Saturday, May 5, 2012

इनसान सबसे पुराना है, जितने सारे धर्म हैं वो बाद में बने हैं | धर्म मनुष्य के लिए है, वे उसकी आत्मिक उन्नति के लिए बनाये गये हैं, इनसान मज़हब के लिए नहीं | आज के दौर में दुनियावी साज़-सामानों, तड़क-भड़क, वैज्ञानिक उपलब्धियों, बुद्धि की चतुराइयों, सदाचार के नियमों, और धार्मिक सिद्धांतों के होते हुए भी इनसान फिर भी खुश नज़र नहीं आता है | एक अनबुझी प्यास, अतृप्त इच्छाएं, आगे बढ़ने की अंधी दौड़ में मानसिक तनाव से हमेशा ग्रस्त रहता है | लाखों लोग अपने आपसे और इस दुनिया की अंधी दौड़ से संतुष्ट नहीं हैं, उनके लिए जीवन एक पतझड़ के सामान नीरस, वीरान और बेजान है | लोग अपने को इनसान पहले कहने की बजाय हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई, सिख आदि कहलाने में ज्यादा चाव रखते हैं | वास्तव में सच्चा धर्म सबके लिए समान है और सर्वव्यापी है | प्रत्येक धर्म का स्वरुप दूसरों धर्मों के स्वरुप से अलग लगता है | लेकिन हरेक धर्म की शरियत (कर्मकांड) को छोड़कर उसके हकीकत के पहलू में जाएँ तो पायेंगें की एक ही रास्ता और एक ही नियम सब धर्मों की नींव में काम करता है | यह सारे संसार के लिए एक ही है | इनसान होने के नाते हम सब एक ही मानव बिरादरी के हैं और हमारा रूहानी आधार भी एक ही है |

परवरदिगार ने इनसान पैदा किया | इनसान ने अपने को मन के प्रभाव में आकर अपने आपको बाँटना शुरू किया | वे हिन्दू, सिक्ख, मुसलमान, ईसाई, बौद्ध आदि बाद में बने | आज से पांच सौ साल पहले सिक्ख नहीं थे, चौदह सौ साल पहले मुसलमान नहीं थे | दो हज़ार साल पहले ईसाईयों का नामो-निशान भी नहीं था और पांच हज़ार साल पहले बौद्धों का कहीं पता नहीं था | इस तरह आर्य हिन्दुओं से पहले भी कई कौमें आई और चली गईं | ज़ाहिर है कि सभी मनुष्य, क्या पूर्व के, क्या पश्चिम के, सब एक ही हैं और एक ही रहे हैं | कोई ऊँची या नीची जाति का नहीं | सबके अन्दर आत्मा है जो मालिक का अंश है | कबीर साहिब कहते हैं:

कहु कबीर इहु राम की अंसु ॥
जस कागद पर मिटै न मंसु ॥४॥२॥५॥ (SGGS 871)

सच्चा धर्म क्या है ? यह सवाल इनसान के अन्दर शुरू से उठता आ रहा है | इन विषय पर कितने मज़मून, ग्रन्थ और पोथियाँ लिखी गयी हैं | कोई कुछ कहता है कोई कुछ | अँधा अँधे को रोशनी दिखता है | लेकिन एक प्रश्न का तो एक ही उत्तर हो सकता है | इस पर विचार करने से पहले हमें देखना चाहिये कि धर्म या मज़हब का उद्देश्य क्या है ? इसका उत्तर संतों के हिसाब से एक ही है, "परम सुख या मालिक की प्राप्ति" |

प्रभु से प्रेम करते हुए हमें उसकी रचना से भी प्रेम करना है | सब संतों के जीवन में एक ही सिद्धांत काम करता हुआ नज़र आता है, वो आस्तिक और नास्तिक सब जीवों से एक सा ही प्यार करते हैं | वे जानते हैं कि सब एक ही मूल से ही पैदा हें हैं, इसलिए सब एक ही शरीर के अंग हैं | यदि एक अंग को दुःख होता है तो दुसरे अंग अपने आप बैचैन हो जाते हैं |

शेख फरीद साहिब फरमाते हैं की अगर तुझे प्रियतम से मिलने की तड़प है तो किसी का दिल न दुखा | दीनता, माफी और मीठे वचन एक जादूई शक्ति हैं जिससे तुम उस मालिक का दिल जीत लोगे | अगर बुद्धिमान हो तो सामान्य और सीधे रहो | अगर कुछ बांटने की ज़रुरत नहीं है तो भी दूसरों को कुछ दो | ऐसा भक्त मिलना बड़ा मुश्किल है | कभी भी कडवे बोल कर किसी का दिल न दुखाओ क्योंकि हर दिल में वो दिलवर रहता है |

निवणु सु अखरु खवणु गुणु जिहबा मणीआ मंतु ॥
ए त्रै भैणे वेस करि तां वसि आवी कंतु ॥१२७॥
मति होदी होइ इआणा ॥
ताण होदे होइ निताणा ॥
अणहोदे आपु वंडाए ॥
को ऐसा भगतु सदाए ॥१२८॥
इकु फिका न गालाइ सभना मै सचा धणी ॥
हिआउ न कैही ठाहि माणक सभ अमोलवे ॥१२९॥
सभना मन माणिक ठाहणु मूलि मचांगवा ॥
जे तउ पिरीआ दी सिक हिआउ न ठाहे कही दा ॥१३०॥ (SGGS 1384)

गुरु गोविन्द सिंह फरमाते हैं कि वह परवरदिगार सबके अन्दर बसता है, हरएक हृदय उसके रहने का स्थान है | अगर कोई उसकी खलकत को दुःख देता है, तो मालिक उस पर नाराज़ होता है:

खलक खालक की जान कै, खलक दुखावही नाहिं |
खलक दुःखहि नन्द लाल जी, खालक कोपहि ताहिं || (रहतनामे, प्र. ५९)

सब निर्मल आत्माओं और मालिक के आशिकों का एक ही धर्म है, 'वह है मालिक की इबादत और उसकी खलकत से प्यार |' इनसान तब ही इनसान कहलाने का हक़दार है जब उसमे इंसानियत के गुण हों, जब इनसान इनसान को भाई समझे, उसका दुःख-दर्द बंटायें, दिल में हमदर्दी रखे, मालिक और उसकी कुदरत से अटूट प्रेम रखे |

इसके विपरीत अगर ईर्ष्या, ज़ुल्म, हरामखोरी, दुश्मनी, लालच, लोभ, पाखण्ड, पक्षपात, हठ-धर्म, आदि हमारे अन्दर बसते हों तो हृदय का शीशा कैसे साफ़ हो सकता है ? इनसे मनुष्य-जीवन की सारी खुशी और मिठास ख़त्म हो जाती है | ऐसी मैल के होते हुए दिल के शीशे मैं परमात्मा की झलक कहाँ ?

आत्मा परमात्मा का अभिन्न अंश है | इसका दर्ज़ा सृष्टि में सबसे अव्वल और ऊँचा है | 'परमात्मा और उसकी रचना के साथ प्यार' का गुण जितना बढता है, उतना ही मनुष्य मालिक के नज़दीक कोटा जाता है | सब एक ही नूर से पैदा हुए हैं और उसी परवरदिगार का नूर सबके अन्दर चमक रहा है | फिर इनमें कौन बुरा है और कौन भला ?

अवलि अलह नूरु उपाइआ कुदरति के सभ बंदे ॥
एक नूर ते सभु जगु उपजिआ कउन भले को मंदे ॥१॥ (SGGS 1349)

अंश और अंशी में कोई भेद नहीं हो सकता, सब उसी एक जौहर से पैदा हुए हैं | बाहरी रंग-रंग की शक्लों, पोशाकों और सभ्यताओं के भेद या फिर फिरकों के झगडे उनके आत्मिक तौर पर एक होने में फर्क नहीं डाल सकते हैं | खलकत के साथ प्यार करना भी एक तरह से मालिक के साथ प्यार करना ही है |

यही सच्चा मज़हब,सच्चा धर्म, दीं और ईमान है | शेख सादी ने इस बारे में कहा है कि ऐ मालिक, तेरी बन्दगी तेरे बन्दों की खिदमत करने में है; तस्बीह (माला) फेरने, सज्जदा (आसन) पर बैठे रहने या गुदड़ी पहन लेने में नहीं:

तरीक़त बजुज़ खिदमते-ख़लक नीस्त |
बी-तस्वीह ओ सज्जादा ओ दलक नीस्त || (बोस्तान, प्र. ४०)

हर घट में मेरा साईं है, कोई सेज उससे सूनी नहीं, लेकिन जिस घट के अन्दर वह प्रकट है, वह बलिहार जाने के योग्य है:

सब घट मेरा साइयाँ, सूनी सेज न कोई |
बलिहारी वा घट की , जा घट प्रकट होय ||

मौलाना रूम फरमाते हैं कि तू जिंदा दिलों की परिक्रमा कर, क्योंकि यह दिल हज़ारों काबों से बेहतर है | काबा तो हज़रत इब्राहीम का पिता का बुतखाना था, पर यह दिल खुदा के प्रकट होने का स्थान है |

कअबा बुंगाहे-खलीले-आज़र अस्त,
दिल गुज़रगाहे-ज़लीले-अकबर अस्त |
दिल बदस्त आवर कि हज्जे-अकबर अस्त,
अज हजारां कअबा यक दिल बिहतर अस्त | (मौलाना रूम )

सूफी फकीर मगरिबी कहते हैं कि धर्म के नाम पर इनसान को जिबह करने से या किसी का दिल दुखाने से मालिक कभी प्रसन्न नहीं होता, चाहे कोई हज़ारों तरह की पूजा, इबादत और तौबा करे, हज़ारों रोज़े रखे और हरएक रोज़े में हज़ार-हज़ार नमाजें पड़े और हज़ारों रात उसकी याद में गुज़ार दे | यह सब कुछ मालिक को मंज़ूर नहीं अगर वह एक दिल को भी सताता है:

हज़ार जुह्दो इबादत हज़ार इस्तिफ्गार,
हज़ार रोज़ा ओ हर रोज़ा रा नमाज़ हज़ार |
हज़ार ताअते-शब्-हा हज़ार बेदारी,
कबूल नीस्त अगर खातरे ब्याज़ारी | (मगरिबी )

हाफ़िज़ साहिब कहते हैं कि शराब पी, कुरान शरीफ जला दे, काबा में आग लगा दे, जो चाहे कर, पर किसी इनसान के दिल को मत दुखा:

मै खुर ओ मुसहफ़ बसोज़ ओ आतिश अंदर कअबा जन,
हर चिह ख्वाही कुन व्-लेकिन मर्दुम आजारी मकुन | (हाफ़िज़ साहिब )

शेख शादी कहते हैं कि जब तक तू खुदा के बन्दों को खुश नहीं करेगा, तू मालिक की रज़ा की प्राप्ति से खाली रहेगा | अगर तू चाहता है कि मालिक तुझ पर बख्शीश करे तो तू उसकी खलकत के साथ नेकी कर:

हासिल न-शवद रज़ाए-सुलतान, ता खातिरे-बन्दगा न जुई |
ख्वाही किह खुदाए बर तू बख्सद, बा खल्के-खुदाए बी-कुन निकुई | (शेख शादी, गुलिस्तान, प्र. ५८)




Human being is oldest than all religions, and all religions came after him. Religions have been made for human being for his spiritual uplift and man is not made for religions. The real objective of man is permanent bliss and God realization. But in spite of materialistic goods, sharp intellect and smartness, moral principles and religious guidelines, man does not appear to be happy. Millions of people are not satisfied with the rat-race of this world and life is dull, boring and listless. Everyone among them claims to follow certain religion – Some Hindu, some Muslim, some Sikh, some Christian etc. In reality, real religion is universal. All religions may differ with each other in their external form, but is we go deep into the core principles of any religion; we will find that they are same for all religions. Same path and same rule prevails in foundation of all religions. We are same as human being as same divine consciousness is running in us. All human beings are same.

God created man. They became Hindu, Muslim, Christian, Sikhs, and Buddhists etc. afterwards. There were no Sikhs before 600 years ; likewise there were no Muslims before 1400 years . There were no Christians before 2000 years and there were no Buddhists 5000 years back. Many communities came and gone before Aryan Hindus. Human being is same everywhere and cannot be segregated based on religion, nationality, caste, race, colour etc. Everybody has a soul inside and is a part of Almighty Lord. Saint Kabir says:

Says Kabeer, human being is formed of the same essence as the Lord. It is like the ink on the paper which cannot be erased.

What is true religion? This question has been arising in human being since the origin. Lot of scriptures have been written on this. Someone explains in one way while other explains in different way. Blind people teach another blind people about light. There can be only one answer to one question. Before talking about this query, let us introspect about the objective of religion? As per saints, this is the only answer, “Attainment of eternal bliss or God-realization.”

While loving God, we have to love his creation. Saints love both theists and atheists as same principle is working for both of them. They know that everyone has been created from same source and are the parts of same body. If one part of body is hurt, it effects other parts as well.

Sheikh Farid (Sufi saint) says that if you want to meet the lord then do not hurt anybody’s heart.

Humility is the word, forgiveness is the virtue, and sweet speech is the magic mantra. Wear these three robes, O sister, and you will captivate your Husband Lord. If you are wise, be simple; if you are powerful, be weak; and when there is nothing to share, then share with others. How rare is one who is known as such a devotee. Do not utter even a single harsh word; your True Lord and Master abides in all. Do not break anyone's heart; these are all priceless jewels. The minds of all are like precious jewels; to harm them is not good at all. If you desire your Beloved, then do not break anyone's heart.

Guru Govind Singh Ji says that God inside every one of us. Everyone’s heart is place for His presence. If anybody breaks the heart of His creation then He is not pleased with him.

There is only one religion of all holy souls and real devotees, ‘Love to His creation and devotion to Lord.’ Human being is fit to be called Human being is he has the attributes of humanism, when man understands another man as his brother, shares his grief and pains, possess compassion in heart, sustains unbreakable faith and love towards God and His creation.

In contrast if the heart is laden with jealousy, deceit, enmity, greed, hypocrisy, prejudice, fanaticism then how the mirror of heart can be cleaned? The happiness and sweetness of human life is destroyed in this process. How can Almighty be seen in that dirty glass of the heart?

Soul is part of the Lord. Its status is highest in this universe. As the attribute of ‘Love for the Lord and His creation’ increases, human being becomes nearer to the Lord. Saint Kabir says: Everyone is made of same divine source and same divine radiance is shining in every one of us. Then who can be called good or evil? He says: First, God created the Light; then, by His Creative Power, He made all mortal beings. From the One Light, the entire universe welled up. So who is good, and who is bad?


There cannot be any difference between the creation and Creator as creation has been created by the same Divine source. Outward appearances, different dresses and cultures or fight between different communities cannot create differences on spiritual level. The love for the creation indirectly means loving God.

This is the real religion, right way and right morality. Shaikh Saadi (A Sufi Mystic) says that Your worship is the service to your devotees, not in rotating strings of beads, wear monastic robes, and sitting on meditation mat.

Saint Kabir says that in every heart is my Lord and no heart is devoid of God. But I sacrifice myself to thee who have realized this reality.

Maulana Rumi (Persian mystic) says that is better to move around living hearts than roaming around Qaba (A Muslim sacred shrine in Mecca). Qaba was the praying place of Hazrat Ibrahim’s father but human heart is place of living God.

Magribi (Sufi saint) says that God is not pleased if anybody hurts anyone’s heart even if he prays thousands of times and performs all ritual practices.

Hafiz Sahib says that you may drink liquor, burn copies of Quran (Muslim’s sacred book), put fire inside Qaba (Muslim holy place) but never hurt anyone’s heart.

Shaikh Shadi says that unless you do not make lovers of God happy, you will be bereft of God’s Will. If you want grace of God then try to do good deeds for his creation.

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