''उमा राम गुन गूढ़ पंडित मुनि पावहिं बिरति।
पावहिं मोह बिमूढ़ जे हरि बिमुख न धर्म रति।।
प्रभु शिव माता पार्वती से कहते हैं,,,,
''हे पार्वती ! श्री राम जी के गुण गूढ़ हैं,पंडित और मुनि उन्हें समझ
कर वैराग्य
प्राप्त करते हैं।
परन्तु जो भगवान से विमुख हैं और जिनका धर्म में प्रेम नही है,वे
महा मूढ़ उन्हें
सुनकर मोह को प्राप्त होते हैं।''
जयंत को प्रभु राम के चरणों में ही मिला शरण
पुर नर भरत प्रीति मैं गाई।
मति अनुरूप अनूप सुहाई।।
अब प्रभु चरित सुनहु अति पावन।
करत जे बन सुर नर मुनि भावन।।
एक बार चुनि कुसुम सुहाए।
निज कर भूषन राम बनाए।।
सीतहि पहिराए प्रभु सादर।
बैठे फटिक सिला पर सुंदर।।
सुरपति सुत धरि बायस बेषा।
सठ चाहत रघुपति बल देखा।।
जिमि पिपीलिका सागर थाहा।
महा मंदमति पावन चाहा।।
सीता चरन चौंच हति भागा।
मूढ़ मंदमति कारन कागा।।
चला रुधिर रघुनायक जाना।
सींक धनुष सायक संधाना।।
दो0-अति कृपाल रघुनायक सदा दीन पर नेह।
ता सन आइ कीन्ह छलु मूरख अवगुन गेह।।
प्रेरित मंत्र ब्रह्मसर धावा।
चला भाजि बायस भय पावा।।
धरि निज रुप गयउ पितु पाहीं।
राम बिमुख राखा तेहि नाहीं।।
भा निरास उपजी मन त्रासा।
जथा चक्र भय रिषि दुर्बासा।।
ब्रह्मधाम सिवपुर सब लोका।
फिरा श्रमित ब्याकुल भय सोका।।
काहूँ बैठन कहा न ओही।
राखि को सकइ राम कर द्रोही।।
मातु मृत्यु पितु समन समाना।
सुधा होइ बिष सुनु हरिजाना।।
मित्र करइ सत रिपु कै करनी।
ता कहँ बिबुधनदी बैतरनी।।
सब जगु ताहि अनलहु ते ताता।
जो रघुबीर बिमुख सुनु भ्राता।।
नारद देखा बिकल जयंता।
लागि दया कोमल चित संता।।
पठवा तुरत राम पहिं ताही।
कहेसि पुकारि प्रनत हित पाही।।
आतुर सभय गहेसि पद जाई।
त्राहि त्राहि दयाल रघुराई।।
अतुलित बल अतुलित प्रभुताई।
मैं मतिमंद जानि नहिं पाई।।
निज कृत कर्म जनित फल पायउँ।
अब प्रभु पाहि सरन तकि आयउँ।।
सुनि कृपाल अति आरत बानी।
एकनयन करि तजा भवानी।।
माता सीता के पैर में चोंच मारकर प्रभु राम की शक्ति को
ललकारने वाले देवराज
इंद्र के पुत्र जयंत को भी अंतिम शरण राम के चरणों में ही मिली।
प्रसंग के तहत वनवास के दौरान अनुज लक्ष्मण और पत्नी सीता
के साथ प्रभु राम
को अवसर मिला तो स्फटिक शीला पर बैठ गए।
यहां वह सुंदर फूलों से माता सीता के लिए हार बना रहे थे।
इस दौरान ही विपरीत दिशा से देवराज इंद्र का मूर्ख पुत्र जयंत
कौआ का रूप धारण
कर आया।
वह भगवान राम के बल की परीक्षा लेने निकला था,जैसे महान
मंदबुद्धि चींटी सागर
का थाह पाना चाहती हो।
वह मूढ़ मंदबुद्धि इस उद्येश्य से माता सीता के पैर में चोंच मारकर
भाग गया।
सीता के पैर से खून निकलता देख राम ने जयंत का पीछा किया।
उन्होंने अनुसंधान कर सिकंडी बाण तैयार कर उसे जयंत पर छोड़ा।
प्रभु के मन्त्र से प्रेरित वह वाण जयंत के पीछे दौड़ पड़ा।
अपने असली रूप में अपने पिता इंद्र के पास पहुंचा।
इंद्र भी उसे प्रभु श्री राम के विरोधी जान कर अपने पास नही
रख पाए।
इससे घबराया जयंत ब्रह्म व शिव लोक बारी-बारी से पहुंचा
लेकिन उसे रामद्रोही जान
कहीं भी शरण नहीं मिली।
किसी ने उसे बैठने के लिए भी नही कहा।
श्री राम जी के द्रोही को कौन शरण देने का साहस कर सकता
है।
काक भुशुण्डी जी ने गरुड़ से कहा,
''श्री राम द्रोही के लिए माता मृत्यु के समान,पिता यमराज के
समान और
अमृत भी विष के समान हो जाता है।
मित्र भी सैकड़ों शत्रुओं जैसा कार्य करने लगता है।
देवनदी गंगा माता उसके लिए वैतरणी हो जाती है।
जो श्री रघुनाथ जी के विमुख होता है,समस्त जगत उसक्के लिए
अग्नि से भी
अधिक तापमय हो जाता है।''
भागते भागते जयंत की मुलाकात देवऋषि नारद से हुई।
नारद जी ने जयंत को व्याकुल देखा तो उन्हें दया आ गयी,
नारद मुनि ने जयंत से उसकी परेशानी का कारण पूछा।
सारी बात पता चलने पर देवऋषि को दया आ गयी।
संतों का चित्त कोमल होता ही है।
उन्होंने समझाया कि तुम कहीं और नहीं सीधे राम के
पास ही जाओ।
प्रभु राम बड़े दयालु हैं और तुम्हें अवश्य क्षमा कर देंगे।
देवऋषि की सलाह पर अमल करते हुए कौआ रूपी जयंत राम के पास
पहुंचता है।
आतुर भयभीत जयंत ने जाकर प्रभु श्री राम के चरण पकड लिए और
कहा,
''हे दयालु रघुनाथ जी,मेरी रक्षा कीजिये,मैं आप की शरण आया
हूँ।
आप के अतुलित सामर्थ्य,प्रभुता को मैं मंदबुद्धि नहीं समझ
पाया।
अपने कर्म से किया हुआ फल मैंने पा लिया है।
अब हे प्रभु ! मेरी रक्षा कीजिये।
इतना कह वह भगवान के चरणों में गिर विलाप करने लगा।
उसकी दीनता को देख प्रभु राम को दया आ गई।
श्री रघुनाथ जी ने उसकी अत्यंत आर्त्त वाणी सुनकर उसे
सांकेतिक रूप से
सजा देते हुए एक आँख से वेध कर छोड़ दिया।
नमामि भक्त वत्सलं। कृपालु शील कोमलं।।
भजामि ते पदांबुजं। अकामिनां स्वधामदं।।
निकाम श्याम सुंदरं। भवाम्बुनाथ मंदरं।।
प्रफुल्ल कंज लोचनं। मदादि दोष मोचनं।।
प्रलंब बाहु विक्रमं। प्रभोऽप्रमेय वैभवं।।
निषंग चाप सायकं। धरं त्रिलोक नायकं।।
दिनेश वंश मंडनं। महेश चाप खंडनं।।
मुनींद्र संत रंजनं। सुरारि वृंद भंजनं।।
मनोज वैरि वंदितं। अजादि देव सेवितं।।
विशुद्ध बोध विग्रहं। समस्त दूषणापहं।।
नमामि इंदिरा पतिं। सुखाकरं सतां गतिं।।
भजे सशक्ति सानुजं। शची पतिं प्रियानुजं।।
त्वदंघ्रि मूल ये नराः। भजंति हीन मत्सरा।।
पतंति नो भवार्णवे। वितर्क वीचि संकुले।।
विविक्त वासिनः सदा। भजंति मुक्तये मुदा।।
निरस्य इंद्रियादिकं। प्रयांति ते गतिं स्वकं।।
तमेकमभ्दुतं प्रभुं। निरीहमीश्वरं विभुं।।
जगद्गुरुं च शाश्वतं। तुरीयमेव केवलं।।
भजामि भाव वल्लभं। कुयोगिनां सुदुर्लभं।।
स्वभक्त कल्प पादपं। समं सुसेव्यमन्वहं।।
अनूप रूप भूपतिं। नतोऽहमुर्विजा पतिं।।
प्रसीद मे नमामि ते। पदाब्ज भक्ति देहि मे।।
पठंति ये स्तवं इदं। नरादरेण ते पदं।।
व्रजंति नात्र संशयं। त्वदीय भक्ति संयुता।।
जो मनुष्य इस स्तुति का भक्ति भाव से आदर पूर्वक पाठ करते हैं,
वे प्रभु श्री राम की युक्त होकर प्रभु के परम पद को प्राप्त होते
हैं।
बंदउँ नाम राम रघुबर को।
हेतु कृसानु भानु हिमकर को।।
बिधि हरि हरमय बेद प्राण सो।
अगुन अनुपम गुन निधान सो।।
श्री रघुनाथ के नाम "राम" की वंदना करता हूँ,
जो कृशानु (अग्नि),भानु (सूर्य) और हिमकर
(चन्द्रमा) का हेतु अर्थात "र" "आ" और "म"
रूप से बीज हैं।
वह "राम" नाम ब्रह्मा,विष्णु और शिव रूप हैं।
वह वेदों का प्राण हैं;
निर्गुण,उपमा रहित और गुणों का भण्डार हैं।
जयति पुण्य सनातन संस्कृति,,,
जयति पुण्य भूमि भारत,,,
सदा सुमंगल,,,
प्रभु श्री राम का नाम,,,
जय सीता भवानी,,,
जय श्री राम
Saturday, September 12, 2015
कुछ दोहे ज्ञान के
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