Sunday, July 24, 2011

'विचारप्रधान लोक-कथाएं(भाग-तीन)'


हमारे देश भारत में लोक-कथाएं लिखने का आरंभिक प्रयास आंध्र के विद्वान गुणाढ्य ने ईसवी की प्रथम शती में किया था। उन का लिखा ग्रन्थ ‘बृहत्कथा’ तो मूल रूप से अब उपलब्ध नहीं है, लेकिन संस्कृत में रचित बृहतकथा मंजरी तथा ‘कथा सरित्सागर’ में उस के प्रमाण प्राप्य हैं। कहानी कहने की परंपरा हमारे यहाँ अनन्त काल से चली आ रही है। दु:खी मानव इन कथाओं को सुनकर अपने संताप भूलता आया है। लोक कथाएँ सदियों से मानव-मात्र के मनोरंजन का साधन बन रही हैं। इन कथाओं से मनुष्य ने अपनी-अपनी कल्पनाओं के सहारे सुन्दर चित्र संजोये हैं। ये कथाएँ ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना पैदा करती रही हैं। इन कथाओं की शैली अत्यंत ही आकर्षक और मोहक रही है।
हमारे देश भारत में प्राचीन काल से यह भावना रही है कि कहानियों या कथाओं को केवल मनोरंजन का साधन मात्र न समझा जाए। सतत् यह प्रयत्न रहा है कि मनोविनोद के साथ-साथ कथाएँ चरित्र-सुधार, नैतिक विकास और परामर्श की भावना भी पैदा करने में सफल रहें, ये कथाएं केवल मनोरंजन करने तक ही सीमित नहीं रहती हैं अपितु जन मानस में आत्म-विश्वास की भावना जागृत करती हैं, उनमें शक्ति प्रदान करती हैं और जीवन में संघर्ष, और आपदाओं में स्थिर रहने की शक्ति को भी जन्म देती हैं ।
यही कारण है कि विश्व के सभी भागों में लोक-कथाएं अनन्तकाल से कही-सुनी जाती रही हैं और आज भी उनका महत्त्व कम नहीं हुआ है। लोक-कथा ही एक सरल साधन है जिससे किसी भी देश के लोक-जीवन और संस्कृति का सुगमता से अनुमान किया जा सकता है। लोक-कथाओं में वहां के आचार-विचार की झलक तो मिलती ही है, समाज का चित्र भी नज़र आता है, साथ ही वहां के रीति-रिवाजों और धार्मिक विश्वासों का भी बोध होता है। लोक-कथाओं में जनता की युग-युग की अनुभूतियों का निचोड़ संचित रहता है, एतएव किसी भी राष्ट्र के सांस्कृतिक नवोत्थान में उनका बड़ा भारी महत्त्व है ।

                                                       "सबसे अधिक दयावान"
किसी ऊँचे पर्वत की चोटी पर एक गरीब दम्पत्ति रहते थे। रोटी कमाने के लिए वे आलू, टमाटर आदि की खेती किया करते थे। पहाड़ी से उतरकर निचले मैदानों में उन्होंने अपनी खेती बना रखी थी। दोनों पति-पत्नी बड़े ही परिश्रमी थे।
धीरे-धीरे उनकी उमर ढलती जा रही थी और शक्ति कम होती जा रही थी। संतान के लिए उन दोनों की बड़ी इच्छा थी। एक दिन दोनों आपस में बातें कर रहे थे।
‘‘कितना अच्छा होता अगर हमारे भी एक बच्चा होता। जब हम बूढ़े हो जायेंगे तो वह हमारे खेतों की रखवाली किया करता और ज़मींदार के पास जाकर हमारा लगान चुका आया करता। बुढ़ापे में वह हमें हर तरह से आराम देता। हम भी अपनी झुकी हुई कमर को कुछ देर आंगन में चूल्हे के पास आराम से बैठकर सीधी कर लिया करते।’’
उन दोनों ने सच्चे दिल से नदी और पहाड़ों के देवता की प्रार्थना की। थोड़े दिनों बाद ही किसान की पत्नी गर्भवती हुई। नौ महीने बाद उसके बच्चा हुआ। लेकिन बच्चा आदमी का न होकर एक मेंढ़क था और उसकी लाल आँखें चमक रही थीं। बूढ़े ने कहा-‘‘कैसे आश्चर्य की बात है ! यह मेंढ़क है। इसकी लाल आँखें तो देखो, कैसी चमक रही हैं ! इसे घर में रखने से क्या फायदा ? चलो, इसे बाहर फेंक आएं।’’
लेकिन पत्नी का मन उसे फेंक देने को न हुआ। उसने कहा-‘‘भगवान हम पर कृपालू नहीं हैं। उसने हमें बच्चे की जगह एक मेंढ़क दिया है। लेकिन अब तो यही मेंढ़क हमारा बच्चा है इसलिए हमें इसको फेंकना नहीं चाहिए। मेंढ़क मिट्टी और तालाबों में रहते हैं। हमारे घर के पीछे जो जोहड़ है, उसमें इसे छोड़ आओ। वहीं रह जाया करेगा।’’
बूढ़े ने मेंढ़क को उठा लिया। जब वह उसे ले जाने लगा तो मेंढ़क बोला-‘‘माताजी, पिताजी, मुझे तालाब में मत डालिए। मैं आदमियों के घर में पैदा हुआ हूं, और मुझे आदमियों की तरह ही रहना चाहिए। जब मैं बड़ा हो जाऊंगा तो मेरी शक्ल बिलकुल आप जैसी हो जाएगी और मैं भी आदमी बन जाऊंगा। मैं वास्तव में पिछले जीवन में मिले एक श्राप से ग्रस्त हूँ |’’
बूढ़ा आश्चर्यचकित हो गया। उसने अपनी पत्नी से कहा-‘‘कैसी अद्भुत बात है ! यह तो बिलकुल हमारी तरह से बोलता है।’’
‘‘लेकिन जो कुछ भी उसने कहा है हमारे लिए तो वह अच्छा ही है।’’ उसकी पत्नी ने कहा, ‘‘भगवान ने ज्यों-त्यों करके तो हमें ये दिन दिखाए हैं। अगर यह बोलता है तो जरूर कोई अच्छा बच्चा होगा। हो सकता है कि इस समय किसी के शाप से मेंढ़क बन गया हो। नहीं, इसे आप घर में ही रहने दीजिए।’’
वे दोनों पति-पत्नी बड़े दयालू थे और उन्होंने मेंढ़क को अपने साथ ही रख लिया।
तीन वर्ष बीत गए। इस बीच मेंढ़क ने देखा कि उसके माता-पिता कितनी मेहनत करते थे। एक दिन उसने अपनी बूढ़ी माँ से कहा-‘माँ, मेरे लिए आटे की एक रोटी सेक दो। मैं कल जमींदार के पास जाऊंगा और उसके सुंदर महल में जाकर उससे मिलूँगा। उसके तीन सुंदर बेटियां हैं। उससे कहूंगा कि वह अपनी एक बेटी के शादी मुझसे कर दे। मैं उन तीनों में से उससे शादी करूंगा, जो सबसे अधिक दयावान हो और तुम्हारे काम में सबसे ज्यादा मदद कर सके।’’
‘‘बेटे, ऐसी मज़ाक की बात मत किया करो।’’ बूढ़ी ने कहा, ‘‘क्या तुम समझते हो कि तुम्हारे जैसे छोटे और भद्दे जानवर के साथ में कोई भला आदमी अपनी सुंदर-सी बेटी का हाथ पकड़ा देगा। तुम जैसे को तो कोई भी पैर से दबाकर कुचल देगा।’’
‘‘मां, तुम रोटी तो बनाओ।’’ मेंढ़क ने कहा, ‘‘तुम देखती रहना मैं तुम्हारे लिए एक बहू ज़रूर लाऊंगा।’’
बूढ़ी स्त्री अंत में राजी हो गई।
‘‘अच्छा, मैं तुम्हारे लिए एक रोटी तो सेक दूंगी।’’ उसने मेंढ़क से कहा, ‘‘लेकिन इस बात का ख्याल रखना कि उसके महल की कहारी या नौकरानी तुम्हें भूत-प्रेत समझकर तुम्हारे ऊपर राख न डाल दे।’’
‘‘मां, तुम बेफिक्र रहो।’’ मेंढ़क ने उत्तर में कहा, ‘‘उनके तो अच्छों की भी यह हिम्मत नहीं !’’
और अगले दिन बूढ़ी स्त्री ने एक बड़ी-सी रोटी बना दी और उसे एक थैली में रख दिया। मेंढ़क ने थैला अपने कंधे पर लटकाया और फुदकता हुआ घाटी के किनारे बसे हुए जमींदार के महल की ओर चल दिया। जब वह महल के दरवाज़े के पास पहुँचा तो उसने द्वार खटखटाया।
‘‘ज़मींदार साहब, ज़मींदार साहब, दरवाज़ा खोलो।’’
ज़मींदार ने किसी को दरवाज़ा खटखटाते सुना और अपने नौकर को बाहर देखने भेजा। नौकर आश्चर्यचकित-सा होकर लौटा। उसने कहा-‘‘मालिक, बड़ी अजीब-सी बात है। एक छोटा-सा मेंढ़क दरवाज़े पर खड़ा आपको पुकार रहा है।’’
ज़मींदार के मुंशी ने कहा-‘‘मालिक, यह ज़रूर कोई भूत-प्रेत है। इस पर राख डलवा दीजिए।’’
ज़मींदार राजी नहीं हुआ। उसने कहा-‘‘नहीं, नहीं, रुको। यह ज़रूरी नहीं कि वह कोई भूत-प्रेत ही हो। मेंढ़क पानी में रहते हैं। हो सकता है कि वह जल-देवता के महल से कोई संदेशा लेकर आया हो। जिस प्रकार देवताओं की आवभगत की जाती है, उसी प्रकार उसकी करो। पहले उस पर दूध छिड़क दो। इसके बाद मैं खुद देखूंगा कि वह कौन है और मेरे राज्य में किसलिए आया है।’’
उसके नौकरों ने ऐसा ही किया। मेंढ़क की उसी प्रकार इज्ज़त की गई जैसी देवताओं की की जाती है। उन्होंने उस पर दूध छिड़का और कुछ दूध उसके ऊपर हवा में भी उड़ाया।
उसके बाद ज़मींदार खुद दरवाजे पर आ गया और उसने पूछा-‘‘मेंढ़क देवता, क्या तुम जल-देवता के महल से आ रहे हो ? तुम्हारी हम क्या सेवा कर सकते हैं ?’’
‘‘मैं जल-देवता के महल से नहीं आ रहा।’’ मेंढ़क ने उत्तर दिया, ‘‘मैं तो अपनी ही इच्छा से आपके पास आया हूं। आपकी सब लड़कियां विवाह योग्य हैं। मैं उनमें से एक से शादी करना चाहता हूं। मैं आपका दामाद बनने आया हूं। आप मुझे उनमें से किसी एक का हाथ पकड़ा दीजिए।’’
ज़मींदार और उसके सब नौकर मेंढ़क की इस बात को सुनकर बड़े भयभीत हुए। ज़मींदार बोला-‘‘तुम कैसी बे-सिर-पैर की बातें कर रहे हो ? आइने में ज़रा अपनी सूरत तो देखो। कितने भद्दे और बदसूरत हो ! कितने ही बड़े-बड़े ज़मींदारों ने मेरी बेटियों से विवाह करना चाहा लेकिन मैंने सबको मना कर दिया। फिर मैं कैसे एक मेंढ़क को अपनी बेटी ब्याह दूं। जाओ, बेकार की बातें मत करो।’’
‘‘ओ हो !’’ मेंढ़क बोला, ‘‘इसका मतलब यह है कि आप मुझसे अपनी बेटी की शादी नहीं करेंगे। कोई बात नहीं। अगर आप मेरी बात इस तरह नहीं मानेंगे तो मैं हंसना शुरू कर दूंगा।’’
ज़मींदार मेंढ़क की बात सुनकर गुस्से में आगबबूला हो गया।
उसने पैर पटककर कहा-‘‘मेंढ़क के बच्चे ! तेरा दिमाग खराब हो गया है ! अगर हंसना ही है तो बाहर निकल जा और जी-भरकर हंस।’’
लेकिन तब तक मेंढ़क ने हँसना आरंभ कर दिया था। उसके हंसने से बड़े ज़ोर की आवाज़ हुई। धरती कांपने लगी। ज़मींदार के महल के ऊंचे-ऊंचे स्तम्भ हिलने लगे मानो महल गिरना ही चाहता हो। दीवारों में दरारें पड़ने लगीं। सारे आकाश में धूल-रेत, मिट्टी, कंकड़ और पत्थर उड़ने लगीं। सूरज और सारा आकाश अंधेरे से ढक गया। चारों ओर धूल-ही-धूल दिखाई देने लगी।
ज़मींदार के घर के सब लोग और नौकर-चाकर उछलते फिर रहे थे और अंधेरे में एक-दूसरे से टकरा रहे थे। किसी को नहीं मालूम था कि वे क्या कर रहे हैं और यह सब क्या हो रहा है।
अंत में दुःखी होकर ज़मींदार ने खिड़की से बाहर अपना सिर निकाला और बोला-‘‘मेंढ़क महाशय, अब कृपा कर अपना हंसना बंद कर दीजिए। मैं अपनी सबसे बड़ी बेटी का ब्याह आपके साथ कर दूंगा।
मेंढ़क ने हंसना बंद कर दिया। धीरे-धीरे पृथ्वी ने भी कंपना बंद कर दिया और महल, मकान आदि सब अपनी जगह स्थिर हो गए।
ज़मींदार ने केवल भयभीत होकर ही अपनी बेटी मेंढ़क के हाथों सौंपी थी। उसने दो घोड़े मंगाये—एक अपनी बेटी के लिए और दूसरा उसके दहेज के लिए।
ज़मींदार की बड़ी लड़की मेंढ़क से शादी करने के लिए बिलकुल भी राजी नहीं थी। उसने अपने पास छिपाकर दो पत्थर के टुकड़े रख लिए जो समय पर काम आएं।
मेंढ़क रास्ता दिखाने के लिए आगे-आगे फुदककर चलने लगा और ज़मींदार की सबसे बड़ी लड़की उसके पीछे-पीछे चलने लगी। सारे रास्ते वह यही कोशिश करती रही कि उसका घोड़ा कुछ और तेज चले और वह भागते हुए मेंढ़क को अपने पीछे की टापों के नीचे कुचल डाले। लेकिन मेंढ़क कभी इधर को फुदकता था और कभी उधर को। वह इस तरह चक्कर काटता जा रहा था कि उसे कुचलना राजकुमारी को असंभव दिखाई दे रहा था। अंत में वह इतनी नाराज हो गई कि एक बार जब मेढ़क उसके काफी पास चल रहा था, उसने छिपाया हुआ पत्थर का टुकड़ा मेंढ़क के ऊपर दे मारा। फिर वह मुड़कर घर की ओर चल दी। वह कुछ ही दूर लौटकर गई होगी कि मेंढ़क ने उसे पुकारा—
‘‘राजकुमारी, रुको। मैं तुमसे कुछ कहना चाहता हूं।’’
‘‘उसने पीछे घूमकर देखा कि मेंढ़क तो ज़िंदा खड़ा है।
वह समझ रही थी कि मेंढ़क उसके पत्थर के नीचे कुचल गया होगा। वह आश्चर्यचकित रह गई और उसने घोड़े की लगाम खींच ली। मेंढ़क उससे बोला—‘‘देखो, हमारे भाग्य में पति-पत्नी होना नहीं लिखा है। अब तुम घर लौट जाओ क्योंकि ऐसी ही तुम्हारी खुशी है।’’ और उसने घोड़े की लगाम पकड़ ली और राजकुमारी को घर वापस ले चला।
जब दोनों ज़मींदार के महल के पास पहुँचे तो मेंढ़क ने राजकुमारी को छोड़ दिया और आप ज़मींदार के पास जाकर बोला-‘‘ज़मींदार साहब, हम दोनों की आपस में जरा नहीं बनती। इसीलिए मैं उसे वापस छोड़ने आया हूँ। आप मुझे अपनी दूसरी बेटी दे दीजिए, जो मेरे साथ जाने को तैयार हो।’’
‘‘तुम कैसे बदतमीज़ हो, जी ! जरा अपनी हैसियत का तो ख्याल करो।’’
ज़मींदार ने गुस्से से चिल्लाकर कहा-‘‘तुम मेरी बेटी को वापस लाए हो इसलिए मैं तुम्हें अपनी दूसरी बेटी कभी नहीं दूंगा। जानते हो, मैं ज़मींदार हूं। क्या मज़ाक है ! तुम इस तरह मेरी बेटियों में से हरेक को देखना चाहते हो।’’ ज़मींदार यह कहते-कहते गुस्से से कांपने लगा।
‘‘इसका मतलब यह है कि आप राज़ी नहीं हैं !’’ मेंढ़क ने कहा, ‘‘अच्छी बात है, तो मैं चिल्लाता हूं।’’
ज़मींदार ने सोचा कि अगर वह चिल्लाता है तो कोई हर्ज नहीं। बस, उसका तो हंसना ही खतरनाक है। उसने चिढ़ाते हुए कहा-‘‘जी भरकर चिल्लाओ। तुम्हारी ज़रा-ज़रा-सी धमकियों से डर जाने वाले हम नहीं हैं।’’
और मेंढ़क ने चिल्लाना शुरू कर दिया। उसकी आवाज़ इतनी तेज़ थी मानो रात के समय बड़ी जोर से बिजली कड़क रही हो। चारों ओर बिजली की कड़कड़ाहट-ही-कड़कड़ाहट सुनाई दे रही थी और पहाड़ों से नदियों में इतना अधिक पानी आने लगा कि कुछ ही क्षणों में सब नदियों में बाढ़ आ गई। धीरे-धीरे सारी ज़मीन पानी के बहाव में घिरने लगी और पानी चढ़ता-चढ़ता ज़मींदार के महल तक आ पहुंचा और वहां से अपने गांव की तबाही देखने लगे।
पानी चढ़ता ही जा रहा था। ज़मींदार ने अपनी गर्दन खिड़की से बाहर निकाली और चिल्लाकर कहा-‘‘मेंढ़क महाशय, चिल्लाना बंद कीजिए, नहीं तो हम सब मर जायेंगे। मैं तुम्हारे साथ अपनी दूसरी बेटी की शादी कर दूंगा।’’
मेंढ़क ने फौरन ही चिल्लाना बंद कर दिया और धीरे-धीरे पानी नीचे बैठने लगा।
ज़मींदार ने फिर अपने नौकरों को आदेश दिया कि दो घोड़े अस्तबल से निकालकर लाओ—एक राजकुमारी के लिए और दूसरा उसके दहेज के सामान के लिए। इसके बाद उसने अपनी दूसरी बेटी को आज्ञा दी कि मेंढ़क से साथ चली जाए।
ज़मींदार की दूसरी बेटी मेंढ़क के साथ जाने को राजी नहीं थी। उसने भी घोड़े पर चढ़ते समय एक बड़ा-सा पत्थर अपने पास छिपाकर रख लिया। रास्ते में उसने भी अपने घोड़े के पैरों के नीचे मेंढ़क को कुचलने की कोशिश की और एक बार वह पत्थर उसके ऊपर फेंककर वह भी बड़ी राजकुमारी की तरह वापस लौटने लगी।
लेकिन उसे भी वापस बुलाकर मेंढ़क ने कहा-‘‘राजकुमारी, हम दोनों के भाग्य में एक साथ रहना नहीं बदा। तुम घर वापस जा सकती हो।’’ यह कहकर उसके घोड़े की लगाम हाथ में लेकर वह चल दिया।
मेंढ़क ने ज़मींदार के हाथ में उसकी मंझली बेटी का हाथ पकड़ा दिया और बोला कि अपनी सबसे छोटी बेटी की शादी मुझसे कर दो। इस बार तो ज़मींदार के क्रोध का ठिकाना ही न रहा। उसने कहा, ‘‘तुमने मेरी सबसे बड़ी लड़की को लौटा दिया और मैंने तुम पर दया करके अपनी मंझली बेटी दे दी। अब तुमने उसे भी लौटा दिया और मेरी सबसे छोटी लड़की के साथ शादी करना चाहते हो। तुम बहुत बेहूदे हो। कोई भी ज़मींदार तुम्हारी इस बदतमीजी को बरदाश्त नहीं कर सकता। तुम...तुम...तुम कानून के खिलाफ चलते हो।’’ उसके गले में आखिरी शब्द अटक गए। एक छोटे-से मेंढ़क ने उसे इस प्रकार नचा रखा था कि वह बहुत ज़्यादा परेशान हो रहा था।
मेंढ़क ने शांति से जवाब दिया-‘‘ज़मींदार साहब, आप इतना नाराज़ क्यों होते हैं ? आपकी दोनों बेटियां मेरे साथ शादी करने के लिए राजी नहीं थीं इसलिए मैं उन्हें वापस ले आया। लेकिन आपकी तीसरी बेटी मुझसे शादी करना चाहती है, फिर आप क्यों नहीं राजी होना चाहते ?’’
‘‘नहीं, कभी नहीं !’’ ज़मींदार घृणा से चिल्लाया, ‘‘कौन कहता है ! वह कभी राजी नहीं हो सकती। इस दुनिया में कोई भी लड़की एक मेंढक से शादी करने के लिए राजी नहीं हो सकती। मैं तुमसे आखिरी बार कह रहा हूं कि अब तुम अपनी राह देखो।’’
‘‘इसका मतलब यह है कि आप अपनी बेटी की शादी मुझसे नहीं करेंगे।’’ मेंढ़क ने कहा, ‘‘अच्छी बात है, तो मैं फुदकना शुरू कर दूँगा।’’
ज़मींदार वैसे मेंढ़क की बात से डर तो गया था लेकिन उसने गुस्से में ही उत्तर दिया-‘‘तुम उछलो, कूदो, फुदको। जो जी में आए सो करो। जी-भरकर करो। मैं तुम्हारी ज़रा-ज़रा-सी बातों से डरने लगा तो ज़मींदारी दो दिन की रह जाएगी।’’

अंत में ज़मीदार छोटी बेटी से मेंढक का विवाह करने को राज़ी हो गया, छोटी बेटी तो पहले से ही राज़ी थी | विवाह की वेदी पर अंतिम फेरा लेते ही मेंढक एक सुन्दर राजकुमार में बदल गया | वहां उपस्थित लोग आश्चर्यचकित रह गए | राजकुमार ने अपने को मिले श्राप के बारे में बताया और अपनी नव विवाहिता अर्थात्त ज़मीदार की छोटी बेटी को हार्दिक धन्यवाद देते हुए अपने राज्य ले गया | राजकुमार के वृद्ध पिता एवं माता अपने खोये बेटे को देख कर बहुत खुश हुए और अपनी सुन्दर और दयावान बहु के साथ आनंद सहित रहने लगे ||

--विचार-प्रधान लोक-कथा-- (भाग-दो)

किसी गांव में एक सेठ रहता था. उसका एक ही बेटा था, जो व्यापार के काम से परदेस गया हुआ था. सेठ की बहू एक दिन कुएँ पर पानी भरने गई. घड़ा जब भर गया तो उसे उठाकर कुएँ के मुंडेर पर रख दिया और अपना हाथ-मुँह धोने लगी. तभी कहीं से चार राहगीर वहाँ आ पहुँचे. एक राहगीर बोला, “बहन, मैं बहुत प्यासा हूँ. क्या मुझे पानी पिला दोगी ?”
सेठ की बहू को पानी पिलाने में थोड़ी झिझक महसूस हुई, क्योंकि वह उस समय कम कपड़े पहने हुए थी. उसके पास लोटा या गिलास भी नहीं था जिससे वह पानी पिला देती. इसी कारण वहाँ उन राहगीरों को पानी पिलाना उसे ठीक नहीं लगा |
बहू ने उससे पूछा, “आप कौन हैं ?”
राहगीर ने कहा, “मैं एक यात्री हूँ |”
बहू बोली, “यात्री तो संसार में केवल दो ही होते हैं, आप उन दोनों में से कौन हैं? अगर आपने मेरे इस सवाल का सही जवाब दे दिया तो मैं आपको पानी पिला दूंगी. नहीं तो मैं पानी नहीं पिलाऊंगी |”
बेचारा राहगीर उसकी बात का कोई जवाब नहीं दे पाया |
तभी दूसरे राहगीर ने पानी पिलाने की विनती की |
बहू ने दूसरे राहगीर से पूछा, “अच्छा तो आप बताइए कि आप कौन हैं ?”
दूसरा राहगीर तुरंत बोल उठा, “मैं तो एक गरीब आदमी हूँ |”
सेठ की बहू बोली, “भइया, गरीब तो केवल दो ही होते हैं. आप उनमें से कौन हैं?”
प्रश्न सुनकर दूसरा राहगीर चकरा गया. उसको कोई जवाब नहीं सूझा तो वह चुपचाप हट गया |
तीसरा राहगीर बोला, “बहन, मुझे बहुत प्यास लगी है. ईश्वर के लिए तुम मुझे पानी पिला दो |”
बहू ने पूछा, “अब आप कौन हैं?”
तीसरा राहगीर बोला, “बहन, मैं तो एक अनपढ़ गंवार हूँ |”
यह सुनकर बहू बोली, “अरे भई, अनपढ़ गंवार तो इस संसार में बस दो ही होते हैं. आप उनमें से कौन हैं?”
बेचारा तीसरा राहगीर भी कुछ बोल नहीं पाया |
अंत में चौथा राहगीह आगे आया और बोला, “बहन, मेहरबानी करके मुझे पानी पिला दें. प्यासे को पानी पिलाना तो बड़े पुण्य का काम होता है |”
सेठ की बहू बड़ी ही चतुर और होशियार थी, उसने चौथे राहगीर से पूछा, “आप कौन हैं?”
वह राहगीर अपनी खीज छिपाते हुए बोला, “मैं तो..बहन बड़ा ही मूर्ख हूँ | ”
बहू ने कहा, “मूर्ख तो संसार में केवल दो ही होते हैं. आप उनमें से कौन हैं?”
वह बेचारा भी उसके प्रश्न का उत्तर नहीं दे सका. चारों पानी पिए बगैर ही वहाँ से जाने लगे तो बहू बोली, “यहाँ से थोड़ी ही दूर पर मेरा घर है. आप लोग कृपया वहीं चलिए. मैं आप लोगों को पानी पिला दूंगी”
चारों राहगीर उसके घर की तरफ चल पड़े. बहू ने इसी बीच पानी का घड़ा उठाया और छोटे रास्ते से अपने घर पहुँच गई. उसने घड़ा रख दिया और अपने कपड़े ठीक तरह से पहन लिए |
इतने में वे चारों राहगीर उसके घर पहुँच गए. बहू ने उन सभी को गुड़ दिया और पानी पिलाया. पानी पीने के बाद वे राहगीर अपनी राह पर चल पड़े |
सेठ उस समय घर में एक तरफ बैठा यह सब देख रहा था. उसे बड़ा दुःख हुआ. वह सोचने लगा, इसका पति तो व्यापार करने के लिए परदेस गया है, और यह उसकी गैर हाजिरी में पराए मर्दों को घर बुलाती है. उनके साध हँसती बोलती है. इसे तो मेरा भी लिहाज नहीं है. यह सब देख अगर मैं चुप रह गया तो आगे से इसकी हिम्मत और बढ़ जाएगी. मेरे सामने इसे किसी से बोलते बतियाते शर्म नहीं आती तो मेरे पीछे न जाने क्या-क्या करती होगी. फिर एक बात यह भी है कि बीमारी कोई अपने आप ठीक नहीं होती. उसके लिए वैद्य के पास जाना पड़ता है. क्यों न इसका फैसला राजा पर ही छोड़ दूं. यही सोचता वह सीधा राजा के पास जा पहुँचा और अपनी परेशानी बताई. सेठ की सारी बातें सुनकर राजा ने उसी वक्त बहू को बुलाने के लिए सिपाही बुलवा भेजे और उनसे कहा, “तुरंत सेठ की बहू को राज सभा में उपस्थित किया जाए.”
राजा के सिपाहियों को अपने घर पर आया देख उस सेठ की पत्नी ने अपनी बहू से पूछा, “क्या बात है बहू रानी? क्या तुम्हारी किसी से कहा-सुनी हो गई थी जो उसकी शिकायत पर राजा ने तुम्हें बुलाने के लिए सिपाही भेज दिए?”
बहू ने सास की चिंता को दूर करते हुए कहा, “नहीं सासू मां, मेरी किसी से कोई कहा-सुनी नहीं हुई है. आप जरा भी फिक्र न करें.”
सास को आश्वस्त कर वह सिपाहियों से बोली, “तुम पहले अपने राजा से यह पूछकर आओ कि उन्होंने मुझे किस रूप में बुलाया है. बहन, बेटी या फिर बहू के रुप में? किस रूप में में उनकी राजसभा में मैं आऊँ?”
बहू की बात सुन सिपाही वापस चले गए. उन्होंने राजा को सारी बातें बताई. राजा ने तुरंत आदेश दिया कि पालकी लेकर जाओ और कहना कि उसे बहू के रूप में बुलाया गया है |
सिपाहियों ने राजा की आज्ञा के अनुसार जाकर सेठ की बहू से कहा, “राजा ने आपको बहू के रूप में आने के ले पालकी भेजी है.”
बहू उसी समय पालकी में बैठकर राज सभा में जा पहुँची.
राजा ने बहू से पूछा, “तुम दूसरे पुरूषों को घर क्यों बुला लाईं, जबकि तुम्हारा पति घर पर नहीं है?”
बहू बोली, “महाराज, मैंने तो केवल कर्तव्य का पालन किया. प्यासे पथिकों को पानी पिलाना कोई अपराध नहीं है. यह हर गृहिणी का कर्तव्य है. जब मैं कुएँ पर पानी भरने गई थी, तब तन पर मेरे कपड़े अजनबियों के सम्मुख उपस्थित होने के अनुरूप नहीं थे. इसी कारण उन राहगीरों को कुएँ पर पानी नहीं पिलाया. उन्हें बड़ी प्यास लगी थी और मैं उन्हें पानी पिलाना चाहती थी. इसीलिए उनसे मैंने मुश्किल प्रश्न पूछे और जब वे उनका उत्तर नहीं दे पाए तो उन्हें घर बुला लाई. घर पहुँचकर ही उन्हें पानी पिलाना उचित था.”
राजा को बहू की बात ठीक लगी. राजा को उन प्रश्नों के बारे में जानने की बड़ी उत्सुकता हुई जो बहू ने चारों राहगीरों से पूछे थे|
राजा ने सेठ की बहू से कहा, “भला मैं भी तो सुनूं कि वे कौन से प्रश्न थे जिनका उत्तर वे लोग नहीं दे पाए?”
बहू ने तब वे सभी प्रश्न दुहरा दिए. बहू के प्रश्न सुन राजा और सभासद चकित रह गए. फिर राजा ने उससे कहा, “तुम खुद ही इन प्रश्नों के उत्तर दो. हम अब तुमसे यह जानना चाहते हैं |”
बहू बोली, “महाराज, मेरी दृष्टि में पहले प्रश्न का उत्तर है कि संसार में सिर्फ दो ही यात्री हैं – सूर्य और चंद्रमा. मेरे दूसरे प्रश्न का उत्तर है कि बहू और गाय इस पृथ्वी पर ऐसे दो प्राणी हैं जो गरीब हैं. अब मैं तीसरे प्रश्न का उत्तर सुनाती हूं. महाराज, हर इंसान के साथ हमेशा अनपढ़ गंवारों की तरह जो हमेशा चलते रहते हैं वे हैं – भोजन और पानी. चौथे आदमी ने कहा था कि वह मूर्ख है, और जब मैंने उससे पूछा कि मूर्ख तो दो ही होते हैं, तुम उनमें से कौन से मूर्ख हो तो वह उत्तर नहीं दे पाया.” इतना कहकर वह चुप हो गई|
राजा ने बड़े आश्चर्य से पूछा, “क्या तुम्हारी नजर में इस संसार में सिर्फ दो ही मूर्ख हैं?”
“हाँ, महाराज, इस घड़ी, इस समय मेरी नजर में सिर्फ दो ही मूर्ख हैं.”
राजा ने कहा, “तुरंत बतलाओ कि वे दो मूर्ख कौन हैं.”
इस पर बहू बोली, “महाराज, मेरी जान बख्श दी जाए तो मैं इसका उत्तर दूं.”
राजा को बड़ी उत्सुकता थी यह जानने की कि वे दो मूर्ख कौन हैं. सो, उसने तुरंत बहू से कह दिया, “तुम निःसंकोच होकर कहो. हम वचन देते हैं तुम्हें कोई सज़ा नहीं दी जाएगी.”
बहू बोली, “महाराज, मेरे सामने इस वक्त बस दो ही मूर्ख हैं.” फिर अपने ससुर की ओर हाथ जोड़कर कहने लगी, “पहले मूर्ख तो मेरे ससुर जी हैं जो पूरी बात जाने बिना ही अपनी बहू की शिकायत राजदरबार में की. अगर इन्हें शक हुआ ही था तो यह पहले मुझसे पूछ तो लेते, मैं खुद ही इन्हें सारी बातें बता देती. इस तरह घर-परिवार की बेइज्जती तो नहीं होती.”
ससुर को अपनी गलती का अहसास हुआ. उसने बहू से माफ़ी मांगी. बहू चुप रही.
राजा ने तब पूछा, “और दूसरा मूर्ख कौन है?”
बहू ने कहा, “दूसरा मूर्ख खुद इस राज्य का राजा है जिसने अपनी बहू की मान-मर्यादा का जरा भी खयाल नहीं किया और सोचे-समझे बिना ही बहू को भरी राजसभा में बुलवा लिया.”
बहू की बात सुनकर राजा पहले तो क्रोध से आग बबूला हो गया, परंतु तभी सारी बातें उसकी समझ में आ गईं. समझ में आने पर राजा ने बहू को उसकी समझदारी और चतुराई की सराहना करते हुए उसे ढेर सारे पुरस्कार देकर सम्मान सहित विदा किया 

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