Thursday, September 15, 2011

राजेंद्र प्रसाद सोमनाथ मंदिर का उद्धाटन करना चाहते थे पर नेहरू ने विरोध किया’

मैंने अपने जीवन के शुरुआती बीस साल कराची में बिताए थे। इस दौरान जो दो भाषाएं मैं सीख पाया, उनमें एक थी मेरी मातृभाषा सिंधी और दूसरी मेरी शिक्षा की भाषा अंग्रेजी। फिल्मों का शौक होने के कारण मैं थोड़ी-बहुत हिंदी समझ लेता था और थोड़ी टूटी-फूटी बोल भी लेता था।
लेकिन मैं न तो हिंदी पढ़ सकता था और न ही लिख सकता था। विभाजन के एक माह बाद सितंबर 1947 में मैं भारत के इस हिस्से में आया। अगले दस साल तक मैंने राजस्थान के विभिन्न हिस्सों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक के तौर पर काम किया। देवनागरी लिपि के अपने अज्ञान को लेकर मैं बहुत चिंतित रहा करता था। इसलिए मैंने पहले तो देवनागरी वर्णमाला सीखी और फिर ज्यादा से ज्यादा हिंदी किताबें पढ़ने की कोशिश करने लगा।
इसी दौरान मैंने डॉ कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी द्वारा गुजरात की पृष्ठभूमि में लिखे गए लगभग सभी ऐतिहासिक उपन्यास पढ़ डाले। इससे पहले मैं फ्रांसीसी उपन्यासकार अलेक्सांद्र डच्यूमा की कई किताबें पढ़ चुका था। मैंने पाया कि मुंशी की लेखन शैली पर डच्यूमा का प्रभाव है। इसी दौरान मैंने डॉ मुंशी की किताब (जो मूलत: गुजराती में लिखी गई थी) जय सोमनाथ पढ़ी।
एक ऐसी किताब, जिसने बाद में मेरी राजनीति पर भी असर डाला। जय सोमनाथ उपन्यास सोमनाथ मंदिर पर हमला, उसकी लूटपाट और फिर उसे नष्ट कर दिए जाने की घटनाओं की पृष्ठभूमि में रची गई गल्प कथा थी। लेकिन इस पुस्तक को पढ़ने के दौरान ही सोमनाथ मंदिर की कहानी और आधुनिक युग के स्वतंत्र भारत में उसके पुनर्निर्माण में मेरी दिलचस्पी जागी।
कंपलीट वर्क्‍स ऑफ स्वामी विवेकानंद में द फ्यूचर ऑफ इंडिया शीर्षक से प्रकाशित एक लेख में स्वामीजी ने लिखा है : ‘विदेशी आक्रांताओं ने एक के बाद एक कई मंदिरों को ध्वस्त किया, लेकिन उस लहर के गुजरते ही मंदिर के शिखर पुन: उठ खड़े हुए।
दक्षिण भारत के ऐसे ही कुछ प्राचीन मंदिरों और गुजरात के सोमनाथ जैसे मंदिरों से हमें इतनी गहन विवेकदृष्टि मिलती है, जिसके साथ अपनी जाति के इतिहास का कहीं गहरी अंतर्दृष्टि के साथ अवलोकन कर सकते हैं। कई किताबें मिलकर भी हमें यह अंतर्दृष्टि नहीं दे सकतीं।
जरा देखें कि किस तरह ये मंदिर सैकड़ों आक्रमणों और पुनरुद्धारों के चिह्नें को संजोए हुए हैं। ये देवस्थल बार-बार ध्वस्त हुए और बार-बार अपने भग्नावशेषों से पुन: उठ खड़े हुए। कायाकल्पित और हमेशा की तरह सशक्त! यही हमारा राष्ट्रीय मानस है। यही हमारे राष्ट्र की जीवनधारा है।
इसका अनुसरण करो और यह तुम्हें गौरव के पथ पर ले जाएगी।’ इसीलिए यह स्वाभाविक ही था कि भारत को स्वतंत्रता मिलने के बाद कई हिंदुओं ने महसूस किया कि 1947 का महत्व यही नहीं होना चाहिए कि इस वर्ष हमने ब्रिटिश राज से मुक्ति पाई थी।
आजादी के इस साल का महत्व यह भी होना चाहिए कि हम स्वयं को ब्रिटिश-पूर्व इतिहास के उन आयामों से मुक्त कर लें, जिनकी पहचान थी पराधीनता, हिंदू मंदिरों पर आक्रमण, देवप्रतिमाओं का खंडन और हमारी सांस्कृतिक परंपराओं का क्षरण।
ऐसा ही एक अवसर गुजरात के सौराष्ट्र क्षेत्र की जूनागढ़ रियासत में उपस्थित हुआ, जहां सोमनाथ मंदिर स्थित है। जूनागढ़ में 80 फीसदी से ज्यादा आबादी हिंदुओं की थी, लेकिन नवाब मुस्लिम था। स्वतंत्रता की पूर्वसंध्या पर नवाब ने अपनी रियासत के पाकिस्तान में विलय की घोषणा कर दी।
इससे आक्रोशित जूनागढ़ के हिंदुओं ने नवाब के खिलाफ विद्रोह कर दिया, जिसकी परिणति एक स्थानीय कांग्रेस नेता सामलदास गांधी के नेतृत्व में समानांतर सरकार की स्थापना में हुई। अवाम के प्रति बेपरवाह और पतनशील शासक नवाब ने, जो लोगों के बीच बेहद अलोकप्रिय था, पाकिस्तान का समर्थन मांगा।
उसकी सारी तरकीबें नाकाम रहीं, लिहाजा एक रात वह पाकिस्तान भाग गया। सामलदास गांधी और जूनागढ़ के दीवान सर शाहनवाज भुट्टो (जो संयोग से जुल्फिकार अली भुट्टो के पिता थे) ने भारत सरकार को सूचना दी कि जूनागढ़ भारत में विलय के लिए तैयार है।
अपनी किताब पिलग्रिमेज टु फ्रीडम में डॉ मुंशी ने लिखा है कि देश के पहले गृह मंत्री और विभिन्न रियासतों के भारत में विलय अभियान के मुख्य शिल्पी सरदार वल्लभभाई पटेल ने उन्हें जूनागढ़ के विलय की सूचना का टेलीग्राम इन शब्दों के साथ दिया था : ‘जय सोमनाथ’।
भारत सरकार द्वारा जूनागढ़ के अधिग्रहण के चार दिन बाद 9 नवंबर 1947 को पटेल सौराष्ट्र की यात्रा पर आए। उनके साथ थे एनवी गाडगिल, जो नेहरू के मंत्रिमंडल में लोकनिर्माण एवं शरणार्थी पुनर्वास मंत्री थे। जूनागढ़ के लोगों ने उत्साह से उनका स्वागत किया।
पटेल के सम्मान में हुई एक सभा में उन्होंने एक महत्वपूर्ण घोषणा की : स्वतंत्र भारत की सरकार सोमनाथ के ऐतिहासिक मंदिर का निर्माण उसी स्थान पर करेगी, जहां वह प्राचीनकाल में स्थित था और ज्योतिर्लिगम् की पुन: प्रतिष्ठा भी उसी जगह पर होगी।
सरदार पटेल के जूनागढ़ से लौटने के थोड़े ही समय बाद प्रधानमंत्री नेहरू ने कैबिनेट मीटिंग बुलाई और पटेल की घोषणा की औपचारिक पुष्टि की। उसी शाम पटेल और मुंशी गांधीजी से भेंट करने गए। गांधीजी ने भी इस निर्णय की सराहना की, लेकिन उन्होंने कहा कि निर्माण की लागत जनता द्वारा वहन की जानी चाहिए, सरकार द्वारा नहीं। इसी कारण यह निर्णय लिया गया कि सोमनाथ ट्रस्ट का निर्माण किया जाए। सोमनाथ मंदिर निर्माण के लिए भारत सरकार ने डॉ केएम मुंशी को सलाहकार समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया।
डॉ मुंशी का विचार था कि वह मंदिर के उद्घाटन के लिए सरदार पटेल को बुलाएंगे। लेकिन जब तक मंदिर का निर्माण पूरा हुआ, तब तक सरदार पटेल का निधन हो चुका था। पिलग्रिमेज टु फ्रीडम में डॉ मुंशी लिखते हैं : ‘जब मंदिर में देवस्थापना का समय आया, तब मैं डॉ राजेंद्र प्रसाद के पास गया और उनसे अनुरोध किया कि वे यह रस्म अदा करें।
लेकिन मैंने साथ ही यह भी जोड़ दिया कि वे मेरा निमंत्रण तभी स्वीकारें, जब वे बाद में इससे पीछे नहीं हटने के लिए पूरी तरह तैयार हों। ‘डॉ राजेंद्र प्रसाद ने कहा कि वे आएंगे और देवस्थापना करेंगे, फिर चाहे प्रधानमंत्री का रुख जो भी हो।
साथ ही उन्होंने यह भी कहा : ‘यदि उन्हें किसी मस्जिद या गिरजाघर के उद्घाटन के लिए निमंत्रित किया गया होता, तब भी वे यही करते। यही भारतीय धर्मनिरपेक्षता का आधार है। हमारी राज्यसत्ता न तो धार्मिक है और न ही धर्म-विरोधी। मेरी आशंका सही साबित हुई। जब यह घोषणा की गई कि राजेंद्र प्रसाद सोमनाथ मंदिर के उद्घाटन समारोह में शामिल हो रहे हैं तो जवाहरलाल ने उनके सोमनाथ जाने का जोरदार विरोध किया। लेकिन राजेंद्र प्रसाद ने अपना वायदा निभाया।’
भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक जून 1989 में पालमपुर (हिमाचल प्रदेश) में हुई और यहीं अयोध्या आंदोलन को समर्थन देने का औपचारिक प्रस्ताव पारित किया गया। प्रस्ताव में सरकार से आग्रह किया गया कि सरकार अयोध्या मंदिर के निर्माण के लिए वही रवैया अख्तियार करे जो रवैया स्वतंत्र भारत की पहली सरकार ने सोमनाथ मंदिर के लिए दिखाया था। जब मैंने २५ सितंबर १९९क् को सोमनाथ से अयोध्या तक दस हजार किमी लंबी रथयात्रा निकालने का निर्णय लिया तो मेरी मंशा यही थी कि अयोध्या में मंदिर निर्माण के लिए समर्थन जुटाऊं।
इस यात्रा ने देशभर में एक बहस छेड़ दी : वास्तविक धर्मनिरपेक्षता बनाम छद्म धर्मनिरपेक्षता। वही बहस जो चालीस साल पहले भी उभरी थी जब पंडित नेहरू ने डॉ मुंशी की सोमनाथ को लेकर उनकी सक्रियता के लिए उन्हें फटकार लगाई थी।
डॉ मुंशी ने अपने भवन के जर्नल के एक अंक (इस लेख को बाद में पिलग्रिमेज टु फ्रीडम में संकलित किया गया) में लिखा है : ‘कैबिनेट बैठक के बाद जवाहरलाल ने मुझे बुलाया और कहा : ‘आप सोमनाथ मंदिर की पुन: स्थापना के लिए जो प्रयास कर रहे हैं, वे मुझे पसंद नहीं।
यह हिंदू पुनरुत्थान की कोशिश है।’ डॉ मुंशी ने तुरंत कोई उत्तर नहीं दिया। लेकिन उन्होंने काफी सोच-विचार कर इसकी प्रतिक्रिया में प्रधानमंत्री को कई पृष्ठों लंबा पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने जोर देते हुए कहा कि वे सोमनाथ के लिए जो काम कर रहे हैं, वह उनका निजी उद्यम नहीं है।
बल्कि यह सरकार के निर्णय के ही अनुरूप है। सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण के सामाजिक सुधार के आयामों पर जोर देते हुए मुंशी ने लिखा है : ‘मंदिर के द्वार हरिजनों के लिए भी खुले रखे गए हैं। इस पर हमें हिंदुओं के रूढ़िवादी वर्ग की आलोचना का सामना करना पड़ रहा है।
बहरहाल, ट्रस्ट डीड के उद्देश्यों से यह स्पष्ट है कि मंदिर के द्वार न केवल हिंदुओं के सभी वर्गो के लिए खुले रहेंगे, बल्कि पुराने सोमनाथ मंदिर की परंपरा के अनुसार गैर हिंदुओं के लिए भी खुले रहेंगे। ऐसे कई रीति-रिवाज हैं, जिन्हें मैंने बचपन से ही अपने निजी जीवन में मानने से इनकार किया है। मैंने साहित्यिक कृतियों और सामाजिक कार्यो के माध्यम से हिंदुत्व के कुछ आयामों को सभी से साझा करने या उन्हें पुन: एकीकृत करने का विनम्र प्रयास किया है।’
पत्र का समापन चुनौतीपूर्ण और झकझोरने वाले इन शब्दों के साथ होता है : ‘यह अपने अतीत में मेरी आस्था ही है, जो मुझे वर्तमान में कार्य करने और आगे हमारे भविष्य की ओर देखने की शक्ति देती है। यदि भारत की स्वतंत्रता हमें भगवद् गीता से वंचित कर देती है या हमारे लाखों देशवासियों को उनकी आस्था से विलग कर देती है और इस तरह हमारे जीवन के ताने-बाने को नष्ट कर देती है, तो मैं उस स्वतंत्रता को मूल्यवान नहीं कह सकता।
यह मेरा सौभाग्य था कि सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण के अपने अनवरत स्वप्न को मैं साकार होते देख सका। मुझे महसूस होता है और मैं लगभग सुनिश्चित हूं कि हमारे जीवन के लिए इतने महत्वपूर्ण स्थान पर पुनप्र्रतिष्ठित आस्था का यह मंदिर हमारे देशवासियों को हमारी शक्ति की शुद्धतर चेतना प्रदान करेगा, जो हमारे लिए इतनी मूल्यवान है।’
यह पत्र पढ़ने के बाद सुविख्यात प्रशासनिक अधिकारी वीपी मेनन, जो रियासतों के भारत में विलय के वृहत् अभियान में सरदार पटेल के सहायक थे, ने मुंशी को यह रुक्का लिखा : ‘मैंने आपका महान पत्र पढ़ा। आपने जो विचार व्यक्त किए हैं, उनके आधार पर मैं अपना जीवन बिताने और यदि जरूरत हुई तो अपनी जान तक न्यौछावर कर देने के लिए तैयार रहूंगा।’
वर्ष 2008 के प्रारंभ में मैंने अपनी आत्मकथा पूर्ण की थी। इसमें मैंने लिखा है कि वाजपेयी सरकार के कार्यकाल के दौरान ही अयोध्या विवाद के समाधान का एक क्षण आया था। आत्मकथा के पृष्ठ 419-421 पर मैंने लिखा है : ‘अयोध्या आंदोलन के प्रमुख सहभागियों में से एक होने के नाते राजग के छह वर्षीय कार्यकाल के दौरान मैं यही उद्यम करता रहा हूं कि इस विवाद का त्वरित और शांतिपूर्ण समाधान कैसे किया जा सकता है।’ ‘विवाद के समाधान के तीन स्पष्ट विकल्प थे : 1) कानून, 2) अदालती फैसला, और 3) हिंदू और मुस्लिम समुदायों के प्रतिनिधियों के बीच सौहार्दपूर्ण समझौता।
अयोध्या समस्या के राजनीतिक और न्यायिक आयामों का आद्योपांत मूल्यांकन करने के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि अंतिम विकल्प ही सबसे श्रेयस्कर था और मैंने संसद के भीतर और बाहर कई अवसरों पर अपना यह मंतव्य स्पष्ट भी किया।
संक्षेप में, मेरा दृष्टिकोण था : कानून बनाकर समस्या के समाधान की संभावना को खारिज नहीं किया जा सकता, लेकिन लगता नहीं कि ऐसा हो पाएगा। न्यायपालिका फैसला सुना सकती है, लेकिन पूरी संभावना है कि इससे दोनों में से कोई न कोई पक्ष आहत हो।
तीसरा विकल्प ऐसे समाधान को हमारे सामने रखता है, जिसमें आपसी स्वीकार्यता और स्थायित्व है। यकीनन किसी पारस्परिक स्वीकार्य समझौते पर भी वैधता की मुहर तो न्यायपालिका को ही लगानी होगी, जिसके लिए उसे पहले अपने सभी लंबित मामले निपटाने होंगे। इसका मतलब यह है कि अंतिम समाधान जो होगा, उसमें दूसरे और तीसरे विकल्प का मेल होगा।
मुझे खुशी है कि अटलजी और मैंने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के अपने सहयोगियों को यह विश्वास दिलाने में सफलता पाई कि वे इस रचनात्मक रवैए का समर्थन करें। इसी के अनुरूप वर्ष २क्क्४ के आम चुनाव में गठबंधन के घोषणा पत्र में यह कहा गया था : ‘राजग को विश्वास है कि अयोध्या समस्या का शीघ्र और सौहार्दपूर्ण समाधान देश की अखंडता को मजबूती देगा।
हम इस बात पर कायम हैं कि इस मामले में न्यायपालिका का फैसला सभी के द्वारा स्वीकारे जाने योग्य होना चाहिए। साथ ही आपसी विश्वास और सद्भाव के माहौल में हमें संवाद और समझौते के प्रयास तेज कर देने चाहिए।
‘मुझे यहां यह दर्ज करते हुए खुशी हो रही है कि गृह मंत्री के रूप में मैंने हिंदू और मुस्लिम समुदायों के प्रभावशाली प्रतिनिधियों को साझा वार्ता के मंच पर लाने की दिशा में उल्लेखनीय योगदान दिया है। मेरा यह प्रयास दोनों पक्षों के गंभीर और शुभेच्छु मध्यस्थों के सहयोग के कारण ही सुगम हो पाया।
प्रचार की चमक-दमक के परे वार्ताओं के कई दौर हुए। हमारी स्पष्ट मंशा थी कि इस मसले का परस्पर स्वीकार्य समाधान खोजा जाए, जिसके बाद ही मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त हो सकता था। ‘एक कारगर समझौते के सिद्धांत और रूपरेखाएं वर्ष 2004 के प्रारंभ में स्पष्ट हो चुके थे और दोनों ही पक्षों द्वारा यह तय किया गया कि मई में होने वाले 14वीं लोकसभा के चुनाव के फौरन बाद इस संबंध में घोषणा की जा सकती है।
यकीनन यह हिंदू और मुस्लिम दोनों ही पक्षों की इस अपेक्षा के आधार पर था कि वाजपेयी सरकार नया जनादेश हासिल करेगी और पारस्परिक सहमति के नुस्खे को अमल में लाने की अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन करेगी। अफसोस कि ऐसा हो नहीं सका।
बहरहाल मेरा नियति में पुख्ता विश्वास है। मुझे पूरा भरोसा है कि अयोध्या में राम जन्मभूमि पर उपयुक्त मंदिर का निर्माण पूर्वनियत है। यह कब और कैसे होगा, इसका ज्यादा महत्व नहीं है क्योंकि यह तो इतिहास की शक्तियां ही निर्धारित करेंगी। लेकिन मंदिर का निर्माण होगा, यह उतना ही सुनिश्चित है जितना बार-बार ढहाए और बनाए गए सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण सुनिश्चित था।
मैं यह सोचकर कृतज्ञ महसूस करता हूं कि नियति ने मुझे यह अवसर दिया कि मैं सामूहिक राष्ट्रहित के इस कार्य में अपनी भूमिका का निर्वाह कर सकूं, जो हिंदुओं की सदियों पुरानी आकांक्षा को पूर्ण करने के लिए प्रतीक्षारत है।
मेरी एकमात्र आकांक्षा और अपील यही है कि हमारे मुस्लिम बिरादरान भी हिंदुओं के ही समान उदारशीलता और सद्भाव के साथ आगे आएं।’ मुझे आज यह कहते हुए बड़ी प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है कि तीन दिन पहले इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा सुनाए गए महत्वपूर्ण फैसले के बाद आज देश ऐसे भाग्यशाली बिंदु पर आ पहुंचा है, जहां दूसरे और तीसरे विकल्प का मेल हो सकता है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी दोनों ने ही जोर देते हुए कहा है कि इस फैसले ने इस तथ्य को न्यायिक मान्यता दी है कि भारतवर्ष के लाखों जनों का यह विश्वास है कि वर्तमान में जिस स्थान पर रामलला प्रतिष्ठित है,वही राम जन्म भूमि है – वह धरती, जहां राम का आविर्भाव हुआ था। यह आस्था बनाम कानून की स्थिति नहीं है। यह वह स्थिति है, जिसमें कानून ने ही आस्था का अनुमोदन किया है

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