Saturday, August 6, 2011

अमर्त्य सेन के अर्थदर्शन की लोकपक्षधरता

चर्चा लायक बीसवीं शती की बहुत-सी बातें हैं. मसलन इस शताब्दी ने दो विश्वयुद्ध झेले. परमाणु बमों से उत्पन्न भीषण तबाही देखी. साम्राज्यवाद का उत्थान देखा और संग-संग पतन भी. गाँधी जी ने अपने कर्मयोगी जीवन का महत्त्वपूर्ण अंश इसी शताब्दी में जिया. इसी शती में टेलीविजन, ट्रांजिस्टर, पेनसिलिन, सुपर-कंडक्टर, वायुयान की खोज हुई. पेजर, टेलीफोन, मोबाइल, इंटरनेट, कंप्यूटर और लेपटाप, आईपा॓ड जैसे यंत्र आए, जिन्होंने दूरियों को मिटाने का काम किया. अत्याधुनिक तकनीक ने अंतरिक्ष यात्राओं को आसान बना दिया. आदमी को लगने लगा कि ब्रह्मांड मुट्ठी में आ चुका है. सही मायने में यही वह शताब्दी थी, जब आदमी को आधुनिकता का चस्का लगा. इसी शताब्दी में गांधीजी ने अहिंसा के नारे को देश की आजादी का हथियार बनाया. आइंसटाइन के सिद्धांत को लेकर परमाणु बिजलीघर बनाए गए और परमाणु बम भी. इसी शती में साम्यवाद का उत्थान और पतन हुआ. जिन देशों ने समाजवाद का नारा लगाकर आज़ादी प्राप्त की थी, जिनके लिए मार्क्स का कहा एक-एक शब्द गीता की तरह पवित्र था—रूस और चीन सहित वे सभी देश, चाहे-अनचाहे पूंजीवाद के चंगुल में जा फंसे. पीछे-पीछे भारत भी गया. गांधी के देश में, हिंद स्वराज्य के दर्शन-चिंतन वाले देश में पूंजीवाद रंग-रेलियां मनाने लगा. बीयर बार और कैसीनो प्रगति का प्रतीक मान लिए गए. नई आर्थिक व्यवस्था विश्व-ग्राम की संकल्पना को जन्म दिया. पूंजी का जादू चला, दुनिया सिमटकर ग्राहक की जेब में समाने लगी. चूंकि ये संबंध विशुद्ध रूप से आर्थिक आधार पर विकसित हुए थे, इसलिए आत्मीयता का स्थान औपचारिकता ने ले लिया. इससे आपसी व्यवहार में कृत्रिमता बढ़ी. साथ में वैचारिक जड़ता भी.

विज्ञान और तकनीक इकीसवीं शताब्दी को विरासत में मिले. साथ में तज्जनित समस्याएं भी. परिणाम यह हुआ है कि इकीसवीं शताब्दी के पहले दशक की समापन बेला की ओर बढ़ते हुए हम सांस्कृतिक, सामाजिक अवमूल्यन, मानवीय मूल्यह्रास, घोर उपभोक्तावाद, पूंजी का अराजक विस्तार और उसकी तानाशाही, समाज के विभिन्न वर्गों के बीच बढ़ती सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक भेदभाव की खाई और तज्जनित महानैराश्य का वातावरण देख रहे हैं. ये स्थितियाँ बीसवीं शती को तो नकारात्मक छवि प्रदान करती ही हैं, इकीसवीं शताब्दी में भी कुछ उम्मीद नहीं जतातीं. इनमें हताशा और कुंठा का प्रतिशत सकारात्मक मानवीय प्रवृत्तियों से कहीं ज्यादा है. सर्वाधिक चिंता की बात यह है कि पंद्रहवीं शताब्दी से लेकर बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक जिस वैचारिक क्रांति ने पूरी दुनिया को नई-नई उम्मीदों से सराबोर किया था, वे धीरे-धीरे दम तोड़ने लगीं और ‘विचार का अंत’ जैसे मुहावरे फिजा में सिर उठाने लगे, जिन्होंने हमें शुरू से आखिर तक चुनौतियों में डाले रखा.

शताब्दी में सभी कुछ निराशाजनक रहा हो, यह कहना भी उचित न होगा. एक बात जो इस शताब्दी के अन्तिम चरण में हमें संबल देती है, उसे हम आशा की क्षीण ज्योति की संज्ञा दें या मनुष्य की आत्मावलोकन की छटपटाहट. चाहें तो विकास की सहज प्रवृत्ति मानकर बात को चलता कर दें. मगर इस तथ्य से इनकार करना संभव नहीं कि इकीसवीं शताब्दी के प्रथम दशक में हम युवावर्ग के भीतर पहले से कहीं अधिक आत्मविश्वास देख रहे हैं. वह पहले से अधिक समझदार और प्रौढ़ नजर आ है. इसमें कोई दो राय नहीं है कि मा॓ल-संस्कृति के रंग-ढंग में ढली इस शताब्दी ने हमारे बच्चों से हमारी सांस्कृतिक विरासत और जीवन-मूल्य छीने हैं, जो इससे पहले हमारी अस्मिता की पहचान हुआ करते थे. इसने हमें हमारी उम्मीदों, कामनाओं और कल्पनाओं से कहीं ज्यादा व्यक्तिवादी बनाया है. मगर पूंजीवाद की गोद में समाने को आतुर बीसवीं शताब्दी ने अपने अन्तिम सोपान पर, सांकेतिक रूप में ही सही, आम-आदमी की अस्मिता एवं जरूरतों को पहचानने और उन्हें सम्मानित करने की कोशिश भी की गई. उस शताब्दी के अंतिम दशक की दो घटनाएं प्रतीकरूप में चिह्नित की जा सकती हैं. उनमें से एक घटना इस देश में घटी थी, दूसरी बाहर. यद्यपि दोनों ही घटनाओं का संबंध भारत से था. उनमें पहली घटना थी, अमर्त्य सेन को कल्याणकारी अर्थशास्त्र की विशद् विवेचना के लिए प्रतिष्ठित नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया जाना. दूसरी घटना में पर्यावरण, कुष्ठ रोग निवारण और श्रमिक कल्याण के लिए कार्य करने वाले बाबा आम्टे को ‘गाँधी शान्ति पुरस्कार’ से नवाजा गया था. भारत के संबंध में ये दोनों ही उपलब्धियां यादगार थीं, जिनके लिए उस शताब्दी को भुला पाना आसान नहीं है. यह आलेख पहली घटना को समर्पित है.

ज्ञातव्य है कि अमर्त्य सेन ने कल्याणकारी अर्थशास्त्र की विवेचना लगभग पचास वर्ष पहले आरंभ की थी. इस विषय पर उनके सैकड़ों शोधप्रपत्र दुनिया-भर की स्तरीय पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए. सराहे गए. अनेक पुस्तकें उन्होंने लिखीं जिनमें अर्थशास्त्र से संबंधित कई मौलिक स्थापनाएं की गई थीं. वे अब सिद्धांतरूप में प्रतिष्ठा पाकर अनेक विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में सम्मिलित हैं. आजकल उनके आधार पर कल्याण योजनाएं बनाई जाती हैं. विद्वान उनपर बहस करते हैं. बाबा आम्टे ने अपने संस्थान श्रमिक विद्यापीठ के माध्यम से मजदूरों का संचालन किया, किंतु जनमानस के बीच उनकी छवि बनी पर्यावरण सुरक्षा हेतु दामोदर घाटी वृहद परियोजना का विरोध कर रहे एक जुझारू कार्यकर्ता की है. अमर्त्य सेन और बाबा आम्टे दोनों की ही कोशिशें बेलगाम पूंजीवाद को अंकुश लगाने की थी. ताकि शताब्दियों से नदी-जंगल और प्रकृति की गोद में जीवन बिताने वाले आदिवासियों का जीवन न उजड़े. समाज और सरकार आम आदमी को भूल न पाएं और विकास का लाभ किनारे पर स्थित नागरिकों तक भी पहुंचे. इन दोनों महापुरुषों का जीवन-संघर्ष और उनके निष्कर्ष सिद्ध करते हैं कि समाज के सर्वांगीण विकास के लिए उसकी प्रत्येक इकाई का सहयोग अत्यावश्यक है. विश्वकल्याण सभी देशों के संयुक्त-समन्वित प्रयास बिना असंभव है. मुट्ठी-भर पूंजीपति शेयर बाजार की रफ्तार को बढ़ा सकते हैं. गरीब का चूल्हा नहीं जला सकते. लोकतंत्र में यह दायित्व कल्याण सरकार का होता है. उन नेताओं का होता है जो लोकसेवा का वायदा कर जनमताधिकार के बल पर संसद में आते हैं. अतएव सम्पूर्ण विकास की अवधारणा तभी साकार हो सकती है जब समाज की प्रत्येक इकाई मनसा-वाचा-कर्मणा आपसी सहयोग को सदा प्रस्तुत हो. और सरकार अपने नागरिकों को रचनात्मक गतिविधियों में लगाकर उनका अधिकतम उपयोग करना जानती हो. पूंजीवाद विकास के लिए स्पर्धा को जरूरी मानता है. लेकिन कल्याण सरकार जानती है कि यदि सभी को एकसमान विकास के दायरे में लाना है, तो फिर स्पर्धा कैसी! यह कार्य तो आपसी सहयोग के द्वारा ही संभव है.

अमर्त्य सेन के अर्थदर्शन एवं सहकारिता में यही लक्ष्यगत साम्य है. जिसपर हम आगे चर्चा करेंगे. उससे पहले उचित होगा कि हम श्री सेन के व्यक्तित्व और कृतित्व की संक्षिप्त जानकारी प्राप्त कर लें, क्योंकि मनुष्य अपने समाज और आस-पास के वातावरण से ही प्रेरणा लेता है. बचपन और अतीत आजीवन हमें उद्वेलित करते हैं. शायद तभी हम यह सकेंगे कि अमर्त्य सेन के अर्थदर्शन पर उनके जीवनानुभवों की गहरी छप है. उन संस्कारों की छाप है जो उन्हें शांतिनिकेतन की पढ़ाई के दौरान मिले. उनके द्वारा प्रस्तुत कल्याणकारी अर्थशास्त्र उस वौद्धिक संवेदनशीलता का चिंतन-कर्म है, जो बंगाल के वौद्धिक वातावरण की खासियत है.
जीवन

नवम्बर मास विश्वभर में चर्चित हस्तियों को जन्म देने वाला महीना रहा हैं इस महीने की तीन तारीख को, वर्ष 1933 में अमर्त्य सेन का जन्म हुआ था. शांतिनिकेतन की पुण्य धरा पर. पिता आशुतोष सेन ढाका में रसायन शास्त्र के अध्यापक थे. देश के प्रमुख रक्षा वैज्ञानिक थे और गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर के सहयोगी भी. घर ढाका में था. मगर शांति-निकेतन से गहरा संबंध था. साथ में खूब आना-जाना भी. जब भी वहां जाते तो गुरुदेव से अंतरंग बातें होतीं. परिवार में शिक्षा और संस्कृति के संस्कार थे. माँ सुसंस्कृत और विदुषी महिला थीं. अमर्त्य सेन के नाना क्षितिजमोहन सेन की गिनती उस समय के प्रमुख संस्कृत विद्वानों में थी. अपने नाना के प्रभाव से ही अमर्त्य ने संस्कृत सीखी और भाषायी विद्वत्ता हासिल की. संगीत के प्रति प्रेम गुरुदेव के सान्निध्य में रहकर प्राप्त हुआ.

अमर्त्य के पूरे परिवार पर गुरुदेव का विशेष स्नेह और आशीर्वाद था. इसलिए जब आशुतोष सेन के परिवार के नए रहस्य का आगमन हुआ तो उसे भी आशीर्वाद के लिए गुरुदेव के समक्ष लाया गया. गुरुदेव ने पूरे स्नेह और दुलार के साथ नवशिशु को नाम दिया—‘अमर्त्य’. सेन उनका कुलनाम था इसलिए पूरा नाम हुआ अमर्त्य सेन. बालक का नामकरण करते हुए गुरुदेव ने कहा था—

‘‘यह असामान्य बालक है. बड़ा होने पर असाधारण व्यक्ति बनेगा. इसका नाम दिग-दिगंत में फैलेगा. मरकर भी इसका नाम अक्षुण्ण रहेगा. इसलिए हमें इसे ‘अमर्त्य’ के नाम से पुकारना चाहिए.’’

कहने की आवश्यकता नहीं कि अजब अमर्त्य सेन नोबल पुरस्कार ग्रहण कर रहे थे तब गुरुदेव का आशीर्वाद और उनकी भविष्यवाणी ही फलित हो रही थी. प्रारंभिक शिक्षा के लिए शांतिनिकेतन से उपयुक्त जगह और भला क्या हो सकती थी. प्रारंभ में संस्कृत विद्वान और डा॓क्टर बनने का सपना देखा था अमर्त्य ने. इसी धुन में स्कूली शिक्षा पूरी की. इंटरमीडिएट में पहुँचे तो उनकी गिनती का॓लेज के मेधावी छात्रों में होने लगी. संस्कृत के अलावा गणित और भौतिक विज्ञान लेकर उन्होंने परीक्षा दी. परिणाम घोषित हुआ. अमर्त्य सर्वाधिक अंक पाकर प्रथम स्थान पर थे. अचानक उनका अर्थशास्त्र के प्रति मोह जाग्रत हुआ. यह परिवर्तन अनायास भी नहीं था. विज्ञान से वैचारिक प्रकृति की परिणति थी. जिसे समझने के लिए हमें अमर्त्य के अतीत में जाना पड़ेगा.

वर्ष 1943, बंगाल के इतिहास में काले वर्ष के रूप में दर्ज़ है. अमर्त्य की अवस्था उस समय केवल दस वर्ष की थी. उस वर्ष बंगाल में भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा. ढाका में अपने घर के सामने अमर्त्य ने लोगों को भूख संघर्ष करते, भीषण गरीबी की वजह से टूटते, एक-एक दाने के लिए गिड़गिड़ाते, भूख दम तोड़ते-तड़फते हुए लोगों को देखा था. अपनों को आंखों के सामने मौत के मुंह में जाते देख लोगों का रोना-बिलखना सुना था. मनुष्य की वह दुर्दशा भीषण थी. उसको देख अमर्त्य का बाल-मन रो उठा. बचपन की वह छाप जिंदगी-भर पड़ी रही. आज भी अमर्त्य को वे दिन ज्यों के त्यों याद हैं. मानो स्मृति-शिला पर टंके आलेख हों. उस दुर्भिक्ष में डेढ़ लाख से ज्यादा जानें गई थीं. हजारों परिवार उजड़े थे. मरने वालों में अधिकांश गरीब थे. मेहनत-मजदूरी करने वाले. अमीरों के घर तब भी धन-धान्य से भरे हुए थे. अमर्त्य जानते थे कि अमीर अगर अपने आस-पास रह रहे गरीबों के प्रति थोड़ी-सी भी सहृदयता दर्शाते तो हजारों जानें बचाई जा सकती थीं.

यह दुःखद घटना अमर्त्य के लिए बहुत क्रांतिकारी सिद्ध हुई. उस घटना ने जीवन की दिशा निर्धारित करने का काम किया. उनके मन में गरीब लोगों के लिए काम करने की ललक बढ़ी. एक और घटना उनके सोच पर गहरा असर डाला. उन दिनों अमर्त्य अपने पिता के पास ढाका में रहते थे. उन दिनों अंग्रेज भारत-विभाजन का निर्णय ले चुके थे. जगह-जगह सांप्रदायिक तनाव व्याप्त था. लोग अपने बच्चों को अकेले बाहर भेजने से डरते थे. एक आदमी दूर गांव से चलकर ढाका काम की तलाश में आया था, कि सांप्रदायिक दंगों की चपेट में आ गया. वह लोगों को अपनी स्थिति के बारे में कुछ बता पाए उससे पहले ही कुछ जुनूनी लोगों ने उसपर हमला बोल दिया. चाकुओं की मार से वह पल भर में लहुलुहान होकर जमीन पर लुढ़कने लगा. धर्म के नाम पर हुई उस हिò वारदात ने अमर्त्य को भीतर तक हिला दिया. उसी के धर्म के खाते-पीते लोग उस समय भी बाजार में मौजूद थे. उनपर किसी को हाथ उठाने की हिम्मत न थी. उस दिन अमर्त्य इस नतीजे पर पहुंचे कि आग चाहे गरीबी की हो या सांप्रदायिकता की, उसमें झुलसना गरीब को ही पड़ता है.

इन घटनाओं ने उन्हें अर्थशास्त्र के अध्ययन के लिए प्रेरित किया. अमर्त्य ने कहा भी कि अर्थशास्त्र का संबंध समाज के गरीब और उपेक्षित लोगों के सुधार से है. विज्ञान विषयों का मोह त्यागकर अर्थशास्त्र से जुड़ने का निर्णय भी इसी भावना के साथ लिया गया था. काॅलेज की पढ़ाई के लिए अमर्त्य को कोलकाता जाना पड़ा. दाखिला मिला प्रेसीडेंसी काॅलेज में. प्रकृति अपना काम कर रही थी. उस वर्ष प्रेसीडेंसी का॓लेज में एक और विलक्षण छात्र ने दाखिला लिया था. उनका नाम था सुखमय चक्रवर्ती. अमर्त्य ने विज्ञान वर्ग के विद्यार्थियों में प्रथम स्थान पाया था तो सुखमय कलावर्ग के विद्यार्थयों में सर्वाधिक अंक लेकर प्रथम स्थान पर आए थे. दोनों एक समान मेधावी थे, इसलिए मित्र बनते देर न लगी. दोनों की इच्छा अर्थशास्त्र में बी.ए. आनर्स करने की थी. शीघ्र ही प्रेसीडेंसी काॅलेज उनकी प्रतिभा की खुशबू से महक उठा. गुरुजन इन दोनों छात्रों की प्रतिभा से बेहद प्रभावित थे। अमर्त्य के एक प्रोफेसर भवदोष दत्त ने तो अपने इन दोनों शिष्यों के बारे में लिखा भी है—

‘‘मैं समझ गया था कि दोनों छात्र असाधारण हैं. उनकी उत्तर पुस्तिकाएं जांचते समय मैं असमंजस में पड़ जाता था. दोनों के उत्तर इतने उत्कृष्ट होते थे कि अपनी दुविधा मिटाने के लिए मैं दोनों को समान अंक देता था.’’

अमर्त्य और सुखमय के बीच गहन मैत्री थी. स्वस्थ स्पर्धा की भावना भी. किसी भी प्रकार का ईष्र्या-द्वेष उनके बीच न था. मगर वार्षिक परीक्षा में बाजी अमर्त्य के हाथ ही लगी. वे प्रथम स्थान पर आए. सुखमय को दूसरे स्थान से ही संतोष करना पड़ा. प्रथम स्थान पर आकर अमर्त्य को न तो किसी प्रकार का स्वयं पर गर्व हुआ. न सुखमय के मन में उनके प्रति कोई ईर्ष्या-भाव जागा. आगे की पढाई के लिए अमर्त्य को कैम्ब्रिज जाना पड़ा. वहाँ भी अर्थशास्त्र के साथ उन्होंने विशेष प्रणीवता के सहित ट्राइपोस (आ॓नर्स) परीक्षा पास की. उन दिनों अमर्त्य का झुकाव साम्यवादी विचारधारा की ओर था. आगे चलकर साम्यवाद से उनका मोह भंग होता चला गया। उसका स्थान लोकतांत्रिक व्यवस्था ने ले लिया.

अर्थशास्त्र के विशद अध्ययन के दौरान अमर्त्य सेन ने अफ्रीकी और एशियाई देशों में पड़े अकालों का विवेचन किया. यही नहीं उन्होंने कोलकाता में पड़े भीषण दुर्भिक्ष को भी अपने अध्ययन का विषय बनाया. लंबे अध्ययन और गहन विश्लेषण के पश्चात् वे इस परिणाम पर पहुँचे कि 1943 का अकाल निरी प्राकृतिक आपदा नहीं थी. बल्कि अकाल जैसी व्यवस्था थी. वह कृत्रिम अकाल एक गैर-जिम्मेदार शासन-व्यवस्था की देन था. ऐसी शासन-व्यवस्था की जो जनसमस्याओं से पूर्णतः अनभिज्ञ थी. जिसके लिए मात्र शोषण ही शासन का पर्याय था. स्वार्थ में डूबी उस व्यवस्था को जनाकांक्षाओं से कोई मतलब न था. एक ओर नियोजन के स्तर पर लापरवाही और अज्ञानता थी, दूसरी ओर जन-आवश्यकताओं की उपेक्षा करते हुए सरकार ने अपने समस्त संसाधन, अनाज, और भोजन-सामग्री एक ऐसे युद्ध की तैयारियों में झोंक दिए थे, जिसका भारत अथवा यहां की जनता से कोई संबंध न था. अमर्त्य का मानना है कि यदि निरंकुश शासन के स्थान पर उस समय देश में जनता के प्रति जवाब देह शासन-व्यवस्था होती तो वह बदनामी से बचने के लिए ऐसे उपाय करती जिनसे उस अकाल जैसी अवस्था से बचा जा सकता था. यह लोकपक्षधरता जनता के मताधिकार द्वारा बनी सरकार द्वारा ही संभव है.

अध्ययन पूरा कर अमर्त्य भारत लौटे. मगर नौकरी के लिए भटकना न पड़ा. एक अच्छा अवसर मानो स्वयं उनकी प्रतीक्षा कर रहा था. लौटते ही वे जाधवपुर विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर बन गए. उस समय उनकी आयु मात्र तेइस वर्ष थी. मानो यह पद विश्वविद्यालय ने अमर्त्य को न देकर उनकी विलक्षण प्रतिभा को दिया था. इसके पश्चात् अध्ययन-अध्यापन का दौर साथ-साथ चलता रहा. जाधवपुर विश्वविद्यालय से वे दिल्ली स्कूल आ॓फ इकाना॓मिक्स आए. नए अनुभव हुए. मगर राजधानी की आकादमिक क्षेत्र की राजनीति से मन खिन्न रहने लगा. कोलकाता की बार-बार याद आती. बार-बार याद आता शांति-निकेतन का माहौल. गुरुदेव की कविताएं और रवीन्द्र-संगीत. दिल्ली में आठ वर्ष तक अध्यापन दायित्व संभालने के बाद वे लंदन चले गए. वहां ‘लंदन स्कूल आ॓फ इकाना॓मिक्स में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर लग गए. वहां से आक्सफोर्ड. फिर अमेरिका के हावर्ड विश्वविद्यालय में अध्ययन किया. यात्रा चलती रही. कुछ महीनों बाद ट्रिनिटी विश्वविद्यालय में अध्यापन का प्रस्ताव मिला. हावर्ड की तुलना में यहां वेतन आधा था. सुविधाएं भी कम थीं. मगर विश्वविद्यालय की प्रतिष्ठा और पद की गरिमा को देखते हुए अमर्त्य ने वह प्रस्ताव स्वीकार लिया. ट्रिनिटी में वे अकेले गैर अंग्रेज थे जिन्हें यह सम्मान प्राप्त हुआ था.

अमर्त्य सेन का निजी जीवन बहुत हलचल भरा और उतार-चढ़ाव वाला रहा. उन्हें जीभ का कैंसर था. बड़े मुश्किल से, लंबे उपचार के पश्चात उन्हें इस जानलेवा बीमारी से मुक्ति मिल सकी. अर्थशास्त्र की बड़ी-बड़ी गुत्थियां सुलझाने वाले अमर्त्य परिवार की पहेलियों में उलझते चले गए. एक के बाद एक उन्होंने तीन विवाह किए. पहला बाँग्ला की सुप्रसिद्ध लेखिका-साहित्यकार नवनीता के साथ हुआ. दोनों के संबंध पंद्रह वर्ष तक खिंचा भी. उसके बाद दोनों का संबंध विच्छेद हो गया. नवनीता से अमर्त्य की दो पुत्रियों ने जन्म लिया— उनका नाम है अंतरा और नंदना. उन्होंने दूसरा विवाह इवा कार्लोनी के संग किया. इवा बहुत स्नेहिल महिला थीं. मगर विडंबना देखिए, वे कैंसर की मरीज बीमारी थीं. इस कारण उनका दांपत्य जीवन बहुत लंबा न खिंच सका. इवा ने भी अमर्त्य की दो संतानों—इंद्राणी और कबीर को जन्म दिया. इवा बीमारी में चल बसीं. अमर्त्य अकेले रह गए. उनका अकेलापन उन्हें एम्मा राइथ्स चाइल्ड के निकट ले गया. एम्मा कभी उनकी शिष्या हुआ करती थीं. बाद में दोनों दांपत्य बंधन में बंध गए.

एक ओर विज्ञान से लगाव. डा॓क्टर और संस्कृत विद्वान बनने का सपना. दूसरी ओर अर्थशास्त्र में पांडित्य प्राप्तकर दर्शनशास्त्र के अध्यापन की जिम्मेदारी संभालना, दोनों अलग-अलग धाराएं हैं. एक पूरब को जाती है तो दूसरी पश्चिम की ओर. मगर अमर्त्य सेन ने इसका सफलतापूर्वक निर्वाह किया. इसलिए उनकी विलक्षण प्रतिभा का जितना बखान किया जाए वह कम है. महत्त्वपूर्ण पदों पर रहते हुए, दर्शनशास्त्र और अर्थशास्त्र के अध्यापन का भार तो उन्होंने संभाला ही, कई महत्त्वपूर्ण पुस्तकें भी लिखीं. महत्त्वपूर्ण उनके सैंकड़ों शोध-निबंध विश्वस्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होकर विश्व-भर के विद्वानों की सराहना बटोर चुके हैं. उनकी पुस्तकों में ‘पावर्टी एण्ड फेमिंस: एन एस्से आ॓न एन्टाटलमेंट एंड डिप्राइवेशन’ को विशेष ख्याति मिली. अमर्त्य सेन की अन्य प्रमुख कृतियां—‘वेलफेयर एण्ड मैनेजमेंट’, ‘चा॓यस आ॓फ टेकनीक’, ‘हंगर एंड पब्लिक एक्शन’, ‘वेल्यूज एण्ड डेवलपमेंट’, ‘ऐथिक्स एंड इका॓नामिक्स’ आदि हैं. उन्होंने अकाल और उसके पीछे निहित कारणों का गहन अध्ययन किया है, जिसमें उन्होंने भारत, बांग्लादेश, सहाराई देशों तथा चीन में आई प्राकृतिक आपदाओं का विश्लेषणात्मक व तुलनात्मक अध्ययन किया. इससे जो निष्कर्ष निकाले वे न केवल चौकाने वाले हैं, बल्कि इस संबंध में बनी हमारी अब तक की मान्यताओं का निषेध करते हैं.

विलक्षण और ख्याति प्राप्त विद्वान होने के बावजूद अमर्त्य सेन आदमी से कितना गहरे तक जुड़े हैं, यह बात न केवल उनके कृतित्व में साफ़ झलकती है बल्कि उनका व्यक्तित्व भी इसे दर्शाता है. कल्याणकारी अर्थशास्त्र में महिलाओं और वंचित वर्ग की आकांक्षाओं को मूर्त्त-रूप देने का स्वप्न उन्होंने देखा है. उनका व्यवहार भी इसके बहुत निकट है. हर वर्ष वे कम से कम तीन बार हिंदुस्तान आते हैं. यहाँ आकर शांतिनिकेतन न जाएं यह संभव नहीं है. विद्यार्थी जीवन में पिता ने एक फिलिप्स साईकिल खरीद कर दी थी. अब वह अमर्त्य सेन जैसी ही बूढ़ी हो चुकी है. साठ वर्ष से लंबी उम्र है उसकी. जब युवा थे तो शांतिनिकेतन में उस साइकिल पर खूब दौड़ लगाया करते थे. अब भी वे दिन याद हैं. शांतिनिकेतन प्रवास के दौरान वह साइकिल आज भी उनके लिए वाहन का काम करती है. उम्र, व्यस्तता और मित्रों की भीड़ के चलते उस साइकिल पर पहले जैसी सवारी भले न गांठ पाएं. पर उसको देखकर देह में वैसा ही रक्त संचार होने लगता है, जो साठ-पैंसठ वर्ष पहले होता था.

मौका मिले तो साइकिल पर सवार हो वे घूमने के बहाने निकल जाते हैं. आम जन-जीवन की पड़ताल करने. या कहो कि पीड़ित समाज की नब्ज टटोलने. उस समय अमर्त्य का विराट व्यक्तित्व कहीं गायब हो जाता है. तब ये बिलकुल आम आदमी होते हैं. साइकिल खींचते हुए जब थक जाते हैं तो सड़क किनारे बनी किसी भी मामूली चाय की दुकान पर जाकर खड़े हो जाते हैं. ज्यादातर दुकानदार उन्हें पहचानते हैं. इसलिए देखते ही चाय का पानी चढ़ा देते हैं. तब अमर्त्य दुकान की साधारण-सी बैंच पर बैठकर या फिर खड़े-खड़े ही चाय सुकड़ते हैं. खाने में आज भी उन्हें बंगाली व्यंजन प्रिय हैं. मिट्टी का स्वाद जीवन की सांस-सांस में घुला है.

अमर्त्य सेन ने यह सिद्ध करने की कोशिश की है कि चिंतन व्यवहार में ढल जाने के बाद ही सार्थक होता है. समाज से परे न कोई सच होता है, न विवेक. उनके कल्याणकारी अर्थशास्त्र की विवेचना भी विशुद्ध शास्त्रीय न होकर मानवीय आकांक्षाओं के अनुरूप है. तभी वह प्रशंसनीय है. उनका मानना है कि किसी भी समाज का विकास तभी संभव है जब उसके विकास के नाम पर बनाई जा रही योजनाएं न केवल जनोन्मुखी हों, बल्कि वे जनसहयोग की अपेक्षा भी रखती हों. आमूल विकास के लिए जरूरी है कि लोग अपनी समस्याओं को समझें, सोचें-विचारें और संगठित होकर समाधान की खोज करें. विकास की राह में पड़ने वाली बाधाओं से जूझने का उनमें विवेक हो. यही बात है जो कल्याणकारी अर्थशास्त्र और सहकारिता को एकबद्ध करती है. आधुनिक कल्याणकारी अर्थशास्त्र और सहकारिता के अंतःसंबंधों की पड़ताल की कोशिश इस आलेख के अगले हिस्सों में जारी रहेगी. फिलहाल इतना बता देना पर्याप्त होगा कि कल्याणकारी अर्थशास्त्र की विवेचना में जिन सामाजिक लक्ष्यों को मात्र मनुष्य के लिए हितकर और आवश्यक माना गया है, उन्हें प्राप्त करने के लिए सहकारिता केवल माध्यम-भर नहीं है, बल्कि इसे जीवन-पद्धति बनाने पर भी जोर दिया गया है.
अर्थचिंतन

अर्थशास्त्र को सामान्यतः एक शुष्क और उबाऊ विषय माना जाता है. यह धारणा आम है कि अर्थशास्त्र मनुष्य, पूंजी एवं विकास के अंतःसंबंधों की समीक्षा नितांत बौद्धिक तकनीक के आधार पर करता है। अर्थशास्त्र के अनुसार अर्थ-विनियोजन की कुशलता, कम पूंजीनिवेश द्वारा अधिकतम लाभ कमाने की अवधारणा में निहित रहती है. हर पूंजीपति सौ रूपये लगाकर हजार रूपये कमाने का सपना देखता है. मगर यह शोषण के बिना संभव नहीं. अर्थशास्त्र की प्रायः सभी स्थापनाएं, सिद्धांत, नियम आदि आंकड़ों पर निर्भर करते हैं. आंकड़ों की विश्वसनीयता का स्तर ही अर्थशास्त्रीय नियमों की विश्वसनीयता का स्तर ही अर्थशास्त्रीय नियमों की शुद्धता वह प्रमाणिकता को निर्धारित करता है. अर्थशास्त्री अपनी बौद्धिक क्षमता, लगन व परिस्थितियों के अनुसार आंकड़ों का संचयन करता है. उन आंकड़ों का विश्लेषण जिन सामान्य निष्कर्षों की ओर ले जाता है, वही कालांतर में सिद्धांतों का रूप ग्रहण कर लेते हैं. आंकड़ों के विश्लेषण में गणितीय औसत या माध्य की सहायता ली जाती है. गणितीय माध्य एक तरह से बीच का रास्ता है, जो अलग दिखने वाले आंकडों के बीच सामान्यता की स्थिति को दर्शाता है, परंतु सामान्य धारणा के विपरीत आंकड़ों का खेल कभी-कभी हमें यथार्थ स्थिति से दूर भी ले जाता है. तब प्राप्त परिणाम विचित्र-सी स्थिति उत्पन्न कर देते हैं.

अर्थशास्त्र के क्षेत्र में अमर्त्य सेन के योगदान को समझने के लिए आंकड़ों के इस मायाजाल को समझना भी बेहद जरूरी है. अपने समकालीन अर्थशास्त्रियों से एकदम विपरीत वे आंकड़ों बचकर निकलने की कोशिश में रहते हैं. उनके अर्थदर्शन की मुख्य विशेषता भी यही है कि उन्होंने अर्थशास्त्र को निष्ठुर आंकड़ों के जाल से मुक्ति दिलाकर उसे अधिकाधिक मानवीय स्वरूप प्रदान करने की कोशिश की है. अर्थशास्त्र को गणित से अधिक दर्शनशास्त्र के नजरिये से देखा है उन्होंने. इसलिए वे अर्थव्यवस्था के उद्धार के लिए वैसा कोई रास्ता नहीं सुझाते जो एडम स्मिथ और रिकार्डो जैसे अर्थशास्त्रियों की परिपाटी बन चुका है. वे मानते हैं आंकड़ों की बाजीगरी का लाभ पूंजीपति तो उठा सकता है. इसलिए एडम स्मिथ और रिकार्डो के सिद्धांत पर चलने से पूंजीवाद ही फला-फूला है. बहुत जरूरी है कि आर्थिक मुद्दों पर भी संवेदनशीलता के साथ विचार किया जाए, ताकि आमआदमी की समस्याएं चिंतन के दायरे में आ सकें. अमर्त्य सेन से पहले के अर्थशास्त्री पूंजी, श्रम, निवेश, शेयरबाजार, वित्तीय घाटा, मुद्रास्फीति, उद्योग और विकासदर संबंधी आंकड़ों की व्याख्या में ही उलझे थे. मार्क्स तो इस आधार पर वर्गसंघर्ष का ऐलान भी करा चुका था. वे मार्क्स को गलत नहीं मानते. लेकिन उनका मानना है कि साम्यवाद भी अंततः तानाशाही की व्यवस्था है. अंतर सिर्फ इतना है कि इसमें तानाशाही श्रमिक-संगठनों की ओर से सौंपी जाती है. गरीब आदमी के लिए न्याय तभी संभव है, जब उसके लिए सोचने वाली सरकार हो. इसमें भले ही सरकार का भी अपना स्वार्थ क्यों न हो. सत्ता में बने रहने के लिए लोकतांत्रिक सरकारें जनता की अधिक समय तक उपेक्षा नहीं कर सकतीं. आधुनिक अर्थशास्त्री इस बात के लिए अमर्त्य सेन के ऋणी हो सकते हैं कि उन्हेंने उन्हें भूख, गरीबी, अकाल, स्वास्थ्य, शिक्षा और समानता जैसे उपेक्षित मानवीय विषयों पर विचार करने के लिए प्रेरित किया. आम नागरिक की सत्ता और विवेक में भरोसा जताया. उन्होंने स्वयं भी इस क्षेत्र में काफी कार्य किया. अपनी पुस्तकों एवं आलेखों में उन्होंने इन विषयों पर मानव-कल्याण से जुड़ी ऐसी दुर्लभ शोध-सामग्री दी है जिसे उससे पहले अर्थशास्त्र से बाहर समझा जाता था.

यहाँ पर यह स्पष्ट कर देने की भी कोई हर्ज नहीं है कि प्राप्त आंकड़ों के विश्लेषण के लिए अमर्त्य सेन ने भी उन्हीं सांख्यिकीय उपादानों का सहारा लिया है जिन्हें उनके पूर्ववर्ती अर्थशास्त्री उपयोग करते रहे हैं, लेकिन निष्कर्षों तक पहुँचने की प्रक्रिया में उन्होंने मानवीय इच्छाओं, आकांक्षाओं और सपनों की उपेक्षा नहीं की, बल्कि इन मुद्दों को निरंतर अपने अध्ययन की केंद्रीय सामग्री बनाए रखा. अमर्त्य सेन के अर्थदर्शन की यही विशेषता उन्हें मानववादी अर्थशास्त्री की पहचान देती है. अर्थशास्त्रीय विश्लेषण में निरी-बौद्धिकता के स्थान पर संवेदनायुकत बौद्धिकता क्यों आवश्यक है, यह जानने के लिए हम एक उदाहरण की सहायता लेंगे.

एक कारखाने की कल्पना करते हैं, जिसमें ऊपर से नीचे तक कुल सौ कर्मचारी हैं. सबसे ऊपर के स्तर पर मालिक, प्रबंधक, निदेशक आदि आते हैं. जिनकी संख्या दस है. मान लें कि कारखाना इनमें से प्रत्येक पर वेतनादि के रूप में, पचास हजार रुपए खर्च करता है. कारखाने के मध्यस्तर के कर्मचारियों की संख्या बीस है. इस वर्ग में सुपरवाइजर, फोरमेन, मिस्त्री आदि शामिल हैं. मान लें कि कारखाना इनमें से हर एक पर पंद्रह हजार रुपये मासिक खर्च करता है. शेष सत्तर कर्मचारियों में छोटे तकनीशियन, मशीन, आ॓परेटर, सहायक आदि शामिल हैं, जिन्हें हर महीने तीन हजार रुपए औसत वेतन प्राप्त होता है. उल्लेखनीय है कि उदाहरण के रूप में हमने यहाँ जो वेतन मान लिए हैं, वे वास्तविकता के काफी निकट हैं. पूँजीवादी संरचना के अंतर्गत कारखानों की वेतन व्यवस्था आमतौर पर ऐसी ही होती है. यहाँ आंकड़ों की विश्वसनीयता भी असंदिग्ध है, क्योंकि कारखाना वेतन की मद में जो धनराशि खर्च करता है उसका रिकार्ड उपलब्ध है. अब यदि हम कारखाने की कुल वेतन-राशि की गणना करें, तो वह दस लाख दस हजार रुपए बैठती है. इस आधार पर कारखाने के एक कर्मचारी का औसत वेतन दस हजार सौ रुपये आता है. यह वेतनमान न तो उच्च-वर्ग पर तैनात अधिकारियों के वेतन को दर्शाता है, न यह निम्न स्तर के कर्मचारियों के वेतन का प्रतिनिधित्व करता है. वस्तुतः औसत वेतनमान कर्मिक-वर्ग के वेतन से साढ़े तीन गुना अधिक व मालिक-वर्ग के वेतन का लगभग पांचवा हिस्सा है. प्राप्त परिणाम मध्य-स्तर पर तैनात कर्मचारियों के संगत बैठाने की कोशिश करते हैं जिनकी संख्या मात्र बीस प्रतिशत है.

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