श्रीमदभगवदगीता के आधार श्रीकृष्ण की उदारता तथा उनका दिव्यसंदेश, शाश्वत व सभी युगों के लिए उपयुक्त है। शोकग्रस्त व व्याकुल अर्जुन को श्रीकृष्ण द्वारा दिया गया यह दिव्यसंदेश ही श्रीमदभगवदगीता में लिखा है। 'धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः' इस श्लोकांश से श्रीमदभगवदगीता का प्रारंभ होता है। गीता मनुष्य के मनोविज्ञान को समझाने, समझने का आधार ग्रंथ है। हमारी भारतीय संस्कृति का प्रतीक श्रीमदभगवदगीता का प्रथम श्लोक ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे ‘ भारतीय मनीषा को उत्कृष्टतम अभिव्यक्ति देने वाले ग्रंथ की शुरुआत मात्र नहीं है , यह व्यवस्था की एक एक विशेष स्थिति की तरफ संकेत भी करता है। एक ऐसी जब सत्य और असत्य के बीच आमना-सामना अवश्यम्भावी बन जाता है ।
"श्री गीतायाः प्रथमश्लोकः अति विचारपूर्णः अस्ति श्लोक:अस्ति
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवे ताः युयुत्सवाः,
मामकाः पाण्डवाश्चैव, किमकुर्वत संजय ।
वर्तमान समय में अपराध-भ्रष्टाचार में इतना अधिक बढ़ावा हो गया है कि कभी सही भी होगा ये विश्वास नहीं होता, पर दूसरी ओर इसके विरोध में उठने वाले स्वरों और हाथों को देख कर लगता है कि ये अधिक दिन चलने वाला नहीं है। एक ओर हमारे युवावर्ग स्वार्थलिप्त और संस्कारहीन होकर पाश्चात्य संस्कृति के परिवेश में आने को लालायित हैं और अभारतीयता के साथ-साथ पाश्चात्य संस्कृति की ओर दौड़ लगा रहे हैं; तो दूसरी ओर ऐसे युवा भी हैं जो सुबह-सुबह तीन बजे से “स्वामी रामदेव जी ” के योग शिविर में हजारों की संख्या में पहुँच कर भारत की सभ्यता-संस्कृति नशे-वासनाओं से दूर रहना और स्वच्छ राजनीति का पाठ पढ़ रहे हैं । वर्तमान भ्रष्टाचारी वातावरण में चल रहे में असत्य का, झूठ का, अनीति का, भ्रष्टाचार का, अपराधों और पापों का, बड़ों के अनादर व अपमान का, गुणीजनों के निरादर का, चालू धोखेबाजों केआदर और सम्मान का, श्रद्धालु जनों की उपेक्षा का, छली कपटियों की ऊँची उड़ान का युग बड़ी शान से चल रहा है । झूठों-दगाबाजों का बोलबाला है, सच्चे का मूँह काला है। इस कलियुग को सतयुग में बदलने के लिए उस सर्वनियन्ता भगवान को भी तो भ्रष्टाचार को सदाचार बना देने वाले पथभ्रष्ट मानव को बदलने के लिये, अच्छो की तलाश होगी । उसे भी तो अपने गोपनीय संगठन से सही जानकारी प्राप्त कर अच्छों की तलाश कर उन्हें प्रोत्साहित व प्रेरित कर उन्हें पृथ्वी स्वर्ग, नरक जैसे लोकों के महत्वपूर्ण पदों पर बिठाना होगा । हमें यदि अपनी वर्तमान युवा पीढी को भविष्य के लिये सक्षम बनाना है तो हमे इन बातों पर गौर करना ही होगा,औरसरकार तथा संचार माध्यमों को भी इसमे सकारात्मक भूमिका निभानी होगी |धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवे
मामकाः पाण्डवाश्चैव, किमकुर्वत संजय ।
धृतराष्ट्रस्य प्रश्नं समस्तानां दु:खानां कारणं समावेशितं करोति ।
गीताज्ञानं समस्तानां दुखानां औषधिः ।
किन्तु औशधिप्रयोगस्य पूर्वं रोगः तस्य कारणं च चिन्तनीयम ।
दु:खम् अस्ति संसारस्य रोगम् । किं कारणं रोगस्य ? द्वैतता अस्ति अस्य कारणं ।
'मामकाः पाण्ड्वस्य' इंगितं करोति संसारस्य दुखस्य कारणं ||"
हमारा देश भारत जिस कालखंड से गुजर रहा है उसमें भी भारतीयता और अभारतीयता के बीच का संघर्ष तेजी से ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे’ की स्थिति की स्थिति की ओर बढ़ रहा है। हालांकि इस युध्द का क्षेत्र कुरुक्षेत्र तक सीमित न रहकर संपूर्ण भारत है। एक लंबी योजना के तहत उन शक्तियों पर निशाना साधा जा रहा है जो वर्तमान प्रणाली में भारतीयता को स्थापित करने का प्रयास कर रही है , भारतीय प्रकृति और तासीर पर आधारित वैकल्पिक व्यवस्था को गढ़ने के लिए प्रयत्नशील हैं। इस बिंदु पर भारतीयता और अभारतीयता के बीच के संघर्ष को व्यापक परिप्रेक्ष्य में समझना आवश्यक है। यह संघर्ष दिन, माह, और १००-५० वर्ष की सीमाओं को बहुत पहले ही लांघ चुका है और पिछले चौदह सौ वर्षों से सतत जारी है। कई निर्णायक दौर आए। कई बार ऐसा लगा कि भारतीयता सदैव के लिए जमींदोज हो गयी है लेकिन अपनी अदम्य धार्मिक जीजीविषा और प्रबल सांस्कृतिक जठराग्नि की बदौलत ऐसे तमाम झंझावातों को पार करने में वह सफल रही। सत्रहवीं सदी तक भारतीयता पर होने वाले आक्रमणों की प्रकृति बर्बर और स्थूल थी। इस दौर के आक्रांताओं में सांस्कृतिक समझ का अभाव था और वे जबरन भारतीयता को अपने ढांचे में ढालने की कोशिश कर रहे थे। अठारहवीं सदी में आए आक्रांताओं ने धर्म और संस्कृति में छिपी भारतीयता की मूलशक्ति को पहचाना और उसे नष्ट करने के व्यवस्थागत प्रयास भी शुरु किए। इस दौर में भारतीयता पर दोहरे आक्रमण की परंपरा शुरु हुई। बलपूर्वक भारतीयता को मिटाने के प्रयास यथावत जारी रहे साथ ही भारतीयों में भारतीयता को लेकर पाए जाने वाले गौरवबोध को नष्ट करने के एक नया आयाम आक्रांताओं ने अपनी रणनीति में जोड़ा । विचारों की तानाशाही भी खतरनाकः सांप्रदायिकता और आतंकवाद के नाम पर भयभीत हम लोगों को यह भी ध्यान रखना चाहिए कि इस धरती पर ऐसे हिंसक विचार भी हैं- जिन्होंने अपनी विचारधारा के लिए लाखों लोगों को मौत के घाट उतारा है। ये हिंसक विचारों के पोषक ही भारतीय जनतंत्र की सदाशयता पर सवाल खड़े कर रहे हैं। आप याद करें फैसले पक्ष में हों तो न्यायपालिका की जय हो , फैसले खिलाफ जाएं तो न्यायपालिका की ऐसी की तैसी का नारा लगाने में बिलकुल ही देर नहीं की जाती है ।
हमारे देश भारत की अधिकांश जनसंख्या गाँवों में रहती है, इसमें सन्देह नहीं कि गाँव हमारे जीवन के विकास-क्रम का अगला चरण नहीं है। भारतीय नागरिकों के जीवन के विकास-क्रम को प्रभावित करनेवाली समस्याएँ जिन राजनीतिक, आर्थिक और साम्प्रदायिक आवर्तों में जन्म लेती हैं, उनके केन्द्र बिंदु हमारे गाँव नहीं हैं परन्तु गाँवों का जीवन उनसे प्रभावित अवश्य हो रहा है। जीवन की प्रगति में विश्वास रखनेवाले और उसके कल के रूप को निर्धारित करने में योग देनेवाले कलाकार के लिए क्या यही मार्ग है कि वह उस जीवन से दूर हट जाए, क्योंकि उसमें बहुत संकुलता दिखाई देती है |क्योंकि शहरों के मध्यवर्गीय जीवन में उसे जीवन और सौन्दर्य के दर्शन नहीं होते, इसलिए क्या इसी में उसकी महत्त्वाकांक्षा की परिणति है कि वह गाँवों में जीवन का स्वस्थ सौन्दर्य और मानव की ऊर्जस्वित शक्ति देखकर सन्तुष्ट हो रहे हैं और क्या सचमुच शहरों के मध्यवर्गीय जीवन में कुछ भी स्वस्थ और सुन्दर नहीं है ?
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