Sunday, July 31, 2011

आजकल के बच्चे, बच्चे नहीं रहे --इनटरनेट के मोहपेश के तथा मोबाइल के चरित्रहीन जगत मे कदम रख कर जाने क्या कर रहे है ये तो आप भी निगाह रखे

शनिवार को बाल-दिवस था। बाल-दिवस! चलो एक दिन के दिवस के बहाने बच्चों की सुध ली जाती है। शायद स्कूलों में कार्यक्रम होते होंगे। हमारे समय में तो होते थे। अब का पता नहीं। वैसे अब ज्यादा ध्यान दिया जाता है बच्चों पर। ज्यादा भाग्यशाली हैं आज के बच्चे। जैसे पाठ्यक्रम में बदलाव, परीक्षा समाप्त करना जैसे अनेक कदम उठाये जा रहे हैं। 

बच्चे मतलब बचपन। आज से दस वर्ष पूर्व बचपन मतलब कॉमिक्स। पर अब हैं कार्टून, टीवी, विभिन्न चैनल। तब मोगली होता था, अब जैटिक्स जैसे चैनलों पर मारधाड़। तब चाचा चौधरी, मिनी, रमन, बिल्लू, नागराज और सुपर कमांडो ध्रुव में खो जाते थे। पर अब कब्जा है अमरीकी व चीनी कार्टून किरदारों का। माफ़ कीजियेगा सब के नाम नहीं पता। मेरी बुआ का लड़का है वो बता पायेगा।

चंपक, नंदन, चंदामामा व बालहंस पत्रिकायें कहीं खो गई हैं। अब बच्चों को इंतज़ार होता है शिनचैन की मूवी का। हैरी पॉटर का। इनसे बच्चा कुछ तो सीखता होगा? ऐसा कईं बार मैंने सोचा...सीखता तो होगा न?

बच्चे अब टीवी देखते ही नहीं बल्कि अब टीवी पर आने भी लगे हैं। अब परिवार को नहीं बल्कि दुनिया को हँसाने लगे हैं। माँ बोलने से पहले तो गाना गाने लगे हैं। चलना तो पैदा होने से पहले सीख लेते हैं पर चैनल पर अब नाचने लगे हैं। गर्मियों की छुट्टियों में नानी के जाते थे, फ़ालसे खाते थे पर अब "समर वेकेशन्स" हैं तो डांस और "सिंगिंग क्लासेस" भी जरूरी हैं। नहीं तो कोई न कोई हॉबी तो सीखनी ही होगी। बच्चे ही नहीं बच्चों के अभिभावक भी यही चाहते हैं। एक भी दिन बेकार न जाये। बच्चा अव्वल आना चाहिये।

पाठ्यक्रम में परिवर्तन हुआ। मैंने किसी से पूछा तो पता चला सुभद्रा कुमारी चौहान की रानी लक्ष्मीबाई की कविता अब गायब हो गई है। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि उस कविता ने बच्चों का क्या बिगाड़ा है। ताँत्या टोपे पर एक पाठ हुआ करता था। काबुलीवाला और कदम्ब का पेड़ जैसी रचनायें अब किताब के पन्नों में नहीं, इतिहास के पन्नों में चली गईं हैं। राज्य स्तर के बोर्ड में जरूर ये आती होंगी, पर सीबीएसई इन्हें जरूर समाप्त करना चाह रहा है। हैरानी और परेशानी होती है कि बच्चों के पाठ्यक्रम से इनको हटा कर क्या मिला? सीबीएसई को महात्मा गाँधी के जंतर ने तो ऐसा नहीं कहा था!! क्या अब हैरी पॉटर में अपना वर्तमान और भविष्य खोजेंगे बच्चे?

अभी हाल ही में एक मित्र मिला जो सातवीं के बच्चे को ट्यूशन पढ़ाता है। माँ कहती है कि बेटा अव्वल आये। इसलिये उसे मोबाइल और इंटेरनेट दिया हुआ है। अब मोबाइल दिया है तो इस्तेमाल तो होगा ही बेशक क्लास के बीच में बात करनी हो। लैपटॉप पर चैटिंग जारी रहती है। एक मिनट के लिये भी बंद नहीं होता। पर लाडला अच्छे अंकों से पास होना चाहिये। कपिल सिब्बल ऐसे परिवारों के लिये परीक्षा समाप्त कर रहे हैं। एक शानदार कदम है उनका। इससे सूचना क्रांति में बहुत मदद मिलेगी। अभिभावक और मंत्री जी सही दिशा में जा रहे हैं।

"नानी तेरी मोरनी को मोर ले गये", "दादी अम्मा दादी अम्मा मान जाओ", "हम भी अगर बच्चे होते", "नन्हा मुन्ना राही हूँ" जैसे अनेकों गीत हैं जो गुनगुनाये जाते थे, गाये जाते थे। सभी की जुबान पर थे। पर अब बच्चे अम्मा को "ग्रैंडमा" बुलाने लगे हैं तो गाने ऐसे क्यों बनेंगे? वैसे भी आजकल बच्चों के गाने तो दूर उन पर फ़िल्म कोई नहीं बनाता। हाँ, बच्चे जरूर बड़ों जैसी बातें करते हुए अलग अलग फ़िल्मों में दिख जायेंगे। कोई एंकर बन गया है तो कोई एड-जगत में नाम कमा रहा है। कोई धारावाहिकों में आता है तो कोई रियलीटि शो में आता है। यही आज का बचपन है!! बच्चे और अभिभावक इसी में खुश हैं।

बच्चे अब बच्चे नहीं रहे। बड़े हो गये हैं। शब्दकोश से बचपन शब्द कब गायब होगा ये तो वक्त ही बतायेगा। कुछ भी कहो, आजकल के बच्चे कामयाब जरूर हैं। क्या हुआ जो उन्होंने बचपन का "स्टापू" नहीं खेला(!), कम्प्यूटर पर ऑनलाइन गेम तो खेली है।

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