लगती है |
- सुभाषित 385
सहस्रं तु पितॄन् माता गौरवेण अतिरिच्यते //
मनुस्मॄति
आचार्य उपाध्यायसे दस गुना श्रेष्ठ होते है |
पिता सौ आचार्याें के समान होते है |
माता पितासे हजार गुना श्रेष्ठ होती है |
- सुभाषित 386
निर्धना: दानम् इच्छन्ति, वॄद्धा नारी पतिव्रता //
संकट में लोग भगवान की प्राार्थना करते है, रोगी व्यक्ति तप करने की चेष्टा करता है |
निर्धन को दान करने की इच्छा होती है तथा वॄद्ध स्त्री पतिव्रता होती है |
लोग केवल परिस्थिती के कारण अच्छे गुण धारण करने का नाटक करते है |
- सुभाषित 387
शोको नाशयते सर्वं, नास्ति शोकसमो रिपु: //
शोक धैर्य को नष्ट करता है, शोक ज्ञान को नष्ट करता है, शोक सर्वस्व का नाश करता है |
इस लिए शोक जैसा कोइ शत्रू नही है |
- सुभाषित 388
शल्यग्राहवती कॄपेण महता कर्णेन वेलाकुला //
अश्वत्थामविकर्णघोरमकरा दुर्योधनावर्तिनी |
सोत्तीर्णा खलु पाण्डवै: रणनदी कैवर्तक: केशव: //
भीष्म और द्रोण जिसके दो तट है जयद्रथ जिसका जल है शकुनि ही जिसमें नीलकमल है शल्य जलचर ग्राह है कर्ण तथा कॄपाचार्य ने जिसकी मर्यादा को आकुल कर डाला है अश्वत्थामा और विकर्ण जिस के घोर मगर है ऐसी भयंकर और दुर्योधन रूपी भंवर से युक्त रणनदी को केवल श्रीकॄष्ण रूपी नाविक की सहायता से पाण्डव पार कर गये |
- सुभाषित 389
यशांसि दुग्धे मलिनं प्रमार्ष्टि ।
संस्कार सौधेन परं पुनीते,
शुद्धा हि बुद्धि: किलकामधेनु: ।।
शुद्ध बुद्धि निश्चय ही कामधेनु जैसी है क्योंकि वह धन-धान्य पैदा करती है; आने वाली आफतों से बचाती है; यश और कीर्ति रूपी दूध से मलिनता को धो डालती है; और दूसरों को अपने पवित्र संस्कारों से पवित्र करती है। इस तरह विद्या सभी गुणों से परिपूर्ण है
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