Sunday, July 31, 2011


भारत : अतीत एवं वर्तमान

विश्व के रंगमंच पर अनेक देश हैं। इतिहास की गहराइयों में जाकर हम झांकते हैं तो जो दृश्य हमारे नेत्रों के सामने उभरता है वह यह कि भारत सदियों से विश्व में मानव जाति के लिए प्रेरणा का केन्द्र रहा है। हमारे पूर्वजों ने ‘कृण्वन्तो विश्वम्आर्यम्‘ अर्थात्‌ सम्पूर्ण विश्व को श्रेष्ठ बनाएंगे और ‘वसुधैव कुटुम्बकम्‌‘ संपूर्ण वसुधा एक कुटुम्ब है तथा ‘स्वदेशो भुवनत्रयम्‌‘ तीनों लोक हमारे लिए स्वदेश हैं, की उदात्त भावना ले सम्पूर्ण विश्व में संचार किया तथा विश्व की सुख, समृद्धि हेतु कला, कौशल तथा दर्शन का अवदान दिया। इसी कारण भारत प्राचीन काल से जगद्गुरु कहलाता रहा, जिसकी झलक पाश्चात्य चिंतक मार्क ट्वेन के निम्न वक्तव्य में दिखाई देती है-

‘भारत उपासना पंथों की भूमि, मानव जाति का पालना, भाषा की जन्मभूमि, इतिहास की माता, पुराणों की दादी एवं परंपरा की परदादी है। मनुष्य के इतिहास में जो भी मूल्यवान एवं सृजनशील सामग्री है, उसका भंडार अकेले भारत में है। यह ऐसी भूमि है जिसके दर्शन के लिए सब लालायित रहते हैं और एक बार उसकी हल्की सी झलक मिल जाए तो दुनिया के अन्य सारे दृश्यों के बदले में भी वे उसे छोड़ने के लिए तैयार नहीं होंगे।‘

इतिहास में भारत मात्र धर्म, दर्शन, तत्वज्ञान एवं श्रेष्ठ जीवन मूल्यों में ही नहीं अपितु व्यापार, व्यवसाय, कला, कौशल में भी अग्रणी था। एक प्रसिद्ध स्विस लेखक बेजोरन लेण्डस्ट्राम, जिसने पुरातन मिस्रियों से लेकर अमरीका की खोज तक ३००० वर्ष की साहसी यात्राओं और महान खोजकर्ताओं की गाथा का अध्ययन किया, अपनी पुस्तक ‘भारत की खोज‘ में लिखता है, ‘मार्ग और साधन कई थे, परंतु उद्देश्य सदा एक ही रहा-प्रसिद्ध भारत भूमि पर पहुंचने का, जो देश सोना, चांदी, कीमती मणियों और रत्नों, मोहक खाद्यों, मसालों, कपड़ों से लबालब भरा पड़ा था।‘ (सोने की चिड़िया लुटेरे अंग्रेज-सुरेन्द्र नाथ गुप्त-पृष्ठ १०) बेजोरन लेण्डस्ट्राम से ही मिलते-जुलते अनुभव अनेक चिंतकों, शोधकों तथा हीगल, गैलवैनो, मार्क‌◌ोपोलो आदि के हैं। इसी कारण सदियों से भारत को सोने की चिड़िया भी कहा जाता रहा है।

हजारों वर्षों तक जो देश जगद्गुरू व सोने की चिड़िया रहा, उस पर पिछले १५०० वर्षों में हुए बर्बर आक्रमणों, कुछ अपने सामाजिक दोषों तथा मुसलमानों के मजहबी आक्रमणों, लूट और अंग्रेजों के १९० वर्षों के शासन में आर्थिक दृष्टि से देश का इतना शोषण हुआ कि सोने की चिड़िया कंगाल हो गई। यहां के कृषि, उद्योग, व्यापार को नष्ट किया गया। इस कारण आज जब हम देखते हैं कि दुनिया के देशों की पंक्ति में भारत का कौन सा स्थान है, तो हम पाते हैं कि उसका १२४ वां स्थान है। दुनिया में भारत को फिर से जगद्गुरू और सोने की चिड़िया बनाने की चुनौती आज की पीढ़ी के सामने हैं। स्वाधीनता संग्राम के अनेक सेनानियों तथा चिंतकों ने भव्य भारत का जो स्वप्न देखा, उसे साकार करने का आह्वान आज की पीढ़ी के सामने है।

ऊपर उल्लिखित स्वप्न को साकार करना है तो आवश्यकता है कि देश के कला, कौशल, व्यापार, वाणिज्य, कृषि आदि सभी क्षेत्रों में पुन:प्रगति हो। सैद्धांतिक दृष्टि से धर्म, दर्शन के क्षेत्रों में देश की श्रेष्ठता आज भी विश्व को मान्य है। पर जहां भौतिक समृद्धि का प्रश्न आता है या तत्वज्ञान के अनुकूल समाज जीवन में व्यवहार का प्रश्न आता है, तो उत्तर देना कठिन हो जाता है। अत:सर्वांगीण उन्नति की परिकल्पना एवं उसके उपायों पर विचार करने की आवश्यकता है।

हजारों वर्ष पूर्व महर्षि कणाद ने सर्वांगीण उन्नति की व्याख्या करते हुए कहा था ‘यतो भ्युदयनि:श्रेय स सिद्धि:स धर्म:‘ जिस माध्यम से अभ्युदय अर्थात्‌ भौतिक दृष्टि से तथा नि:श्रेयस याने आध्यात्मिक दृष्टि से सभी प्रकार की उन्नति प्राप्त होती है, उसे धर्म कहते हैं।

दुर्भाग्य से विगत अनेक वर्षों से हमारे देश में धर्म, दर्शन, तत्वज्ञान द्वारा आध्यात्मिक दृष्टि से उन्नति हेतु तो प्रयत्न चलते रहे, परंतु समग्र उन्नति की परिधि में भौतिक उन्नति के पक्ष की समाज जीवन में उपेक्षा हुई, जबकि भौतिक उन्नति सर्वांगीण विकास हेतु आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी मानी गई थी।

जब समाज में भौतिक दृष्टि से उन्नति का प्रश्न आता है और इसके माध्यम या साधनों पर हम विचार करते हैं तो ध्यान में आता है कि समय के प्रवाह में ये परिवर्तित होते रहे हैं। जैसे एक समय में हमारे देश में भौतिक समृद्धि का माध्यम था-कृषि, गोरक्षा, वाणिज्य अर्थात्‌ पारिवारिक और सामाजिक धरातल पर समृद्धि का आधार खेती और खेती के आधारभूत गौवंश तथा व्यापार थे। हजारों वर्षों तक ये ही समाज जीवन में समृद्धि के माध्यम रहे। सम्पूर्ण विश्व में भारत की कृषि व समृद्ध व्यवसाय की मान्यता थी। सम्पूर्ण विश्व में भारत का व्यवसाय फैला हुआ था। बहुत पुराने काल का वर्णन छोड़ भी दें तो अभी-अभी सन्‌ १७५० तक विश्व में उत्पादन के मामलों में भारत की क्या स्थिति थी, इसका हम विचार करें तो सेम्युअल हंटिंग्टन द्वारा लिखित पुस्तक ‘दी क्लैश आफ सिविलाइजेशन‘ में जो तुलनात्मक चार्ट दिया है, उससे यह स्पष्ट होता है कि १७५० में भारत का उत्पादन समूचे यूरोप और सोवियत संघ (इसकी परिधि में टूटने के पूर्व के सोवियत संघ तथा वारसा पेक्ट के सभी देश) से अधिक था। भारत का उत्पादन २४.५ प्रतिशत था, जबकि यूरोप का १८.२ प्रतिशत तथा सोवियत संघ का ५.० प्रतिशत था। (दी क्लैश आफ सिविलाइजेशन, सेम्युअल इंटिंग्टन, पृष्ठ, ८६) 

विज्ञान का महत्व
समय के साथ परिवर्तन आता है। एक समय कृषि और व्यापार समृद्धि के मानक थे, परंतु आज विज्ञान के विकास के साथ उत्पादन के साधनों में परिवर्तन आया है। आज विज्ञान और तकनीकी भौतिक समृद्धि के साधनों के आविष्कार, उत्पादन तथा वितरण हेतु माध्यम बने हैं। आज जिस देश में विज्ञान जितना विकसित होगा, जिसके पास जितनी प्रगत एवं अद्यतन तकनीकी होगी, वह देश दुनिया के रंगमंच पर उतनी ही तीव्र गति से आगे बढ़ पायेगा।

इस परिप्रेक्ष्य में हमारा देश पुन: समृद्धि के शिखर पर पहुंचे और विश्व को अपना कुछ अवदान दे सके, इस दृष्टि से देश में जहां एक ओर वैज्ञानिक एवं तकनीकी विकास को गति देने की आवश्यकता है, वहीं दूसरी ओर यह भी ध्यान रखना होगा कि यह विकास अपनी संस्कृति, प्रकृति और आवश्यकता के विपरीत भी न हो। ये दोनों उद्देश्य प्राप्त हों, इस दृष्टि से कुछ प्रश्नों पर हमें विचार करना पड़ेगा। 

१-विज्ञान और तकनीकी मात्र पश्चिम की देन है या भारत में भी इसकी कोई परंपरा थी?

२-भारत में किन-किन क्षेत्रों में वैज्ञानिक विकास हुआ था?

३-विज्ञान और तकनीकी के अंतिम उद्देश्य को लेकर क्या भारत में कोई विज्ञान दृष्टि थी? और यदि थी तो आज की विज्ञान दृष्टि से उसकी विशेषता क्या थी?

४-आज विश्व के सामने विज्ञान एवं तकनीक के विकास के साथ जो समस्याएं खड़ी हैं उनका समाधान क्या भारतीय विज्ञान दृष्टि में है? 

आज का यथार्थ
भारत में विज्ञान के इतिहास को जानने के लिए जब हम प्रथम प्रश्न ‘विज्ञान और तकनीकी मात्र पश्चिम की देन है या भारत में भी इसकी कोई परंपरा थी?‘ पर विचार करें तो जो आज का यथार्थ हमारे सामने आता है, उसे हम निम्नलिखित दो-तीन घटनाओं से समझ सकते हैं।

१-संस्कृत भारती नामक संगठन देश में संस्कृत के प्रचार-प्रसार और उसे जन भाषा बनाने की दृष्टि से विगत कुछ वर्षों से कार्य कर रहा है। इस संगठन ने संस्कृत मात्र धर्म-दर्शन ही नहीं अपितु विज्ञान तथा तकनीक की भी भाषा है, इसे लोगों को बताने की दृष्टि से गणित, भौतिक शास्त्र, रसायन शास्त्र, नक्षत्र विज्ञान आदि के जो संदर्भ प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में उपलब्ध हैं, उनका आधुनिक वैज्ञानिक खोजों से कैसा साम्य है, यह बताने वाले पांच भित्तिचित्र तैयार किये हैं। उसे प्रचारित-प्रसारित किया जाए, इस दृष्टि से भारत सरकार के विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय के प्रमुख अधिकारियों के साथ वार्तालाप हेतु फरवरी २००१ में संस्कृत भारती के राष्ट्रीय संगठन मंत्री च.मू.कृष्णशास्त्री अपने साथ पांचों भित्तिचित्र लेकर गये। वार्तालाप के समय वे भित्तिचित्र अधिकारियों के देखने के लिए उनके सामने रखे गये।

उनमें गणित से संबंधित भित्तिचित्र के प्रारंभ में ही उन अधिकारियों ने देखा कि शताब्दियों पूर्व आर्यभट्ट ने (पाई) का मान ३.१४१६ निकाला था तो आश्चर्य के साथ उन्होंने उद्गार व्यक्त किये, ‘अच्छा (पाई) का मान हमारे पूर्वजों ने इतने वर्ष पूर्व निकाल लिया था।' यह घटना इंगित करती है कि भारत वर्ष में विज्ञान के विकास की दिशा निर्धारित करने वाले व्यक्ति भारत वर्ष में विज्ञान की परंपरा की सामान्य जानकारी से भी अनभिज्ञ हैं।

क्यों आत्मविस्मृत हुए हम?

दूसरी थोड़ी पुरानी घटना है। पुरी के पूर्व शंकराचार्य भारती कृष्ण तीर्थ जी ने अपनी साधना द्वारा शुल्ब सूत्रों और वेद की पृष्ठभूमि से गणित के कुछ अद्भुत सूत्रों और उपसूत्रों का आविष्कार किया। इन १६ मुख्य सूत्रों और १३ उपसूत्रों के द्वारा सभी प्रकार की गणितीय गणनाएं, समस्याएं अत्यंत सरलता और शीघ्रता से हल की जा सकती हैं। इन सूत्रों के आधार पर उन्होंने एक पुस्तक लिखी ‘वैदिक मैथेमेटिक्स।‘ पुस्तक के महत्व को ध्यान में रखते हुए मुम्बई में टाटा द्वारा मूलभूत शोध हेतु स्थापित संस्थान (टाटा इंस्टीट्यूट फार फन्डामेंटल रिसर्च) में कुछ लोग गये और वहां के प्रमुख से आग्रह किया कि गणित के क्षेत्र में यह एक मौलिक योगदान है, इसका परीक्षण किया जाये तथा इसे पुस्तकालय में रखा जाये। तब इस संस्थान ने इसे यह कहकर स्वीकृति नहीं दी कि हमारा इस पर विश्वास नहीं है। जिस पुस्तक को नकार दिया गया वह देश में विचार का विषय आगे चलकर तब बनी जब एक विदेशी गणितज्ञ निकोलस ने इंग्लैंड से मुम्बई आकर कुछ गणितज्ञों के सामने इन अद्भुत सूत्रों के प्रयोग बताकर कहा कि यह तो ‘मैजिक‘ है। इसका प्रचार-प्रसार टाइम्स आफ इंडिया ने किया। यह घटना बताती है कि एक विदेशी इसका महत्व न बतलाता तो उसे मानने की हमारी मानसिकता नहीं थी।

३-एक तीसरी घटना-भूतपूर्व मानव संसाधन विकास तथा विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्री डा.मुरली मनोहर जोशी १९६२ में उत्तर प्रदेश की पाठ्यक्रम समिति के सदस्य बने। अपने अध्ययन के दौरान उनके ध्यान में आया कि गणित का विद्यार्थी जिस पायथागोरस थ्योरम के कारण भयभीत रहता है उस प्रमेय को पायथागोरस के पूर्व भारत वर्ष में बोधायन ने हल किया था। पायथागोरस की पद्धति जहां दीर्घ, क्लिष्ट व उबाऊ थी वहीं बोधायन की पद्धति अत्यंत संक्षिप्त व सरल थी। अत: उन्होंने पाठ्यक्रम समिति के सदस्यों को यह तथ्य बताया और आग्रह किया कि हमारे यहां इसे बोधायन प्रमेय कहा जाए तो इससे जहां एक ओर विद्यार्थियों को एक सरल पद्धति मिलेगी, वहीं दूसरी ओर हमारे देश का यह अवदान है, यह जानकर उनका आत्मविश्वास भी बढ़ेगा। लेकिन पाठ्यक्रम समिति के सदस्य तैयार नहीं हुए। लोगों को सहमत करने का वे प्रयत्न करते रहे। इसी कड़ी में एक और तथ्य उनके ध्यान में आया। एडवर्ड टेलर, जो विश्व के एक प्रमुख भौतिक शास्त्री रहे तथा हाइड्रोजन बम, परमाणु बम बनाने में जिनका योगदान रहा और जो नोबल पुरस्कार से सम्मानित हुए, ने एक पुस्तक लिखी है ‘सिम्पलिसिटी एंड साइंस‘। इस पुस्तक में उन्होंने कहा कि विज्ञान की पढ़ाई, दुरूह, जटिल व उबाऊ नहीं होनी चाहिए अपितु सरल, सुगम व आनंद देने वाली होनी चाहिए। इस दृष्टि से गणितीय समस्याएं कितनी सरलता से हल हो सकती हैं, उसके उदाहरण के रूप में उन्होंने बोधायन प्रमेय का उदाहरण दिया था। डा.जोशी ने जब एडवर्ड टेलर के प्रमाण को पाठ्यक्रम समिति को बताया, तब उन्होंने कहा अच्छा आपका इतना आग्रह है तो हम इसे ‘पायथागोरस बोधायन प्रमेय‘ कर देते हैं।

उपर्युक्त घटनाएं बताती हैं कि साधारणत: समाज में भारत में विज्ञान के विकास की कोई परंपरा थी, इस संबंध में विश्वास ही नहीं है। एक अन्य तथ्य भी अनुभव में आता है कि देश में प्राथमिक शाला से लेकर स्नातक, स्नातकोत्तर अथवा शोध छात्रों से कहीं भी चर्चा हो और उनसे प्रश्न किया जाए कि आपने प्रारंभ से अब तक जो अध्ययन किया है, उसमें आपके अध्ययन का विषय चाहे राजनीति शास्त्र रहा हो या अर्थशास्त्र या विज्ञान के विविध विषय-उन विषयों में भारत वर्ष के चिंतन अथवा अवदान के संदर्भ में कहीं कुछ पढ़ा है, तो साधारणत: उत्तर नकारात्मक मिलता है। इस प्रकार सामान्य विद्यार्थी से लेकर देश के प्रमुख व्यक्तियों तक में अपने देश की विज्ञान परंपरा और उसके जनक के संदर्भ में जानकारी का अभाव दिखाई देता है।

विस्मृति का कारण
भारत वर्ष की आने वाली पीढ़ी में अपनी परंपरा, संस्कृति और इतिहास के प्रति गौरव का भाव न रहे, इस हेतु १८३५ में लार्ड थॉमस बॉबिंग्टन मैकाले ने अंग्रेजी शिक्षा पद्धति लागू की। धीरे-धीरे संस्कृत पाठशालाएं समाप्त कर अंग्रेजी स्कूल अनिवार्य हुए। इन स्कूलों के लिए जो पाठ्यक्रम बना, जो पुस्तकें बनीं, उनमें किसी भी विषय में, विशेषकर विज्ञान के क्षेत्र में भारत का कोई अवदान है, इस प्रकार का संदर्भ नहीं आने दिया गया। परिणामस्वरूप कालांतर में इन विद्यालयों से पढ़कर निकले उपाधि-धारी भारत के अवदान की जानकारी से वंचित रहते थे।

अंग्रेजों का तो साम्राज्यवादी उद्देश्य था, अत: उन्होंने शिक्षा को यहां की जड़ों से काटने का प्रयत्न किया। परंतु देश आजाद होने के बाद कल्पना थी कि देश में आत्मविश्वास का भाव जगाने हेतु शिक्षा में भारत की परंपरागत देन को जोड़ा जायेगा, परंतु दुर्भाग्य से स्वतंत्रता के बाद भी वही पाठ्यक्रम जारी रहे जो विश्व में यूरोपीय देशों की देन को अभिव्यक्त करने वाले थे। परिणामस्वरूप पूर्वकाल में भारतवर्ष में विविध विषयों में हुए अध्ययन, प्रयोग और निष्कर्ष १७० वर्षों से चली आ रही इस शिक्षा का अंग नहीं बन पाये। भारतीयता से कटे इस पाठ्यक्रम को पढ़ते हुए समाज के मानस पर एक दुष्परिणाम हुआ। दुनिया में विकास की दृष्टि से जो कुछ भी देन है वह यूरोप की दी हुई है, इसमें हमारा भी कोई योगदान रहा है, कुछ हो सकता है, इस प्रकार के स्वाभिमान के स्थान पर अनुकरण की, दासता की मनोवृत्ति चारों ओर दिखाई देती है।

विस्मृति का परिणाम
समाज में अपने बारे में आत्मविश्वास के अभाव की स्थिति जानने के लिए वर्तमान राष्ट्रपति एवं प्रख्यात वैज्ञानिक डा.अब्दुल कलाम के दो अनुभव सहायक होंगे। डा.कलाम की आंखों में एक समर्थ एवं विकसित भारत का सपना है। इसे उन्होंने अपनी पुस्तक ‘इंडिया टू थाउसैण्ड ट्वेन्टी- ए विजन फार न्यू मिलेनियम‘ में व्यक्त किया है। प्रस्तुत पुस्तक में जहां एक ओर विकसित भारत के निर्माण के मार्ग का वर्णन है वहीं दूसरी ओर इसमें सबसे बड़ी बाधा कौन सी है, इसे भी उन्होंने अपने जीवन के दो अनुभवों से अभिव्यक्त किया है।

प्रथम अनुभव में वे लिखते हैं कि ‘मेरे कमरे की दीवार पर एक बहुरंगी कैलेंडर टंगा है। यह सुंदर कैलेंडर जर्मनी में छपा है तथा इसमें आकाशस्थ उपग्रहों द्वारा यूरोप और अफ्रीका के खींचे गये चित्र अंकित हैं। कोई भी व्यक्ति इन चित्रों को देखता है तो प्रभावित होता है। परंतु जब उसे यह बताया जाता है कि जो चित्र इसमें छपे हैं, वे भारतीय दूरसंवेदी उपग्रह ने खींचे हैं तो उसके चेहरे पर अविश्वास के भाव उभरते हैं और वे तब तक शांत नहीं होते जब तक उस कैलेंडर में नीचे उक्त कंपनी द्वारा भारतीय दूरसंवेदी उपग्रह द्वारा खींचे गये चित्रों की प्राप्ति का कृतज्ञता ज्ञापन वे नहीं पढ़ लेते।‘

दूसरे अनुभव में वे लिखते हैं ‘एक बार मैं एक रात्रिभोज में आमंत्रित था, जहां बाहर के अनेक वैज्ञानिक तथा भारत के कुछ प्रमुख लोग आमंत्रित थे। वहां चर्चा चलते-चलते राकेट की तकनीक के विषय पर चली गई। किसी ने कहा चीनी लोगों ने हजार वर्ष पूर्व बारूद की खोज की, बाद में तेरहवीं सदी में इस बारूद की सहायता से अग्नि तीरों का प्रयोग युद्धों में प्रारंभ हुआ। इस चर्चा में भाग लेते हुए मैंने अपना एक अनुभव बताया कि कुछ समय पूर्व मैं इंग्लैण्ड गया था, वहां लंदन के पास वुलीच नामक स्थान पर रोटुंडा नाम का संग्रहालय है। इस संग्रहालय में टीपू के श्रीरंगपट्टनम्‌ में अंग्रेजों के साथ हुए युद्ध में टीपू सुल्तान की सेना द्वारा प्रयुक्त राकेट देखे और यह विश्व में राकेट का युद्ध में सर्वप्रथम प्रयोग था। मेरे इतना कहते ही एक प्रमुख भारतीय ने तुरंत टिप्पणी की कि वह तकनीक फ्र्ेंच लोगों ने टीपू को दी थी। इस पर मैंने नम्रतापूर्वक उनको कहा आप जो कह रहे हैं वह ठीक नहीं है। मैं आपको प्रमाण बताऊंगा। कुछ समय बाद मैंने उन्हें प्रख्यात व्रिटिश वैज्ञानिक सर बर्नाड लॉवेल की पुस्तक ‘द ओरिजिन्स एन्ड इन्टरनल इकानामिक्स आफ स्पेश एक्सप्लोरेशन‘ बताई, जिसमें वे लिखते हैं कि विलियम कोनग्रेव्ह ने टीपू की सेना द्वारा प्रयुक्त रॉकेट का अध्ययन किया, उसमें कुछ सुधार कर सन्‌ १८०५ में तत्कालीन व्रिटिश प्रधानमंत्री विलियम पिट तथा युद्ध सचिव क्रेसर लीध के सामने प्रस्तुत किया। वे इसे देखकर प्रभावित हुए और उन्होंने इसे सेना में सम्मिलित करने की स्वीकृति दी तथा १८०६ में नेपोलियन के साथ वाउलांग हारबर के पास हुए युद्ध तथा १८०७ में कोपेनहेगन पर किये आक्रमण में उनका प्रयोग किया।

पुस्तक में रेखांकित अंश को बड़े ध्यानपूर्वक पढ़कर वह पुस्तक मेरे हाथ में देते हुए उन विशिष्ट भारतीय सज्जन ने कहा कि बड़ा रोचक मामला है। उन्हें यह रोचक बात लगी, परंतु किसी प्रकार का गौरव का भाव इस भारतीय खोज के प्रति नहीं जगा। दुर्भाग्य से भारत में हम अपने श्रेष्ठतम सृजनात्मक पुरूषों को भूल चुके हैं। व्रिटिश लोग कोनग्रेव्ह के बारे में सारी जानकारी रखते हैं, पर हम कुछ नहीं जानते उन महान इंजीनियरों के बारे में, जिन्होंने टीपू की सेना के लिए रॉकेट बनाया। इसका कारण यह है कि विदेशियत का प्रभाव और अपने बारे में हीनता बोध की मानसिक ग्रंथि से देश के बुद्धिमान लोग ग्रस्त हैं और यह मानसिकता देश के लिए सबसे बड़ी बाधा है।



स्थापत्य शास्त्र-२ : अजंता, एलोरा, कोणार्क, खजुराहो - ये हैं भारतीय शिल्प की चमत्कारिक धरोहर


लेखक - सुरेश सोनी
२५००-३००० ई.पू. से लेकर १७वीं शताब्दी तक के देश के विविध हिस्सों में जल प्रदाय की व्यवस्था के आश्चर्यजनक नमूने मिलते हैं जिसमें बड़े तालाब, नहरें तथा अन्य स्थान से पानी का मार्ग परिवर्तित कर पानी लाने के अनेक उदाहरण प्राप्त होते हैं।

कौटिल्य आज से २५०० वर्ष पूर्व अपने अर्थशास्त्र में कहते हैं कि राजा जिस पवित्र भाव से मन्दिर का निर्माण करता है उसी भाव से उसे जल रोकने का प्रयत्न करना चाहिए। आज पानी को लेकर चारों ओर हाहाकार है। लोग कहते हैं कि कहीं तीसरा विश्वयुद्ध पानी को लेकर न हो जाए। ऐसे समय में चाणक्य की बात ध्यान देने योग्य है। चाणक्य राजा को पवित्र भाव से जल रोकने का प्रयास करने की सलाह देकर ही नहीं रुके, अपितु आगे वे कहते हैं कि जनता को भी जल संरक्षण के लिए प्रेरित करना चाहिए। उस हेतु आर्थिक सहयोग देना चाहिए, आवश्यकता पड़ने पर वस्तु का सहयोग करना चाहिए, इतना ही नहीं तो व्यक्ति का भी सहयोग करना चाहिए।

कौटिल्य जल रोकने हेतु बांध बनाने का भी उल्लेख करते हैं तथा इसका भी वर्णन करते हैं कि बांध वहां नहीं बनाना चाहिए जहां दो राज्यों की सीमाएं मिलती हैं, क्योंकि ऐसा होने पर वह झगड़े की जड़ बनेगा। आज कावेरी तथा नर्मदा नदी के विवादों को देखकर लगता है वे बहुत दूरद्रष्टा थे।

दक्षिण में पेरुमामिल जलाशय अनंतराजा सागर ने बनवाया था। यह भारत में सिंचाई, शिल्प और प्रौद्योगिकी की कहानी कहता है। समीप के मंदिर की ओर दो पत्थर-शिलाओं पर बने शिलालेख (सन्‌ १३६९) से पता लगता है कि जलागार के निर्माण में दो वर्ष लगे। एक हजार श्रमिक लगाए गए और एक सौ गाड़ियां पत्थर निर्माण स्थल तक पहुंचाने में प्रयुक्त हुएं। शिलालेख में इस जलागार (जलाशय) के निर्माण स्थल के चयन और निर्माण के संबंध में बारह विशेष बातों का उल्लेख हैं, जो एक अच्छे तालाब के निर्माण के लिए आवश्यक हैं।

(१) शासक में कुछ भलाई, समृद्धि, खुशहाली के माध्यम से यश पाने की अभिलाषा हो। (२) पायस शास्त्र यानी जल विज्ञान में निपुणता हो। (३) जलाशय का आधार सख्त मिट्टी पर आधारित हो। (४) नदी जल का भण्डार करीब ३८ किलोमीटर से ला रही हो। (५) बांध के दो तरफ किसी पहाड़ी के ऊंचे शिखर हों। (६) इन दो पहाड़ी टीलों के बीच बांध ठोस पत्थर का बने। भले ही लंबा न हो, लेकिन सख्त हो। (७) ये पहाड़ियां ऐसी जमीन से भिन्न हों जो उद्यानिकी के अनुकूल और उर्वर होती हैं। (८) जलाशय का वेड (तल) लंबा, चौड़ा और गहरा हो। (९) सीधे, लम्बे पत्थरों वाली जमीन हो। (१०) समीप में निचली, उर्वर जमीन सिंचाई के लिए उपलब्ध हो। (१२) जलाशय बनाने में कुशल शिल्पी लगाए जाएं।

छह वर्जनाएं भी शिलालेख में उत्कीर्ण हैं, इन्हें हर हाल में टाला जाना चाहिए-

(१) बांध से रिसाव। (२) क्षारीय भूमि। (३) दो अलग शासित क्षेत्रों की सीमा में जलाशय का निर्माण। (४) जलाशय बांध के बीच में ऊंचाई वाला क्षेत्र। (५) कम जलापूर्ति आगम और सिंचाई के लिए अधिक फैला क्षेत्र। (६) सिंचाई के लिए अपर्याप्त भूमि और अधिक जलागम।

इसके अतिरिक्त ग्यारहवीं शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी में जल संरक्षण की संरचना के लिए जलाशयों के निर्माण को रोचक इतिहास देश में दर्ज है।

(१) अरिकेशरी मंगलम्‌ जलाशय (१०१०-११) के साथ मन्दिर की संरचना। (२) गंगा हकोदा चोपुरम्‌ जलाशय (१०१२-१०१४) के बांध, स्तूप और नहरों का विस्तार १६ मील लम्बा है। (३) भोजपुर झील (११वीं सदी) भोपाल से लगी हुई २४० वर्गमील में फैली है। इसका निर्माण राजा भोज ने किया था। इस झील में ३६५ जल धाराएं मिलती हैं। (४) अलमंदा जलाशय (ग्यारहवीं) विशाखापट्टनम्‌ में है। (५) राजत टाका तालाब (ग्यारहवीं शताब्दी) (६) भावदेव भट्ट जलाशय बंगाल में (७) सिंधुघाटी जलाशय (११०६-०७) मैसूर में स्लूस तक निर्माण किया गया है। (८) पेरिया क्याक्कल स्लूस (१२१९) त्रिचलापल्ली जिले में। (९) पखाला झील (१३वीं शताब्दी)। वारंगल जिले में हल संरचना का उदाहरण है। (१०) फिरंगीपुरम्‌ जलाशय (१४०९) गुंटूर जिले में शिल्प की विशिष्टता है। (११) हरिद्रा जलाशय (१४१०) व्राह्मणों ने अपने खर्चे से निर्मित कराया था। तब विजयनगर में राजा देवराज सत्तासीन थे। (१२) अनंतपुर जिले में नरसिंह वोधी जलाशय (१४८९) का उल्लेख भी आवश्यक है। (१३) १५२० में नागलपुर जलाशय-राजा कृष्णराज ने नागलपुर की पेयजल पूर्ति के लिए बनवाया था। कृष्णराज को भूजल सुरंग बनाने का पहला गौरव प्राप्त हुआ। विजयपुर, महमदनगर, औरंगाबाद, कोरागजा, वासगन्ना चैनलों का निर्माण इसी श्रृंखला की कड़ी है। (१४) शिवसमुद्र (१५३१-३२) आज भी बंगलुरू की जलपूर्ति का स्रोत है। (१५) तुगलकाबाद में बांध के जनक अनंगपाल (११५१) थे (१६) सतपुला बांध दिल्ली (१३२६) में ३८ फुट ऊंची महराबें है। (१६) जमुना की पुरानी नहर, जिसे फिरोजशाह तुगलक नहर (१३वीं शताब्दी) कहा गया, रावी पर बनी है।

कलात्मक स्थापत्य के अमर उदाहरण-
प्राचीन मंदिर

प्राचीनकाल में शिल्पियों के समूह होते थे, जो एक कुल की तरह रहते थे और कोई राजकुल या धनिक व्यक्ति भक्ति भावना से भव्य मन्दिर निर्माण कराना चाहता तो ये वहां जाकर वर्षों अंत:करण की भक्ति से, पूजा के भाव से, व्यवसायी बुद्धि से रहित होकर, मूर्ति उकेरने की साधना में संलग्न रहते थे। उनकी मूक साधना प्रस्तर में प्राण फूंकती थी। इसी कारण आज भी प्राचीन मंदिरों की मूर्तिकला मानो जीवंत हो अपनी कहानी कहती है। कोणार्क के सूर्य मन्दिर का निर्माण लगातार १२ वर्ष तक अनेक शिल्पियों की साधना का परिणाम है।

इस श्रेष्ठ भारतीय कला के अनेक नमूने देश के विभिन्न स्थानों पर दिखाई देते हैं।

एलोरा के मन्दिर जिनमें व्राह्मण मंदिर कैलास सबसे विशाल और सुन्दर है, इसके सभी भाग निर्दोष और कलापूर्ण हैं। इसकी लंबाई १४२ फुट, चौड़ाई ६२ फुट तथा ऊंचाई १०० फुट है। इस पर पौराणिक दृश्य उत्कीर्ण हैं।

एलीफेंटा की गुफा में शिव-पार्वती के विवाद वाले दृश्यों में मानो शिल्पी की सारी साधना मुखर हुई है।

उड़ीसा का लिंगराज मंदिर कला का श्रेष्ठतम नमूना है। यह मन्दिर ५२०न्४६५ वर्गफुट में स्थित है, मंदिर की ऊंचाई १४४.०५ फुट है तथा ७.५ फुट भारी दीवार से घिरा है। इसके चार प्रमुख भाग हैं:- विमान-जगमोहन-नट मन्दिर-भाग मंडप। मंदिर में अनेक देवताओं की सुंदर उकेरी गई मूर्तियों के साथ-साथ रामायण और महाभारत के अनेक प्रसंगों को उकेरा गया है।

खजुराहो के मन्दिर-यह नवीं शताब्दी के मंदिर हैं। पहले ८५ मंदिर थे, अब लगभग २० ही शेष रह गए हैं। खजुराहो के मन्दिर शिल्पकला के महान्‌ प्रतीक हैं। बाह्य दीवारों पर भोग मुद्रायें हैं। गर्भगृह में शिवलिंग स्थापित है।

इसके अतिरिक्त गुजरात में गिरनार के मन्दिर प्रसिद्ध हैं। दक्षिण भारत में श्रीरंगपट्टन का मंदिर सबसे बड़ा और स्थापत्य का उत्कृष्ट नमूना है। यहां पर एक सहस्र स्तंभों वाला (१६न्७०) मण्डप है, जिसका कमरा ४५०न्१३० फुट है। यहां गोकुल जैसा बड़ा और कलात्मक गोपुर और कहीं-कहीं कुण्डलाकार बेलें, पुष्पाकृतियों आदि अनोखी छटा उत्पन्न करते हैं।

११वीं शताब्दी का रामेश्वरम्‌ मंदिर चार धामों में से एक धाम है। मदुरई का मीनाक्षी मन्दिर कला का अप्रतिम नमूना है। इसकी लम्बाई ८४७ फुट, चौड़ाई ७९५ फुट ऊंचाई १६० फुट है। इसके परकोटे में ११ गोपुर हैं। एक सहस्र स्तंभों वाला मंडप यहां भी है और इसकी विशेषता है कि प्रत्येक स्तंभ की कारीगीरी, मूर्तियां व मुद्राएं भिन्न-भिन्न है। दक्षिण भारत में कला का यह सर्वश्रेष्ठ नमूना है।

इस प्रकार पूरे भारत में सहस्रों मंदिर, महल, प्रासाद प्राचीन शिल्पज्ञान की गाथा कह रहे हैं।

शिल्प के कुछ अद्भुत नमूने- (१) अजंता की गुफा में एक बुद्ध प्रतिमा है। इस प्रतिमा को यदि अपने बायीं ओर से देखें तो भगवान बुद्ध गंभीर मुद्रा में दृष्टिगोचर होते हैं, सामने से देखें तो गहरे ध्यान में लीन शांत दिखाई देते हैं और दायीं ओर देखें तो उनके मुखमंडल पर हास्य अभिव्यक्त होता है। एक ही मूर्ति के भाव कोण बदलने के साथ बदल जाते हैं।

(२) दक्षिण में विजयनगर साम्राज्य में बना विट्ठल मंदिर शिल्पकला का अप्रतिम नमूना है। इसका संगीत खण्ड यह बताता है कि पत्थर, उनके प्रकार, विशेषता और किस पत्थर को कैसे तराशने से और किस कोण पर स्थापित करने पर उसमें से विशेष ध्वनि निकलेगी। इस खण्ड के विभिन्न स्तंभों से संपूर्ण संगीत व वाद्यों का अनुभव होता है। इसमें प्रवेश करते ही सर्वप्रथम सात स्तंभ हैं। इसमें प्रथम स्तंभ पर कान लगाएं और उस पर आघात दें। तो स की ध्वनि निकलती है और सात स्वरों के क्रम से आगे के स्तम्भों में से रे,ग,म,प,ध,नी की ध्वनि निकलती है। आगे अलग-अलग स्तंभों से अलग-अलग वाद्यों की ध्वनि निकलती है। किसी स्तम्भ से तबले की, किसी स्तंभ से बांसुरी की, किसी से वीणा की। जिन्होंने यह बनाया, उन्होंने पत्थरों में से संगीत प्रकट कर दिया। आज भी उन अनाम शिल्पियों की ये अमर कृतियां भारतीय शिल्प शास्त्र की गौरव गाथा कहती हैं।

चित्रकला
महाराष्ट्र में औरंगाबाद के पास स्थित अजंता की प्रसिद्ध गुफाओं के चित्रों की चमक हजार से अधिक वर्ष बीतने के बाद भी आधुनिक समय से विद्वानों के लिए आश्चर्य का विषय है। भगवान बुद्ध से संबंधित घटनाओं को इन चित्रों में अभिव्यक्त किया गया है। चावल के मांड, गोंद और अन्य कुछ पत्तियों तथा वस्तुओं का सम्मिश्रमण कर आविष्कृत किए गए रंगों से ये चित्र बनाए गए। लगभग हजार साल तक भूमि में दबे रहे और १८१९ में पुन: उत्खनन कर इन्हें प्रकाश में लाया गया। हजार वर्ष बीतने पर भी इनका रंग हल्का नहीं हुआ, खराब नहीं हुआ, चमक यथावत बनी रही। कहीं कुछ सुधारने या आधुनिक रंग लगाने का प्रयत्न हुआ तो वह असफल ही हुआ। रंगों और रेखाओं की यह तकनीक आज भी गौरवशाली अतीत का याद दिलाती है।

व्रिटिश संशोधक मि। ग्रिफिथ कहते हैं ‘अजंता में जिन चितेरों ने चित्रकारी की है, वे सृजन के शिखर पुरुथ थे। अजंता में दीवारों पर जो लंबरूप (खड़ी) लाइनें कूची से सहज ही खींची गयी हैं वे अचंभित करती हैं। वास्तव में यह आश्चर्यजनक कृतित्व है। परन्तु जब छत की सतह पर संवारी क्षितिज के समानान्तर लकीरें, उनमें संगत घुमाव, मेहराब की शक्ल में एकरूपता के दर्शन होते हैं और इसके सृजन की हजारों जटिलताओं पर ध्यान जाता है, तब लगता है वास्तव में यह विस्मयकारी आश्चर्य और कोई चमत्कार है।


स्थापत्य शास्त्र-१ : नगर रचना के श्रेष्ठतम उदाहरण

लेखक - सुरेश सोनी
हमारे यहां स्थापत्य शास्त्र की परिधि काफी व्यापक रही है। इसमें नगर रचना, भवन, मन्दिर, मूर्तियां, चित्रकला- सब कुछ आता था। नगरों में सड़कें, जल-प्रदाय व्यवस्था, सार्वजनिक सुविधा हेतु स्नानघर, नालियां, भवन के आकार-प्रकार, उनकी दिशा, माप, भूमि के प्रकार, निर्माण में काम आने वाली वस्तुओं की प्रकृति आदि का विचार किया गया था और यह सब प्रकृति से सुसंगत हो, यह भी देखा जाता था। जल प्रदाय व्यवस्था में बांध, कुआं, बावड़ी, नहरें, नदी आदि का भी विचार होता था।

किसी भी प्रकार के निर्माण हेतु शिल्प शास्त्रों में विस्तार से विचार किया गया है। हजारों वर्ष पूर्व वे कितनी बारीकी से विचार करते थे, इसका भी ज्ञान होता है। शिल्प कार्य के लिए मिट्टी, एंटें, चूना, पत्थर, लकड़ी, धातु तथा रत्नों का उपयोग किया जाता था। इनका प्रयोग करते समय कहा जाता था कि इनमें से प्रत्येक वस्तु का ठीक से परीक्षण कर उनका निर्माण में आवश्यकतानुसार प्रयोग करना चाहिए। परीक्षण हेतु वह माप कितने वैज्ञानिक थे, इसकी कल्पना हमें निम्न उद्धरण से आ सकती है-

महर्षि भृगु कहते हैं कि निर्माण उपयोगी प्रत्येक वस्तु का परीक्षण निम्न मापदंडों पर करना चाहिए।

वर्णलिंगवयोवस्था: परोक्ष्यं च बलाबलं।
यथायोग्यं, यथाशक्ति: संस्कारान्कारयेत्‌ सुधी:॥
(भृगु संहिता)

अर्थात्‌ वस्तु का वर्ण (रंग), लिंग (गुण, चिन्ह), आयु (रोपण काल से आज तक) अवस्था (काल खंड के परिणाम) तथा इन सबके कारण वस्तु की ताकत देखकर उस पर जो खिंचाव पड़ेगा, उसे देख-परखकर यथोचित रूप में सभी संस्कारों को करना चाहिए।

इनमें वर्ण का अर्थ रंग है। पर शिल्प शास्त्र में इसका उपयोग प्रकाश को परावृत करता है। अत: इसे उत्तम वर्ण कहा गया।

निर्माण के संदर्भ में अनेक प्राचीन ऋषियों के शास्त्र मिलते हैं, जैसे-

(१) विश्वकर्मा वास्तुशास्त्र-इसमें विश्वकर्मा निर्माण के संदर्भ में प्रथम बात बताते हैं- ‘पूर्व भूमिं परिक्ष्येत पश्चात्‌ वास्तु प्रकल्पयेत्‌‘ अर्थात्‌ पहले भूमि परीक्षण कर फिर वहां निर्माण करना चाहिए। इस शास्त्र में विश्वकर्मा आगे कहते हैं उस भूमि में निर्माण नहीं करना चाहिए जो बहुत पहाड़ी हो, जहां भूमि में बड़ी-बड़ी दरारें हों आदि।

(२) काश्यप शिल्प-इसमें कश्यप ऋषि कहते हैं नींव तब तक खोदनी चाहिए जब तक जल न दिखे, क्योंकि इसके बाद चट्टानें आती हैं।

(३) भृगु संहिता-इसमें भृगु कहते हैं कि जमीन खरीदने के पहले भूमि का पांच प्रकार अर्थात्‌ रूप, रंग, रस, गन्ध और स्पर्श से परीक्षण करना चाहिए। वे इसकी विधि भी बताते हैं।

इसके अतिरिक्त भवन निर्माण में आधार के हिसाब से दीवारें, उनकी मोटाई, उसकी आन्तरिक व्यवस्था आदि का भी विस्तार से वर्णन मिलता है। इस ज्ञान के आधार पर हुए निर्माणों के अवशेष सदियां बीतने के बाद भी अपनी कहानी कहते हैं, जिसके कुछ निम्नानुसार हैं-

मोहनजोदड़ो (सिंध)-पुरातात्विक उत्खनन में प्राप्त ईसा से ३००० वर्ष पूर्व के नगर मोहनजोदड़ो की रचना देखकर आश्चर्य होता है। अत्यंत सुव्यवस्थित ढंग से बसा हुआ है यह नगर मानो उसके भवन तथा सड़कें - सब रेखागणितीय माप के साथ बनाए गए थे। इस नगर में मिली सड़कें एकदम सीधी थीं तथा पूर्व से पश्चिम व उत्तर से दक्षिण बनी हुई थीं। दूसरी आश्चर्य की बात यह कि ये एक-दूसरे से ९० अंश के कोण पर थीं।

भवन निर्माण अनुपात में था। एंटों के जोड़, दीवारों की ऊंचाइयां बराबर थीं। भोजनालय, स्नानघर रहने के कमरे आदि की उचित व्यवस्था थी। नगर में रिहायशी भवन, बगीचे, सार्वजनिक भवन के साथ ही बहुत बड़ा सार्वजनिक स्नानागार भी मिला था, जो ११.८२ मीटर लम्बा, ७.०१ मी. चौड़ा तथा २.४४ मीटर ऊंचा है, जिसमें पानी हेतु दो धाराएं थीं। दूसरी बात, दीवारों में एंटों पर ऐसा पदार्थ लगा था जिस पर पानी का असर न हो। इस नगर को देखकर ध्यान में आता है कि नगर को बसाने वाले निर्माण शास्त्र में बहुत पारंगत थे।

(२) द्वारका- इसी प्रकार डा. एस.आर.राव ने पुरातात्विक उत्खनन में द्वारका को खोजा और वहां जो पुरावशेष मिले वे बताते हैं कि द्वारका नगर भी सुव्यवस्थित बसा था। नगर के चारों ओर दीवार थी। भवन निर्माण जिन पत्थरों से होता था उनका समुद्री पानी में क्षरण नहीं होता था। दो मंजिले भवन, सड़कें तथा पानी की व्यवस्था वहां दृष्टिगोचर होती है। इस खुदाई में तांबा, पीतल व कुछ मिश्र धातुएं प्राप्त हुई हैं जिनमें जस्ता ३४ प्रतिशत तक मिश्रित है। निर्माण में आने वाले स्तंभ, खिड़कियों के पट आदि का माप व आकार पूर्ण गणितीय ढंग से था।

(३) लोथल बंदरगाह (सौराष्ट्र)-ईसा से २५०० वर्ष पूर्व लोथल का बंदरगाह बनाया गया, जहां छोटी नावें ही नहीं अपितु बड़े-बड़े जहाज भी रुका करते थे। यहां बंदरगाह होने के कारण एक बड़ा शहर भी बसा था। इसकी रचना लगभग मोहनजोदड़ो, हड़प्पा जैसी ही थी। सड़कें, भवन, बगीचे, सार्वजनिक उपयोग के भवन आदि थे। दूसरे, यहां श्मशान शहरी बस्ती से दूर बनाया गया था।

लोथल बंदरगाह ३०० मीटर उत्तर-दक्षिण तथा ४०० मीटर पूर्व-पश्चिम था और बाढ़, तूफान रोकने हेतु १३ मीटर की दीवार एंट, मिट्टी आदि की बनी थी। यह बंदरगाह बाद के काल बने में फोनेशियन और रोमन बंदरगाहों से बहुत विकसित था।

(४) वाराणसी-क्लॉड वेटली ने भारतीय शिल्प के बारे में लिखा है कि भारत की महान शिल्प विरासत की उपेक्षा की गयी है। बहुत सारी आधुनिक इमारतें भव्यता के बाद भी भारत को आबोहवा, मानसूनी हवाओं, जलवृष्टि और लंबरूप सूर्य के प्रकाश के कारण प्रतिकूल हैं।

भारत के परम्परागत वास्तु शिल्प की आवश्यक बातें पत्थर की कुर्सी, मोटी दीवारें, खिड़कियों का फर्स की ओर झुकाव, जिससे हवा का आगम-निर्गम (सरकुलेशन) उन्मुक्त रहे, भीतरी आंगन, तलघर, टेरेसनुमा छप्पर का निर्माण प्रचलित रहे हैं। भारतीय वास्तु शिल्प में इन बातों का ध्यान समुदाय की सुविधाओं और वृद्धिशील स्वास्थ्य के मद्देनजर रखा गया। वाराणसी विश्व का पहला नियोजित नगर माना गया है। प्राचीन भारत में जलशक्ति अभियांत्रिकी के विद्वान प्रो. भीमचन्द्र चटर्जी भारत के जल अभियांत्रिकी विज्ञान के बारे में लिखते हैं कि अयोध्या की राज्य परम्परा की चार पीढ़ियां अनवरत हिमालय से गंगा को लाने के लिए समर्पित रहीं और महान भगीरथ गंगा अवतरण में सफल हुए। गंगा का प्रवाह बंगाल की खाड़ी की ओर प्रवर्तित किया गया। वाराणसी के सामने गंगा को घुमाव दिया गया। यहां यह उत्तरामुखी होती है और इसकी दो शाखाएं होती हैं- वरुणा और असी। इनका जल पोषण गंगा ने किया। ऐसे घनत्व के स्थान जहां बाढ़ में जलागम बढ़ने पर अति जलागार को दूर प्रवाहित किया जा सके। बाढ़ रोकने का ऐसा अप्रतिम उदाहरण दूसरा नहीं।

(५) नगर नियोजन की नौ आवश्यक बातें (नवागम नगरम्‌ प्राहु:)

१. जलापूर्ति- पेयजल, जल-मल की शुद्धि।

२. मंडप-यात्रियों के लिए विश्रामालय, धर्मशालाएं, अतिथि गृह।

३. हाट-उपभोक्ता सामग्री क्रय-विक्रय स्थल।

४. दांडिक और पुलिस- अपराध अनुसंधान, दंड विधान की व्यवस्था, न्याय व्यवस्था, अराजक तत्वों से सुरक्षा।

५. बगीचा उद्यान- बाग-बगीचा, आमोद-प्रमोद और शिक्षा संस्थाओं के लिए।

६. आबादी- आवासीय व्यवस्था, कार्यशालाएं, कल कारखाने।

७. श्मशान- अन्तेष्टि स्थल और अस्थि विसर्जन की व्यवस्था।

८. स्वास्थ्य- अस्पताल, स्वास्थ्य निदान केन्द्र।

९. मन्दिर- देवी-देवता स्थल, सभी मतावलंबियों की सुविधा, समागम स्थल, सार्वजनिक समारोह।

(६) प्राचीन भारत में नगर नियोजन का दुर्लभ उदाहरण- कांजीवरम्‌ नगर नियोजन का अनुपम उदाहरण है। विश्व के नगर नियोजन विज्ञानी कांजीवरम्‌ का नियोजन देखकर दांतों तले अंगुली दबा लेते हैं। प्राचीन भारत में दक्षिण के नगर नियोजन के विशिष्ट वैभव के विषय में सी.पी.वेंकटराम अय्यर ने १९१६ में लिखा है कि प्राचीन नगर कांजीवरम्‌ परम्परागत श्रेष्ठ नगर नियोजन का एक दुर्लभ नमूना है। प्रोफेसर गेडेड ने इसे नगर नियोजन के भारत के चिन्तन और नागरिक सोच का उत्कर्ष कहा है और उसकी भूरि-भूरि सराहना की है। यहां अनुकूल आराम, कामकाजी दक्षता के अनुरूप नगर नियोजन ने प्रो.गेडेड की अत्यंत प्रभावित किया है। यह प्राचीन भारत में नगर नियोजन का ठोस सबूत है। प्रोफेसर गेडेड के विचार से नगर की योजना की यह उत्कृष्ट सोच है। नागरिक सोच की जितनी उत्कृष्ट कल्पना हो सकती है, शिल्पियों ने यहां उसे मूर्त रूप दिया है। उन्होंने मौलिक रूप से मन्दिरों के नगर को बहुत ही विलक्षण कल्पना से संवारा है। नगर को मंदिरों से मात्र आकार ही नहीं दिया गया है अपितु अनेक दृष्टियों से यह छोटी-छोटी बातों में समृद्ध है, जो आनंदित करता है। यहां समुदायों का अलग-अलग सपना साकार होता है। मानव की कल्पना तथा व्यवहार की गरिमा मूर्तरूप होती है। साथ ही व्यक्तिगत कलाकार को अपनी सुरुचिपूर्ण स्वायत्तता सुलभ है। अन्यत्र कहीं भी, यहां तक कि दुनिया के समृद्धतम नगरों में भी यह दुर्लभ है।

सेंट एम्ड्रयूज से ईडन, लिंकन से न्यूयार्क, आक्सफोर्ड से सेल्सबरी, एक्सेला चोपेले से कोलोग और फ्र्ीबर्ग रोबर से नाइम्स तक इसके विपरीत परिस्थितियां दृष्टिगोचर होती हैं। वहां नगर नियोजन के मामले में सम्यक्‌ बोध का अभाव और गिरावट है। झुग्गी-झोपड़ियों की बसावट है। इस सब विकृति से भारतीय नगर नियोजन कल्पना का मुक्त होना भारत के वास्तुवैभव, शिल्प की श्रेष्ठता और नगर नियोजन की समृद्धि का प्रमाण है।


No comments:

Post a Comment