'अनहद नाद--जीवन की सत्यता'
जो सुन सकता है वही बोल सकता है और जो बोल सकता है वही सुन सकता है। ॐ अनाहत का शब्द है। अनाहत का अर्थ समझने के लिए यह जानना जरूरी है कि दुनिया में कोई भी आवाज पैदा करने के लिए हवा पर चोट करनी पडती है। हम चांद पर कभी भी बात नहीं कर पाएंगे, क्योंकि चांद पर हवा है ही नहीं। जिन ग्रहों पर हवा नहीं है वहां बात नहीं हो सकती। हवाओं के संपीडन से ही बात होती है ।
आज मनुष्य किसी न किसी रूप में संगीत का आनंद उठाता है। यह अलग बात है कि कोई यह आनंद भजन के रूप में लेता है तो कोई गजल, गाने, कौवाली, पश्चिमी संगीत या शास्त्रीय संगीत को सुनकर आनंदित होता है। संगीत पद्धति चाहे कोई भी हो, लेकिन आनंद संगीत में ही आता है। परंतु संसार में चाहे किसी भी पद्धति द्वारा संगीत सुनें उसकी एक सीमा है। कहीं न कहीं वह संगीत खत्म हो जाता है। बहुत से लोग यह कहते हुए भी सुने जा सकते हैं कि जब मंदिर या गुरुद्वारे में कीर्तन सुन रहे थे, तब तक मन शांत था। परंतु संसार के कार्यो में आकर यह मन फिर उलझ गया। हमारी यह स्थिति वैसी ही है, जैसे कि कोई व्यक्ति जब इत्र की दुकान के नजदीक से गुजरता है तब वह इत्र की सुगंध प्राप्त कर आनंदित होता है। परंतु उसके आनंद की सीमा है। जब वह इत्र की दुकान से दूर चला जाता है, तब वह उस सुगंध से वंचित हो जाता है। यदि वह इत्र को खरीद कर अपने शरीर पर लगा ले और इसके बाद वह कहीं भी चला जाए तो इत्र की सुगंध भी उसके साथ-साथ जाएगी। इसी तरह हमें भी उस आनंदमय संगीत की प्राप्ति करनी है। संगीत दो प्रकार का बताया गया है। एक को आहत नाद कहा जाता है और दूसरा अनहद। आहत नाद जो हमारे करताल अथवा फूंक आदि से पैदा होता है। जिसे घंटे, शंख, नगाडे, मृदंग, बांसुरी इत्यादि के द्वारा प्रकट करते हैं। परंतु एक ऐसा संगीत भी है जिसे बजाया नहीं जाता, जो स्वत: अपने आप ही बजता है। लेकिन उसकी प्राप्ति गुरु के द्वारा ही संभव है। उसके लिए कबीर जी कहते हैं कि -
निरभउ कै घरि बजावहि तूर।
अनहद बजहि सदा भरपूर।
उस निर्भय प्रभु के घर में अर्थात् इस मानव शरीर में वह संगीत बज रहा है जो अनहद है। जिसकी कोई सीमा नहीं है, वही अनहद है। लेकिन बाहरी संगीत के संबंध में कहा है कि-
इतु किंगुरी धिआनु न लागै जोगी ना सचु पलै पाइ।
इतु किंगुरी सांति न आवै जोगी अभिमानु न विचहु जाइ॥
गुरु अमरदास जी कहते हैं, जो सांसारिक किंगरी बजा रहा है उससे ध्यान नहीं लग सकता और न ही उससे सचाई हाथ आ सकती है। अत: मन को शांति तो मिलेगी नहीं, अपितु मानव अत्यधिक अभिमान को संचित कर लेता है कि हम तो बहुत संगीत जानते हैं।
भारतीय कला एवं संस्कृति की चिंतनधारा सदैव से आध्यात्मवादी रही है। आध्यात्मवाद में "आनंदमय' की प्रतिष्ठा होती है और इस आनंदमय से "परमब्रह्म' की प्राप्ति होती है। अतः सर्वप्रथम यदि आनंदमय की उपलब्धि के साधन को खोजा जाए, तो उसका मूल है "संगीत'। संगीत परमानंद की पराकाष्ठा पर पहुँचाकर परमतत्व की अनुभूति एवं साक्षात्कार कराने की अपूर्व क्षमता रखता है। रवींद्रनाथ टैगोर ने भी परमब्रह्म तक पहुँचने के लिए संगीत को ही एकमात्र साधन कहा है --'' संगीत हमारी चित्तवृत्ति को अंतर्मुखी बनाकर हमें आत्मस्वरुप का नैसर्गिक बोध कराता है और आत्मस्वरुप का यह बोध ही मनुष्य को परमतत्व से जोड़ता है।"
संगीत की उत्पत्ति जब परमतत्व अनादि है, तो संगीत भी अनादि है। यों भारतीय संगीत का मूल रुप वेदों में परिलक्षित होता है। वेद भी अनादि अपौरुषेय कहे गए हैं। वैसे भारतीय संगीत की उत्पत्ति एवं विकास की अनेक कथाएँ प्रचलित हैं, किंतु आदिनाम एवं वेद से ही भारतीय संगीत के जन्म का संबंध मानना उचित जान पड़ता है --
आदिनाद अनहद भयो, ताते उपज्यो वेद।
पुनि पायो वा वेद में, सकल सृष्टि को भेद।।
उपर्युक्त पंक्तियों में आदि ( अनहद ) नाद से वेद की उत्पत्ति बताई गई है, अतः इस प्रकार से संगीत की सत्ता वेद से भी पूर्व सिद्ध होती है, क्यों नाद ही संगीत है, संगीत ही नाद है। इस विराट ब्रह्मांड के पावन दिव्य घोष निनाद से मुखरित मानव का यह आत्मानुभूत सुललित संगीत अमृत का वह स्रोत है, जो प्राण एवं आत्मा को नवचेतना प्रदान करता है। यही संगीत पुरुषार्थ चतुष्टय ( धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष ) का एकमात्र साधन है। एसे संगीत ( गीत ) के माहात्म्य की प्रशंसा करने में किसकी वाणी समर्थ हो सकती है --
तस्य गीतस्य माहात्म्यं के प्रशंसितुमीशते।
धर्मार्थकाममोक्षाणामिदमेवैक साधनम्।।
इसी कारण भारतीय संस्कृति में पुरातन काल से ही संगीत का अपना विशेष महत्व रहा है। इस महान कला के आदि आचार्य भरतमुनि हैं। इनके नाट्यशास्र में संगीत का वास्तविक स्वरुप मुखरित हुआ है। संगीत कला की मीमांसा का आदिशास्र "नाट्यशास्र' ही है। उसके पश्चात तो फिर मतंग, नंदिकेश्वर, शारंगदेव आदि के ग्रंथ भी भारतीय संगीत का विशद विवेचन प्रस्तुत करते हैं। यहाँ तक ध्यातव्य है कि भरतमुनि के नाट्यशास्र की रचना के पूर्व भी संगीत कला अपने पूर्ण विकसित रुप में नारद, स्वाति, तंडु, वासुकि आदि मनीषियों की वाणी में व्याप्त थी। ऐसी गौरवमयी संगीत कला पर ब्रज का क्या प्रभाव पड़ा, यह विषय यहाँ विचारणीय है। संगीतमय ब्रज भगवान कृष्ण की ब्रजभूमि का कण- कण संगीतमय रहा है। संस्कृति एवं साहित्य के साथ- साथ कला का भी केंद्र अत्यंत पुरातन काल से ब्रज वसुंधरा ही है। नाट्यशास्र एवं संगीत- रत्नाकर जैसे प्रामाणिक ग्रंथों के युग के संगीत का यथार्थ स्वरुप जानने का कोई साधन यदि हमें प्राप्त हो सकता है, तो वह है -- ब्रज का साहित्य एवं संगीत। मुगल युग में अनेक प्राचीन संगीत- ग्रंथ नष्ट हो गए थे। जो ग्रंथ सौभाग्यवश आज उपलब्ध हैं, उन्हें सुदीर्घकाल तक विद्वत्परंपरा ने कंठस्थ कर सुरक्षित रखा तथा सुविधा न अवसर पाकर उन्हें पुनः लिपिबद्ध करलिया गया। किंतु उनमें भी प्राचीन वैदिक संगीत का यथार्थ स्वरुप ज्यों का त्यों स्पष्ट न हो सका। उस संगीत की वास्तविक गरिमा यदि सुरक्षित एवं विकसित हो सकी, तो उसका श्रेय ब्रज को ही है। ब्रज के भक्त, संगीतज्ञ, कवि, संत आदि ने युग- युग में संगीत का सांगोपांग विकास एवं प्रसार किया। इसी कारण भारतीय संगीत पर ब्रज- वसुधा की अमिट छाप परिलक्षित होती है। यदि यह कहा जाए कि भारतीय संगीत ब्रज- संस्कृति का एक मुख्य एवं अविभाज्य अंग है, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। शास्रीय संगीत के पद, ख्याल, ध्रुपद आदि ब्रजभाषा में ही सुने व रचे जाते हैं। यह दूसरी बात है कि मुगलकाल में ख्याल उर्दू की शब्दावली से अछूते न रह सकें हों। किंतु पद एवं ध्रुपद परंपरा अक्षुण्ण रही। यह भी दृष्टव्य एवं आश्चर्यजनक बात है कि अनेक मुसलमान संगीतज्ञों, कवियों ने भी ब्रजभाषा में अनेक बंदिशों एवं कविता की रचना की। जिस ब्रजभूमि में वेणुधर नटवर नागर कृष्ण जन्में हों, जिस ब्रज में उनकी मुरली के स्वर गूँजे हों, जिस ब्रजधाम के कुँजों में महारास थिरका हो, जिस ब्रज- वसुंधरा में पतित- पावनी यमुना के तट पर कल- कल ध्वनि में स्वर मिलाकर मनीषियों ने साम- गान किया हो, उस ब्रजधरा का प्रभाव भारतीय संगीत पर न पड़ा हो, यह कैसे संभव हो सकता है ? कहना न होगा कि ब्रज तो भारत की सांस्कृतिक आत्मा है।
वास्तव में बाहरी संगीत तो अंतर्जगत की ओर संकेत करता है। मंदिर-गुरुद्वारे में किया जाने वाला संकीर्तन हमें जीवन की सत्यता की ओर इशारा करता है कि इस प्रकार का संकीर्तन जो कि प्रभु के दरबार में हो रहा है वही संकीर्तन हमारे घट में बज रहा है। देव सथानै किआ निसाणी। तह बाजे सबद अनाहद बाणी॥ परमात्मा के घर की निशानी बताते हुए गुरवाणी में स्पष्ट किया है कि वहां अनहद वाणी बज रही है। जरूरत है उस स्थान को जानने की, जहां वह अनहद वाणी बज रही है। पंच सखी मिलि मंगलु गाइआ। अनहद बाणी नादु वजाइआ॥ जब अनहद वाणी का नाद हमारे अंतर में बजता है, तभी हमारे अंदर में हमारे पांचों मित्र-दया, क्षमा, शील, संतोष एवं सत्य प्रसन्न होकर हमारे लिए आनंद का मार्ग खोल देते हैं। लेकिन यह अनहद वाणी कैसे प्राप्त होती है? पूरे गुर ते महल पाइआ पति परगटु लोई। नानक अनहद धुनी दरि वजदे मिलिया हरि सोई॥ पूर्ण गुरु के द्वारा ही वह महल प्रकट होता है, जो हमारी लाज रखता है। श्री गुरु अमरदास जी कहते हैं कि वहां अनहद वाणी बज रही है, वह धुन बज रही है। जब हमें प्रभु के परम तत्व ज्ञान की प्राप्ति होती है, इस संबंध में कहा है- द्रिसटि भई तब भीतरि आइओ मेरा मनु अनदिनु सीतलागिओ। कहु नानक रसि मंगल गाए सबदु अनाहदु बाजिओ॥ श्री गुरु अर्जुन देव जी कहते हैं कि जब अंतर्दृष्टि खुलती है तभी अंतर्जगत में प्रवेश कर मन को शांति मिलती है। तभी प्रभु के निर्मल गायन को जान सकते हैं, जब अनहद शब्द की ध्वनि सुनाई देती है। परमात्मा के इस शरीर रूपी घर में प्रकट होने के बारे में कहा है- पंच सबद धुनि अनहद वाजे हम घरि साजन आए॥ कबीर जी कहते हैं- पंचे सबद अनाहद बाजे संगे सारिंगपानी। कबीर दास तेरी आरती कीनी निरंकार निरबानी॥ हे निरंकार! मैं तेरी वही आरती करता हूं जहां पर पांच धुनें बज रही हैं। श्री गुरु नानक देव जी कहते हैं- घर महि घरू देखाइ देइ सो सतिगुरु पुरखु सुजाणु। पंच सबद धुनिकार धुनि तह बाजै सबदु नीसाणु॥ जो हमें इस शरीर में ही सच्च्े घर को दिखा दे वही पूर्ण सतगुरु है। जो हमें वह दृष्टि न दे सके और जिसके द्वारा हम अपने हृदय में उस ज्योति को न देख सकें, वह पूर्ण गुरु नहीं है। पूर्ण सतगुरु हमें हृदय में ही प्रभु के दर्शन करा देते हैं, वह हमें वहां पांच शब्दों की अनहद धुनि सुना देते हैं। अब विचार करना है कि उसे पांच शब्द ही क्यों कहा है, क्योंकि आवाजें (ध्वनियां) पांच प्रकार की होती हैं। पहली आवाज जो हवा से पैदा होती है, जैसे बांसुरी या शंख इत्यादि की आवाज। दूसरी जो तार के कंपन से पैदा होती है जैसे सितार, गिटार, वायलिन, बैंजो आदि की आवाज। तीसरी जो कि चमडे पर थाप देने से पैदा होती है-जैसे तबला, ढोलक, मृदंग, डमरू इत्यादि की आवाज। चौथी आवाज जो दो धातुओं के टकराने से पैदा होती है जैसे घंटा, खडताल, चिमटा या मंजीरा बजाते हैं। पांचवीं पत्ती के कंपन से पैदा होती है, जैसे हारमोनियम इत्यादि की आवाज। इसी कारण इन्हें पांच शब्दों से संबोधित किया गया है। ब्रह्मानंद जी कहते हैं- पहले-पहले रिलमिल बाजे पीछे न्यारी न्यारी रे। घंटा शंख बांसुरी बीणा ताल मृदंग नगारी रे॥ एक अन्य स्थान पर कहा है कि - बिना बजाए निस दिन बाजे घंटा शंख नगारी रे। बहरा सुन सुन मस्त होत है तन की खबर बिसारी रे॥ बिना बजाए ही वह घंटा, शंख, नगाडे बज रहे हैं, जिसे सुनकर बहरा भी मस्त हो जाता है। यही नाद था जो द्वापर में गोपियां सुना करती थीं, जिसे सुनकर वे मस्त हो जाती थीं।
भगवान श्रीकृष्ण से मिलने के लिए व्याकुल होकर दौडी आती थीं। लेकिन वह बांसुरी केवल गोपियों को ही क्यों सुनाई देती थी? क्योंकि गोपियों को ज्ञान मिला हुआ था। अत: वह बांसुरी गोपियां बाह्य जगत में नहीं अपितु अपने अंतर्जगत में सुनती थीं। वह बांसुरी द्वापर में ही नहीं बज रही थी, आज भी बज रही है। जरूरत है तो ऐसे सतगुरु की जिनकी कृपा से हम आज भी उस बांसुरी की धुन को सुन सकते हैं, जो हमारे अंतर में हो रहा है। जो हमें वह कीर्तन सुना दे वही पूर्ण सतगुरु है। सुणीया बंसी दीया घनघोरा कृका तन मन वांगू मोरा। बुल्लेशाह कहते हैं कि कन्हैया ने ऐसी बांसुरी बजाई कि मैं मोर की तरह नाचने लगा। जरूरत है उसी बंसी को पहचानने की। बुल्लेशाह कहते हैं कि -
जां मैं सबक इशक दा पढिया मसजिद कोलो जीऊडा डरिआ।
डेरे जा ठाकुर दे वडिया जित्थे वजदे नाद हजार॥
जब सच्चे इश्क को जाना तो बाहरी बातों को छोडकर मैंने अंतर्जगत में प्रवेश किया, जहां हजारों नाद बज रहे हैं।
गुरवाणी में कहा है- अंतरि जोति निरंतरि बाणी साचे साहिब सिऊ लिव लाई।
ऋग्वेद में इस आवाज के बारे में कहा है- ऋतस्य श्लोको बधिराततर्द कर्णा बुधान: शुचमान आयो:॥ सत्य को जगाने वाली देदीप्यमान आवाज बहरे मनुष्य को भी सुनाई देती है। इसी प्रकार जैसे हम शिव के हाथों में डमरू देखते हैं, विष्णु के हाथ में शंख और सरस्वती के हाथ में वीणा है। ये सब अंतर्जगत की ही वाणी के प्रतीक हैं, जिसे अनहद नाद कहते हैं, अनहद वाणी कहते हैं। जरूरत है कि हम भी उस वाणी को सुन कर अंतर्नाद को जान कर जीवन के संगीतमय आनंद में डूबकर परमानंद को जानें ।
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