Monday, July 11, 2011

बुर्ज खलीफ़ा से दोगुना ऊंचा होगा किंगडम टावर

अरब के शाही परिवार की कोशिशें परवान चढ़ीं तो दुबई की बुर्ज खलीफ़ा दुनिया की सबसे ऊंची इमारत नहीं रह जायेगी. बल्कि, यह गौरव किंगडम टावर को हासिल हो जायेगा.
इसका कद बुर्ज खलीफ़ा से दोगुना ऊंचा होगा. यानी इसकी ऊंचाई एक मील (1.6 किमी) होगी. इमारत की तामीर (निर्माण) सऊदी अरब के लाल सागर के किनारे बसे जेद्दाह शहर के किनारे की जायेगी. इमारत खूबियों से लबरेज होगी. लागत आयेगी 12 बिलियन पौंड यानी तकरीबन 960 अरब रुपये. कुल 80 हजार लोग इसमें एक साथ रह सकेंगे. ऊंचाई का अंदाजा तो इसी से लगा सकते हैं कि लिफ्ट से इसके टॉप फ्लोर पर तक पहुंचने में 12 मिनट लगेंगे. किंगडम टावर में ऐशो-आराम की सारी सहूलियतें जैसे होटल, ऑफ़िस, अपार्टमेंट और शॉपिंग सेंटर होंगे. यह टावर ब्रिटेन की सबसे ऊंची बिल्डिंग द शार्ड से पांच गुना ऊंचा होगा. इसमें 12 मिलियन क्यूबिक स्क्वॉयर फ़ीट जगह होगी. निर्माण का जिम्मा देश की सबसे बड़ी किंगडम होल्डिंग कंपनी (केएचसी) को सौंपा गया है

Sunday, July 10, 2011

हिन्दुस्तान स्वामी विवेकानंद का

हिन्दुस्तान स्वामी विवेकानंद का

वर्तमान के किसी भी अंधकार में केवल विवेक और आदर्श की रोशनी ही हमें राह दिखा सकती है। 'न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते' गीता का यह वचन हम पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी डालता है। इतिहास में सभी मानव समूहों ने कोई न कोई अन्याय भी किया है और मानवीय संस्कृति में योगदान भी दिया है।

हिन्दुस्तान पर विदेशी हमलों और जुल्म पर इंतकाम के नजरिए से न देखते स्वामी विवेकानंद राष्ट्र और हिन्दुओं को अपने कर्तव्य का अहसास कराते कहते हैं कि जिस तरह हर इंसान की एक खास शख्सियत होती है,उसी तरह हर जाति की भी एक पहचान होती है, और जाति के अपने गुणवैशिष्ट्य होते हैं। दुनिया की विभिन्न जातियों के सुसंवादी संगीत में उसे कौनसा सुर मिलाना है, यह राष्ट्र की उन्नति हेतु तय करना बेहद जरूरी है।
दुनिया को धर्म और अध्यात्म देना हिन्दुओं का ईश्वर प्रदत्त कार्य है। जो इस धर्म की जान है। यदि हमने अपने अज्ञान से इसे गँवाया तो कोई भी हमें बचा नहीं पाएगा। और यदि हमने जान से भी अधिक इसका जतन किया तो कोई हमारा बाल भी बाँका नहीं कर सकेगा। ग्रीक रोमन सभ्यता आज कहाँ है? उल्टे सैकड़ों साल विदेशी सत्ता तले,अत्याचार और जुल्म तले दबी इस जमीं पर हिन्दू सभ्यता आज भी जिंदा क्यों है? इसके उदारवादी होने से हमेशा इसका मजाक ही उड़ाया जाता है, लेकिन विश्वास कीजिए हमने किसी पर हमला नहीं किया और किसी को जीता भी नहीं। लेकिन फिर भी हम जिंदा हैं क्योंकि धर्म,आध्यात्मिकता का प्राण सहिष्णुता शक्ति की वजह से है।
स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि हमें पसंद हो या न पसंद हो लेकिन धर्म और आध्यात्मिकता ही हमारे राष्ट्रीय जीवन के उज्जवल भविष्य के आधार स्तंभ हैं। यहाँ सभी कौम के लोग रहते हैं। रीति-रिवाजों में तो कमाल का फर्क है! लेकिन तब भी धर्म ही हमारी समान राष्ट्रीय एकता का आधार है। हिन्दुओं का जीवन दर्शन वेदांत के 'अद्वैत' इस एक शब्द में समाया है, तो उसका सारभूत अर्थ गीता के 'समं सर्वेषु भूतेषु' इस शब्द में। जीवमात्र में एकत्व और ईश्वरत्व ही वेदांत की नींव है तब घृणा या द्वेष किसका?
यहाँ सत्ता और नेतागिरी का कैंसर सामाजिक ही नहीं राष्ट्रीय धर्म और संस्कृति की आत्मा का निवाला लेने की माँग कर रहा है। एक ही धर्म में जाँत-पाँत में बैर की आग भड़क रही है। इन सबसे अपनी विचार शक्ति के अवरुद्ध हुए बगैर हमें अपने आपसे एक सवाल करना चाहिए कि क्या हम जिंदगी सुकून से जी रहे हैं? फिर ठीक कौन से धर्म की खातिर हम एक-दूसरे का खून बहाने वाले विचारों को समर्थन देकर पाल रहे हैं? धार्मिक दंगों या दहशतवाद के पीछे के अज्ञान के अंधकार से हम अब भी बाहर नहीं निकलेंगे?
एक सुबह ऐसी भी होगी 'सर्व धर्मान पारित्यज्यम्‌' का निडर उद्घोष करने वाले राम-कृष्ण की जमीं के सामान्य लोग किसी भी द्वेषपूर्ण सीख को स्वीकारने से पूरी तरह इंकार कर देंगे और तब स्वामी विवेकानंद का सपना भी उनका अपना सपना होगा 'मेरे सपनों के हिन्दुस्तान की यदि आत्मा 'वेदांत' होगी तो शरीर 'इस्लाम' होगा। शरीर के बिना आत्मा के अस्तित्व का विचार कोई भी नहीं करेगा
विभिन्न पापों के लिए विभिन्न प्रकार के प्रायश्चित विधानों का उल्लेख विभिन्न धर्मग्रन्थों में हुआ है । इस सन्दर्भ में जहाँ शारीरिक-मानसिक तितीक्षा परक कष्ट सहने, व्यक्ति या समाज को पहुँचाई गई हानि की क्षतिपूर्ति करने, तीर्थयात्रा आदि पुण्य-परमार्थ करने का विधान है, वहाँ कषाय-कल्मषों को धोने में सोमयाग जैसे यज्ञकृत्य करने का भी निर्देश है । इस सन्दर्भ में तैत्तिरीयारण्यक 2/7-8 वाज. सं. 20/4/16 तै. आ. 2/3/1 बोधायन धर्मसूत्र 3/7/1 याज. 3/309, मनु 11/34, वाशिष्ठ 26/16, शतपथ 2/5/2/20 देखने योग्य हैं ।
किसी महिला में व्यभिचारजन्य पाप बन पड़े तो उसके लिए वाज. सं. 1/8/3 के अनुसार यज्ञ कृत्य पर प्रायश्चित हो जाता है और उस बन पड़े पाप की समाप्ति हुई समझ ली जाती है । इसके लिए एक विशेष मन्त्र से आहुति देनी पड़ती है । वह मन्त्र इस प्रकार है-

''यद् ग्रामे यदरण्ये यत्सभायां यदिन्दि्रयः ।
यदेनश्चक्रमा वयमिदं तदव यजामहे स्वाहा ।''
अर्थात्-जो पाप ग्राम में, वन में, समाज में , इन्द्रियों से तथा दूसरे प्रकार से बन पड़े है, उन्हें इन आहुतियों के साथ नष्ट करते हैं ।
इस सन्दर्भ में ऐसे ही प्रायश्चित का संकेत मनुस्मृति 8/105 और याज्ञ. 2/83 में भी किया गया है ।

सत्र-
ज्ञानयज्ञों को सत्र कहते हैं । उनमें स्वाध्याय, सत्संग, मनन, चिन्तन एवं विचार विमर्श ही यजन माना जाता है । दिनचर्या उसी आधार पर बनती है । यह सामूहिक होते हैं और अधिक समय तक चलते हैं ।
भागवत-सप्ताह, रामायण-कथा, पुराणवाचन, उपनिषद् चर्चा अथवा किसी प्रयोजन विशेष का लगातार प्रशिक्षण-अभ्यास कराने की व्यवस्था को सत्र कहा जायेगा । नैमिषारण्य में सूत द्वारा शौनकादिक अनेक ऋषियों को लम्बे समय तक कथा सुनाने का वर्णन मिलता है । इस प्रकार के आयोजन को सत्र संज्ञा दी जाती है ।

प्राचीन यज्ञ

(1) राजसूय यज्ञ- जिस सम्मेलन में सुसंगठित होकर राजा का चुनाव किया जाता है, ऐसे संगठन को राजसूय यज्ञ कहते हैं । इसका इसका वर्णन अथर्ववेद के 4/8 सूक्त में देखा जा सकता है । इस सम्बन्ध में शतपथ ब्राह्मण 13/2/2/1 में उल्लेख है-

राज्ञः एवं सूयं कर्मः । राजा वै राजसूयेन दृष्टवा भवति ।

अर्थात्-शासन व्यवस्था को राजसूय कहते हैं । राजा इस आयोजन के उपरान्त ही शासन की बागडोर सम्भलता है । आज की स्थिति में संसद विचार मंथन एवं चुनाव आयोजनों को राजसूय कह सकते हैं । प्रज्ञा की सहमति से प्रजापति को प्रमुखता देते हुए की जाने वाली शासन व्यवस्था राजसूय है ।
इस प्रयोजन के लिए समय-समय पर जनसाधारण को भी एकत्रित करके सभा-सम्मेलनों के रूप में उसका मत जाना जाता था और लोक मानस क सामयिक मार्ग-दर्शन का प्रबन्ध किया जाता था, इस उद्देश्य के लिए होने वाले सभा-सम्मेलनों, वार्षिक आयोजनों को भी यही नाम दिया जा सकता है । विभिन्न संस्थाएँ, शासकीय सुव्यवस्था बनाने के लिए प्रस्तुत गतिविधियों की समीक्षा उपयुक्त प्रवृत्तियों में सहयोग करने तथा आवश्यक सुधार के लिए परामर्श देने जैसे प्रयोजनों को लेकर जन सम्मेलन होते रहते हैं, वह भी इसी श्रेणी में आते हैं ।

विशेष परिस्थितियों में विशेष परिस्थितियों के अनुरूप सामयिक निर्णय करने एवं योजना बनाने की किसी बड़ी बात को लेकर विशालकाय राजसूय यज्ञ होते हैं । महाभारत के बाद भगवान कृष्ण ने और लंका विजय के उपरान्त राम ने भावी निर्धारणों के लिए जनता का परामर्श सहयोग प्राप्त करने के लिए विशालकाय राजसूय यज्ञ किये थे । ऐसे ही विशाल आयोजन समय-समय पर (2) वाजपेय यज्ञ- वाजपेय यज्ञों में भी राजसूय यज्ञों की तरह ही धर्मक्षेत्र में सन्तुलन बनाये रहने के लिए लोकसेवी विद्वान परिव्राजक एकत्र होकर सामयिक परिस्थितियों पर विचार करते थे । जो आवश्यक होता था, उसका निर्धारण करके अपने-अपने कार्य-क्षेत्रों में लौटते थे । वाजपेय सम्मेलनों में निर्धारित की गई नीति एवं योजना को कार्यान्वित करने के लिए विज्ञजनों को तत्पर किया जाता था । तदनुरुप वातावरण बनाने, साधन जुटाने की सार्वदेशिक योजना चल पड़ती थी । साधारणतया वे 'कुम्भ' जैसे पर्वों के निर्धारित सयम पर होते थे और विशेष आवश्यकता पड़ने पर विशेष रूप से किन्हीं स्थानों पर वाजपेय यज्ञों के आयोजन होते थे ।

(3) विश्वजित् यज्ञ- इस यज्ञ द्वारा एक राष्ट्र या मानव समुदाय अपनी विशाल हृदयता, प्रेम और शक्ति के प्रभाव से सारे विश्व पर अपना आधिपत्य कायम कर सकता है ।

(4)अश्वमेध यज्ञ- शतपथ के राष्ट्रं वा अश्वमेधः वीर्यं वा अश्वः वचनानुसार राष्ट्र और उसकी शक्तियों की भली-भाँति संगठन करनी ही अश्वमेध यज्ञ है ।

(5) पुरुषमेधे - अपने-अपने वैयक्तिक स्वार्थों को छोड़कर राष्ट्र के ही उत्थान के लिए अपना जीवन अर्पित कर देना पुरुषमेध यज्ञ है । ऐसे लोगों को कभी-कभी संग्राम और दुष्टों के दमन करने में प्रत्यक्ष ही जीवन या प्राण का बलिदान कर देना पड़ता है । इसका वर्णन बौद्ध ग्रन्थों में मिलता है ।

(6) गौ मेध- गौ जाति के उपयोग से भूमि को जोतकर तथा खाद्य से उर्वरा बनाकर भूमि को अधिकतम भोज्यसामिग्री उत्पन्न करने योग्य बनाना ही गो मेध है ।

(7) सर्वमेध- किसी उच्च यज्ञ के लिए जब निचला यज्ञ (संगठन) सब कुछ बलिदान कर देता है, तो उसे 'सर्वमेध' कहा जाता है ।

विशिष्ट प्रयोजनों के लिए कई बार व्यक्ति विशेष द्वारा उक्त यज्ञों में से जिसका निश्चय किया हो उसकी सार्वजनिक घोषणा के लिए एक विशाल आयोजन सम्पन्न किया जाता था, तो कई बार मूर्धन्य पुरोहितों द्वारा परिव्राजकों की, वानप्रस्थ सन्यासियों की दीक्षा के सार्वजनिक समारोह बुलाये जाते थे और उनमें सामूहिक संस्कार होते थे ।

अश्वमेध की एक विशेष प्रक्रिया राजसूय स्तर की भी सम्पन्न होती रही है । सामन्तवादी उच्छृंखलता के कारण शासकों के अनाचार प्रजापीड़क न बनने पाएँ, इसलिए उन्हें सर्वतंत्र स्वतंत्र नहीं रहने दिया जाता था । उन्हें किसी केन्द्रीय नियन्त्रण के अन्तर्गत रखने के लिए समय-समय पर ऐसे आयोजन होते रहते थे, जो स्वेच्छाचारिता का आग्राह करते थे, डनहें बलपूर्वक वैसा करने से रोका जाता था ।

इसी प्रकार वाजपेय यज्ञों के अन्तर्गत भी 'दिग्विजय' अभियान चलते थे, विचारों , सम्प्रदायों को स्वेच्छाचारिता की आदर्शवादी दिशाधारा के अन्तर्गत रखने के लिए समर्थ आत्मवेत्ता 'दिग्विजय' के लिए निकलते थे । शास्त्रार्थ जैसे विचार-युद्ध ऐसे ही प्रयोजनों के लिए होते थे । जो हारता था उसे पृथकतावादी आग्रह छोड़कर संयुक्त प्रवाह में बहने के केन्द्रीय अनुशासन में रहने के लिए विवश किया जाता था । आद्य शंकाराचार्य जैसे अनेकों राष्ट्र संत समय-समय पर ऐसी ही दिग्विजय अभियानों के लिए निकले हैं । ऐसे सार्वजनिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किये गये धर्म-सम्मेलन अश्वमेधों की गणना में गिने जाते रहे हैं । आत्मशोधन एवं परमार्थ समर्पण की प्रक्रिया नरमेध, सर्वमेधों के रूप में जानी जाती रही है ।अन्यत्र भी होते हैं ।