Friday, August 12, 2011

चाणक्य ज्ञान

चाणक्यनीति - अध्याय १


आर्य चाणक्य अपने चाणक्य नीति ग्रंथमे आदर्श जीवन मुल्य विस्तारसे प्रकट करते है।

Nitishastra is a treatise on the ideal way of life, and shows Chanakya's in depth study of the Indian way of life.

दोहा-- सुमति बढावन सबहि जन, पावन नीति प्रकास ।
टिका चाणक्यनीति कर, भनत भवानीदास ॥१॥

मैं उन विष्णु भगवान को प्रणाम करके कि जो तीनों लोकों के स्वामी हैं, अनेक शास्त्रों से उद् धृत राजनीतिसमुच्चय विषयक बातें कहूंगा ॥१॥

दोहा-- तत्व सहित पढि शास्त्र यह, नर जानत सब बात ।

काज अकाज शुभाशुभहिं, मरम नीति विख्यात ॥२॥

इस नीति के विषय को शास्त्र के अनुसार अध्ययन करके सज्जन धर्मशास्त्र में कहे शुभाशुभ कार्यको जान लेते हैं ॥२॥

दोहा-- मैं सोड अब बरनन करूँ , अति हितकारक अज्ञ ।

जाके जानत हो जन, सबही विधि सर्वज्ञ ॥३॥

लोगों की भलाई के लिए मैं वह बात बताऊँगा कि जिसे समभक्त लेने मनुष्य सर्वज्ञ हो जाता है ॥३॥

दोहा-- उपदेशत शिषमूढ कहँ; व्यभिचारिणि ढिग वास ।

अरि को करत विश्वास उर, विदुषहु लहत विनास ॥४॥

मूर्खशिष्य को उपदेश देनेसे, कर्कशा स्त्री का भरण पोषण करने से ओर दुखियों का सम्पर्क रखने से समझदार मनुष्य को भी दुःखी होना पडता है ॥४॥

दोहा-- भामिनी दुष्टा मित्र शठ, प्रति उत्तरदा भृत्य।

अहि युत बसत अगार में, सब विधि मरिबो सत्य ॥५॥

जिस मनुष्य की स्त्री दुष्टा है, नौकर उत्तर देनेवाला (मुँह लगा) है और जिस घर में साँप रहता है उस घरमें जो रह रहा है तो निश्चय है कि किसीन किसी रोज उसकी मौत होगी ही ॥५॥

दोहा-- धन गहि राखहु विपति हित, धन ते वनिता धीर ।

तजि वनिता धनकूँ तुरत, सबते राख शरीर ॥६॥

आपत्तिकाल के लिए धनको ओर धन से भी बढकर स्त्री की रक्षा करनी चाहिये । किन्तु स्त्री ओर धन से भी बढकर अपनी रक्षा करनी उचित है ॥६॥

दोहा-- आपद हित धन राखिये, धनहिं आपदा कौन ।

संचितहूँ नशि जात है, जो लक्ष्मी करु गौन ॥७॥

आपत्ति से बचने के लिए धन कि रक्षा करनी चाहिये । इस पर यह प्रश्न होता है कि श्रीमान् के पास आपत्ति आयेगी ही क्यों ? उत्तर देते हैं कि कोई ऐसा समय भी आ जाता है, जब लक्ष्मी महारानी भी चल देती हैं । फिर प्रश्न होता है कि लक्ष्मी के चले जानेपर जो कोछ बचा बचाया धन है, वह भी चला जायेगा ही ॥७॥

दोहा-- जहाँ न आदर जीविका, नहिं प्रिय बन्धु निवास ।

नहिं विद्या जिस देश में, करहु न दिन इक वास ॥८॥

जिस देश में न सम्मान हो, न रोजी हो, न कोई भाईबन्धु हो और न विद्या का ही आगम हो, वहाँ निवास नहीं करना चाहिये ॥८॥

दोहा-- धनिक वेदप्रिय भूप अरु, नदी वैद्य पुनि सोय ।

बसहु नाहिं इक दिवस तह, जहँ यह पञ्च न होय ॥९॥

धनी (महाजन) वेदपाठी ब्राह्मण, राजा, नदी और पाँचवें वैद्य, ये पाँच जहाँ एक दिन भी न वसो ॥९॥

दोहा-- दानदक्षता लाज भय, यात्रा लोक न जान ।

पाँच नहीं जहँ देखिये, तहाँ न बसहु सुजान ॥१०॥

जिसमें रोजी, भय, लज्जा, उदारता और त्यागशीलता, ये पाँच गुण विद्यमान नहीं, ऎसे मनुष्य से मित्रता नहीं करनी चाहिये ॥१०॥

दोहा-- काज भृत्य कूँ जानिये, बन्धु परम दुख होय ।

मित्र परखियतु विपति में, विभव विनाशित जोय ॥११॥

सेवा कार्य उपस्थित होने पर सेवकों की, आपत्तिकाल में मित्र की, दुःख में बान्धवों की और धन के नष्ट हो जाने पर स्त्री की परीक्षा की जाती है ॥११॥

दोहा-- दुख आतुर दुरभिक्ष में, अरि जय कलह अभड्ग ।

भूपति भवन मसान में, बन्धु सोइ रहे सड्ग ॥१२॥

जो बिमारी में दुख में, दुर्भिक्ष में शत्रु द्वारा किसी प्रकार का सड्कट उपस्थित होनेपर, राजद्वार में और श्मशान पर जो ठीक समय पर पहुँचता है, वही बांधव कहलाने का अधिकारी है ॥१२॥

दोहा-- ध्रुव कूँ तजि अध्र अ गहै, चितमें अति सुख चाहि ।

ध्रुव तिनके नाशत तुरत, अध्र व नष्ट ह्वै जाहि ॥१३॥

जो मनुष्य निश्चित वस्तु छोडकर अनिश्चित की ओर दौडता है तो उसकी निश्चित वस्तु भी नष्ट हो जाती है और अनिश्चित तो मानो पहले ही से नष्ट थी ॥१३॥

दोहा-- कुल जातीय विरूप दोउ, चातुर वर करि चाह ।

रूपवती तउ नीच तजि, समकुल करिय विवाह ॥१४॥

समझदार मनुष्य का कर्तव्य है कि वह कुरूपा भी कुलवती कन्या के साथ विवाह कर ले, पर नीच सुरूपवती के साथ न करे । क्योंकि विवाह अपने समान कुल में ही अच्छा होता है ॥१४॥

दोहा-- सरिता श्रृड्गी शस्त्र अरु, जीव जितने नखवन्त ।

तियको नृपकुलको तथा , करहिं विश्वास न सन्त ॥१५॥

नदियों का, शस्त्रधारियोंका, बडे-बडे नखवाले जन्तुओं का, सींगवालों का, स्त्रियों का और राजकुल के लोगों का विश्वास नहीं करना चाहिये ॥१५॥

दोहा-- गहहु सुधा विषते कनक, मलते बहुकरि यत्न ।

नीचहु ते विद्या विमल, दुष्कुलते तियरत्न ॥१६॥

विष से भी अमृत, अपवित्र स्थान से भी कञ्चन, नीच मनुष्य से भी उत्तम विद्या और दुष्टकुल से भी स्त्रीरत्न को ले लेना चाहिए ॥१६॥

दोहा-- तिय अहार देखिय द्विगुण, लाज चतुरगुन जान ।

षटगुन तेहि व्यवसाय तिय, काम अष्टगुन मान ॥१७॥

स्त्रियों में पुरुषकी अपेक्षा दूना आहार चौगुनी लज्जा छगुना साहस और अठगुना काम का वेग रहता है ॥१७॥

इति चाणक्यनीतिदर्पणो प्रथमोऽध्यायः ॥१॥



चाणक्यनीति - अध्याय २

दोहा-- अनृत साहस मूढता, कपटरु कृतघन आइ ।

निरदयतारु मलीनता, तियमें सहज रजाइ ॥१॥

झूठ बोलना, एकाएक कोई काम कर बैठना, नखरे करना, मूर्खता करना, ज्यादा लालच रखना, अपवित्र रहना और निर्दयता का बर्ताव करना ये स्त्रियों के स्वाभाविक दोष हैं ॥१॥

दोहा-- सुन्दर भोजन शक्ति रति, शक्ति सदा वर नारि ।

विभव दान की शक्ति यह, बड तपफल सुखकारि ॥२॥

भोजन योग्यपदार्थों का उपलब्ध होते रहना, भोजन की शक्ति विद्यमान रहना (यानी स्वास्थ्य में किसी तरह की खराबी न रहना) रतिशक्ति बनी रहना, सुन्दरी स्त्री का मिलना, इच्छानुकूल धन रहना और साथ ही दानशक्ति का भी रहना, ये बातें होना साधारण तपस्या का फल नहीं है (जो अखण्ड तपस्या किये रहता है, उसको ये चीजें उपलब्ध होती हैं) ॥२॥

दोहा-- सुत आज्ञाकारी जिनाहिं, अनुगामिनि तिय जान ।

विभव अलप सन्तोष तेंहि, सुर पुर इहाँ पिछान ॥३॥

जिसका पुत्र अपने वश में, स्त्री आज्ञाकारिणी हो और जो प्राप्त धन से सन्तुष्ट है, उसके लिये यहाँ स्वर्ग है ॥३॥

दोहा-- ते सुत जे पितु भक्तिरत, हितकारक पितु होय ।

जेहि विश्वास सो मित्रवर, सुखकारक तिय होय ॥४॥

वे ही पुत्र, पुत्र हैं जो पिता के भक्त हैं । वही पिता, पिता है, हो अपनी सन्तानका उचित रीति से पालन पोषण करता है । वही मित्र, मित्र है कि जिसपर अपना विश्वास है और वही स्त्री स्त्री है कि जहाँ हृदय आनन्दित होता है ॥४॥

दोहा-- ओट कार्य की हानि करि, सम्मुख करैं बखान ।

अस मित्रन कहँ दूर तज, विष घट पयमुख जान ॥५॥

जो पीठ पीछे अपना काम बिगाशता हो और मुँहपर मीठीमीठी बातें करता हो, ऎसे मित्र को त्याग देना चाहिए । वह वैसे ही है जैसे किसी घडे में गले तक विष भरा हो, किन्तु मुँह पर थोडा सा दूध डाल दिया गया हो ॥५॥

दोहा-- नहिं विश्वास कुमित्र कर, किजीय मित्तहु कौन ।

कहहि मित्त कहुँ कोपकरि, गोपहु सब दुख मौन ॥६॥

(अपनी किसी गुप्त बात के विषय में ) कुमित्र पर तो कोसी तरह विश्वास न करे और मित्र पर भी न करे । क्योंकि हो सकता है कि वह मित्र कभी बिगड जाय और सारे गुप्त भेद खोल दे ॥६॥

दोहा-- मनतै चिंतित काज जो, बैनन ते कहियेन ।

मन्त्र गूढ राखिय कहिय, दोष काज सुखदैन ॥७॥

जो बात मनमें सोचे, वह वचन से प्रकाशित न करे । उस गुप्त बात की मन्त्रणा द्वारा रक्षा करे और गुप्त ढंग से ही उसे काम में भी लावे ॥७॥

दोहा-- मूरखता अरु तरुणता, हैं दोऊ दुखदाय ।

पर घर बसितो कष्ट अति, नीति कहत अस गाय ॥८॥

पहला कष्ट तो मूर्ख होना है, दूसरा कष्ट है जवानी और सब कष्टों से बढकर कष्ट है, पराये घर में रहना ॥८॥

दोहा-- प्रतिगिरि नहिं मानिक गनिय, मौक्ति न प्रतिगज माहिं ।

सब ठौर नहिं साधु जन, बन बन चन्दन नाहिं ॥९॥

हर एक पहाड पर माणिक नहीं होता, सब हाथियों के मस्तक में सुक्ता नहीं होता, सज्जन सर्वत्र नहीं होता, सज्जन सर्वत्र नहीं होते और चन्दन सब जंगलो में नहीं होता ॥९॥

दोहा-- चातुरता सुतकू सुपितु, सिखवत बारहिं बार ।

नीतिवन्त बुधवन्त को, पूजत सब संसार ॥१०॥

समझदार मनुष्य का कर्तव्य है कि वह अपने पुत्रों को विविध प्रकार के शील की शिक्षा दे । क्योंकि नीति को जानने वाले और शीलवान् पुत्र अपने कुल में पूजित होते हैं ॥१०॥

दोहा-- तात मात अरि तुल्यते, सुत न पढावत नीच ।

सभा मध्य शोभत न सो, जिमि बक हंसन बीच ॥११॥

जो माता अपने बेटे को पढाती नहीं, वह शत्रु है । उसी तरह पुत्र को न पढानेवाला पिता पुत्र का बैरी है । क्योंकि (इस तरह माता-पिता की ना समझी से वह पुत्र ) सभा में उसी तरह शोभित नहीं होता, जैसे हंसो के बीच में बगुला ॥११॥

दोहा-- सुत लालन में दोष बहु, गुण ताडन ही माहिं ।

तेहि ते सुतअरु शिष्यकूँ, ताडिय लालिय नाहिं ॥१२॥

बच्चों का दुलार करने में दोष है और ताडन करने में भुत से गुण हैं । इसलिए पुत्र और शिष्य को ताडना अधिक दे, दुलार न करे ॥१२॥

दोहा-- सीखत श्लोखहु अरध कै, पावहु अक्षर कोय ।

वृथा गमावत दिवस ना, शुभ चाहत निज सोय ॥१३॥

किसी एक श्लोक या उसके आधे आधे भाग या आधे के भी आधे भाग का मनन करे । क्योंकि भारतीय महर्षियों का कहना यही है कि जैसे भी हो दान, अध्ययन (स्वाध्याय) आदि सब कर्म करके बीतते हुए दिनों को सार्थक करो, इन्हें यों ही न गुजर न जाने दो ॥१३॥

दोहा-- युध्द शैष प्यारी विरह, दरिद बन्धु अपमान ।

दुष्टराज खलकी सभा, दाहत बिनहिं कृशान ॥१४॥

स्त्री का वियोग, अपने जनों द्वारा अपमान, युध्द में बचा हुआ शत्रु, दुष्ट राजा की सेवा, दरिद्रता और स्वार्थियों की सभा, ये बातें अग्नि के बिना ही शरीर को जला डालती हैं ॥१४॥

दोहा-- तरुवर सरिता तीरपर, निपट निरंकुश नारि ।

नरपति हीन सलाह नित, बिनसत लगे न बारि ॥१५॥

नदी के तट पर लगे वृक्ष, पराये घर रनेवाली स्त्री, बिना मंत्री का राजा, ये शीघ्र ही नष्ट हो जातें हैं ॥१५॥

दोहा-- विद्या बल है विप्रको, राजा को बल सैन ।

धन वैश्यन बल शुद्रको, सेवाही बलदैन ॥१६॥

ब्राह्मणों का बल विद्या है, राजाओं का बल उनकी सेना है, वैश्यों का बल धन है और शूद्रों का बलद्विजाति की सेवा है ॥१६॥

दोहा-- वेश्या निर्धन पुरुष को, प्रजा पराजित राय ।

तजहिं पखेरूनिफल तरु, खाय अतिथि चल जाय ॥१७॥

धनविहीन पुरुष को वेश्या, शक्तिहीन राजा को प्रजा, जिसका फल झड गया है, ऎसे वृक्ष को पक्षी त्याग देते हैं और भोजन कर लेने के बाद अतिथि उस घर को छोड देता है ॥१७॥

दोहा-- लेइ दक्षिणां यजमान सो, तजि दे ब्राह्मण वर्ग ।

पढि शिष्यन गुरु को तजहिं, हरिन दग्ध बन पर्व ॥१८॥

ब्राह्मण दक्षिणा लेकर यजमान को छोड देते हैं । विद्या प्राप्त कर लेने के बाद विद्यार्थी गुरु को छोड देता है और जले हुए जंगल को बनैले जीव त्याग देते हैं ॥१८॥

दोहा-- पाप दृष्टि दुर्जन दुराचारी दुर्बस जोय ।

जेहि नर सों मैत्री करत, अवशि नष्ट सो होय ॥१९॥

दुराचारी, व्यभिचारी, दूषित स्थान के निवासी, इन तीन प्रकार के मनुष्य़ों से जो मनुष्य मित्रता करता है, उसका बहुत जल्दी विनाश हो जाता है ॥१९॥

दोहा-- सम सों सोहत मित्रता, नृप सेवा सुसोहात ।

बनियाई व्यवहार में, सुन्दरि भवन सुहात ॥२०॥

बराबरवाले के साथ मित्रता भली मालूम होती है । राजा की सेवा अच्छी लगती है । व्यवहार में बनियापन भला लगता है और घर में अन्दर स्त्री भली मालूम होती है ॥२०॥

इति चाणक्य नीति-दर्पण द्वितीयोऽध्यायः ॥२॥


चाणक्यनीति - अध्याय ३

दोहा-- केहि कुल दूषण नहीं, व्याधि न काहि सताय ।

कष्ट न भोग्यो कौन जन, सुखी सदा कोउ नाय ॥१॥

जिसके कुल में दोष नहीं है ? कितने ऎसे प्राणी हैं जो किसी प्रकार के रोगी नहीं है ? कौन ऎसा जीव है कि हमेशा जिसे सुख ही सुख मिल रहा है ? ॥१॥

दोहा-- महत कुलहिं आचार भल, भाषन देश बताय ।

आदर प्राप्ति जनावहि, भोजन देहु मुटाय ॥२॥

मनुष्य का आचरण उसके कुल को बता देता है, उसका भाषण देश का पता दे देता है, उसका आदर भाव प्रेम का परिचय दे देता है और शरीर भोजनका हाल कह देताहै ॥२॥

दोहा-- कन्या ब्याहिय उच्च कुल, पुत्रहिं शास्त्र पढाय ।

शत्रुहिं दुख दीजै सदा, मित्रहिं धर्म सिखाय ॥३॥

मनुष्य का कर्तव्य है कि अपनी कन्या किसी अच्छे खानदान वाले को दे । पुत्र को विद्याभ्यास में लगा दे । शत्रु को विपत्ति में फँसा दे और मित्र को धर्मकार्य में लगा दे ॥३॥

दोहा-- खलहु सर्प इन सुहुन में, भलो सर्प खल नाहिं ।

सर्प दशत है काल में, खलजन पद पद माहिं ॥४॥

दुर्जन और साँप इन दोनों में, दुर्जन की अपेक्षा साँप कहीं अच्छा है । क्योंकि साँप समय पाकर एक ही बार काटता है और दुर्जन पद पद पर काटता रहता है ॥४॥

दोहा-- भूप कुलीनन्ह को करै, संग्रह याही हेत ।

आदि मध्य और अन्त में, नृपहि न ते तजि देत ॥५॥

राजा लोग कुलीन पुरुषों को अपने पास इसलिए रखते हैं कि जो आदि मध्य और अन्त किसी समय भी राजा को नहीं छोडता ॥५॥

दोहा-- मर्यादा सागर तजे, प्रलय होन के काल ।

उत साधू छोड नहीं, सदा आपनी चाल ॥६॥

समुद्र तो प्रलयकाल में अपनी मर्यादा भी भंग कर देते हैं (उमड कर सारे संसार को डुबो देते हैं) । पर सज्जन लोग प्रलयकाल में भी अपनी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करते हैं ॥६॥

दोहा-- मूरख को तजि दीजिये, प्रगट द्विपद पशु जान ।

वचन शल्यते वेधहीं, अड्गहिं कांट समान ॥७॥

मूर्ख को दो पैरवाला पशु समझ कर उसे त्याग ही देना चाहिए । क्योंकि यह समय-समय पर अपने वाक्यरूपी शूल से उसी तरह बेधता है जैसे न दिखायी पडता हुआ कांटा चुभ जाता है ॥७॥

दोहा-- संयुत जीवन रूपते, कहिये बडे कुलीन ।

विद्या बिन शोभत नहीं पुहुप गंध ते हीन ॥८॥

रूप और यौवन से युक्त, विशाल कुल में उत्पन्न होता हुआ भी विद्याविहीन मनुष्य उसी प्रकार अच्छा नहीं लगता, जैसे सुगंधि रहित पलास फूल ॥८॥

दोहा-- रूप कोकिला रव तियन, पतिव्रत रूप अनूप ।

विद्यारूप कुरूप को, क्षमा तपस्वी रूप ॥९॥

कोयल का सौन्दर्य है उसकी बोली, स्त्री का सौन्दर्य है उसका पातिव्रत । कुरूप का सौन्दर्य है उसकी विद्या और तपस्वियों का सौन्दर्य है उनकी क्षमाशक्ति ॥९॥

दोहा-- कुलहित त्यागिय एककूँ, गृहहु छाडि कुल ग्राम ।

जनपद हित ग्रामहिं तजिय, तनहित अवनि तमाम ॥१०॥

जहाँ एक के त्यागने से कोल की रक्षा हो सकती हो, वहाँ उस एक को त्याग दे । यदि कुल के त्यागने से गाँव की रक्षा होती हो तो उस कुल को त्याग दे । यदि उस गाँव के त्यागने से जिले की रक्षा हो तो गाँव को त्याग दे और यदि पृथ्वी के त्यागने से आत्मरक्षा सम्भव हो तो उस पृथ्वी को ही त्याग दे ॥१०॥

दोहा-- नहिं दारिद उद्योग पर, जपते पातक नाहिं ।

कलह रहे ना मौन में, नहिं भय जागत माहिं ॥११॥

उद्योग करने पर दरिद्रता नहीं रह सकती । ईश्वर का बार बार स्मरण करते रहने पर पाप नहीं हो सकता । चुप रहने पर लडाई झगडा नहीं हो सकता और जागते हुए मनुष्य के पास भय नहीं टिक सकता ॥११॥

दोहा-- अति छबि ते सिय हरण भौ, नशि रावण अति गर्व ।

अतिहि दान ते बलि बँधे, अति तजिये थल सर्व ॥१२॥

अतिशय रूपवती होने के कारण सीता हरी गई । अतिशय गर्व से रावण का नाश हुआ । अतिशय दानी होने के कारण वलि को बँधना पडा । इसलिये लोगों को चाहिये कि किसी बात में 'अति' न करें ॥१२॥

दोहा-- उद्योगिन कुछ दूर नहिं, बलिहि न भार विशेष ।

प्रियवादिन अप्रिय नहिं, बुधहि न कठिन विदेश ॥१३॥

समर्थ्यवाले पुरुष को कोई वस्तु भारी नहीं हो सकती । व्यवसायी मनुष्य के लिए कोई प्रदेश दूर नहीं कहा जा सकता और प्रियवादी मनुष्य किसी का पराया नहीं कहा जा सकता ॥१३॥

दोहा-- एक सुगन्धित वृक्ष से, सब बन होत सुवास ।

जैसे कुल शोभित अहै, रहि सुपुत्र गुण रास ॥१४॥

(वन) के एक ही फूले हुए और सुगन्धित वृक्ष ने सारे वन को उसी तरह सुगन्धित कर दिया जैसे कोई सपूत अपने कुल की मर्यादा को उज्ज्वल कर देता है ॥१४॥

दोहा-- सूख जरत इक तरुहुते, जस लागत बन दाढ ।

कुलका दाहक होत है, तस कुपूत की बाढ ॥१५॥

उसी तरह वनके एक ही सूखे और अग्नि से जतते हुए वृक्ष के कारण सारा वन जल कर खाक हो जाता है । जैसे किसी कुपूत के कारण खानदान का खानदान बदनाम हो जाता है ॥१५।

सोरठा-- एकहु सुत जो होय, विद्यायुत अरु साधु चित ।

आनन्दित कुल सोय, यथा चन्द्रमा से निशा ॥१६॥

एक ही सज्जन और विद्वान पुत्र से सारा कुल आह् लादित हो उठता है, जैसे चन्द्र्मा के प्रकाश से रात्रि जगमगा उठती है ।

दोहा-- करनहार सन्ताप सुत, जनमें कहा अनेक ।

देहि कुलहिं विश्राम जो, श्रेष्ठ होय वरु एक ॥१७॥

शोक और सन्ताप देनेवाले बहुत से पुत्रों के होने से क्या लाभ ? अपने कुल के अनुसार चलनेवाला एक ही पुत्र बहुत है कि जहाँ सारा कुल विश्राम कर सके ॥१७॥

दोहा-- पाँच वर्ष लौं लीलिए, दसलौं ताडन देइ ।

सुतहीं सोलह वर्ष में, मित्र सरिस गनि देइ ॥१८॥

पाँच वर्ष तक बच्चे का दुलार करे । फिर दस वर्ष तक उसे ताडना दे, किन्तु सोलह वर्ष के हो जाने पर पुत्र को मित्र के समान समझे ॥१८॥

दोहा-- काल उपद्रव संग सठ, अन्य राज्य भय होय ।

तेहि थल ते जो भागिहै, जीवत बचिहै सोय ॥१९॥

दंगा बगैरह खडा हो जाने पर, किसी दूसरे राजा के आक्रमण करने पर, भयानक अकाल पडने पर और किसी दुष्ट का साथ हो जाने पर , जो मनुष्य भाग निकलता है, वही जीवित रहता है ॥१९॥

दोहा-- धरमादिक चहूँ बरन में, जो हिय एक न धार ।

जगत जननि तेहि नरन के, मरिये होत अबार ॥२०॥

धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पदार्थों में से एक पदार्थ भी जिसको सिध्द नहीं हो सका, ऎसे मनुष्य का मर्त्यलोक में बार-बार जन्म केवल मरने के लिए होता है । और किसी काम के लिए नहीं ॥२०॥

दोहा-- जहाँ अन्न संचित रहे, मूर्ख न पूजा पाव ।

दंपति में जहँ कलह नहिं, संपत्ति आपुइ आव ॥२१॥

जिस देश में मूर्खों की पूजा नहीं होती, जहाँ भरपूर अन्न का संचय रहता है और जहाँ स्त्री पुरुष में कलह नहीं होता, वहाँ बस यही समझ लो कि लक्ष्मी स्वयं आकर विराज रही हैं ॥२१॥

इति चाणक्ये तृतीयोऽध्यायः ॥३॥


चाणक्यनीति - अध्याय ४

सोरठा-- आयुर्बल औ कर्म, धन, विद्या अरु मरण ये ।

नीति कहत अस मर्म, गर्भहि में लिखि जात ये ॥१॥

आयु, कर्म, धन, विद्या, और मृत्यु ये पाँच बातें तभी लिख दी जाती हैं, जब कि मनुष्य गर्भ में ही रहता है ॥१॥

दोहा-- बाँधव जनमा मित्र ये, रहत साधु प्रतिकूल ।

ताहि धर्म कुल सुकृत लहु, वो उनके प्रतिकूल ॥३॥

संसार के अधिकांश पुत्र, मित्र और बान्धव सज्जनों से पराड्मुख ही रहते हैं, लेकिन जो पराड्मुख न रह कर सज्जनों के साथ रहते हैं, उन्हीं के धर्म से वह कुल पुनीत हो जाता है ॥२॥

दोहा-- मच्छी पच्छिनि कच्छपी, दरस, परस करि ध्यान ।

शिशु पालै नित तैसे ही, सज्जन संग प्रमान ॥३॥

जैसे मछली दर्शन से, कछुई ध्यान से और पक्षिणी स्पर्श से अपने बच्चे का पालन करती है, उसी तरह सज्जनों की संगति मनुष्य का पालन करती है ॥३॥

दोहा-- जौलों देह समर्थ है, जबलौं मरिबो दूरि ।

तौलों आतम हित करै, प्राण अन्त सब धूरि ॥४॥

जब तक कि शरीर स्वस्थ है और जब तक मृत्यु दूर है । इसी बीच में आत्मा का कल्याण कर लो । अन्त समय के उपस्थित हो जाने पर कोई क्या करेगा ? ॥४॥

दोहा-- बिन औसरहू देत फल, कामधेनु सम नित्त ।

माता सों परदेश में, विद्या संचित बित्त ॥५॥

विद्या में कामधेनु के समान गुण विद्यमान है । यह असमय में भी फल देती है । परदेश में तो यह माता की तरह पालन करती है । इसलिए कहा जाता है विद्या गुप्त धन है ॥५॥

दोहा-- सौ निर्गुनियन से अधिक, एक पुत्र सुविचार ।

एक चन्द्र तम कि हरे, तारा नहीं हजार ॥६॥

एक गुणवान पुत्र सैकडों गुणहीन पुत्रों से अच्छा है ।अकेला चन्द्रमा अन्धकार के दुर कर देता है, पर हजारों तारे मिलकर उसे नहीं दूर कर पाते ॥६॥

दोहा-- मूर्ख चिरयन से भलो, जन्मत हो मरि जाय ।

मरे अल्प दुख होइहैं, जिये सदा दुखदाय ॥७॥

मूर्ख पुत्र का चिरजीवी होकर जीना अच्छा नहीं है । बल्कि उससे वह पुत्र अच्छा है, जो पैदा होते ही मर जाय । क्योंकि मरा पुत्र थोडे दुःख का कारण होता है, पर जीवित मूर्ख पुत्र जन्मभर जलाता ही रहता है ॥७॥

दोहा-- घर कुगाँव सुत मूढ तिय, कुल नीचनि सेवकाइ ।

मूर्ख पुत्र विधवा सुता, तन बिन अग्नि जराइ ॥८॥

खराब गाँव का निवास, नीच कुलवाले प्रभु की सेवा, खराब भोजन, कर्कशा स्त्री, मूर्ख पुत्र और विधवा पुत्री ये छः बिना आग के ही प्राणी के शरीर को भून डालते हैं ॥८॥

दोहा-- कहा होय तेहि धेनु जो, दूध न गाभिन होय ।

कौन अर्थ वहि सुत भये, पण्डित भक्त न होय ॥९॥

ऎसी गाय से क्या लाभ जो न दूध देती है और न गाभिन हो । उसी प्रकार उस पुत्र से क्या लाभ, जो न विद्वान हो और न भक्तिमान् ही होवे ॥९॥

सोरठा-- यह तीनों विश्राम, मोह तपन जग ताप में ।

हरे घोर भव घाम, पुत्र नारि सत्संग पुनि ॥१०॥

सांसारिक ताप से जलते हुए लोगों के तीन ही विश्राम स्थल हैं । पुत्र, स्त्री और सज्जनों का संग ॥१०॥

दोहा-- भुपति औ पण्डित बचन, औ कन्या को दान ।

एकै एकै बार ये, तीनों होत समान ॥११॥

राजा लोग केवल एक बात कहतें हैं, उसी प्रकार पण्डित लोग भी केवल एक ही बार बोलते हैं, ( आर्यधर्मावलम्बियोंके यहाँ ) केवल एक बार कन्या दी जाती हैं, ये तीन बातें केवल एक ही बार होती हैं ॥११॥

दोहा-- तप एकहि द्वैसे पठन, गान तीन मग चारि ।

कृषी पाँच रन बहुत मिलु, अस कह शास्त्र विचारि ॥१२॥

अकेले में तपस्या, दो आदमियों से पठन, तीन गायन, चार आदमियों से रास्ता, पाँच आदमियों के संघ से खेती का काम और ज्यादा मनुष्यों को समुदाय द्वारा युध्द सम्पन्न होता है ॥१२॥

दोहा-- सत्य मधुर भाखे बचन, और चतुरशुचि होय ।

पति प्यारी और पतिव्रता, त्रिया जानिये सोय ॥१३॥

वही भार्या (स्त्री) भार्या है, जो पवित्र, काम-काज करने में निपुण, पतिव्रता, पतिपरायण और सच्ची बात करने वाली हो ॥१३॥

दोहा-- है अपुत्र का सून घर, बान्धव बिन दिशि शून ।

मूरख का हिय सून है, दारिद का सब सून ॥१४॥

जिसके पुत्र नहीं जओ, उसका घर सूना है । जिसका कोई भाईबन्धु नहीं होता, उसके लिए दिशाएँ शून्य रहती हैं । मूर्ख मनुष्य का हृदय शून्य रहता है और दरिद्र मनुष्य के लिए सारा संसार सूना रहता है ॥१४॥

दोहा-- भोजन विष है बिन पचे, शास्त्र बिना अभ्यास ।

सभा गरल सम रंकहिं, बूढहिं तरुनी पास ॥१५॥

अनभ्यस्त शास्त्र विष के समान रहता है, अजीर्ण अवस्था में फिर से भोजन करना विष है । दरिद्र के लिए सभा विष है और बूढे पुरुष के लिए युवती स्त्री विष है ॥१५॥

दोहा-- दया रहित धर्महिं तजै, औ गुरु विद्याहीन ।

क्रोधमुखी प्रिय प्रीति बिनु, बान्धव तजै प्रवीन ॥१६॥

जिस धर्म में दया का उपदेश न हो, वह धर्म त्याग दे । जिस गुरु में विद्या न हो, उसे त्याग दे । हमेशा नाराज रहनेवाली स्त्री त्याग दे और स्नेहविहीन भाईबन्धुओं को त्याग देना चाहिये ॥१६॥

दोहा-- पन्थ बुराई नरन की, हयन पंथ इक धाम ।

जरा अमैथुन तियन कहँ, और वस्त्रन को धाम ॥१७॥

मनुष्यों के लिए रास्ता चलना बुढापा है । घोडे के लिए बन्धन बुढापा है । स्त्रियों के लिए मैथुन का अभाव बुढापा है । वस्त्रों के लिए घाम बुढापा है ॥१७॥

दोहा-- हौं केहिको का शक्ति मम, कौन काल अरु देश ।

लाभ खर्च को मित्र को, चिन्ता करे हमेश ॥१८॥

यह कैसा समय है, मेरे कौन २ मित्र हैं, यह कैसा देश है, इस समय हमारी क्या आमदनी और क्या खर्च है, मैं किसेके अधीन हूँ और मुझमें कितनी शक्ति है इन बातों को बार-बार सोचते रहना चाहिये ॥१८॥

दोहा-- ब्राह्मण, क्षतिय, वैश्य को, अग्नि देवता और ।

मुनिजन हिय मूरति अबुध, समदर्शिन सब ठौर ॥१९॥

द्विजातियों के लिए अग्नि देवता हैं, मुनियों का हृदय ही देवता है, साधारण बुध्दिवालों के लिए प्रतिमायें ही देवता है और समदर्शी के लिए सारा संसार देवमय है ॥१९॥

इति चाणक्ये चतुर्थोऽध्यायः ॥४॥



चाणक्यनीति - अध्याय ५

दोहा-- अभ्यागत सबको गुरु, नारि गुरु पति जान ।

द्विजन अग्नि गुरु चारिहूँ, वरन विप्र गुरु मान ॥१॥

ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य इन तीनों का गुरु अग्नि है । उपर्युक्त चारो वर्णों का गुरु ब्राह्मण है, स्त्री का गुरु उसका पति है और संसार मात्र का गुरु अतिथि है ॥१॥

दोहा-- आगिताप घसि काटि पिटि, सुवरन लख विधि चारि ।

त्यागशील गुण कर्म तिमि, चारिहि पुरुष विचारि ॥२॥

जैसे रगडने से, काटने से, तपाने से और पीटने से, इन चार उपायों से सुवर्ण की परीक्षा की जाती है, उसी प्रकार त्याग, शील, गुण और कर्म, इन चार बातों से मनुष्य की परीक्षा होती है ॥२॥

दोहा-- जौलौं भय आवै नहीं, तौलौं डरे विचार ।

आये शंका छाडि के, चाहिय कीन्ह प्रहार ॥३॥

भय से तभी तक डरो, जब तक कि वह तुम्हारे पास तक न आ जाय । और जन आ ही जाय तो डरो नहीं बल्कि उसे निर्भिक भाव से मार भगाने की कोशिश करो ॥३॥

दोहा-- एकहि गर्भ नक्षत्र में, जायमान यदि होय ।

नाहिं शील सम होत है, बेर काँट सम होय ॥४॥

एक पेट से और एक ही नक्षत्र में उत्पन्न होने से किसी का शील एक सा नहीं हो जाता । उदाहरण स्वरूप बेर के काँटों को देखो ॥४॥

दोहा-- नहि निस्पृह अधिकार गहु, भूषण नहिं निहकाम ।

नहिं अचतुर प्रिय बोल नहिं, बंचक साफ कलाम ॥५॥

निस्पृह मनुष्य कभी अधिकारी नहीं हो सकता । वासना से शुन्य मनुष्य श्रृंगार का प्रेमी नहीं हो सकता । जड मनुष्य कभी मीठी वाणी नहीं बोल सकता और साफ-साफ बात करने वाला धोखेबाज नहीं होता ॥५॥

दोहा-- मूरख द्वेषी पण्डितहिं, धनहीनहिं धनवान् ।

परकीया स्वकियाहु का, विधवा सुभगा जान ॥६॥

मूर्खों के पण्डित शत्रु होते हैं । दरिद्रों के शत्रु धनी होते हैं । कुलवती स्त्रीयों के शत्रु वेश्यायें होती हैं और सुन्दर मनुष्यों के शत्रु कुरूप होते है ॥६॥

दोहा-- आलस ते विद्या नशै, धन औरन के हाथ ।

अल्प बीज से खेत अरु, दल दलपति बिनु साथ ॥७॥

आलस्य से विद्या, पराये हाथ में गया धन, बीज में कमी करने से खेती और सेनापति विहीन सेना नष्ट हो जाती है ॥६॥

दोहा-- कुल शीलहिं ते धारिये, विद्या करि अभ्यास ।

गुणते जानहिं श्रेष्ठ कहँ, नयनहिं कोप निवास ॥८॥

अभ्यास से विद्या की और शील से कुल की रक्षा होती है । गुण से मनुष्य पहिचाना जाता है और आँखें देखने से क्रोध का पता लग जाता है ॥८॥

दोहा-- विद्या रक्षित योग ते, मृदुता से भूपाल ।

रक्षित गेह सुतीय ते, धन ते धर्म विशाल ॥९॥

धन से धर्म की, योग से विद्या की, कोमलता से राजा की और अच्छी स्त्री से घर की रक्षा होती है ॥९॥

दोहा-- वेद शास्त्र आचार औ, शास्त्रहुँ और प्रकार ।

जो कहते लहते वृथा, लोग कलेश अपार ॥१०॥

वेद को, पाण्डित्य को, शास्त्र को, सदाचार को और अशान्त मनुष्य को जो लोग बदनाम करना चाहता हैं, वे व्यर्थ कष्ट करते हैं ॥१०॥

सोरठा-- दारिद नाशन दान, शील दुर्गतिहिं नाशियत ।

बुध्दि नाश अज्ञा, भय नाशत है भावना ॥११॥

दान दरिद्रता को नष्ट करता है, शील दुरवस्था को नष्ट कर देता है, बुध्दि अज्ञान को नष्ट कर देती है और विचार भय को नष्ट कर दिया करता है ॥११॥

सोरठा-- व्याधि न काम समान, रिपु नहिं दूजो मोह सम ।

अग्नि कोप से आन, नहीं ज्ञान से सुख परे ॥१२॥

काम के समान कोई रोग नहीं है, मोह (अज्ञान) के समान शत्रु नहीं है, क्रोध के समान और कोई अग्नि नहीं है और ज्ञान से बढकर और कोई सुख नहीं है ॥१२॥

सोरठा-- जन्म मृत्यु लहु एक, भोगै है इक शुभ अशुभ ।

नरक जात है एक, लहत एक ही मुक्तिपद ॥१३॥

संसार के मनुष्यों में से एक मनुष्य जन्म मरण के चक्कर में पडता है, एक अपने शुभाशुभ कर्मों का फल भोगता है एक नरक में जा गिरता है और एक परम पद को प्राप्त कर लेता है ॥१३॥

दोहा-- ब्रह्मज्ञानिहिं स्वर्गतृन, जिद इन्द्रिय तृणनार ।

शूरहिं तृण है जीवनी, निस्पृह कहँ संसार ॥१४॥

ब्रह्मज्ञानी के लिये स्वर्ग तिनके के समान है । बहादुर के लिए जीवन तृण के समान है जितेन्द्रिय को नारी और निस्पृह के लिए सारा संसार तृण के समान है ॥१४॥

दोहा-- विद्या मित्र विदेश में, घर तिय मीत सप्रीत ।

रोगिहि औषध अरु मरे, धर्म होत है मीत ॥१५॥

परदेश में विद्या मित्र है, घर में स्त्री मित्र है । रोगी को औषधि मित्र है और मरे हुए मनुष्य का धर्म मित्र है ॥१५॥

दोहा-- व्यर्थहिं वृष्टि समुद्र में, तृप्तहिं भोजन दान ।

धनिकहिं देनों व्यर्थ है, व्यर्थ दीप दीनमान ॥१६॥

समुद्र में वर्षा व्यर्थ है । तृप्त को भोजन व्यर्थ है । धनाढ्य को दान देना व्यर्थ और दिन के समय दीपक जलाना व्यर्थ है ॥१६॥

दोहा-- दूजो जल नहिं मेघ सम, बल नहिं आत्म समान ।

नहिं प्रकाश है नैन सम, प्रिय अनाज सम आन ॥१७॥

मेघ जल के समान उत्तम और कोई जल नहीं होता । आत्मबल के समान और कोई बल नहीं है । नेत्र के समान किसी में तेज नहीं है और अन्न के समान प्रिय कोई वस्तु नहीं है ॥१७॥

दोहा-- अधनी धन को चाहते, पशु चाहे वाचाल ।

नर चाहत है स्वर्ग को,सुरगण मुक्ति विशाल ॥१८॥

दरिद्र मनुष्य धन चाहते हैं । चौपाये वाणी चाहते हैं । मनुष्य स्वर्ग चाहतें हैं और देवता लोग मोक्ष चाहते हैं ॥१८॥

दोहा-- सत्यहि ते रवि तपत हैं, सत्यहिं पर भुवभार ।

चले पवनहू सत्य ते, सत्यहिं सब आधार ॥१९॥

सत्य के आधार पर पृथ्वी रुकी है । सत्य के सहारे सूर्य भगवान् संसार को गर्मी पहुँचाते हैं । सत्य के ही बल पर वायु वहता है । कहने का मतलब यह कि सब कुछ सत्य में ही है ॥१९॥

दोहा-- चल लक्ष्मी औ प्राणहू, और जीविका धाम ।

मह चलाचल जगत में, अचल धर्म अभिराम ॥२०॥

लक्ष्मी चंचल है, प्राण भी चंचल ही है, जीवन तथा घर द्वार भी चंचल है और कहाँ तक कहें यह सारा संसार चंचल है, बस धर्म केवल अचल और अटल है ॥२०॥

दोहा-- नर में नाई धूर्त है, मालिन नारि लखाहिं ।

चौपायन में स्यार है, वायस पक्षिन माहिं ॥२१॥

मनुष्यों में नाऊ, पक्षियों में कौआ, चौपायों में स्यार और स्त्रियों में मालिन, ये सब धूर्त होते हैं ॥२१॥

दोहा-- पितु आचारज जन्म पद, भय रक्षक जो कोय ।

विद्या दाता पाँच यह, मनुज पिता सम होय ॥२२॥

संसार में पिता पाँच प्रकार के होते हैं । ऎसे कि जन्म देने वाला, विद्यादाता, यज्ञोपवीत आदि संस्कार करनेवाला, अन्न देनेवाला और भय से बचानेवाला ॥२२॥

दोहा-- रजतिय औ गुरु तिय, मित्रतियाहू जान ।

निजमाता और सासु ये, पाँचों मातु समान ॥२३॥

उसी तरह माता भी पाँच ही तरह की होती हैं । जैसे राजा की पत्नी, गुरु की पत्नी, मित्र की पत्नी, अपनी स्त्री की माता और अपनी खास माता ॥२३॥

इति चाणक्ये पञ्चमोऽध्यायः ॥५॥



चाणक्यनीति - अध्याय ६

दोहा-- सुनिकै जानै धर्म को, सुनि दुर्बुधि तजि देत ।

सुनिके पावत ज्ञानहू, सुनहुँ मोक्षपद लेत ॥१॥

मनुष्य किसी से सुनकर ही धर्म का तत्व समझता है । सुनकर ही दुर्बुध्दि को त्यागता है । सुनकर ही ज्ञान प्राप्त करता है और सुनकर ही मोक्षपद को प्राप्त कर लेता है ॥१॥

दोहा-- वायस पक्षिन पशुन महँ, श्वान अहै चंडाल ।

मुनियन में जेहि पाप उर, सबमें निन्दक काल ॥२॥

पक्षियों में चाण्डाल है कौआ, पशुओं में चाण्डाल कुत्ता, मुनियों में चाण्डाल है पाप और सबसे बडा चाण्डाल है निन्दक ॥२॥

दोहा-- काँस होत शुचि भस्म ते, ताम्र खटाई धोइ ।

रजोधर्म ते नारि शुचि, नदी वेग ते होइ ॥३॥

राख से काँसे का बर्तन साफ होता है, खटाई से ताँबा साफ होता है, रजोधर्म से स्त्री शुध्द होती है और वेग से नदी शुध्द होती है ॥३॥

दोहा-- पूजे जाते भ्रमण से, द्विज योगी औ भूप ।

भ्रमण किये नारी नशै, ऎसी नीति अनूप ॥४॥

भ्रमण करनेवाला राजा पूजा जाता है, भ्रमण करता हुआ ब्राह्मण भी पूजा जाता है और भ्रमण करता हुआ योगी पूजा जाता है, किन्तु स्त्री भ्रमण करने से नष्ट हो जाती है ॥४॥

दोहा-- मित्र और है बन्धु तेहि, सोइ पुरुष गण जात ।

धन है जाके पास में, पण्डित सोइ कहात ॥५॥

जिसके पास धन है उसके बहुत से मित्र हैं, जिसके पास धन है उसके बहुत से बान्धव हैं । जिसके पास धन है वही संसार का श्रेष्ठ पुरुष है और जिसके पास धन है वही पण्डित है ॥५॥
दोहा-- तैसोई मति होत है, तैसोई व्यवसाय ।

होनहार जैसी रहै, तैसोइ मिलत सहाय ॥६॥

जैसा होनहार होता है, उसी तरह की बुध्दि हो जाती है, वैसा ही कार्य होता है और सहायक भी उसी तरह के मिल जाते हैं ॥६॥

दोहा-- काल पचावत जीव सब, करत प्रजन संहार ।

सबके सोयउ जागियतु, काल टरै नहिं टार ॥७॥

काल सब प्राणियों को हजम किए जाता है । काल प्रजा का संहार करता है, लोगों के सो जाने पर भी वह जागता रहता है । तात्पर्य यह कि काल को कोई टाल नहीं सकता ॥७॥

दोहा-- जन्म अन्ध देखै नहीं, काम अन्ध नहिं जान ।

तैसोई मद अन्ध है, अर्थी दोष न मान ॥८॥

न जन्म का अन्धा देखता है, न कामान्ध कुछ देख पाता है और न उन्मत्त पुरुष ही कोछ देख पाता है । उसी तरह स्वार्थी मनुष्य किसी बात में दोष नहीं देख पाता ॥८॥

दोहा-- जीव कर्म आपै करै, भोगत फलहू आप ।

आप भ्रमत संसार में, मुक्ति लहत है आप ॥९॥

जीव स्वयं कर्म करता है और स्वयं उसका शुभाशुभ फल भोगता है । वह स्वयं संसार में चक्कर खाता है और समय पाकर स्वयं छुटकारा भी पा जाता है ॥९॥

दोहा-- प्रजापाप नृप भोगियत, प्रेरित नृप को पाप ।

तिय पातक पति शिष्य को, गुरु भोगत है आप ॥१०॥

राज्य के पाप को राजा, राजाका पाप पुरोहित, स्त्रीका पाप पति और शिष्य के द्वारा किये हुए पाप को गुरु भोगता है ॥१०॥

दोहा-- ऋणकर्ता पितु शत्रु, पर-पुरुषगामिनी मत ।

रूपवती तिय शत्रु है, पुत्र अपंडित जात ॥११॥

ऋण करनेवाले पिता, व्याभिचारिणी माता, रूपवती स्त्री और मूर्ख पुत्र, ये मानवजातिके शत्रु हैं ॥११॥

दोहा-- धनसे लोभी वश करै, गर्विहिं जोरि स्वपान ।

मूरख के अनुसरि चले, बुध जन सत्य कहान ॥१२॥

लालचीको धनसे, घमएडी को हाथ जोडकर, मूर्ख को उसके मनवाली करके और यथार्थ बात से पण्डित को वश में करे ॥१२॥

दोहा-- नहिं कुराज बिनु राज भल, त्यों कुमीतहू मीत ।

शिष्य बिना बरु है भलो, त्यों कुदार कहु नीत ॥१३॥

राज्य ही न हो तो अच्छा, पर कुराज्य अच्छा नहीं । मित्र ही न हो तो अच्छा, पर कुमित्र होना ठीक नहीं । शिष्य ही न हो तो अच्छा, पर कुशिष्य का होना अच्छा नहीं । स्त्री ही न हो तो ठीक है, पर खराब स्त्री होना अच्छा नहीं ॥१३॥

दोहा-- सुख कहँ प्रजा कुराजतें, मित्र कुमित्र न प्रेय ।

कहँ कुदारतें गेह सुख, कहँ कुशिष्य यश देय ॥१४॥

बदमाश राजा के राज में प्रजा को सुख क्योंकर मिल सकता है । दुष्ट मित्र से भला हृदय्कब आनन्दित होगा । दुष्ट स्त्री के रहने पर घर कैसे अच्छा लगेगा और दुष्ट शिष्य को पढा कर यश क्यों कर प्राप्त हो सकेगा ॥१४॥

दोहा-- एक सिंह एक बकन से, अरु मुर्गा तें चारि ।

काक पंच षट् स्वान तें, गर्दभ तें गुन तारि ॥१५॥

सिंह से एक गुण, बगुले से एक गुण, मुर्गे से चार गुण, कौए से पाँच गुण, कुत्ते से छ गुण और गधे से तीन गुण ग्रहण करना चाहिए ॥१५॥

दोहा-- अति उन्नत कारज कछू, किय चाहत नर कोय ।

करै अनन्त प्रयत्न तैं, गहत सिंह गुण सोय ॥१६॥

मनुष्य कितना ही बडा काम क्यों न करना चाहता हो, उसे चाहिए कि सारी शक्ति लगा कर वह काम करे । यह गुण सिंह से ले ॥१६॥

दोहा-- देशकाल बल जानिके, गहि इन्द्रिय को ग्राम ।

बस जैसे पण्डित पुरुष, कारज करहिं समान ॥१७॥

समझदार मनुष्य को चाहिए कि वह बगुले की तरह चारों ओर से इन्द्रियों को समेटकर और देश काल के अनुसार अपना बल देख कर सब कार्य साधे ॥१७॥

दोहा-- प्रथम उठै रण में जुरै, बन्धु विभागहिं देत ।

स्वोपार्जित भोजन करै, कुक्कुट गुन चहुँ लेत ॥१८॥

ठीक समय से जागना, लडना, बन्धुओंके हिस्से का बटवारा और छीन झपट कर भोजन कर लेना, ये चार बातें मुर्गे से सीखे ॥१८॥

दोहा-- अधिक ढीठ अरु गूढ रति, समय सुआलय संच ।

नहिं विश्वास प्रमाद जेहि, गहु वायस गुन पंच ॥१९॥

एकान्त में स्त्री का संग करना , समय-समय पर कुछ संग्रह करते रहना, हमेशा चौकस रहना और किसी पर विश्वास न करना, ढीठ रहना, ये पाँच गुण कौए से सीखना चाहिए ॥१९॥

दोहा-- बहु मुख थोरेहु तोष अति, सोवहि शीघ्र जगात ।

स्वामिभक्त बड बीरता, षट्गुन स्वाननहात ॥२०॥

अधिक भूख रहते भी थोडे में सन्तुष्ट रहना, सोते समय होश ठीक रखना, हल्की नींद सोना, स्वामिभक्ति और बहादुरी-- ये गुण कुत्ते से सीखना चाहिये ॥२०॥

दोहा-- भार बहुत ताकत नहीं, शीत उष्ण सम जाहि ।

हिये अधिक सन्तोष गुन, गरदभ तीनि गहाहि ॥२१॥

भरपूर थकावट रहनेपर भी बोभ्का ढोना, सर्दी गर्मी की परवाह न करना, सदा सन्तोष रखकर जीवनयापन करना, ये तीन गुण गधा से सीखना चाहिए ॥२१॥

दोहा-- विंशति सीख विचारि यह, जो नर उर धारंत ।

सो सब नर जीवित अबसि, जय यश जगत लहंत ॥२२॥

जो मनुष्य ऊपर गिनाये बीसों गुणों को अपना लेगा और उसके अनुसार चलेगा, वह सभी कार्य में अजेय रहेगा ॥२२॥

इति चाणक्ये षष्ठोऽध्यायः ॥६॥



चाणक्यनीति - अध्याय ७

दोहा-- अरथ नाश मन ताप अरु, दार चरित घर माहिं ।

बंचनता अपमान निज, सुधी प्रकाशत नाहिं ॥१॥

अपने धन का नाश, मन का सन्ताप, स्त्रीका चरित्र, नीच मनुष्य की कही बात और अपना अपमान, इनको बुध्दिमान मनुष्य किसी के समक्ष जाहिर न करे ॥१॥

दोहा-- संचित धन अरु धान्य कूँ, विद्या सीखत बार ।

करत और व्यवहार कूँ, लाज न करिय अगार ॥२॥

धन-धान्यके लेन-देन, विद्याध्ययन, भोजन, सांसारिक व्यवसाय, इन कामों में जो मनुष्य लज्जा नहीं करता, वही सुखी रहता है ॥२॥

दोहा-- तृषित सुधा सन्तोष चित, शान्त लहत सुख होय ।

इत उत दौडत लोभ धन, कहँ सो सुख तेहि होय ॥३॥

सन्तोषरूपी अमृत से तृप्त मनुष्यों को जो सुख और शांति प्राप्त होती है, वह धन के लोभ से इधर-उधर मारे-मारे फिरने वालोंको कैसे प्राप्त होगी ? ॥३॥

दोहा-- तीन ठौर सन्तोष धर, तिय भोजन धन माहिं ।

दानन में अध्ययन में, तप में कीजे नाहिं ॥४॥

तीन बातों में सन्तोष धारण करना चाहिए । जैसे-अपनी स्त्री में, भोजन में और धन में । इसी प्रकार तीन बातों में कभी भी सन्तुष्ट न होना चाहिए । अध्ययन में, जप में, और दान में ॥४॥

दोहा-- विप्र विप्र अरु नारि नर, सेवक स्वामिहिं अन्त ।

हला औ बैल के मध्यते, नहिं जावे सुखवन्त ॥५॥

दो ब्राह्मणों के बीच में से, ब्राह्मण और अग्नि के बीच से, स्वामी और सेवक के बीच से, स्त्री-पुरुष के बीच से और हल तथा बैल के बीच से नहीं निकलना चाहिए ॥५॥

दोहा-- अनल विप्र गुरु धेनु पुनि, कन्या कुँआरी देत ।

बालक के अरु वृध्द के, पग न लगावहु येत ॥६॥

अग्नि, गुरु, ब्राह्मण, गौ, कुमारी कन्या, वृध्द और बालक इनको कभी पैरों से न छुए ॥६॥

दोहा-- हस्ती हाथ हजार तज, शत हाथन से वाजि ।

श्रृड्ग सहित तेहि हाथ दश, दुष्ट देश तज भाजि ॥७॥

हजार हाथ की दूरी से हाथी से, सौ हाथ की दूरी से घोडा से, दस हाथ की दूरी से सींगवाले जानवरों से बचना चाहिये और मौका पड जाय तो देश को ही त्याग कर दुर्जन से बचे ॥७॥

दोहा-- हस्ती अंकुश तैं हनिय, हाथ पकरि तुरंग ।

श्रृड्गि पशुन को लकुटतैं, असितैं दुर्जन भंग ॥८॥

हाथी अंकुश से, घोडा चाबुक से, सींगवाले जानवर लाठी से और दुर्जन तलवार से ठीक होते हैं ॥८॥

दोहा-- तुष्ट होत भोजन किये, ब्राह्मण लखि धन मोर ।

पर सम्पति लखि साधु जन, खल लखि पर दुःख घोर ॥९॥

ब्राह्मण भोजन से, मोर मेघ के गर्जन से, सज्जन पराये धन से और खल मनुष्य दूसरे पर आई विपत्ति से प्रसन्न होता है ॥९॥

दोहा-- बलवंतहिं अनुकूलहीं, प्रतिकूलहिं बलहीन ।

अतिबलसमबल शत्रुको, विनय बसहि वश कीन ॥१०॥

अपने से प्रबल शत्रु को उसके अनुकूल चल कर, दुष्ट शत्रु को उसके प्रतिकूल चल कर और समान बलवाले शत्रु का विनय और बल से नीचा दिखाना चाहिए ॥१०॥

दोहा-- नृपहिं बाहुबल ब्राह्मणहिं, वेद ब्रह्म की जान ।

तिय बल माधुरता कह्यो, रूप शील गुणवान ॥११॥

राजाओं में बाहुबलसम्पन्न राजा और ब्राह्मणों में ब्रह्मज्ञानी ब्राह्मण बली होता है और रूप तथा यौवन की मधुरता स्त्रियों का सबसे उत्तम बल है ॥११॥

दोहा-- अतिहि सरल नहिं होइये, देखहु जा बनमाहिं ।

तरु सीधे छेदत तिनहिं, वाँके तरु रहि जाति ॥१२॥

अधिक सीधा-साधा होना भी अच्छा नहीं होता । जाकर वन में देखो--वहाँ सीधे वृक्ष काट लिये जाते हैं और टेढे खडे रह जाते हैं ॥१२॥

दोहा-- सजल सरोवर हंस बसि, सूखत उडि है सोउ ।

देखि सजल आवत बहुरि, हंस समान न होउ ॥१३॥

जहाँ जल रहता है वहाँ ही हंस बसते हैं । वैसे ही सूखे सरोवरको छोडते हैं और बार-बार आश्रय लर लेते हैं । सो मनुष्य को हंस के समान न होना चाहिये ॥१३॥

दोहा-- धन संग्रहको पेखिये, प्रगट दान प्रतिपाल ।

जो मोरी जल जानकूँ, तब नहिं फूटत ताल ॥१४॥

अर्जित धनका व्यय करना ही रक्षा है । जैसे नये जल आने पर तडाग के भीतर के जल को निकालना ही रक्षा है ॥१४॥

दोहा-- जिनके धन तेहि मीत बहु, जेहि धन बन्धु अनन्त ।

घन सोइ जगमें पुरुषवर, सोई जन जीवन्त ॥१५॥

जिनके धन रहता है उसके मित्र होते हैं, जिसके पास अर्थ रहता है उसीके बंधू होते हैं । जिसके धन रहता है वही पुरुष गिना जाता है, जिसके अर्थ है वही जीत है ॥१५॥

दोहा-- स्वर्गवासि जन के सदा, चार चिह्न लखि येहि ।

देव विप्र पूजा मधुर, वाक्य दान करि देहि ॥१६॥

संसार में आने पर स्वर्ग स्थानियों के शरीर में चार चिह्म रहते हैं, दान का स्वभाव, मीठा वचन, देवता की पूजा, ब्राह्मण को तृप्त करना अर्थात् जिन लोगों में दान आदि लक्षण रहे उनको जानना चाहिये कि वे अपने पुण्य के प्रभाव से स्वर्गवासी मृत्यु लोक में अवतार लिये हैं ॥१६॥

दोहा-- अतिहि कोप कटु वचनहूँ, दारिद नीच मिलान ।

स्वजन वैर अकुलिन टहल, यह षट नर्क निशान ॥१७॥

अत्यन्त क्रोध, कटुवचन, दरिद्रता, अपने जनों में बैर, नीचका संग, कुलहीनकी सेवा, ये चिह्म नरकवासियोंकी देहों में रहते हैं ॥१७॥

दोहा-- सिंह भवन यदि जाय कोउ, गजमुक्ता तहँ पाय ।

वत्सपूँछ खर चर्म टुक, स्यार माँद हो जाय ॥१८॥

यदि कोई सिंह की गुफा में जा पडे तो उसको हाथी के कपोलका मोती मिलता है, और सियार के स्थान में जाने पर बछावे की पूँछ और गदहे के चामडे का टुकडा मिलता है ॥१८॥

दोहा-- श्वान पूँछ सम जीवनी, विद्या बिनु है व्यर्थ ।

दशं निवारण तन ढँकन, नहिं एको सामर्थ ॥१९॥

कुत्ते की पूँछ के समान विद्या बिना जीना व्यर्थ है । कुत्ते की पूँछ गोप्य इन्द्रिय को ढाँक नहीं सकती और न मच्छड आदि जीवॊम को उडा सकती है ॥१९॥

दोहा-- वचन्शुध्दि मनशुध्दि और, इन्द्रिय संयम शुध्दि ।

भूतदया और स्वच्छता, पर अर्थिन यह बुध्दि ॥२०॥

वच की शुध्दि, मति की शुध्दि, इंद्रियों का संयम, जीवॊं पर दया और पवित्रता--ये परमार्थितों की शुध्दि है ॥२०॥

दोहा-- बास सुमन, तिल तेल, अग्नि काठ पय घीव ।

उखहिं गुड तिमि देह में तेल, आतम लखु मतिसीव ॥२१॥

जैसे फलमें गंध, तिल में तेल, काष्ठमें आग, दूध में घी और ईख में गुड है वैसे देह में आत्मा को विचार से देखो ॥२१॥

इति चाणक्ये सप्तमोऽध्यायः ॥७॥


चाणक्यनीति - अध्याय ८

दोहा-- अधम धनहिं को चाहते, मध्यम धन अरु मान ।

मानहि धन है बडन को, उत्तम चहै मान ॥१॥

अधम धन चाहते हैं, मध्यम धन और मान दोनों, पर उत्तम मान ही चाहते हैं।क्योंकि महात्माओं का धन मान ही है ॥१॥

दोहा-- ऊख वारि पय मूल, पुनि औषधह खायके ।

तथा खाये ताम्बूल, स्नान दान आदिक उचित ॥२॥

ऊख, जल, दूध, पान, फल और औषधि इन वस्तुओं के भोजन करने पर भी स्नान दान आदि क्रिया कर सकते हैं ॥२॥

दोहा-- दीपक तमको खात है, तो कज्जल उपजाय ।

यदन्नं भक्ष्यते नित्यं जायते तादृशी प्रजा ॥३॥

दिया अंधकार को खाता है और काजल को जन्माता है । सत्य है, जो जैसा अन्न सदा खाता है उसकी वैसेही सन्तति होती है ॥३॥

दोहा-- गुणहिंन औरहिं देइ धन, लखिय जलद जल खाय ।

मधुर कोटि गुण करि जगत, जीवन जलनिधि जाय ॥४॥

हे मतिमान् ! गुणियों को धन दो औरों को कभी मत दो । समुद्र से मेघ के मुख में प्राप्त होकर जल सदा मधुर हो जाता है और पृथ्वी पर चर अचर सब जीवॊं को जिला कर फिर वही जल कोटि गुण होकर उसी समुद्र में चला जाता है ॥४॥

दोहा-- एक सहस्त्र चाण्डाल सम, यवन नीच इक होय ।

तत्त्वदर्शी कह यवन ते, नीच और नहिं कोय ॥५॥

इतना नीच एक यवन होता है । यवन से बढकर नीच कोई नहीं होता ॥५॥

दोहा-- चिताधूम तनुतेल लगि, मैथुन छौर बनाय ।

तब लौं है चण्डाल सम, जबलों नाहिं नहाय ॥६॥

तेल लगाने पर, स्त्री प्रसंग करने के बाद, और चिता का धुआँ लग जाने पर मनुष्य जब तक स्नान नहीं करता तब तक चाण्डाल रहता है ॥६॥

दोहा-- वारि अजीरण औषधी, जीरण में बलवान ।

भोजन के संग अमृत है, भोजनान्त विषपान ॥७॥

जब तक कि भोजन पच न जाय, इस बीच में पिया हुआ पानी विष है और वही पानी भोजन पच जाने के बाद पीने से अमृत के समान हो जाता है । भोजन करते समय अमृत और उसके पश्चात् विषका काम करता है ॥७॥

दोहा-- ज्ञान क्रिया बिन नष्ट है, नर जो नष्ट अज्ञान ।

बिनु नायक जसु सैनहू, त्यों पति बिनु तिय जान ॥८॥

वह ज्ञान व्यर्थ है कि जिसके अनुसार आचरण न हो और उस मनुष्य का जीवन ही व्यर्थ है कि जिसे ज्ञान प्राप्त न हो । जिस सेना का कोई सेनापति न हो वह सेना व्यर्थ है और जिसके पति न हो वे स्त्रियाँ व्यर्थ हैं ॥८॥

दोहा--वृध्द समय जो मरु तिया, बन्धु हाथ धन जाय ।

पराधीन भोजन मिलै, अहै तीन दुखदाय ॥९॥

बुढौती में स्त्री का मरना, निजी धन का बन्धुओं के हाथ में चला जाना और पराधीन जीविका रहना, ये पुरुषों के लिए अभाग्य की बात है ॥९॥

दोहा-- अग्निहोत्र बिनु वेद नहिं, यज्ञ क्रिया बिनु दान ।

भाव बिना नहिं सिध्दि है, सबमें भाव प्रधान ॥१०॥

बिना अग्निहोत्र के वेदपाठ व्यर्थ है और दान के बिना यज्ञादि कर्म व्यर्थ हैं । भाव के बिना सिध्दि नहीं प्राप्त होती इसलिए भाव ही प्रधान है ॥१०॥

दोहा-- देव न काठ पाषाणमृत,मूर्ति में नरहाय ।

भाव तहांही देवभल, कारन भाव कहाय ॥११॥

देवता न काठ में, पत्थर में, और न मिट्टी ही में रहते हैं वे तो रहते हैं भाव में । इससे यह निष्कर्ष निकला कि भाव ही सबका कारण है ॥११॥

दोहा-- धातु काठ पाषाण का, करु सेवन युत भाव ।

श्रध्दा से भगवत्कृपा, तैसे तेहि सिध्दि आव ॥१२॥

काठ, पाषाण तथा धातु की भी श्रध्दापूर्वक सेवा करने से और भगवत्कृपा से सिध्दि प्राप्त हो जाती है ॥१२॥

दोहा-- नहीं सन्तोष समान सुख, तप न क्षमा सम आन ।

तृष्णा सम नहिं व्याधि तन, धरम दया सम मान ॥१३॥

शान्ति के समान कोई तप नहीं है, सन्तोष से बढकर कोई सुख नहीं है, तृष्णा से बडी कोई व्याधि नहीं है और दया से बडा कोई धर्म नहीं है ॥१३॥

दोहा-- त्रिसना वैतरणी नदी, धरमराज सह रोष ।

कामधेनु विद्या कहिय, नन्दन बन सन्तोष ॥१४॥

क्रोध यमराज है, तृष्णा वैतरणी नदी है, विद्या कामधेनु गौ है और सन्तोष नन्दन वन है ॥१४॥

दोहा-- गुन भूषन है रूप को, कुल को शील कहाय ।

विद्या भूषन सिध्दि जन, तेहि खरचत सो पाय ॥१५॥

गुण रूप का श्रृंगार है , शील कुलका भूषण है, सिध्दि विद्या का अलंकार है और भोग धन का आभूषण है ॥१५॥

दोहा-- निर्गुण का हत रूप है, हत कुशील कुलगान ।

हत विद्याहु असिध्दको, हत अभोग धन धान ॥१६॥

गुण विहीन मनुष्य का रूप व्यर्थ है, जिसका शील ठीक नहीं उसका कुल नष्ट है, जिसको सिध्दि नहीं प्राप्त हो वह उसकी विद्या व्यर्थ है और जिसका भोग न किया जाय वह धन व्यर्थ है ॥१६॥

दोहा-- शुध्द भूमिगत वारि है, नारि पतिव्रता जौन ।

क्षेम करै सो भूप शुचि, विप्र तोस सुचि तौन ॥१७॥

जमीन पर पहँचा पानी, पतिव्रता स्त्री, प्रजा का कल्याण करनेवाला राजा और सन्तोषी ब्राह्मण-ये पवित्र माने गये हैं ॥१७॥

दोहा-- असन्तोष ते विप्र हत, नृप सन्तोष तै रव्वारि ।

गनिका विनशै लाज ते, लाज बिना कुल नारि ॥१८॥

असन्तोषी ब्राह्मण, सन्तोषी राजे, लज्जावती वेश्या और निर्लज्ज कुल स्त्रियाँ ये निकृष्ट माने गये हैं ॥१८॥

दोहा-- कहा होत बड वंश ते, जो नर विद्या हीन ।

प्रगट सूरनतैं पूजियत, विद्या त कुलहीन ॥१९॥

यदि मूर्ख का कुल बडा भी हो तो उससे क्या लाभ ? चाहे नीच ही कुल का क्यों न हो, पर यदि वह विद्वान् हो तो देवताओं द्वारा भी पूजा जाता है ॥१९॥

दोहा-- विदुष प्रशंसित होत जग, सब थल गौरव पाय ।

विद्या से सब मिलत है , थल सब सोइ पुजाय ॥२०॥

विद्वान का संसार में प्रचार होता है वह सर्वत्र आदर पाता है । कहने का मतलब यह कि विद्या से सब कुछ प्राप्त हो सकता है और सर्वत्र विद्या ही पूजी जाती है ॥२०॥

दोहा-- संयत जीवन रूप तैं , कहियत बडे कुलीन ।

विद्या बिन सोभै न जिभि, पुहुप गंध ते हीन ॥२१॥

रूप यौवन युक्त और विशाल कुल में उत्पन्न होकर भी मनुष्य यदि विद्याहीन होते हैं तो ये उसी तरह भले नहीं मालूम होते जैसे सुगन्धि रहित टेसू के फूल ॥२१॥

दोहा-- मांस भक्ष मदिरा पियत, मूरख अक्षर हीन ।

नरका पशुभार गृह, पृथ्वी नहिं सहु तीन ॥२२॥

मांसाहारी, शराबी और निरक्षर मूर्ख इन मानवरूपधारी पशुओं से पृथ्वी मारे बोझ के दबी जा रही है ॥२२॥

दोहा-- अन्नहीन राज्यही दहत, दानहीन यजमान ।

मंत्रहीन ऋत्विजन कहँ, क्रतुसम रिपुनहिं आन ॥२३॥

अन्नरहित यज्ञ देश का, मन्त्रहीन यज्ञ ऋत्विजों का और दान विहीन यज्ञ यजमान का नाश कर देता है । यज्ञ के समान कोई शत्रु नहीं है ॥२३॥

इति चाणक्येऽष्टमोऽध्यायः ॥८॥



चाणक्यनीति - अध्याय ९

सोरठा-- मुक्ति चहो जो तात ! विषयन तजु विष सरिस ।

दयाशील सच बात, शौच सरलता क्षमा गहु ॥१॥

हे भाई ! यदि तुम मुक्ति चाहते हो तो विषयों को विष के समान समझ कर त्याग दो और क्षमा, ऋजुता (कोमलता), दया और पवित्रता इनको अमृत की तरह पी जाओ ॥१॥

दोहा-- नीच अधम नर भाषते, मर्म परस्पर आप ।

ते विलाय जै हैं यथा, मघि बिमवट को साँप ॥२॥

जो लोग आपस के भेद की बात बतला देते हैं वे नराधम उसी तरह नष्ट हो जाते हैं जैसे बाँबी के भीतर घुसा साँप ॥२॥

दोहा-- गन्ध सोन फल इक्षु धन, बुध चिरायु नरनाह ।

सुमन मलय धातानि किय, काहु ज्ञान गुरुनाह ॥३॥

सोने में सुगंध, ऊँख में फल, चन्दन में फूल, धनी विद्वान और दीर्घजीवी राजा को विधाता ने बनाया ही नहीं । क्या किसी ने उन्हें सलाह भी नहीं दी ? ॥३॥

दोहा-- गुरच औषधि सुखन में, भोजन कहो प्रमान ।

चक्षु इन्द्रिय सब अंग में, शिर प्रधान भी जान ॥४॥

सब औषधियों में अमृत (गुरुच=गिलोय) प्रधान है, सब सुखों में भोजन प्रधान है, सब इन्द्रियों में नेत्र प्रधान है और सब अंगो में मस्तक प्रधान है ॥४॥

दोहा-- दूत वचन गति रंग नहिं, नभ न आदि कहुँ कोय ।

शशि रविग्रहण बखानु जो, नहिं न विदुष किमि होय ॥५॥

आकाश में न कोई दूत जा सकता है, न बातचीत ही हो सकती है, न पहले से किसी ने बता रखा है, न किसी से भेंट ही होती है, ऎसी परिस्थिति में आकाशचारी सूर्य, चन्द्रमा का ग्रहण समय जो पण्डित जानते हैं, वे क्यों कर विद्वान् न माने जायँ ? ॥५॥

दोहा-- द्वारपाल सेवक पथिक, समय क्षुधातर पाय ।

भंडारी, विद्यारथी, सोअत सात जगाय ॥६॥

विद्यार्थी, नौकर, राही, भूखे, भयभीत, भंडारी और द्वारपाल इन सात सोते हुए को भी जगा देना चाहिए ॥६॥

दोहा-- भूपति नृपति मुढमति, त्यों बर्रे ओ बाल ।

सावत सात जगाइये, नहिं पर कूकर व्याल ॥७॥

साँप, राजा, शेर, बर्रे, बालक, पराया कुत्ता और मूर्ख मनुष्य ये सात सोते हों तो इन्हें न जगावें ॥७॥

दोह-- अर्थहेत वेदहिं पढे, खाय शूद्र को धान ।

ते द्विज क्या कर सकता हैं, बिन विष व्याल समान ॥८॥

जिन्होंने धनके लिए विद्या पढी है और शूद्र का अन्न खाते हैं, ऎसे विषहीन साँप के समान ब्राह्मण क्या कर सकेंगे ॥८॥

दोहा--रुष्ट भये भय तुष्ट में, नहीं धनागम सोय ।

दण्ड सहाय न करि सकै का रिसाय करु सोय ॥९॥

जिसके नाराज होने पर कोई डर नहीं है, प्रसन्न होने पर कुछ आमदनी नहीं हो सकती। न वह दे सकता और न कृपा ही कर सकता हो तो उसके रुष्ट होने से क्या होगा ? ॥९॥

दोहा-- बिन बिषहू के साँप सो, चाहिय फने बढाय ।

होउ नहीं या होउ विष, घटाटोप भयदाय ॥१०॥

विष विहीन सर्प का भी चाहिये कि वह खूब लम्बी चौडी फन फटकारे । विष हो या न हो, पर आडम्बर होना ही चाहिय ॥१०॥

दोहा-- प्रातः द्युत प्रसंग से मध्य स्त्री परसंग ।

सायं चोर प्रसंग कह काल गहे सब अड्ग ॥११॥

समझदार लोगों का समय सबेरे जुए के प्रसंग (कथा) में, दोपहर को स्त्री प्रसंग (कथा) में और रात को चोर की चर्चा में जाता है । यह तो हुआ शब्दार्थ, पर भावार्थ इसका यह हैं कि जिसमें जुए की कथा आती है यानी महाभारत । दोपहर को स्त्री प्रसंग यानी स्त्री से सम्बन्ध रखनेवाली कथा अर्थात् रामायण कि जिसमें आदि से अंत तक सीता की तपस्या झलकती है । रात को चोर के प्रसंग अर्थात् श्रीकृष्णचन्द्र की कथा यानी श्रीमद् भागवत कहते सुनते हैं ॥११॥

दोहा-- सुमन माल निजकर रचित, स्वलिखित पुस्तक पाठ ।

धन इन्द्र्हु नाशै दिये, स्वघसित चन्दन काठ ॥१२॥

अपने हाथ गूँथकर पहनी माला, अपने हाथ से घिस कर लगाया चन्दन और अपने हाथ लिखकर किया हुआ स्तोत्रपाठ इन्द्र की भी श्री को नष्ट कर देता है ॥१२॥

दोहा-- ऊख शूद्र दधि नायिका, हेम मेदिनी पान ।

तल चन्दन इन नवनको, मर्दनही गुण जान ॥१३॥

ऊख, तिल, शूद्र सुवर्ण, स्त्री, पृथ्वी, चन्दन, दही और पान, ये वस्तुएँ जितनी मर्दन का जाता है, उतनी ही गुणदायक होती हैं ॥१३॥

दोहा-- दारिद सोहत धीरते, कुपट सुभगता पाय ।

लहि कुअन्न उष्णत्व को, शील कुरूप सुहाय ॥१४॥

धैर्य से दरिद्रता की, सफाई से खराब वस्त्र की, गर्मी से कदन्न की, और शील से कुरूपता भी सुन्दर लगती है ॥१४॥

इति चाणक्ये नवमोऽध्यायः ॥९॥



चाणक्यनीति - अध्याय १०


दोहा-- हीन नहीं धन हीन है, धन थिर नाहिं प्रवीन ।

हीन न और बखानिये, एइद्याहीन सुदीन ॥१॥

धनहीन मनुष्य हीन नहीं कहा जा सकता वही वास्तव में धनी है । किन्तु जो मनुष्य विद्यारुपी रत्न से हीन है, वह सभी वस्तुओं से हीन है ॥१॥

दोहा-- दृष्टिसोधि पग धरिय मग, पीजिय जल पट रोधि ।

शास्त्रशोधि बोलिय बचन, करिय काज मन शोधि ॥२॥

आँख से अच्छी तरह देख-भाल कर पैर धरे, कपडे से छान कर जल पिये, शास्त्रसम्मत बात कहे और मन को हमेशा पवित्र रखे ॥२॥

दोहा-- सुख चाहै विद्या तजै सुख तजि विद्या चाह ।

अर्थिहि को विद्या कहाँ, विद्यार्थिहिं सुख काह ॥३॥

जो मनुष्य विषय सुख चाहता हो, वह विद्या के पास न जाय । जो विद्या का इच्छुक हो, वह सुख छोडे । सुखार्थी को विद्या और विद्यार्थी को सुख कहाँ मिल सकता है ॥३॥

दोहा-- काह न जाने सुकवि जन, करै काह नहिं नारि ।

मद्यप काह न बकि सकै, काग खाहिं केहि वारि ॥४॥

कवि क्या वस्तु नहीं देख पाते ? स्त्रियाँ क्या नहीं कर सकतीं ? शराबी क्या नहीं बक जाते ? और कौवे क्या नहीं खा जाते ? ॥॓॥

छं० -- बनवै अति रंकन भूमिपती अरु भूमिपतीनहुँ रंक अति ।

धनिकै धनहीन फिरै करती अधनीन धनी विधिकेरि गती ॥५॥

विधाता कड्गाल को राजा, राजा को कड्गाल, धनी को निर्धन और निर्धन को धनी बनाता ही रहता है ॥५॥

दोहा-- याचक रिपु लोभीन के, मूढनि जो शिषदान ।

जार तियन निज पति कह्यो, चोरन शशि रिपु जान ॥६॥

लोभी का शत्रु है याचक, मूर्ख का शत्रु है उपदेश देनेवाला, कुलटा स्त्री का शत्रु है उसका पति और चोरों का शत्रु चन्द्रमा ॥६॥

दोहा-- धर्मशील गुण नाहिं जेहिं, नहिं विद्या तप दान ।

मनुज रूप भुवि भार ते, विचरत मृग कर जान ॥७॥

जिस मनुष्य में न विद्या है, न तप है, न शील है और न गुण है ऎसे मनुष्य पृथ्वी के बोझ रूप होकर मनुष्य रूप में पशु सदृश जीवन-यापन करते हैं ॥७॥

सोरठा-- शून्य हृदय उपदेश, नाहिं लगै कैसो करिय ।

बसै मलय गिरि देश, तऊ बांस में बास नहिं ॥८॥

जिनकी अन्तरात्मा में कुछ भी असर नहीं करता । मलयाचल को किसी का उपदेश कुछ असर नहीं करता । मलयाचल के संसर्ग से और वृक्ष चन्दन हो जाते हैं, पर बाँस चन्दन नहीं होता ॥८॥

दोहा-- स्वाभाविक नहिं बुध्दि जेहि, ताहि शास्त्र करु काह ।

जो नर नयनविहीन हैं, दर्पण से करु काह ॥९॥

जिसके पास स्वयं बुध्दि नहीं है, उसे क्या शास्त्र सिखा देगा । जिसकी दोनों आँखे फूट गई हों, क्या उसे शीशा दिखा देगा ? ॥९॥

दोहा-- दुर्जन को सज्जन करन, भूतल नहीं उपाय ।

हो अपान इन्द्रिय न शचि, सौ सौ धोयो जाय ॥१०॥

इस पृथ्वीतल में दुर्जन को सज्जन बनाने का कोई यत्न है ही नहीं । अपान प्रदेश को चाहे सैकडों बार क्यों न धोया जाय फिर भी वह श्रेष्ठ इन्द्रिय नहीं हो सकता ॥१०॥

दोहा-- सन्त विरोध ते मृत्यु निज, धन क्षय करि पर द्वेष ।

राजद्वेष से नसत है, कुल क्षय कर द्विज द्वेष ॥११॥

बडे बूढो से द्वेष करने पर मृत्यु होती है । शत्रु से द्वेष करने पर धन का नाश होता है । राजा से द्वेष करने पर सर्वनाश हो जाता है और ब्राह्मण से द्वेष करने पर कुल का ही क्षय हो जाता है ॥११॥

छन्द-- गज बाघ सेवित वृक्ष धन वन माहि बरु रहिबो करै ।

अरु पत्र फल जल सेवनो तृण सेज वरु लहिबो करै ॥

शतछिद्र वल्कल वस्त्र करिबहु चाल यह गहिबो करै ।

निज बन्धू महँ धनहीन ह्वैं नहिं जीवनो चहिबो करै ॥१२॥

बाघ और बडॆ-बडॆ हाथियों के झुण्ड जिस वन में रहते हो उसमें रहना पडे, निवास करके पके फल तथा जल पर जीवनयापन करना पड जाय, घास फूस पर सोना पडे और सैकडो जगह फटे वस्त्र पहनना पडे तो अच्छा पर अपनी विरादरी में दरिद्र होकर जीवन बिताना अच्छा नहीं है ॥१२॥

छ्न्द-- विप्र वृक्ष हैं मूल सन्ध्या वेद शाखा जानिये ।

धर्म कर्म ह्वै पत्र दोऊ मूल को नहिं नाशिये ॥

जो नष्ट मूल ह्वै जाय तो कुल शाख पात न फूटिये ।

यही नीति सुनीति है की मल रक्षा कीजिये ॥१३॥

ब्राह्मण वृक्ष के समान है, उसकी जड है संध्या, वेद है शाखा और कर्म पत्ते हैं । इसलिए मूल (सन्ध्या) की यत्न पूर्वक रक्षा करो । क्योंकी जब जड ही कट जायगी तो न शाखा रहेगी और न पत्र ही रहेगा ॥१३॥

दोहा-- लक्ष्मी देवी मातु हैं, पिता विष्णु सर्वेश ।

कृष्णभक्त बन्धू सभी, तीन भुवन निज देश ॥१४॥

भक्त मनुष्य की माता हैं लक्ष्मीजी, विष्णु भगवान पिता हैं , विष्णु के भक्त भाई बन्धु हैं और तीनों भुवन उसका देश है ॥१४॥

दोहा-- बहु विधि पक्षी एक तरु, जो बैठे निशि आय ।

भोर दशो दिशि उडि चले, कह कोही पछिताय ॥१५॥

विविध वर्ण (रंग) के पक्षी एक ही वृक्ष पर रात भर बसेरा करते हैं और दशों दिशाओं में उड जाते हैं । यही दशा मनुष्यॊं की भी है, फिर इसके लिये सन्ताप करने की क्या जरूरत ? ॥१५॥

दोहा-- बुध्दि जासु है सो बली, निर्बुध्दिहि बल नाहिं ।

अति बल हाथीहिं स्यारलघु, चतुर हतेसि बन माहिं ॥१६॥

जिसके पास बुध्दि है उसी के पास बल है, जिसके बुध्दि ही नहीं उसके बल कहाँ से होगा । एक जंगल में एक बुध्दिमान् खरगोश ने एक मतवाले हाथी को मार डाला था ॥१६॥

छन्द-- है नाम हरिको पालक मन जीवन शंका क्यों करनी ।

नहिं तो बालक जीवन कोथन से पय निरस तक्यों जननी ॥

यही जानकर बार है यदुपति लक्ष्मीपते तेरे ।

चरण कमल के सेवन से दिन बीते जायँ सदा मेरे ॥१७॥

यदि भगवान् विश्वंभर कहलाते हैं तो हमें अपने जीवन सम्बन्धी झंझटो (अन्न-वस्त्र आदि) की क्या चिन्ता ? यदि वे विश्वंभर न होते तो जन्म के पहले ही बच्चे को पीने के लिए माता के स्तन में दूध कैसे उतर आता । बार-बार इसी बात को सोचकर हे यदुपते ! हे लक्ष्मीपते ! मैं केवल आप के चरणकमलों की सेवा करके अपना समय बिताता हूँ ॥१७॥

सो०-- देववानि बस बुध्दि, तऊ और भाषा चहौं ।

यदपि सुधा सुर देश, चहैं अवस सुर अधर रस ॥१८॥

यद्यपि मैं देववाणी में विशेष योग्यता रखता हूँ, फिर भी भाषान्तर का लोभ है ही । जैसे स्वर्ग में अमृत जैसी उत्तम वस्तु विद्यमान है फिर भी देवताओं को देवांगनाओं के अधरामृत पान करने की रुचि रहती ही है ॥१८॥

दोहा-- चूर्ण दश गुणो अन्न ते, ता दश गुण पय जान ।

पय से अठगुण मांस ते तेहि दशगुण घृत मान ॥१९॥

खडे अन्न की अपेक्षा दसगुना बल रहता है पिसान में । पिसान से दसगुना बल रहता है दूध में । दूध से अठगुना बल रहता है मांस से भी दसगुना बल है घी में ॥१९॥

दोहा-- राग बढत है शाकते, पय से बढत शरीर ।

घृत खाये बीरज बढे, मांस मांस गम्भीर ॥२०॥

शाक से रोग, दूध से शरीर, घी से वीर्य और मांस से मांस की वृध्दि होती है ॥२०॥

इति चाणक्ये दशमिऽध्यायः ॥१०॥




चाणक्यनीति - अध्याय ११


दोहा-- दानशक्ति प्रिय बोलिबो, धीरज उचित विचार ।

ये गुण सीखे ना मिलैं, स्वाभाविक हैं चार ॥१॥

दानशक्ति, मीठी बात करना, धैर्य धारण करना, समय पर उचित अनुचित का निर्णय करना, ये चार गुण स्वाभाविक सिध्द हैं । सीखने से नहीं आते ॥१॥

दोहा-- वर्ग आपनो छोडि के, गहे वर्ग जो आन ।

सो आपुई नशि जात है, राज अधर्म समान ॥२॥

जो मनुष्य अपना वर्ग छोडकर पराये वर्ग में जाकर मिल जाता है तो वह अपने आप नष्ट हो जाता है । जैसे अधर्म से राजा लोग चौपट हो जाते हैं ॥२॥

सवैया- भारिकरी रह अंकुश के वश का वह अंकुश भारी करीसों ।

त्यों तम पुंजहि नाशत दीपसो दीपकहू अँधियार सरीसों ॥

वज्र के मारे गिरे गिरिहूँ कहूँ होय भला वह वज्र गिरोसों ।

तेज है जासु सोई बलवान कहा विसवास शरीर लडीसों ॥३॥

हाथी मोटा-ताजा होता है, किन्तु अंकुश के वश में रहता है तो क्या अंकुश हाथी के बराबर है ? दीपक के जल जाने पर अन्धकार दूर हो जाता है तो क्या अन्धकार के बराबर दीपक है ? इन्द्र के वज्रप्रहार से पहाड गिर जाते हैं तो क्या वज्र उन पर्वतों के बराबर है ? इसका मतलब यह निकला कि जिसमें तेज है, वही बलवान् है यों मोटा-ताजा होने से कुछ नहीं होता ॥३॥

दोहा-- दस हजार बीते बरस, कलि में तजि हरि देहि ।

तासु अर्ध्द सुर नदी जल, ग्रामदेव अधि तेहि ॥४॥

कलि के दस हजार वर्ष बीतने पर विष्णु भगवान् पृथ्वी छोड देते हैं । पांच हजार वर्ष बाद गंगा का जल पृथ्वी को छोड देता है और उसके आधे यानी ढाई हजार वर्ष में ग्रामदेवता ग्राम छोडकर चलते बनते हैं ॥४॥

दोहा-- विद्या गृह आसक्त को, दया मांस जे खाहिं ।

लोभहिं होत न सत्यता, जारहिं शुचिता नाहिं ॥५॥

गृहस्थी के जंजाल में फँसे व्यक्ति को विद्या नहीं आती मांसभोजी के हृदय में दया नहीं आती लोभी के पास सचाई नहीं आती और कामी पुरुष के पास पवित्रता नहीं आती ॥५॥

दोहा-- साधु दशा को नहिं गहै, दुर्जन बहु सिंखलाय ।

दूध घीव से सींचिये, नीम न तदपि मिठाय ॥६॥

दुर्जन व्यक्ति को चाहे कितना भी उपदेश क्यों न दिया जाय वह अच्छी दशा को नहीं पहूँच सकता । नीम के वृक्ष को, चाहे जड से लेकर सिर तक घी और दुध से ही क्यों न सींचा जाय फिर भी उसमें मीठापन नहीं आ सकता ॥६॥

दोहा-- मन मलीन खल तीर्थ ये, यदि सौ बार नहाहिं ।

होयँ शुध्द नहिं जिमि सुरा, बासन दीनेहु दाहिं ॥७॥

जिसके हृदय में पाप घर कर चुका है, वह सैकडों बार तीर्थस्नान करके भी शुध्द नहीं हो सकता । जैसे कि मदिरा का पात्र अग्नि में झुलसने पर भी पवित्र नहीं होता ॥७॥

चा० छ०-- जो न जानु उत्तमत्व जाहिके गुण गान की ।

निन्दतो सो ताहि तो अचर्ज कौन खान की ॥

ज्यों किरति हाथि माथ मोतियाँ विहाय कै ।

घूं घची पहीनती विभूषणै बनाय कै ॥६॥

जो जिसके गुणों को नहीं जानता, वह उसकी निन्दा करता रहता है तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है । देखो न, जंगल की रहनेवाली भिलनी हाथी के मस्तक की मुक्ता को छोडकर घुँ घची ही पहनती है ॥८॥

दोहा-- जो पूरे इक बरस भर, मौन धरे नित खात ।

युग कोटिन कै सहस तक, स्वर्ग मांहि पूजि जात ॥९॥

जो लोग केवल एक वर्ष तक, मौन रहकर भोजन करते हैं वे दश हजार बर्ष तक स्वर्गवासियों से सम्मानित होकर स्वर्ग में निवास करते हैं ॥९॥

सोरठा-- काम क्रोध अरु स्वाद, लोभ श्रृड्गरहिं कौतुकहि ।

अति सेवन निद्राहि, विद्यार्थी आठौतजे ॥१०॥

काम, क्रोध, लोभ, स्वाद, श्रृड्गर, खेल-तमाशे, अधिक नींद और किसी की अधिक सेवा, विद्यार्थी इन आठ कामों को त्याग दे । क्योंकी ये आठ विद्याध्ययन में बाधक हैं ॥१०॥

दोहा-- बिनु जोते महि मूल फल, खाय रहे बन माहि ।

श्राध्द करै जो प्रति दिवस, कहिय विप्र ऋषि ताहि ॥११॥

जो ब्राह्मण बिना जोते बोये फल पर जीवन बिताता, हमेशा बन में रहना पसन्द करता और प्रति दिन श्राध्द करता है, उस विप्र को ऋषि कहना चाहिए ॥११॥

सोरठा-- एकै बार अहार, तुष्ट सदा षटकर्मरत ।

ऋतु में प्रिया विहार, करै वनै सो द्विज कहै ॥१२॥

जो ब्राह्मण केवल एक बार के भोजन से सन्तुष्ट रहता और यज्ञ, अध्ययन दानादि षट्कर्मों में सदा लीन रहता और केवल ऋतुकाल में स्त्रीगमन करता है, उसे द्विज कहना चाहिए ॥१२॥

सोरठा-- निरत लोक के कर्म, पशु पालै बानिज करै ।

खेती में मन कर्म करै, विप्र सो वैश्य है ॥१३॥

जो ब्राह्मण सांसारिक धन्धों में लगा रहता और पशु पालन करता, वाणिज्य व्यवसाय करता या खेती ही करता है, वह विप्र वैश्य कहलाता है ॥१३॥

सोरठा-- लाख आदि मदमांसु, घीव कुसुम अरु नील मधु ।

तेल बेचियत तासु शुद्र, जानिये विप्र यदि ॥१४॥

जो लाख, तेल, नील कुसुम, शहद, घी, मदिरा और मांस बेचता है, उस ब्राह्मण को शुद्र-ब्राह्मण कहते हैं ॥१४॥

सोरठा-- दंभी स्वारथ सूर, पर कारज घालै छली ।

द्वेषी कोमल क्रूर, विप्र बिलार कहावते ॥१५॥

जो औरों का काम बिगाडता, पाखण्डपरायण रहता, अपना मतलब साधने में तत्पर रहकर छल, आदि कर्म करता ऊपर से मीठा, किन्तु हृदय से क्रूर रहता ऎसे ब्राह्मण को मार्जार विप्र कहा जाता है ॥१५॥

सोरठा-- कूप बावली बाग औ तडाग सुरमन्दिरहिं ।

नाशै जो भय त्यागि, म्लेच्छ विप्र कहाव सो ॥१६॥

जो बावली, कुआँ, तालाब, बगीचा और देवमन्दिरों के नष्ट करने में नहीं हिचकता, ऎसे ब्राह्मण को ब्राह्मण न कहकर म्लेच्छ कहा जाता है ॥१६॥

सोरठा-- परनारी रत जोय, जो गुरु सुर धन को हरै ।

द्विज चाण्डालहोय, विप्रश्चाण्डाल उच्यते ॥१७॥

जो देवद्रव्य और गुरुद्रव्य अपहरण करता, परायी स्त्री के साथ दुराचार करता और लोगों की वृत्ति पर ही जो अपना निर्वाह करता है, ऎसे ब्राह्मण को चाण्डाल कहा जाता है ॥१७॥

सवैया-- मतिमानको चाहिये वे धन भोज्य सुसंचहिं नाहिं दियोई करैं

ते बलि विक्रम कर्णहु कीरति, आजुलों लोग कह्योई करैं ॥

चिरसंचि मधु हम लोगन को बिनु भोग दिये नसिबोई करैं ।

यह जानि गये मधुनास दोऊ मधुमखियाँ पाँव घिसोई करैं ॥१८॥

आत्म-कल्याण की भावनावालों को चाहिये कि अपनी साधारण आवश्यकता से अधिक बचा हुआ अन्न वस्त्र या धन दान कर दिया करें, जोडे नहीं । दान ही की बदौलत कर्ण बलि और महाराज विक्रमादित्य की कीर्ति आज भी विद्यमान है । मधुमक्खियों को देखिये वे यही सोचती हुई अपने पैर रगडती हैं कि "हाय ! मैंने दान और भोग से रहित मधु को बहुत दिनों में इकट्ठा किया और वह क्षण में दुसरा ले गया " ॥१८॥

इति चाणक्ये एकदशोऽध्यायः ॥११॥




चाणक्यनीति - अध्याय १२

स० सानन्दमंदिरपण्डित पुत्र सुबोल रहै तिरिया पुनि प्राणपियारी

इच्छित सतति और स्वतीय रती रहै सेवक भौंह निहारी ॥

आतिथ औ शिवपूजन रोज रहे घर संच सुअन्न औ वारी ।

साधुनसंग उपासात है नित धन्य अहै गृह आश्रम धारी ॥१॥

आनन्द से रहने लायक घर हो, पुत्र बुध्दिमान हो, स्त्री मधुरभाषिणी हो, घर आये हुए अतिथियों का सत्कार हो, सेवक आज्ञाकारी हो, घर आये हुए अतिथियों का सत्कार हो, प्रति दिन शिवजी का पूजन होता रहे और सज्जनों का साथ हो तो फिर वह गृहस्थाश्रम धन्य है ॥१॥

दोहा-- दिया दयायुत साधुसो, आरत विप्रहिं जौन ।

थोरी मिलै अनन्त ह्वै, द्विज से मिलै न तौन ॥२॥

जो मनुष्य श्रध्दापूर्वक और दयाभाव से दीन-दुखियों तथा ब्राह्मणों को थोडा भी दान दे देता है तो वह उसे अनन्तगुणा होकर उन दीन ब्राह्मणों से नहीं बल्कि ईश्वर के दरबार से मिलता है ॥२॥

कविता- दक्षता स्वजनबीच दया परजन बीच शठता सदा ही रहे बीच दुरजन के । प्रीति साधुजन में शूरता सयानन में क्षमा पूर धुरताई राखे फेरि बीच नारिजन के । ऎसे सब काल में कुशल रहैं जेते लोग लोक थिति रहि रहे बीच तिनहिन के ॥३॥

जो मनुष्य अपने परिवार में उदारता, दुर्जनों के साथ शठता, सज्जनों से प्रेम, दुष्टों में अभिमान, विद्वानों में कोमलता, शत्रुओं में वीरता, गुरुजनों में क्षमा और स्त्रियों में धूर्तता का व्यवहार करते हैं । ऎसे ही कलाकुशल मनुष्य संसार में आनंद के साथ रह सकते हैं ॥३॥

छ०-- यह पाणि दान विहीन कान पुराण वेद सुने नहीं ।

अरु आँखि साधुन दर्शहीन न पाँव तीरथ में कहीं ॥

अन्याय वित्त भरो सुपेट उय्यो सिरो अभिमानही ।

वपु नीच निंदित छोड अरे सियार सो बेगहीं ॥४॥

जिसके दोनों हाथ दानविहीन हैं, दोनों कान विद्याश्रवण से परांगमुख हैं, नेत्रसज्जनों का दर्शन नहीं करते और पैर तिर्थों का पर्यटन नहीं करते । जो अन्याय से अर्जित धन से पेट पालते हैं और गर्व से सिर ऊँचा करके चलते हैं, ऎसे मनुष्यों का रूप धारण किये हुए ऎ सियार ! तू झटपट अपने इस नीच और निन्दनीय शरीर को छोड दे ॥४॥

छं०-- जो नर यसुमतिसुत चरणन में भक्ति हृदय से कीन नहीं ।

जो राधाप्रिय कृष्ण चन्द्र के गुण जिह्वा नाहिं कहीं ॥

जिनके दोउ कानन माहिं कथारस कृष्ण को पीय नहीं ।

कीर्तन माहिं मृदंग इन्हे धिक्२एहि भाँति कहेहि कहीं ॥५॥

कीर्तन के समय बजता हुआ मृदंग कहता है कि जिन मनुष्यों को श्रीकृष्णचन्द्रजी के चरण कमलों में भक्ति नहीं है श्रीराधारानी के प्रिय गुणों के कहने में जिसकी रसना अनुरक्त नहीं और श्रीकृष्ण भगवान्‍ की लीलाओं को सुनने के लिए जिसके कान उत्सुक नहीं हैं । ऎसे लोगों को धिक्कार है, धिक्कार है ॥५॥

छं०-- पात न होय करीरन में यदि दोष बसन्तहि कान तहाँ है ।

त्यों जब देखि सकै न उलूकदिये तहँ सूरज दोष कहाँ है ।

चातक आनन बूँदपरै नहिं मेघन दूषन कौन यहाँ है ॥

जो कछु पूरब माथ लिखाविधि मेटनको समरत्थ कहाँ है ॥६॥

यदि करीर पेड में पत्ते नहीं लगते तो बसन्त ऋतु का क्या दोष ? उल्लू दिन को नहीं देखता तो इसमें सूर्य का क्या दोष ? बरसात की बूँदे चातक के मुख में नही गिरती तो इसमें मेघ का क्या दोष ? विधाता ने पहले ही ललाट में जो लिख दिया है, उसे कौन मिटा सकता है ॥६॥

च० ति०- सत्संगसों खलन साधु स्वभाव सेवै ।

साधू न दुष्टपन संग परेहु लेवै ॥

माटीहि बास कछु फूल न धार पावै ।

माटी सुवास कहुँ फूल नहिं बसावै ॥७॥

सत्संग से दुष्ट सज्जन हो जाते हैं । पर सज्जन उनके संग से दुष्ट नहीं होते । जैसे फूल की सुगंधि को मिट्टी अपनाती है, पर फूल मिट्टी की सुगंधि को नहीं अपनाते ॥७॥

दोहा-- साधू दर्शन पुण्य है, साधु तीर्थ के रूप ।

काल पाय तीरथ फलै, तुरतहि साधु अनूप ॥८॥

सज्जनों का दर्शन बडा पुनीत होता है । क्योंकि साधुजन तीर्थ के समान रहते हैं । बल्कि तीर्थ तो कुछ समय बाद फल देते हैं पर सज्जनों का सत्संग तत्काल फलदायक है ॥८॥

कवित्त-- कह्यो या नगर में महान है कौन ? विप्र ! तारन के वृक्षन के कतार हैं । दाता कहो कौन हैं ? रजक देत साँझ आनि धोय शुभ वस्त्र को जो देत सकार है । दक्ष कहौ कौन है ? प्रत्यक्ष सबहीं हैं दक्ष रहने को कुशल परायो धनदार कौन है ? कैसे तुम जीवत कहो मोसों मीत विष कृमिन्याय हैं । कैसे तुम जीवत बताय कहो मोसों मीत विष कृमिन्याय कर लीजै निराधार है ॥९॥

कोई पथिक किसी नगर में जाकर किसी सज्जन से पुछता है हे भाई ! इस नगर में कौन बडा है ? उसने उत्तर दिया- बडे तो ताड के पेड हैं । (प्रश्न) दता कौन है ? (उत्तर) धोबी, जो सबेरे कपडे ले जाता और शाम को वापस दे जाता है । (प्रश्न) यहाँ चतुर कौन है ? (उत्तर) पराई दौलत ऎंठने में यहाँ सभी चतुर हैं । (प्रश्न) तो फिर हे सखे ! तुम यहाँ जीते कैसे हो ? (उत्तर) उसी तरह जीता हूँ जैसे कि विष का कीडा विष में रहता हुआ भी जिन्दा रहता है ॥९॥

दोहा-- विप्रचरण के उद्क से, होत जहाँ नहिं कीच ।

वेदध्वनि स्वाहा नहीं, वे गृह मर्घट नीच ॥१०॥

जिस घर में ब्राम्हण के पैर धुलने से कीचड नहीं होता, जिसके यहाँ वेद और शास्त्रों की ध्वनि का गर्जन नहीं और जिस घर में स्वाहा स्वधा का कभी उच्चारण नहीं होता, ऐसे घरों को श्मशान के तुल्य समझना चाहिए ॥१०॥

सोरठा-- सत्य मातु पितु ज्ञान, सखा दया भ्राता धरम ।

तिया शांति सुत जान छमा यही षट् बन्धु मम ॥११॥

कोई ज्ञानी किसी के प्रश्न का उत्तर देता हुआ कहता है कि सत्य मेरी माता है, ज्ञान पिता है धर्म भाई है, दया मित्र है, शांति स्त्री है और क्षमा पुत्र है, ये ही मेरे छः बान्धव हैं ॥११॥

सोरठा-- है अनित्य यह देह, विभव सदा नाहिं नर है ।

निकट मृत्यु नित हेय, चाहिय कीन संग्रह धरम ॥१२॥

शरीर क्षणभंगोर है, धन भी सदा रहनेवाला नही है । मृत्यु बिलकुल समीप वेद्यमान है। इसलिए धर्म का संग्रह करो ॥१२॥

दोहा-- पति उत्सव युवतीन को, गौवन को नवघास ।

नेवत द्विजन को हे हरि, मोहिं उत्सव रणवास ॥१३॥

ब्राह्मण का उत्सव है निमन्त्रण, गौओं का उत्सव है नई घास । स्त्री का उत्सव है पति का आगमन, किन्तु हे कृष्ण ! मेरा उत्सव है युध्द ॥१३॥

दोहा-- पर धन माटी के सरिस, परतिय माता भेष ।

आपु सरीखे जगत सब, जो देखे सो देख ॥१४॥

जो मनुष्य परायी स्त्री को माता के समान समझता, पराया धन मिट्टी के ढेले के समान मानता और अपने ही तरह सब प्राणियों के सुख-दुःख समझता है, वही पण्डित है ॥१४॥

कविता- धर्म माहिं रुचि मुख मीठी बानी दाह वचन शक्तिमित्र संग नहिं ठगने बान है । वृध्दमाहिं नम्रता अरु मन म्रं गन्भीरता शुध्द है आचरण गुण विचार विमल हैं । शास्त्र का विशैष ज्ञान रूप भी सुहावन है शिवजी के भजन का सब काल ध्यान है । कहे पुष्पवन्त ज्ञानी राघव बीच मानों सब ओर इक ठौर कहिन को न मान है ॥१५॥

वशिष्ठजी श्रीरामचन्द्रजी से कहते हैं- हे राघव ! धर्म में तत्परता, मुख में मधुरता, दान में उत्साह, मित्रों में निश्छल व्यवहार, गुरुजनों के समझ नम्रता, चित्त में गम्भीरता, आचार में पवित्रता, शास्त्रों में विज्ञता, रूप में सुन्दरता और शिवजी में भक्ति, ये गुण केवल आप ही में हैं ॥१५॥

कवित्त-कल्पवृक्ष काठ अचल सुमेरु चिन्तामणिन भीर जाती जाजि जानिये । सूरज में उष्णाता अरु कलाहीन चन्द्रमा है सागरहू का जल खारो यह जानिये । कामदेव नष्टतनु अरु राजा बली दैत्यदेव कामधेनु गौ को भी पशु मानिये । उपमा श्रीराम की इन से कुछ तुलै ना और वस्तु जिसे उपमा बखानिये ॥१६॥

कल्पवृक्ष काष्ठ है, सुमेरु अचल है, चिन्तामणि पत्थर है, सूर्य की किरणें तीखी हैं, चन्द्रमा घटता-बढता है, समुद्र खारा है, कामदेव शरीर रहित है, बलि दैत्य है और कामधेनु पशु है । इसलिए इनके साथ तो मैं आपकी तुलना नहीं कर सकता । तब हे रघुपते ? किसके साथ आपकी उपमा दी जाय ॥१६॥

दोहा-- विद्या मित्र विदेश में, घरमें नारी मित्र ।

रोगिहिं औषधि मित्र हैं, मरे धर्म ही मेत्र ॥१७॥

प्रवास में विद्या हित करती है, घर में स्त्री मित्र है, रोगग्रस्त पुरुष का हित औषधि से होता है और धर्म मरे का उपकार करता है ॥१७॥

दोहा-- राजसुत से विनय अरु, बुध से सुन्दर बात ।

झुठ जुआरिन कपट, स्त्री से सीखी जात ॥१८॥

मनुष्य को चाहिए कि विनय (तहजीब) राजकुमारों से, अच्छी अच्छी बातें पण्डितों से झुठाई जुआरियॊं से और छलकपट स्त्रियों से सीखे ॥१८॥

दोहा-- बिन विचार खर्चा करें, झगरे बिनहिं सहाय ।

आतुर सब तिय में रहै, सोइ न बेगि नसाय ॥१९॥

बिना समझे-बूझे खर्च करनेवाला अनाथ, झगडालू, और सब तरह की स्त्रियों के लिए बेचैन रहनेवाला मनुष्य देखते-देखते चौपट हो जाता है ॥१९॥

दोहा-- नहिं आहार चिन्तहिं सुमति, चिन्तहि धर्महि एक ।

होहिं साथ ही जनम के, नरहिं अहार अनेक ॥२०॥

विद्वान् को चाहिए कि वह भोजनकी चिन्ता न किया करे । चिन्ता करे केवल धर्म की क्योंकि आहार तो मनुष्य के पैदा होने के साथ ही नियत हो जाया करता है ॥२०॥

दोहा-- लेन देन धन अन्न के, विद्या पढने माहिं ।

भोजन सखा विवाह में, तजै लाज सुख ताहिं ॥२१॥

जो मनुष्य धन तथा धान्य के व्यवहार में, पढने-लिखते में, भोजन में और लेन-देन में निर्लज्ज होता है, वही सुखी रहता है ॥२१॥

दोहा-- एक एक जल बुन्द के परत घटहु भरि जाय ।

सब विद्या धन धर्म को, कारण यही कहाय ॥२२॥

धीरे-धीरे एक एक बूँद पानी से घडा भर जाता है । यही बात विद्या, धर्म और धन के लिए लागू होती है । तात्पर्य यह कि उपयुक्त वस्तुओं के संग्रह में जल्दी न करे । करता चले धीरे-धीरे कभी पुरा हो ही जायेगा ॥२२॥

दोहा-- बीत गयेहु उमिर के, खल खलहीं राह जाय ।

पकेहु मिठाई गुण कहूँ, नाहिं हुनारू पाय ॥२३॥

अवस्था के ढल जाने पर भी जो खल बना रहता है वस्तुताः वही खल है । क्योंकि अच्छी तरह पका हुआ इन्द्रापन मीठापन को नहीं प्राप्त होता ॥२३॥

इति चाणक्ये द्वादशोऽध्यायः ॥१२॥





चाणक्यनीति - अध्याय १३

दोहा- वरु नर जीवै मुहूर्त भर, करिके शुचि सत्कर्म ।

नहिं भरि कल्पहु लोक दुहुँ, करत विरोध अधर्म ॥१॥

मनुष्य यदि उज्वल कर्म करके एक दिन भी जिन्दा रहे तो उसका जीवन सुफल है । इसके बदले इहलोक और परलोक इन दोनों के विरुध्द कार्य करके कल्प भर जिवे तो वह जीना अच्छा नहीं है ॥१॥

दोहा-- गत वस्तुहि सोचै नहीं, गुनै न होनी हार ।

कार्य करहिं परवीन जन आय परे अनुसार ॥२॥

जो बात बीत गयी उसके लिए सोच न करो और न आगे होनेवाली के ही लिए चिन्ता करो । समझदार लोग सामने की बात को ही हल करने की चिन्ता करते हैं ॥२॥

दोहा-- देव सत्पुरुष औ पिता, करहिं सुभाव प्रसाद ।

स्नानपान लहि बन्धु सब, पंडित पाय सुवाद ॥३॥

देवता, भलेमानुष और बाप ये तीन स्वभाव देखकर प्रसन्न होते हैं । भाई वृन्द स्नान और पान से साथ वाक्य पालन से पण्डित लोग खुश होते है ॥३॥

दोहा-- आयुर्दल धन कर्म औ, विद्या मरण गनाय ।

पाँचो रहते गर्भ में जीवन के रचि जाय ॥४॥

आयु, कर्म, सम्पत्ति, विद्या और मरण ये पाँच बातें तभी तै हो जाती हैं, जब कि मनुष्य गर्भ में ही रहता है ॥४॥

दोहा-- अचरज चरित विचित्र अति, बडे जनन के आहि ।

जो तृण सम सम्पति मिले, तासु भार नै जाहिं ॥५॥

ओह ! महात्माओं के चरित्र भी विचित्र होते हैं । वैसे तो ये लक्ष्मी को तिनके की तरह समझते हैं और जब वह आ ही जाती है तो इनके भार से दबकर नम्र हो जाते हैं ॥५॥

दोहा-- जाहि प्रीति भय ताहिंको, प्रीति दुःख को पात्र ।

प्रीति मूल दुख त्यागि के, बसै तबै सुख मात्र ॥६॥

जिसके हृदय में स्नेह (प्रीति) है, उसीको भय है । जिसके पास स्नेह है, उसको दुःख है । जिसके हृदय में स्नेह है, उसी के पास तरह-तरह के दुःख रहते हैं, जो इसे त्याग देता है वह सुख से रहता है ॥६॥

दोहा-- पहिलिहिं करत उपाय जो, परेहु तुरत जेहि सुप्त ।

दुहुन बढत सुख मरत जो, होनी गुणत अगुप्त ॥७॥

जो मनुष्य भविष्य में आनेवाली विपत्तिसे होशियार है और जिसकी बुध्दि समय पर काम कर जाती है ये दो मनुष्य आनंद से आगे बढते जाते हैं । इनके विपरीत जो भाग्य में लिखा होगा वह होगा, जो यह सोचकर बैठनेवाले हैं, इनका नाश निश्चित है ।

दोहा-- नृप धरमी धरमी प्रजा, पाप पाप मति जान ।

सम्मत सम भूपति तथा, परगट प्रजा पिछान ॥८॥

राजा यदि धर्मात्मा होता तो उसकी प्रजा भी धर्मात्मा होती है, राजा पापी होता है तो उसकी प्रजा भी पापी होती है, सम राजा होता है तो प्रजा भी सम होती है । कहने का भाव यह कि सब राजा का ही अनुसरण करते है । जैसा राजा होगा, उसकी प्रजा भी वैसी होगी ॥८॥

दोहा-- जीवन ही समुझै मरेउ, मनुजहि धर्म विहीन ।

नहिं संशय निरजीव सो, मरेउ धर्म जेहि कीन ॥९॥

धर्मविहीन मनुष्य को मैं जीते मुर्दे की तरह मानता हुँ । जो धर्मात्मा था, पर मर गया तो वह वास्तव में दीर्घजीवी था ॥९॥

दोहा-- धर्म, अर्थ, अरु, मोक्ष, न एको है जासु ।

अजाकंठ कुचके सरिस, व्यर्थ जन्म है तासु ॥१०॥

धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पदार्थों में से एक पदार्थ भी जिसके पास नहीं है, तो बकरी के गले में लटकनेवाले स्तनों के समान जन्म ही निरर्थक है ॥१०॥

दोहा-- और अगिन यश दुसह सो, जरि जरि दुर्जन नीच ।

आप न तैसी करि सकै, तब तिहिं निन्दहिं बीच ॥११॥

नीच प्रकृति के लोग औरों के यशरूपी अग्नि से जलते रहते हैं उस पद तक तो पहुँचने की सामर्थ्य उनमें रहती नहीं । इसलिए वे उसकी निन्दा करने लग जाते हैं ॥११॥

दोहा-- विषय संग परिबन्ध है, विषय हीन निर्वाह ।

बंध मोक्ष इन दुहुन को कारण मनै न आन ॥१२॥

विषयों में मन को, लगाना ही बन्धन है और विषयों से मन को हटाना मुक्ति है । भाव यह कि मन ही मनुष्यों के बन्धन और मोक्ष का हेतु है ॥१२॥

दोहा-- ब्रह्मज्ञान सो देह को, विगत भये अभिमान ।

जहाँ जहाँ मन जाता है, तहाँ समाधिहिं जान ॥१३॥

परमात्माज्ञान से मनुष्य का जब देहाभिमान गल जाता है तो फिर जहाँ कहीं भी उसका मन जाता है तो उसके लिए सर्वत्र समाधि ही है ॥१३॥

दोहा-- इच्छित सब सुख केहि मिलत, जब सब दैवाधीन ।

यहि ते संतोषहिं शरण, चहै चतुर कहँ कीन ॥१४॥

अपने मन के अनुसार सुख किसे मिलता है । क्योंकि संसार का सब काम दैव के अधीन है । इसीलिए जितना सुख प्राप्त हो जाय, उतने में ही सन्तुष्ट रहो ॥१४॥

दोहा-- जैसे धेनु हजार में, वत्स जाय लखि मात ।

तैसे ही कीन्हो करम, करतहि के ढिग जात ॥१५॥

जैसे हजारों गौओं में बछडा अपनी ही माँ के पास जाता है । उसा तरह प्रत्येक मनुष्य का कर्म (भाग्य) अपने स्वामी के ही पास जा पहुँचता है ॥१५॥

दोहा-- अनथिर कारज ते न सुख, जन औ वन दुहुँ माहिं ।

जन तेहि दाहै सङ्ग ते, वन असंग ते दाहि ॥१६॥

जिसका कार्य अव्यवस्थित रहता है, उसे न समाज में सुख है, न वन में । समाज में वह संसर्ग से दुःखी रहता है तो वन में संसर्ग त्याग से दुखी रहेगा ॥१६॥

दोहा-- जिमि खोदत ही ते मिले, भूतल के मधि वारि ।

तैसेहि सेवा के किये, गुरु विद्या मिलि धारि ॥१७॥

जैसे फावडे से खोदने पर पृथ्वी से जल निकल आता है । उसी तरह किसी गुरु के पास विद्यमान विद्या उसकी सेवा करने से प्राप्त हो जाती है ॥१७॥

दोहा-- फलासिधि कर्म अधीन है, बुध्दि कर्म अनुसार ।

तौहू सुमति महान जन, करम करहिं सुविचार ॥१८॥

यद्यपि प्रत्येक मनुष्य को कर्मानुसार फल प्राप्त होता है और बुध्दि भी कर्मानुसार ही बनती है । फिर भी बुध्दिमान् लोग अच्छी तरह समझ-बूझ कर ही कोई काम करते हैं ॥१८॥

दोहा-- एक अक्षरदातुहु गुरुहि, जो नर बन्दे नाहिं ।

जन्म सैकडों श्वान ह्वै, जनै चण्डालन माहिं ॥१९॥

एक अक्षर देनेवाले को भी जो मनुष्य अपना गुरु नहीं मानता तो वह सैकडों बार कुत्ते की योनि में रह-रह कर अन्त में चाण्डाल होता है ॥१९॥

दोहा-- सात सिन्धु कल्पान्त चलु, मेरु चलै युग अन्त ।

परे प्रयोजन ते कबहुँ, नहिं चलते हैं सन्त ॥२०॥

युग का अन्त हो जाने पर सुमेरु पर्वत डिग जाता है । कल्प का अन्त होने पर सातो सागर भी चंचल हो उठते हैं, पर सज्जन लोग स्वीकार किये हुए मार्ग से विचलित नहीं होते ॥२०॥

म० छ० - अन्न बारि चारु बोल तीनि रत्न भू अमोल ।

मूढ लोग के पषान टूक रत्न के पषान ॥२१॥

सच पूछो तो पृथ्वी भर में तीन ही रत्न हैं--अन्न, जल और मीठ-मीठी बातें । लेकिन बेवकूफ लोग पत्थर के टुकडों को ही रत्न मानते हैं ॥२१॥

इति चाणक्ये त्रयोदशोऽध्यायः ॥१३॥





चाणक्यनीति - अध्याय १४

म०छ०-

निर्धनत्व दुःख बन्ध और विपत्ति सात ।

है स्वकर्म वृक्ष जात ये फलै धरेक गात ॥१॥

मनुष्य अपने द्वारा पल्लवित अपराध रूपी वृक्ष के ये ही फल फलते हैं--दरिद्रता, रोग, दुःख, बन्धन (कैद) और व्यसन ॥१॥

म०छ०-

फेरि वित्त फेरि मित्त, फेरि तो धराहु नित्त ।

फेरि फेरि सर्व एह, ये मानुषी मिलै न देह ॥२॥

गया हुआ धन वापस मिल सकता है, रूठा हुआ मित्र भी राजी किया जा सकता है, हाथ से निकली हुई स्त्री भी फिर वापस आ सकती है, और छीनी हुई जमीन भी फिर मिल सकती है, पर गया हुआ यह शरीर वापस नहीं मिल सकता ॥२॥

म०छ०-

एक ह्वै अनेक लोग वीर्य शत्रु जीत योग ।

मेघ धारि बारि जेत घास ढेर बारि देत ॥३॥

बहुत प्राणियोंका सङ्गठित बल शत्रु को परास्त कर देता है, प्रचण्ड वेग के साथ बरसते हुए मेघ को सङ्गठन के बल से क्षुद्र तिनके हरा देते हैं ॥३॥

म०छ०-

थोर तेल बारि माहिं । गुप्तहू खलानि माहिं ।

दान शास्त्र पात्रज्ञानि । ये बडे स्वभाव आहि ॥४॥

जल में तेल, दुष्ट मनुष्य में कोई गुप्त बात, सुपात्र में थोडा भी दान और समझदार मनुष्य के पास शास्त्र, ये थोडे होते हुए भी पात्र के प्रभाव से तुरन्त फैल जाते हैं ॥४॥

म०छ०-

धर्म वीरता मशान । रोग माहिं जौन ज्ञान ।

जो रहे वही सदाइ । बन्ध को न मुक्त होइ ॥५॥

कोई धार्मिक आख्यान सुनने पर, श्मशान में और रुग्णावस्था में मनुष्य की जैसी बुध्दि रहती है, वैसी यदि हमेशा रहे तो कौन मोक्षपद न प्राप्त कर ले ? ॥५॥

म०छ०-

आदि चूकि अन्त शोच । जो रहै विचारि दोष ।

पूर्वही बनै जो वैस । कौन को मिले न ऎश ॥६॥

कोई बुरा काम करने पर पछतावे के समय मनुष्य की जैसी बुध्दि रहती है, वैसी यदि पहले ही से रहे तो कौन मनुष्य उन्नत न हो जाय ॥६॥

म०छ०-

दान नय विनय नगीच शूरता विज्ञान बीच ।

कीजिये अचर्ज नाहिं, रत्न ढेर भूमि माहिं ॥७॥

दान, ताप, वीरता, विज्ञान और नीति, इनके विषय में कभी किसी को विस्मित होना ही नहीं चाहिये । क्योंकि पृथ्वी में बहुत से रत्न भरे पडे हैं ॥७॥

म०छ०-

दूरहू बसै नगीच, जासु जौन चित्त बीच ।

जो न जासु चित्त पूर । है समीपहूँ सो दूर ॥८॥

जो (मनुष्य) जिसके हृदय में स्थान किये है, वह दुर रहकर भी दूर नहीं है । जो जिसके हृदय में नहीं रहता, वह समीप रहने पर भी दूर है ॥८॥

म०छ०-

जाहिते चहे सुपास, मीठी बोली तासु पास ।

व्याध मारिबे मृगान, मंत्र गावतो सुगान ॥९॥

मनुष्य को चाहिए कि जिस किसी से अपना भला चाहता हो उससे हमेशा मीठी बातें करे । क्योंकि बहेलिया जब हिरन का शिकार करने जाता है तो बडे मीठे स्वर से गाता है ॥९॥

म०छ०-

अति पास नाश हेत, दूरहू ते फलन देत ।

सेवनीय मध्य भाग, गुरु, भूप नारि आग ॥१०॥

राजा, अग्नि, गुरु, और स्त्रियाँ-इनके पास अधिक रहने पर विनाश निश्चित है और दूर रहा जाय तो कुछ मतलब नहीं निकलता । इसलिए इन चारों की आराधना ऎसे करे कि न ज्यादा पास रहे न ज्यादा दूर ॥१०॥

म०छ०-

अग्नि सर्प मूर्ख नारि, राजवंश और वारि ।

यत्न साथ सेवनीय, सद्य ये हरै छ जीय ॥११॥

आग, पानी, मूर्ख, नारी और राज-परिवार इनकी यत्नके साथ आराधना करै । क्योंकि ये सब तुरन्त प्राण लेने वाले जीव हैं ॥११॥

म०छ०-

जीवतो गुणी जो होय, या सुधर्म युक्त जीव ।

धर्म और गुणी न जासु, जीवनो सुव्यर्थ तासु ॥१२॥

जो गुणी है, उसका जीवन सफल है या जो धर्मात्मा है, उसका जन्म सार्थक है । इसके विपरीत गुण और धर्म से विहीन जीवन निष्प्रयोजन है ॥१२॥

म०छ०-

चाहते वशै जो कीन, एक कर्म लोक तीन ।

पन्द्रहों के तो सुखान, जान तो बहार आन ॥१३॥

यदि तुम केवल एक काम से सारे संसार को अपने वश में करना चाहते हो तो पन्द्रह मुखवाले राक्षस के सामने चरती हुई इन्द्रयरूपी गैयों को उधरसे हटा लो । ये पन्द्रह मुख कौन हैं - आँख, नाक, कान, जीभ और त्वचा ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ मुख, हाँथ, पाँव, लिंग और गुदा, ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ रूप, रस, गन्ध, शब्द और स्पर्श, ये पाँच ज्ञानेन्द्रियों के विषय हैं ॥१३॥

सो०--

प्रिय स्वभाव अनुकूल, योग प्रसंगे वचन पुनि ।

निजबल के समतूल, कोप जान पण्डित सोई ॥१४॥

जो मनुष्य प्रसंगानुसार बात, प्रकृति के अनुकूल प्रेम और अपनी शक्तिके अनुसार क्रोध करना जानता है, वही पंडित है ॥१४॥

सो०--

वस्तु एक ही होय, तीनि तरह देखी गई ।

रति मृत माँसू सोय, कामी योगी कुकुर सो ॥१५॥

एक स्त्री के शरीर को तीन जीव तीन दृष्टि से देखते हैं-योगी उसे बदबूदार मुर्दे के रूप में देखते हैं कामी उसे कामिनी समझता है और कुत्ता उसे मांसपिण्ड जानता है ॥१५॥

सो०--

सिध्दौषध औ धर्म, मैथुन कुवचन भोजनो ।

अपने घरको मर्म, चतुर नहीं प्रगटित करै ॥१६॥

बुध्दिमान् को चाहिए कि इन बातों को किसी से न जाहिर करे-अच्छी तरह तैयार की हुई औषधि, धर्म अपने घर का दोष, दूषित भोजन और निंद्यं किं वदन्ती बचन ॥१६॥

सो०--

तौलौं मौने ठानि, कोकिलहू दिन काटते ।

जौलौं आनन्द खानि, सब को वाणी होत है ॥१७॥

कोयमें तब तक चुपचाप दिन बिता देती हैं जबतक कि वे सब लोगों के मन को आनन्दित करनेवाली वाणी नहीं बोलतीं ॥१७॥

सो०--

धर्म धान्य धनवानि, गुरु वच औषध पाँच यह ।

धर्म, धन, धान्य, गुरु का वचन और औषधि इन वस्तुओं को सावधानी के साथ अपनावे और उनके अनुसार चले । जो ऎसा नहीं करता, वह नहीं जीता ॥१८॥

सो०--

तजौ दुष्ट सहवास, भजो साधु सङ्गम रुचिर ।

करौ पुण्य परकास, हरि सुमिरो जग नित्यहिं ॥१९॥

दुष्टों का साथ छोड दो, भले लोगों के समागम में रहो, अपने दिन और रात को पवित्र करके बिताओ और इस अनित्य संसार में नित्य ईश्वर का स्मरण करते रहो ॥१९॥

इति चाणक्ये चतुर्दशोऽध्यायः ॥१४॥




चाणक्यनीति - अध्याय १५

दोहा--

जासु चित्त सब जन्तु पर, गलित दया रस माह ।

तासु ज्ञान मुक्ति जटा, भस्म लेप कर काह ॥१॥

जिस का चित्त दया के कारण द्रवीभूत हो जाता है तो उसे फिर ज्ञान, मोक्ष, जटाधारण तथा भस्मलेपन की क्या आवश्यकता ? ॥१॥

दोहा--

एकौ अक्षर जो गुरु, शिष्यहिं देत जनाय ।

भूमि माहि धन नाहि वह, जोदे अनृण कहाय ॥२॥

यदि गुरु एक अक्षर भी बोलकर शिष्य को उपदेश दे देता है तो पृथ्वी में कोई ऎसा द्रव्य है ही नहीं कि जिसे देखकर उस गुरु से उऋण हो जाय ॥२॥

दोहा--

खल काँटा इन दुहुन को, दोई जगह उपाय ।

जूतन ते मुख तोडियो, रहिबो दूरि बचाय ॥३॥

दुष्ट मनुष्य और कण्टक, इन दोनों के प्रतिकार के दो ही मार्ग हैं । या तो उनके लिए पनही (जूते) का उपयोग किया जाय या उन्हें दूर ही से त्याग दे ॥३॥

दोहा--

वसन दसन राखै मलिन, बहु भोजन कटु बैन ।

सोवै रवि पिछवतु जगत, तजै जो श्री हरि ऎन ॥४॥

मैले कपडे पहननेवाला, मैले दाँतवाला, भुक्खड, नीरस बातें करनेवाला और सूर्योदय तथा सूर्यास्त के समय तक सोने-वाला यदि ईश्वर ही हो तो उसे भी लक्ष्मी त्याग देती हैं ॥४॥

दोहा--

तजहिं तीय हित मीत औ, सेबक धन जब नाहिं ।

धन आये बहुरैं सब धन बन्धु जग माहिं ॥५॥

निर्धन मित्र को मित्र, स्त्री, सेवक और सगे सम्बन्धी छोड देते हैं और वही जब फिर धन हो जाता है तो वे लोग फिर उसके साथ हो लेते हैं । मतलब यह, संसार में धन ही मनुष्य का बन्धु है ॥५॥

दोहा--

करि अनिति धन जोरेऊ, दशे वर्ष ठहराय ।

ग्यारहवें के लागते, जडौ मूलते जाय ॥६॥

अन्यार से कमाया हुआ धन केवल दस वर्ष तक टिकता है, ग्यारहवाँ वर्ष लगने पर वह मूल धन के साथ नष्ट हो जाता है ॥६॥

दोहा--

खोतो मल समरथ पँह, भलौ खोट लहि नीच ।

विषौ भयो भूषण शिवहिं, अमृत राहु कँह मीच ॥७॥

अयोग्य कार्य भी यदि कोई प्रभावशाली व्यक्ति कर गुजरे तो वह उसके लिए योग्य हो जाता है और नीच प्रकृति का मनुष्य यदि उत्तम काम भी करता है तो वह उसके करने से अयोग्य साबित हो जाता है । जैसे अमृत भी राहु के लिए मृत्यु का कारण बन गया और विष शिवजी के कंठ का श्रृङ्गार हो गया ॥७॥

दोहा--

द्विज उबरेउ भोजन सोई, पर सो मैत्री सोय ।

जेहि न पाप वह चतुरता, धर्म दम्भ विनु जोय ॥८॥

वही भोजन भोजन है, जो ब्राह्मणों के जीम लेने के बाद बचा हो, वही प्रेम प्रेम है जो स्वार्थ वश अपने ही लोगों में न किया जाकर औरों पर भी किया जाय । वही विज्ञता (समझदारी) है कि जिसके प्रभाव से कोई पाप न हो सके और वही धर्म धर्म है कि जिसमें आडम्बर न हो ॥८॥

दोहा--

मणि लोटत रहु पाँव तर, काँच रह्यो शिर नाय ।

लेत देत मणिही रहे, काँच काँच रहि जाय ॥९॥

वैसे मणि पैरों तले लुढके और काँच माथे पर रखा जाय तो इसमें उन दोनों के विषय में कुछ नहीं कहा जा सकता । पर जब वे दोनों बाजार में बिकने आवेंगे और उनका क्रय-विक्रय होने लगेगा तब काँच काँच ही रहेगा और मणि मणि ही ॥९॥

दोहा--

बहुत विघ्न कम काल है, विद्या शास्त्र अपार ।

जल से जैसे हंस पय, लीजै सार निसार ॥१०॥

शास्त्र अनन्त हैं, बहुत सी विद्यायें हैं, थोडासा समय 'जीवन' है और उसमें बहुत से विघ्न हैं । इसलिए समझदार मनुष्य को उचित है जैसे हंस सबको छोडकर पानी से दूध केवल लेता है, उसी तरह जो अपने मतलब की बात हो, उसे ले ले बाकी सब छोड दे ॥१०॥

दोहा--

दूर देश से राह थकि, बिनु कारज घर आय ।

तेहि बिनु पूजे खाय जो, सो चाण्डाल कहाय ॥११॥

जो दूर से आ रहा हो इन अभ्यागतों की सेवा किये बिना जो भोजन कर लेता है उसे चाण्डाल कहना चाहिए ॥११॥

दोहा--

पढे चारहूँ वेदहुँ, धर्म शास्त्र बहु बाद ।

आपुहिं जानै नाहिं ज्यों, करिछिहिंव्यञ्जन स्वाद ॥१२॥

कितने लोग चारो वेद और बहुत से धर्मशास्त्र पढ जाते हैं , पर वे आपको नहीं समझ पाते, जैसे कि कलछुल पाक में रहकर भी पाक का स्वाद नहीं जान सकती ॥१२॥

दोहा--

भवसागर में धन्य है, उलटी यह द्विज नाव ।

नीचे रहि तर जात सब, ऊपर रहि बुडि जाय ॥१३॥

यह द्विजमयी नौका धन्य है, कि जो इस संसाररूपी सागर में उलटे तौर पर चलती है । जो इससे नीचे (नम्र) रहते हैं, वे तर जातें हैं और जो ऊपर (उध्दत) रहते, वे नीचे चले जाते हैं ॥१३॥

दोहा--

सुघा धाम औषधिपति, छवि युत अभीय शरीर ।

तऊचंद्र रवि ढिग मलिन, पर घर कौन गम्भीर ॥१४॥

यद्यपि चंद्रमा अमृत का भाण्डार है, औषधियों का स्वामी है, स्वयं अमृतमय है और कान्तिमान् है । फिर भी जब वह सूर्य के मण्डल में पड जाता है तो किरण रहित हो जाता है । पराए घर जाकर भला कौन ऎसा है कि जिसकी लघुता न सावित होती हो ॥१४॥

दो०--

वह अलि नलिनी पति मधुप, तेहि रस मद अलसान ।

परि विदेस विधिवश करै, फूल रसा बहु मान ॥१५॥

यह एक भौंरा है, जो पहले कमलदल के ही बीच में कमिलिनी का बास लेता तहता था संयोगवश वह अब परदेश में जा पहुँचा है, वहाँ वह कौरैया के पुष्परस को ही बहुत समझता है ॥१५॥

स०--

क्रोध से तात पियो चरणन से स्वामी हतो जिन रोषते छाती बालसे वृध्दमये तक मुख में भारति वैरिणि धारे संघाती ॥ मम वासको पुष्प सदा उन तोडत शिवजीकी पूजा होत प्रभाती । ताते दुख मान सदैव हरि मैं ब्राह्मण कुलको त्याग चिलाती ॥

ब्राह्मण अधिकांश दरिद्र दिखाई देते हैं, कवि कहता है कि इस विषय पर किसी प्रश्नोत्तर के समय लक्ष्मी जी भगवान्‍ से कहती हैं- जिसने क्रुध्द होकर मेरे पिता को पी लिया, मेरे स्वामी को लात मारा, बाल्यकाल ही से जो रोज ब्राह्मण लोग वैरिणी (सरस्वती) को अपने मुख विवर में आसन दिये रहते हैं, शिवाजी को पूजने के लिये जो रोज मेरा घर (कमल) उजाडा करते हैं, इन्हीं कारणों से नाराज होकर हे नाथ ! मैं सदैव ब्राह्मण का घर छोडे रहती हूँ-वहाँ जाती ही नहीं ॥१६॥

दोहा--

बन्धन बहु तेरे अहैं, प्रेमबन्धन कछु और ।

काठौ काटन में निपुण, बँध्यो कमल महँ भौंर ॥१७॥

वैसे तो बहुत से बन्धन हैं, पर प्रेम की डोर का बन्धन कुछ और ही है । काठको काटने में निपुण भ्रमर कमलदल को काटने में असमर्थ होकर उसमें बँध जाता है ॥१७॥

दोहा--

कटे न चन्दन महक तजु, वृध्द न खेल गजेश ।

ऊख न पेरे मधुरता, शील न सकुल कलेश ॥१८॥

काटे जाने पर भी चन्दन का वृक्ष अपनी सुगन्धि नहीं छोडता बूढा हाथी भी खेलवाड नहीं छोडता, कोल्हू में पेरे जानेपर भी ईख मिठास नहीं छोडती, ठीक इसी प्रकार कुलीन पुरुष निर्धन होकर भी अपना शील और गुण नहीं छोडता ॥१८॥

स०--

कोऊभूमिकेमाँहि लुघु पर्वत करधार के नाम तुम्हारो पर् यो है ।

भूतल स्वर्ग के बीच सभी ने जो गिरिवरधारी प्रसिध्द कियो है ।

तिहँ लोक के धारक तुम को धराकुच अग्र कहि यह को गिनती है ।

ताते बहु कहना है जो वृथा यशलाभहरे निज पुण्य मिलती है ॥१९॥

रुक्मिणी भगवान् से कहती हैं हे केशव ! आपने एक छोटे से पहाड को दोनों हाथों से उठा लिया वह इसीलिये स्वर्ग और पृथ्वी दोनों लोकों में गोवर्धनधारी कहे जाने लगे । लेकिन तीनों लोकों को धारण करनेवाले आपको मैं अपने कुचों के अगले भाग से ही उठा लेती हूँ, फिर उसकी कोई गिनती ही नहीं होती । हे नाथ ! बहुत कुछ कहने से कोई प्रयोजन नहीं, यही समझ लीजिए कि बडे पुण्य से यश प्राप्त होता है ॥१९॥

इति चाणक्ये पंचदशोऽध्यायः ॥१५॥

चाणक्य

चाणक्य कौटिल्य नाम से भी विख्यात हैं। वे महान् सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के महामंत्री थे। उन्होने नदवंश का नाश करके चन्द्रगुप्त मौर्य को राजा बनाया। वे राजनीति और कूटनीति के साक्षात् मूर्ति थे। उनका अर्थशास्त्र राजनीति, अर्थनीति, कृषि, समाजनीति आदि का महान ग्रंन्थ है। अर्थशास्त्र मौर्यकालीन भारतीय समाज का दर्पण माना जाता है।
कहते हैं कि चाणक्य राजसी ठाट-बाट से दूर एक छोटी सी कुटिया में रहते थे।
उनके नाम पर एक धारावाहिक भा बना था जो दूरदर्शन पर १९९० के दशक में दिखाया जाता था ।

अनुक्रम

[छुपाएँ]

[संपादित करें] राजा के निर्माता

चाणक्य या कहें कि विष्णुगुप्त अथवा कौटिल्य, ने तक्षशिला विश्वविद्यालय में वेदों का गहन अध्ययन किया. क्या यह गौरव का विषय नहीं कि दुनियाँ के सबसे पुराने विश्वविद्यालय, तक्षशिला और नालन्दा भारतीय उपमहाद्वीप में थे. और हाँ, ध्यान देने योग्य बात यह है कि हम ५०० से ४०० वर्ष ईसा पूर्व की बात कर रहे हैं. तक्षशिला एक सुस्थापित शिक्षण संस्थान था और माना जाता है कि पाणिनी ने संस्कृत व्याकरण की रचना यहीं की थी. चाणक्य भी बाद में यहाँ नीतिशास्त्र के व्याख्याता हुए (कुशाग्र छात्र, है न!). ऐसा कहा जाता है कि वे व्यवहारिक उदाहरणों से पढ़ाते थे. यूनानी लोगों के तक्षशिला पर चढ़ाई करने कारण से वहाँ एक राजनैतिक उथल-पुथल मच गयी और चाणक्य को मगध में आकर बसना पड़ा. उन्हें नि:संदेह एक राजा के निर्माता के रूप में अधिक जाना जाता है. चंद्रगुप्त मौर्य विशेष रूप से उनकी सलाह मानते थे. शत्रुओं की कमज़ोरी को पहचाकर उसे अपने काम में लाने की विशिष्ट प्रतिभा के चलते चाणक्य हमेशा अपने शत्रुओं पर हावी रहे. उन्होंने तीन पुस्तकों की रचना की- ‘अर्थशास्त्र‘, ‘नीतिशास्त्र’ तथा ‘चाणक्य नीति’. ‘नीतिशास्त्र’ में भारतीय जीवन के तौर-तरीकों का विवरण है तो ‘चाणक्य नीति’ में उन विचारों का लेखा-जोखा है जिनमें चाणक्य विश्वास करते थे और जिनका वे पालन करते थे.
राष्ट्रीय नीतियों, रणनीतियों तथा विदेशी संबंधो पर लिखी गई ‘अर्थशास्त्र’ उनकी सर्वाधिक विख्यात पुस्तक है. प्रबंधन की दृष्टि से एक राजा तथा प्रशासन की भूमिका तथा कर्तव्यों को यह पुस्तक स्पष्ट करती है. यह पुस्तक एक राज्य के सफल संचालन से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालती है. उदाहरण के लिये यह न सिर्फ़ आपदाओं तथा अनाचारों से निपटने की राह बताती है बल्कि अनुशासन तथा नीति-निर्धारण के तरीकों का भी उल्लेख करती है. इसी विषय पर लिखी एक और पुस्तक है ‘द प्रिंस‘ जो कि मैकियावेली द्वारा रचित है, हालांकि विषय समान होते हुए भी यह पुस्तक चाणक्य के ‘अर्थशास्त्र’ से सर्वथा भिन्न है. मैकियावेली पन्द्रहवीं शताब्दी के इतालवी राजनैतिक दार्शनिक थे. अपनी सत्ता को का़यम रखने के लिये एक महत्वाकांक्षी उत्तराधिकारी को क्या नीतियाँ अपनानी चाहिये, उनकी किताब इसी विषय पर केंद्रित है. उनके विचार अतिवादी माने जाते हैं क्योंकि उनके मतानुसार तानाशाही राज्य में स्थिरता बनाये रखने का सर्वोत्कृष्ट मार्ग है. शक्ति तथा सत्ता प्राप्ति को उन्होंने नैतिकता से भी महत्वपूर्ण माना है. लगभग २००० वर्षों के अंतराल वाली इन दो कृतियों की तुलना करना बेहद रोचक है.
दुनियाँ मुख्यत: मैकियावेली को ही जानती है। भारतीय होने के नाते हम कम से कम इतना तो ही कर ही सकते है कि सर झुका कर उस महान शख्सियत को नमन करें जिसका नाम था - चाणक्य।

[संपादित करें] चाणक्य की कुटिया

पाटलिपुत्र के अमात्य आचार्य चाणक्य बहुत विद्वान न्यायप्रिय होने के साथ एक सीधे सादे ईमानदार सज्जन व्यक्ति भी थे। वे इतने बडे साम्राज्य के महामंत्री होनेके बावजूद छपपर से ढकी कुटिया में रहते थे। एक आम आदमी की तरह उनका रहन-सहन था। एक बार यूनान का राजदूत उनसे मिलने राज दरबार में पहुंचा राजनीति और कूटनय में दक्ष चाणक्य की चर्चा सुनकर राजदूत मंत्रमुग्ध हो गया। राजदूत ने शाम को चाणक्य से मिलने का समय मांगा। आचार्य ने कहा-आप रात को मेरे घर आ सकते हैं। राजदूत चाणक्य के व्यवहार से प्रसन्न हुआ। शाम को जब वह राजमहल परिसर में ’आमात्य निवास‘ के बारे में पूछने लगा। राज प्रहरी ने बताया- आचार्य चाणक्य तो नगर के बाहर रहते हैं। राजदूत ने साचा शायद महामंत्री का नगर के बाहर सरोवर पर बना सुंदर महल होगा। राजदूत नगर के बाहर पहूंचा। एक नागरिक से पूछा कि चाणक्य कहा रहते है। एक कुटिया की ओर इशारा करते हुए नागरिक ने कहा-देखिए, वह सामने महामंत्री की कुटिया है। राजदूत आश्चर्य चकित रह गया। उसने कुटिया में पहुंचकर चाणक्य के पांव छुए और शिकायत की-आप जैसा चतुर महामंत्री एक कुटिया में रहता है। चाणक्य ने कहा-अगर म जनता की कडी मेहनत और पसीने की कमाई से बने महलों से रहूंगा तो मेरे देश के नागरिक को कुटिया भी नसीब नहीं होगी। चाणक्य की ईमानदारी पर यूनान का राजदूत नतमस्तक हो गया।

[संपादित करें] चाणक्य नीति-दर्पण

नीतिवर्णन परत्व संस्कृत ग्रंथो में, चाणक्य-नीतिदर्पण का महत्वपूर्ण स्थान है । जीवन को सुखमय एवं ध्येयपूर्ण बनाने के लिए, नाना विषयों का वर्णन इसमें सूत्रात्मक शैली से सुबोध रूप में प्राप्त होता है । व्यवहार संबंधी सूत्रों के साथ-साथ, राजनीति संबंधी श्लोकों का भी इनमें समावेश होता है । आचार्य चाणक्य भारत का महान गौरव है, और उनके इतिहास पर भारत को गर्व है । तो इससे पूर्व कि हम नीति-दर्पण की ओर बढें, चलिए पहले इस महान शिक्षक, प्रखर राजनीतिज्ञ एवं अर्थशास्त्रकार के बारे में थोड़ा जानने का प्रयास करें ।प्राचीन संस्कृत शास्त्रज्ञों की परंपरा में, आचार्य चणक के पुत्र विष्णुगुप्त-चाणक्य का स्थान विशेष है । वे गुणवान, राजनीति कुशल, आचार और व्यवहार में मर्मज्ञ, कूटनीति के सूक्ष्मदर्शी प्रणेता, और अर्थशास्त्र के विद्वान माने जाते हैं ।
वे स्वभाव से स्वाभिमानी, चारित्र्यवान तथा संयमी; स्वरुप से कुरूप; बुद्धि से तीक्ष्ण; इरादे के पक्के; प्रतिभा के धनी, युगदृष्टा और युगसृष्टा थे । कर्तव्य की वेदी पर मन की मधुर भावनाओं की बली देनेवाले वे धैर्यमूर्ति थे ।
चाणक्य का समय ई.स. पूर्व ३२६ वर्ष का माना जाता है । अपने निवासस्थान पाटलीपुत्र (पट़ना) से तक्षशीला प्रस्थान कर उन्होंने वहाँ विद्या प्राप्त की । अपने प्रौढ़ज्ञान से विद्वानों को प्रसन्न कर वे वहीं पर राजनीति के प्राध्यापक बने । लेकिन उनका जीवन, सदा आत्मनिरिक्षण में मग्न रहता था । देश की दुर्व्यवस्था देखकर उनका हृदय अस्वस्थ हो उठता; कलुषित राजनीति और सांप्रदायिक मनोवृत्ति से त्रस्त भारत का पतन उनसे सहन नहीं हो पाता था । अतः अपनी दूरदर्शी सोच से, एक विस्तृत योजना बनाकर, देश को एकसूत्र में बाँधने का असामान्य प्रयास उन्होंने किया ।
भारत के अनेक जनपदों में वे घूमें । जनसामान्य से लेकर, शिक्षकों एवं सम्राटों तक में सोयी हुई राष्ट्र-निष्ठा को उन्होंने जागृत किया । इस राजकीय एवं सांस्कृतिक क्रांति को स्थिर करने, अपने गुणवान और पराक्रमी शिष्य चन्द्रगुप्त मौर्य को मगध के सिंहासन पर स्थापित किया । चाणक्य याने स्वार्थत्याग, निर्भीकता, साहस एवं विद्वत्ता की साक्षात् मूरत !
मगध के महामंत्री होने पर भी वे सामान्य कुटिया में रहते थे । चीन के प्रसिद्ध यात्री फाह्यान ने यह देखकर जब आश्चर्य व्यक्त किया, तब महामंत्री का उत्तर था "जिस देश का महामंत्री (प्रधानमंत्री-प्रमुख) सामान्य कुटिया में रहता है, वहाँ के नागरिक भव्य भवनों में निवास करते हैं; पर जिस देश के मंत्री महालयों में निवास करते हैं, वहाँ की जनता कुटिया में रहती है । राजमहल की अटारियों में, जनता की पीडा का आर्तनाद सुनायी नहीं देता ।”
चाणक्य का मानना था कि `बुद्धिर्यस्य बलं तस्य`। वे पुरुषार्थवादी थे; `दैवाधीनं जगत्सर्वम्` इस सिद्धांत को मानने के लिए कदापि तैयार नहीं थे । सार्वजनिन हित और महान ध्येय की पूर्ति में प्रजातंत्र या लोकशिक्षण अनिवार्य है, पर पर्याप्त नहीं ऐसा उनका स्पष्ट मत था । देश के शिक्षक, विद्वान और रक्षक – निःस्पृही, चतुर और साहसी होने चाहिए । स्वजीवन और समाजव्यवहार में उन्नत नीतिमूल्य का आचरण ही श्रेष्ठ है; किंतु, स्वार्थपरायण सत्तावान या वित्तवानों से, आवश्यकता पडने पर वज्रकुटिल बनना चाहिए – ऐसा उनका मत था । इसी कारण वे “कौटिल्य” कहलाये ।
चाणक्य का व्यक्तित्व शिक्षकों तथा राजनीतिज्ञों के लिए किसी भी काल में तथा किसी भी देश में अनुकरणीय एवं आदर्श है । उनके चरित्र की महानता के पीछे, उनकी कर्मनिष्ठा, अतुलप्रज्ञा और दृढप्रतिज्ञा थे । वे मेधा, त्याग, तेजस्विता, दृढता, साहस एवं पुरुषार्थ के प्रतीक हैं । उनके अर्थशास्त्र और राजनीतिशास्त्र के सिद्धांत अर्वाचीन काल में भी उतने ही उपयुक्त हैं । चाणक्य-नीतिदर्पण ग्रंथ में, आचार्य ने अपने पूर्वजों द्वारा संभाली धरोहर का और अन्य वैदिक ग्रंथो का अध्ययन कर, सूत्रों एवं श्लोकों का संकलन किया है । उन्हें, आने वाले समय में सुसंस्कृत पर क्रमशः प्रस्तुत करने का हमें हर्ष है । स्मृतिरुप होने के कारण, कुछ एक रचनाओं को काल एवं परिस्थिति अनुसार यथोचित न्याय और संदर्भ देने का प्रयास अनिवार्य होगा; अन्यथा आचार्य के कथन का अपप्रयोग हो पाना अत्यंत संभव है । अस्तु ।

[संपादित करें] मूल चाणक्य नीति

आज से करीब 2300 साल पहले पहले पैदा हुए चाणक्य भारतीय राजनीति और अर्थशास्त्र के पहले विचारक माने जाते हैं। पाटलिपुत्र (पटना) के शक्तिशाली नंद वंश को उखाड़ फेंकने और अपने शिष्य चंदगुप्त मौर्य को बतौर राजा स्थापित करने में चाणक्य का अहम योगदान रहा। ज्ञान के केंद्र तक्षशिला विश्वविद्यालय में आचार्य रहे चाणक्य राजनीति के चतुर खिलाड़ी थे और इसी कारण उनकी नीति कोरे आदर्शवाद पर नहीं, बल्कि व्यावहारिक ज्ञान पर टिकी है। आगे दिए जा रहीं उनकी कुछ बातें भी चाणक्य नीति की इसी विशेषता के दर्शन होते हैं :
- किसी भी व्यक्ति को जरूरत से ज्यादा ईमानदार नहीं होना चाहिए। सीधे तने वाले पेड़ ही सबसे काटे जाते हैं और बहुत ज्यादा ईमानदार लोगों को ही सबसे ज्यादा कष्ट उठाने पड़ते हैं।
- अगर कोई सांप जहरीला नहीं है, तब भी उसे फुफकारना नहीं छोड़ना चाहिए। उसी तरह से कमजोर व्यक्ति को भी हर वक्त अपनी कमजोरी का प्रदर्शन नहीं करना चाहिए।
- सबसे बड़ा गुरुमंत्र : कभी भी अपने रहस्यों को किसी के साथ साझा मत करो, यह प्रवृत्ति तुम्हें बर्बाद कर देगी।
- हर मित्रता के पीछे कुछ स्वार्थ जरूर छिपा होता है। दुनिया में ऐसी कोई दोस्ती नहीं जिसके पीछे लोगों के अपने हित न छिपे हों, यह कटु सत्य है, लेकिन यही सत्य है।
- अपने बच्चे को पहले पांच साल दुलार के साथ पालना चाहिए। अगले पांच साल उसे डांट-फटकार के साथ निगरानी में रखना चाहिए। लेकिन जब बच्चा सोलह साल का हो जाए, तो उसके साथ दोस्त की तरह व्यवहार करना चाहिए। बड़े बच्चे आपके सबसे अच्छे दोस्त होते हैं।
- दिल में प्यार रखने वाले लोगों को दुख ही झेलने पड़ते हैं। दिल में प्यार पनपने पर बहुत सुख महसूस होता है, मगर इस सुख के साथ एक डर भी अंदर ही अंदर पनपने लगता है, खोने का डर, अधिकार कम होने का डर आदि-आदि। मगर दिल में प्यार पनपे नहीं, ऐसा तो हो नहीं सकता। तो प्यार पनपे मगर कुछ समझदारी के साथ। संक्षेप में कहें तो प्रीति में चालाकी रखने वाले ही अंतत: सुखी रहते हैं।
- ऐसा पैसा जो बहुत तकलीफ के बाद मिले, अपना धर्म-ईमान छोड़ने पर मिले या दुश्मनों की चापलूसी से, उनकी सत्ता स्वीकारने से मिले, उसे स्वीकार नहीं करना चाहिए।
- नीच प्रवृति के लोग दूसरों के दिलों को चोट पहुंचाने वाली, उनके विश्वासों को छलनी करने वाली बातें करते हैं, दूसरों की बुराई कर खुश हो जाते हैं। मगर ऐसे लोग अपनी बड़ी-बड़ी और झूठी बातों के बुने जाल में खुद भी फंस जाते हैं। जिस तरह से रेत के टीले को अपनी बांबी समझकर सांप घुस जाता है और दम घुटने से उसकी मौत हो जाती है, उसी तरह से ऐसे लोग भी अपनी बुराइयों के बोझ तले मर जाते हैं।
- जो बीत गया, सो बीत गया। अपने हाथ से कोई गलत काम हो गया हो तो उसकी फिक्र छोड़ते हुए वर्तमान को सलीके से जीकर भविष्य को संवारना चाहिए।
- असंभव शब्द का इस्तेमाल बुजदिल करते हैं। बहादुर और बुद्धिमान व्यक्ति अपना रास्ता खुद बनाते हैं।
- संकट काल के लिए धन बचाएं। परिवार पर संकट आए तो धन कुर्बान कर दें। लेकिन अपनी आत्मा की हिफाजत हमें अपने परिवार और धन को भी दांव पर लगाकर करनी चाहिए।
- भाई-बंधुओं की परख संकट के समय और अपनी स्त्री की परख धन के नष्ट हो जाने पर ही होती है।
- कष्टों से भी बड़ा कष्ट दूसरों के घर पर रहना है।
आचार्य चाणक्य एक ऐसी महान विभूति थे, जिन्होंने अपनी विद्वत्ता और क्षमताओं के बल पर भारतीय इतिहास की धारा को बदल दिया। मौर्य साम्राज्य के संस्थापक चाणक्य कुशल राजनीतिज्ञ, चतुर कूटनीतिज्ञ, प्रकांड अर्थशास्त्री के रूप में भी विश्वविख्‍यात हुए। इतनी सदियाँ गुजरने के बाद आज भी यदि चाणक्य के द्वारा बताए गए सिद्धांत ‍और नीतियाँ प्रासंगिक हैं तो मात्र इसलिए क्योंकि उन्होंने अपने गहन अध्‍ययन, चिंतन और जीवानानुभवों से अर्जित अमूल्य ज्ञान को, पूरी तरह नि:स्वार्थ होकर मानवीय कल्याण के उद्‍देश्य से अभिव्यक्त किया।
वर्तमान दौर की सामाजिक संरचना, भूमंडलीकृत अर्थव्यवस्था और शासन-प्रशासन को सुचारू ढंग से बताई गई ‍नीतियाँ और सूत्र अत्यधिक कारगर सिद्ध हो सकते हैं। चाणक्य नीति के द्वितीय अध्याय से यहाँ प्रस्तुत हैं कुछ अंश -
1. जिस प्रकार सभी पर्वतों पर मणि नहीं मिलती, सभी हाथियों के मस्तक में मोती उत्पन्न नहीं होता, सभी वनों में चंदन का वृक्ष नहीं होता, उसी प्रकार सज्जन पुरुष सभी जगहों पर नहीं मिलते हैं।
2. झूठ बोलना, उतावलापन दिखाना, दुस्साहस करना, छल-कपट करना, मूर्खतापूर्ण कार्य करना, लोभ करना, अपवित्रता और निर्दयता - ये सभी स्त्रियों के स्वाभाविक दोष हैं। चाणक्य उपर्युक्त दोषों को स्त्रियों का स्वाभाविक गुण मानते हैं। हालाँकि वर्तमान दौर की शिक्षित स्त्रियों में इन दोषों का होना सही नहीं कहा जा सकता है।
3. भोजन के लिए अच्छे पदार्थों का उपलब्ध होना, उन्हें पचाने की शक्ति का होना, सुंदर स्त्री के साथ संसर्ग के लिए कामशक्ति का होना, प्रचुर धन के साथ-साथ धन देने की इच्छा होना। ये सभी सुख मनुष्य को बहुत कठिनता से प्राप्त होते हैं।
4. चाणक्य कहते हैं कि जिस व्यक्ति का पुत्र उसके नियंत्रण में रहता है, जिसकी पत्नी आज्ञा के अनुसार आचरण करती है और जो व्यक्ति अपने कमाए धन से पूरी तरह संतुष्ट रहता है। ऐसे मनुष्य के लिए यह संसार ही स्वर्ग के समान है।
5. चाणक्य का मानना है कि वही गृहस्थी सुखी है, जिसकी संतान उनकी आज्ञा का पालन करती है। पिता का भी कर्तव्य है कि वह पुत्रों का पालन-पोषण अच्छी तरह से करे। इसी प्रकार ऐसे व्यक्ति को मित्र नहीं कहा जा सकता है, जिस पर विश्वास नहीं किया जा सके और ऐसी पत्नी व्यर्थ है जिससे किसी प्रकार का सुख प्राप्त न हो।
6. जो मित्र आपके सामने चिकनी-चुपड़ी बातें करता हो और पीठ पीछे आपके कार्य को बिगाड़ देता हो, उसे त्याग देने में ही भलाई है। चाणक्य कहते हैं कि वह उस बर्तन के समान है, जिसके ऊपर के हिस्से में दूध लगा है परंतु अंदर विष भरा हुआ होता है।
7. चाणक्य कहते हैं कि जो व्यक्ति अच्छा मित्र नहीं है उस पर तो विश्वास नहीं करना चाहिए, परंतु इसके साथ ही अच्छे मित्र के संबंद में भी पूरा विश्वास नहीं करना चाहिए, क्योंकि यदि वह नाराज हो गया तो आपके सारे भेद खोल सकता है। अत: सावधानी अत्यंत आवश्यक है।
8. चाणक्य का मानना है कि व्यक्ति को कभी अपने मन का भेद नहीं खोलना चाहिए। उसे जो भी कार्य करना है, उसे अपने मन में रखे और पूरी तन्मयता के साथ समय आने पर उसे पूरा करना चाहिए।
9. चाणक्य का कहना है कि मूर्खता के समान यौवन भी दुखदायी होता है क्योंकि जवानी में व्यक्ति कामवासना के आवेग में कोई भी मूर्खतापूर्ण कार्य कर सकता है। परंतु इनसे भी अधिक कष्टदायक है दूसरों पर आश्रित रहना।
10. चाणक्य कहते हैं कि बचपन में संतान को जैसी शिक्षा दी जाती है, उनका विकास उसी प्रकार होता है। इसलिए माता-पिता का कर्तव्य है कि वे उन्हें ऐसे मार्ग पर चलाएँ, जिससे उनमें उत्तम चरित्र का विकास हो क्योंकि गुणी व्यक्तियों से ही कुल की शोभा बढ़ती है।
11. वे माता-पिता अपने बच्चों के लिए शत्रु के समान हैं, जिन्होंने बच्चों को ‍अच्छी शिक्षा नहीं दी। क्योंकि अनपढ़ बालक का विद्वानों के समूह में उसी प्रकार अपमान होता है जैसे हंसों के झुंड में बगुले की स्थिति होती है। शिक्षा विहीन मनुष्य बिना पूँछ के जानवर जैसा होता है, इसलिए माता-पिता का कर्तव्य है कि वे बच्चों को ऐसी शिक्षा दें जिससे वे समाज को सुशोभित करें।
12. चाणक्य कहते हैं कि अधिक लाड़ प्यार करने से बच्चों में अनेक दोष उत्पन्न हो जाते हैं। इसलिए यदि वे कोई गलत काम करते हैं तो उसे नजरअंदाज करके लाड़-प्यार करना उचित नहीं है। बच्चे को डाँटना भी आवश्यक है।
13. शिक्षा और अध्ययन की महत्ता बताते हुए चाणक्य कहते हैं कि मनुष्य का जन्म बहुत सौभाग्य से मिलता है, इसलिए हमें अपने अधिकाधिक समय का वे‍दादि शास्त्रों के अध्ययन में तथा दान जैसे अच्छे कार्यों में ही सदुपयोग करना चाहिए।
14. जिस प्रकार पत्नी के वियोग का दुख, अपने भाई-बंधुओं से प्राप्त अपमान का दुख असहनीय होता है, उसी प्रकार कर्ज से दबा व्यक्ति भी हर समय दुखी रहता है। दुष्ट राजा की सेवा में रहने वाला नौकर भी दुखी रहता है। निर्धनता का अभिशाप भी मनुष्य कभी नहीं भुला पाता। इनसे व्यक्ति की आत्मा अंदर ही अंदर जलती रहती है।
15. चाणक्य के अनुसार नदी के किनारे स्थित वृक्षों का जीवन अनिश्चित होता है, क्योंकि नदियाँ बाढ़ के समय अपने किनारे के पेड़ों को उजाड़ देती हैं। इसी प्रकार दूसरे के घरों में रहने वाली स्त्री भी किसी समय पतन के मार्ग पर जा सकती है। इसी तरह जिस राजा के पास अच्छी सलाह देने वाले मंत्री नहीं होते, वह भी बहुत समय तक सुरक्षित नहीं रह सकता। इसमें जरा भी संदेह नहीं करना चाहिए।
16. चाणक्य कहते हैं कि जिस तरह वेश्या धन के समाप्त होने पर पुरुष से मुँह मोड़ लेती है। उसी तरह जब राजा शक्तिहीन हो जाता है तो प्रजा उसका साथ छोड़ देती है। इसी प्रकार वृक्षों पर रहने वाले पक्षी भी तभी तक किसी वृक्ष पर बसेरा रखते हैं, जब तक वहाँ से उन्हें फल प्राप्त होते रहते हैं। अतिथि का जब पूरा स्वागत-सत्कार कर दिया जाता है तो वह भी उस घर को छोड़ देता है।
1७. बुरे चरित्र वाले, अकारण दूसरों को हानि पहुँचाने वाले तथा अशुद्ध स्थान पर रहने वाले व्यक्ति के साथ जो पुरुष मित्रता करता है, वह शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। आचार्य चाणक्य का कहना है मनुष्य को कुसंगति से बचना चाहिए। वे कहते हैं कि मनुष्य की भलाई इसी में है कि वह जितनी जल्दी हो सके, दुष्ट व्यक्ति का साथ छोड़ दे।
1८. चाणक्य कहते हैं कि मित्रता, बराबरी वाले व्यक्तियों में ही करना ठीक रहता है। सरकारी नौकरी सर्वोत्तम होती है और अच्छे व्यापार के लिए व्यवहारकुशल होना आवश्यक है। इसी तरह सुंदर व सुशील स्त्री घर में ही शोभा देती है।

[संपादित करें] चाणक्य की सीख

चाणक्य एक जंगल में झोपड़ी बनाकर रहते थे। वहां अनेक लोग उनसे परामर्श और ज्ञान प्राप्त करने के लिए आते थे। जिस जंगल में वह रहते थे, वह पत्थरों और कंटीली झाडि़यों से भरा था। चूंकि उस समय प्राय: नंगे पैर रहने का ही चलन था, इसलिए उनके निवास तक पहुंचने में लोगों को अनेक कष्टों का सामना करना पड़ता था। वहां पहुंचते-पहुंचते लोगों के पांव लहूलुहान हो जाते थे।
एक दिन कुछ लोग उस मार्ग से बेहद परेशानियों का सामना कर चाणक्य तक पहुंचे। एक व्यक्ति उनसे निवेदन करते हुए बोला, ‘आपके पास पहुंचने में हम लोगों को बहुत कष्ट हुआ। आप महाराज से कहकर यहां की जमीन को चमड़े से ढकवाने की व्यवस्था करा दें। इससे लोगों को आराम होगा।’ उसकी बात सुनकर चाणक्य मुस्कराते हुए बोले, ‘महाशय, केवल यहीं चमड़ा बिछाने से समस्या हल नहीं होगी। कंटीले व पथरीले पथ तो इस विश्व में अनगिनत हैं। ऐसे में पूरे विश्व में चमड़ा बिछवाना तो असंभव है। हां, यदि आप लोग चमड़े द्वारा अपने पैरों को सुरक्षित कर लें तो अवश्य ही पथरीले पथ व कंटीली झाडि़यों के प्रकोप से बच सकते हैं।’ वह व्यक्ति सिर झुकाकर बोला, ‘हां गुरुजी, मैं अब ऐसा ही करूंगा।’
इसके बाद चाणक्य बोले, ‘देखो, मेरी इस बात के पीछे भी गहरा सार है। दूसरों को सुधारने के बजाय खुद को सुधारो। इससे तुम अपने कार्य में विजय अवश्य हासिल कर लोगे। दुनिया को नसीहत देने वाला कुछ नहीं कर पाता जबकि उसका स्वयं पालन करने वाला कामयाबी की बुलंदियों तक पहुंच जाता है।’ इस बात से सभी सहमत हो गए।

[संपादित करें] कौटिल्य अर्थशास्त्र

पुस्तक के प्रकाशन के साथ ही भारत तथा पाश्चात्य देशों में हलचल-सी मच गई क्योंकि इसमें शासन-विज्ञान के उन अद्भुत तत्त्वों का वर्णन पाया गया, जिनके सम्बन्ध में भारतीयों को सर्वथा अनभिज्ञ समझा जाता था। पाश्चात्य विद्वान फ्लीट, जौली आदि ने इस पुस्तक को एक ‘अत्यन्त महत्त्वपूर्ण’ ग्रंथ बतलाया और इसे भारत के प्राचीन इतिहास के निर्माण में परम सहायक साधन स्वीकार किया। इस पुस्तक की रचना आचार्य विष्णुगुप्त ने की, जिसे कौटिल्य और चाणक्य नामों से भी स्मरण किया जाता है। पुस्तक की समाप्ति पर स्पष्ट रूप से लिखा गया है।
‘‘प्राय: भाष्यकारों का शास्त्रों के अर्थ में परस्पर मतभेद देखकर विष्णुगुप्त ने स्वयं ही सूत्रों को लिखा और स्वयं ही उनका भाष्य भी किया।’’ (15/1)

साथ ही यह भी लिखा गया है:
‘‘इस शास्त्र (अर्थशास्त्र) का प्रणयन उसने किया है, जिसने अपने क्रोध द्वारा नन्दों के राज्य को नष्ट करके शास्त्र, शस्त्र और भूमि का उद्धार किया।’ (15/1)
विष्णु पुराण में इस घटना की चर्चा इस तरह की गई है: ‘‘महापदम-नन्द नाम का एक राजा था। उसके नौ पुत्रों ने सौ वर्षों तक राज्य किया। उन नन्दों को कौटिल्य नाम के ब्राह्मण ने मार दिया। उनकी मृत्यु के बाद मौर्यों ने पृथ्वी पर राज्य किया और कौटिल्य ने स्वयं प्रथम चन्द्रगुप्त का राज्याभिषेक किया। चन्द्रगुप्त का पुत्र बिन्दुसार हुआ और बिन्दुसार का पुत्र अशोकवर्धन हुआ।’’ (4/24)
‘नीतिसार’ के कर्ता कामन्दक ने भी घटना की पुष्टि करते हुए लिखा है: ‘‘इन्द्र के समान शक्तिशाली आचार्य विष्णुगुप्त ने अकेले ही वज्र-सदृश अपनी मन्त्र-शक्ति द्वारा पर्वत-तुल्य महाराज नन्द का नाश कर दिया और उसके स्थान पर मनुष्यों में चन्द्रमा के समान चन्द्रगुप्त को पृथ्वी के शासन पर अधिष्ठित किया।’’
इन उद्धरणों से स्पष्ट है कि विष्णुगुप्त और कौटिल्य एक ही व्यक्ति थे। ‘अर्थशास्त्र’ में ही द्वितीय अधिकरण के दशम अध्याय के अन्त में पुस्तक के रचयिता का नाम ‘कौटिल्य’ बताया गया है:
‘‘सब शास्त्रों का अनुशीलन करके और उनका प्रयोग भी जान करके कौटिल्य ने राजा (चन्द्रगुप्त) के लिए इस शासन-विधि (अर्थशास्त्र) का निर्माण किया है।’’ (2/10)
पुस्तक के आरम्भ में ‘कौटिल्येन कृतं शास्त्रम्’ तथा प्रत्येक अध्याय के अन्त में ‘इति कौटिलीयेऽर्थशास्त्रे’ लिखकर ग्रन्थकार ने अपने ‘कौटिल्य नाम को अधिक विख्यात किया है। जहां-जहां अन्य आचार्यों के मत का प्रतिपादन किया है, अन्त में ‘इति कौटिल्य’ अर्थात् कौटिल्य का मत है-इस तरह कहकर कौटिल्य नाम के लिए अपना अधिक पक्षपात प्रदर्शित किया है। परन्तु यह सर्वथा निर्विवाद है कि विष्णुगुप्त तथा कौटिल्य अभिन्न व्यक्ति थे। उत्तरकालीन दण्डी कवि ने इसे आचार्य विष्णुगुप्त नाम से यदि कहा है, तो बाणभट्ट ने इसे ही कौटिल्य नाम से पुकारा है। दोनों का कथन है कि इस आचार्य ने ‘दण्डनीति’ अथवा ‘अर्थशास्त्र’ की रचना की।
पञ्चतन्त्र में इसी आचार्य का नाम चाणक्य दिया गया है, जो अर्थशास्त्र का रचयिता है। कवि विशाखदत्त-प्रणीत सुप्रसिद्ध नाटक ‘मुद्राराक्षस’ में चाणक्य को कभी कौटिल्य तथा कभी विष्णुगुप्त नाम से सम्बोधित किया गया है। कहते हैं कि अन्तिम महाराज नन्द (योगानन्द) ने अपनी मन्त्री शकटार को श्राद्ध के लिए ब्राह्मणों को एकत्र करने के लिए कहा। शकटार राजा द्वारा पूर्व में किए गए किसी अपमान से पीड़ित था। उसने एक ऐसे क्रोधी ब्राह्मण को ढूंढ़ना शुरू किया, जो श्राद्ध में उपस्थित होकर राजा को अपने ब्रह्मतेज से भस्म कर दे। खोज करते हुए उसने एक कुरूप, कृष्णकाय ब्राह्मण को देखा, जो किसी जंगल में कांटेदार झाड़ियों को काट रहा था और उनकी जड़ों में खट्टा दही डाल रहा था। शकटार द्वारा इसका कारण पूछे जाने पर उस ब्राह्मण ने कहा, ‘‘इन झाड़ियों के कांटों के चुभने से मेरे पिता का देहान्त हुआ अत: मैं इन्हें समूचा नष्ट कर रहा हूं।’’
इस क्रोधी ब्राह्मण को शकटार ने उपयुक्त, निमन्त्रण-योग्य ब्राह्मण जाना और उससे महाराज नन्द द्वारा आयोजित ब्रह्मभोज में उपस्थित होने की प्रार्थना की। ब्राह्मण ने इस निमन्त्रण को सहर्ष स्वीकार कर लिया।
नियत समय पर जब वह ब्राह्मण ब्रह्मभोज के लिए उपस्थित हुआ, मन्त्री शकटार ने आदरपूर्वक उसे सर्वप्रथम आसन पर विराजमान किया। ब्रह्मभोज आरम्भ होने पर जब महाराज नन्द ब्राह्मणों का दर्शन करने के लिए आए तो सर्वप्रथम एक कुरूप कृष्णकाय, भीषण व्यक्ति को देखकर अति क्रुद्ध होकर कहने लगे, ‘‘इस चाण्डाल को ब्रह्मभोज में क्यों लाया गया है ?’’ ब्राह्मण इस अपमान को सहन न कर सका और उसने भोजन छोड़कर तत्काल अपनी शिखा खोलते हुए यह प्रतिज्ञा की : ‘‘जब तक मैं नन्द वंश को समूल नष्ट करके अपने इस अपमान का बदला नहीं ले लूंगा, तब तक मैं शिखा-बन्धन न करूंगा।’’ ऐसी गर्जना करता हुआ वह ब्राह्मण ब्रह्मभोज से उठकर चला गया। शकटार अपनी इच्छा को पूर्ण होता हुआ देखकर अति प्रसन्न हुआ।
इसी ब्राह्मण ने, जो चाणक्य था, अपनी मन्त्रशक्ति द्वारा अकेले ही नन्द राजाओं का नाश किया और मौर्य चन्द्रगुप्त को, जो स्वयं अपने पिता नन्द द्वारा अपमानित होकर राज्य पर अधिकार करने की चिन्ता में था, भारतवर्ष के प्रथम सम्राट के रूप में प्रतिष्ठित किया। भारत उस समय जनपदों में बंटा हुआ था, जिनपर छोटे-छोटे राजा लोग शासन करते थे। चाणक्य ने उन सबको मौर्य चन्द्रगुप्त के अधीन किया और पहली बार भारत को एक साम्राज्य में संगठित किया। इसी साम्राज्य को चन्द्रगुप्त के पौत्र सम्राट अशोक ने धर्म-विजयों द्वारा अफगानिस्तान से दक्षिण तक और बंगाल से काठियावाड़ तक विस्तृत किया। इन्हीं मौर्य सम्राटों द्वारा वस्तुत: भारत का एकराष्ट्र रूप सर्वप्रथम विकसित हुआ, जिसका मूल श्रेय उसी नीति-विशारद, कूटनीतिज्ञ, दूरद्रष्टा ब्राह्मण को है, जिसे कौटिल्य, चाणक्य या विष्णुगुप्त नामों से कहा गया है।
‘अर्थशास्त्र’ की रचना ‘शासन-विधि’ के रूप में प्रथम मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त के लिए की गई। अत: इसकी रचना का काल वही मानना उचित है, जो सम्राट चन्द्रगुप्त का काल है। पुरातत्त्ववेत्ता विद्वानों ने यह काल 321 ई.पू. से 296 ई.पू.तक निश्चित किया है। कई अन्य विद्वान सम्राट सेण्ड्राकोटस (जो यूनानी इतिहास में सम्राट चन्द्रगुप्त का पर्यायवाची है) के आधार पर निश्चित की हुई इस तिथि को स्वीकार नहीं करते।
इस ‘अर्थशास्त्र’ का विषय क्या है ? जैसे ऊपर कहा गया है-इसका मुख्य विषय शासन-विधि अथवा शासन-विज्ञान है: ‘‘कौटिल्येन नरेन्द्रार्थे शासनस्य विधि: कृत:।’’ इन शब्दों से स्पष्ट है कि आचार्य ने इसकी रचना राजनीति-शास्त्र तथा विशेषतया शासन-प्रबन्ध की विधि के रूप में की। अर्थशास्त्र की विषय-सूची को देखने से (जहां अमात्योत्पत्ति, मन्त्राधिकार, दूत-प्रणिधि, अध्यक्ष-नियुक्ति, दण्डकर्म, षाड्गुण्यसमुद्देश्य, राजराज्ययो: व्यसन-चिन्ता, बलोपादान-काल, स्कन्धावार-निवेश, कूट-युद्ध, मन्त्र-युद्ध इत्यादि विषयों का उल्लेख है) यह सर्वथा प्रमाणित हो जाता है कि इसे आजकल कहे जाने वाले अर्थशास्त्र (इकोनोमिक्स) की पुस्तक कहना भूल है। प्रथम अधिकरण के प्रारम्भ में ही स्वयं आचार्य ने इसे दण्ड नीति नाम से सूचित किया
शुक्राचार्य ने दण्डनीति को इतनी महत्त्वपूर्ण विद्या बतलाया है कि इसमें अन्य सब विद्याओं का अन्तर्भाव मान लिया है-क्योंकि ‘शस्त्रेण रक्षिते देशे शास्त्रचिन्ता प्रवर्तते’ की उक्ति के अनुसार शस्त्र (दण्ड) द्वारा सुशासित तथा सुरक्षित देश में ही वेद आदि अन्य शास्त्रों की चिन्ता या अनुशीलन हो सकता है। अत: दण्डनीति को अन्य सब विद्याओं की आधारभूत विद्या के रूप में स्वीकार करना आवश्यक है, और वही दण्डनीति अर्थशास्त्र है।
जिसे आजकल अर्थशास्त्र कहा जाता है, उसके लिए 'वार्ता' शब्द का प्रयोग किया गया है, यद्यपि यह शब्द पूर्णतया अर्थशास्त्र का द्योतक नहीं। कौटिल्य ने वार्ता के तीन अंग कहे हैं-कृषि, वाणिज्य तथा पशु-पालन, जिनसे प्राय: वृत्ति या जीविका का उपार्जन किया जाता था। मनु, याज्ञवल्क्य आदि शास्त्रकारों ने भी इन तीन अंगों वाले वार्ताशास्त्र को स्वीकार किया है। पीछे शुक्राचार्य ने इस वार्ता में कुसीद (बैंकिग) को भी वृत्ति के साधन-रूप में सम्मिलित कर दिया है। परन्तु अर्थशास्त्र को सभी शास्त्रकारों ने दण्डनीति, राजनीति अथवा शासनविज्ञान के रूप में ही वर्णित किया है। अत: ‘कौटिल्य अर्थशास्त्र’ को राजनीति की पुस्तक समझना ही ठीक होगा न कि सम्पत्तिशास्त्र की पुस्तक। वैसे इसमें कहीं-कहीं सम्पत्तिशास्त्र के धनोत्पादन, धनोपभोग तथा धन-विनिमय, धन-विभाजन आदि विषयों की भी प्रासंगिक चर्चा की गई है।
‘कौटिल्य अर्थशास्त्र’ के प्रथम अधिकरण का प्रारम्भिक वचन इस सम्बन्ध में अधिक प्रकाश डालने वाला है:
पृथिव्या लाभे पालने च यावन्त्यर्थशास्त्राणि पूर्वाचार्ये: प्रस्तावितानि,
प्रायश: तानि संहृत्य एकमिदमर्थशास्त्र कृतम्।
अर्थात्-प्राचीन आचार्यों ने पृथ्वी जीतने और पालन के उपाय बतलाने वाले जितने अर्थशास्त्र लिखे हैं, प्रायः उन सबका सार लेकर इस एक अर्थशास्त्र का निर्माण किया गया है।
यह उद्धरण अर्थशास्त्र के विषय को जहां स्पष्ट करता है, वहां इस सत्य को भी प्रकाशित करता है कि ‘कौटिल्य अर्थशास्त्र’ से पूर्व अनेक आचार्यों ने अर्थशास्त्र की रचनाएं कीं, जिनका उद्देश्य पृथ्वी-विजय तथा उसके पालन के उपायों का प्रतिपादन करना था। उन आचार्यों ने अर्थशास्त्र की रचनाएं कीं, जिनका उद्देश्य पृथ्वी-विजय तथा उसके पालन के उपायों का प्रतिपादन करना था। उन आचार्यों तथा उनके सम्प्रदायों के कुछ नामों का निर्देशन ‘कौटिल्य अर्थशास्त्र’ में किया गया है, यद्यपि उनकी कृतियां आज उपलब्ध भी नहीं होतीं। ये नाम निम्नलिखित है:
(1) मानव-मनु के अनुयायी
(2) बार्हस्पत्य-बृहस्पति के अनुगामी
(3) औशनस-उशना अथवा शुक्राचार्य के मतानुयायी
(4) भारद्वाज (द्रोणाचार्य)
(5) विशालाक्ष
(6) पराशर
(7) पिशुन (नारद)
(8) कौणपदन्त (भीष्म)
(9) वाताव्याधि (उद्धव)
(10) बाहुदन्ती-पुत्र (इन्द्र)।
अर्थशास्त्र के इन दस सम्प्रदायों के आचार्यों में प्राय: सभी के सम्बन्ध में कुछ-न-कुछ ज्ञात है, परन्तु विशालाक्ष के बारे में बहुत कम परिचय प्राप्त होता है। इन नामों से यह तो अत्यन्त स्पष्ट है कि अर्थशास्त्र नीतिशास्त्र के प्रति अनेक महान विचारकों तथा दार्शनिकों का ध्यान गया और इस विषय पर एक उज्जवल साहित्य का निर्माण हुआ। आज वह साहित्य लुप्त हो चुका है। अनेक विदेशी आक्रमणों तथा राज्यक्रान्तियों के कारण इस साहित्य का नाम-मात्र शेष रह गया है, परन्तु जितना भी साहित्य अवशिष्ट है वह एक विस्तृत अर्थशास्त्रीय परम्परा का संकेत करता है।
‘कौटिल्य अर्थशास्त्र’ में इन पूर्वाचार्यों के विभिन्न मतों का स्थान-स्थान पर संग्रह किया गया है और उनके शासन-सम्बन्धी सिद्धान्तों का विश्लेषणात्मक विवेचन किया गया है।
इस अर्थशा्स्त्र में एक ऐसी शासन-पद्धति का विधान किया गया है जिसमें राजा या शासक प्रजा का कल्याण सम्पादन करने के लिए शासन करता है। राजा स्वेच्छाचारी होकर शासन नहीं कर सकता। उसे मन्त्रिपरिषद् की सहायता प्राप्त करके ही प्रजा पर शासन करना होता है। राज्य-पुरोहित राजा पर अंकुश के समान है, जो धर्म-मार्ग से च्युत होने पर राजा का नियन्त्रण कर सकता है और उसे कर्तव्य-पालन के लिए विवश कर सकता है।
सर्वलोकहितकारी राष्ट्र का जो स्वरूप कौटिल्य को अभिप्रेत है, वह ‘अर्थशास्त्र’ के निम्नलिखित वचन से स्पष्ट है-
प्रजा सुखे सुखं राज्ञ: प्रजानां च हिते हितम्। नात्मप्रियं प्रियं राज्ञ: प्रजानां तु प्रियं प्रियम्।। (1/19)
अर्थात्-प्रजा के सुख में राजा का सुख है, प्रजाके हित में उसका हित है। राजा का अपना प्रिय (स्वार्थ) कुछ नहीं है, प्रजा का प्रिय ही उसका प्रिय है।

[संपादित करें] चाणक्य और मकियावेली

यह सत्य है कि कौटिल्य ने राष्ट्र की रक्षा के लिए गुप्त प्रणिधियों के एक विशाल संगठन का वर्णन किया है। शत्रुनाश के लिए विषकन्या, गणिका, औपनिषदिक प्रयोग, अभिचार मंत्र आदि अनैतिक एवं अनुचित उपायों का विधान है और इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए महान धन-व्यय तथा धन-क्षय को भी (सुमहताऽपि क्षयव्ययेन शत्रुविनाशोऽभ्युपगन्तव्य:) राष्ट्र-नीति के अनुकूल घोषित किया है।
‘कौटिल्य अर्थशास्त्र’ में ऐसी चर्चाओं को देखकर ही मुद्राराक्षसकार कवि विशाखादत्त चाणक्य को कुटिलमति (कौटिल्य: कुटिलमतिः) कहा है और बाणभट्ट ने ‘कौटिल्य अर्थशास्त्र’ को ‘निर्गुण’ तथा ‘अतिनृशंसप्रायोपदेशम्’ (निर्दयता तथा नृशंसता का उपदेश देने वाला) कहकर निन्दित बतलाया है। 'मञ्जुश्री मूलकल्प' नाम की एक नवीन उपलब्ध ऐतिहासिक कृति में कौटिल्य को ‘दुर्मति’, क्रोधन और ‘पापक’ पुकारकर गर्हा का पात्र प्रदर्शित किया गया है।
प्राच्यविद्या के विशेषज्ञ अनेक आधुनिक पाश्चात्य विद्वानों ने भी उपर्युक्त अनैतिक व्यवस्थाओं को देखकर कौटिल्य की तुलना यूरोप के प्रसिद्ध लेखक और राजनीतिज्ञ मेकियावली से की है, जिसने अपनी पुस्तक ‘द प्रिन्स’ में राजा को लक्ष्य-प्राप्ति के लिए उचित अनुचित सभी साधनों का आश्रय लेने का उपदेश दिया है। विण्टरनिट्ज आदि पाश्चात्य विद्वान् कौटिल्य तथा मेकियावली में निम्नलिखित समानताएं प्रदर्शित करते हैं:
(क) मेकियावली और कौटिल्य दोनों राष्ट्र को ही सब कुछ समझते हैं। वे राष्ट्र को अपने में ही उद्देश्य मानते हैं।
(ख) कौटिल्य-नीति का मुख्य आधार है, ‘आत्मोदय: परग्लानि;’ अर्थात् दूसरों की हानि पर अपना अभ्युदय करना। मेकियावली ने भी दूसरे देशों की हानि पर अपने देश की अभिवृद्धि करने का पक्ष-पोषण किया है। दोनों एक समान स्वीकार करते हैं कि इस प्रयोजन की सिद्धि के लिए कितने भी धन तथा जन के व्यय से शत्रु का विनाश अवश्य करना चाहिए।
(ग) अपने उद्देश्य की सिद्धि के लिए किसी भी साधन, नैतिक या अनैतिक, का आश्रय लेना अनुचित नहीं है। मेकियावली और कौटिल्य दोनों का मत है कि साध्य को सिद्ध करना ही राजा का एकमात्र लक्ष्य होना चाहिए। साधनों के औचित्य या अनौचित्य की उसे चिन्ता नहीं करनी चाहिए।
(घ) दोनों युद्ध को राष्ट्र-नीति का आवश्यक अंग मानते हैं। दोनों की सम्मति में प्रत्येक राष्ट्र को युद्ध के लिए उद्यत रहना चाहिए, क्योंकि इसी के द्वारा देश की सीमा तथा प्रभाव का विस्तार हो सकता है।
(ङ) अपनी प्रजा में आतंक स्थापित करके दृढ़ता तथा निर्दयता से उस पर शासन करना दोनों एक समान प्रतिपादित करते हैं। दोनों एक विशाल सुसंगठित गुप्तचर विभाग की स्थापना का समर्थन करते हैं, जो प्रजा के प्रत्येक पार्श्व में प्रवेश करके राजा के प्रति उसकी भक्ति की परीक्षा करे और शत्रु से सहानुभूति रखने वाले लोगों को गुप्त उपायों से नष्ट करने का यत्न करे।
हमारी सम्पति में कौटिल्य तथा मेकियावली में ऐसी सदृशता दिखाना युक्तिसंगत नहीं। निस्सन्देह कौटिल्य भी मेकियावली के समान यथार्थवादी था और केवल आदर्शवाद का अनुयायी न था। परन्तु यह कहना कि कौटिल्य ने धर्म या नैतिकता को सर्वथा तिलांञ्जलि दे दी थी, सत्यता के विपरीत होगा। कौटिल्य ने ‘अर्थशास्त्र’ के प्रथम अधिकरण में ही स्थापना की है;
तस्मात् स्वधर्म भूतानां राजा न व्यभिचारयेत्।
स्वधर्म सन्दधानो हि, प्रेत्य चेह न नन्दति।। (1/3)
अर्थात्- राजा प्रजा को अपने धर्म से च्युत न होने दे। राजा भी अपने धर्म का आचरण करे। जो राजा अपने धर्म का इस भांति आचरण करता है, वह इस लोक और परलोक में सुखी रहता है।
इसी प्रथम अधिकरण में ही राजा द्वारा अमर्यादाओं को व्यवस्थित करने पर भी बल दिया गया है और वर्ण तथा आश्रम-व्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिए आदेश दिया गया है। यहां पर त्रयी तथा वैदिक अनुष्ठान को प्रजा के संरक्षण का मूल आधार बतलाया गया है। कौटिल्य ने स्थान-स्थान पर राजा को वृद्धों की संगत करने वाला, विद्या से विनम्र, जितेन्द्रिय और काम-क्रोध आदि शत्रु-षड्वर्ग का दमन करने वाला कहा है। ऐसा राजा अधार्मिक अथवा अत्याचारी बनकर किस प्रकार प्रजा-पीड़न कर सकता है ? इसके विपरीत राजा को प्रजा के लिए पितृ-तुल्य कहा गया है, जो अपनी प्रजा का पालन-पोषण, संवर्धन, संरक्षण, भरण, शिक्षण इत्यादि वैसा ही करता है जैसा वह अपनी सन्तान का करता है।
यह ठीक है कि कौटिल्य ने शत्रुनाश के लिए अनैतिक उपायों के करने का भी उपदेश दिया है। परन्तु इस सम्बन्ध में अर्थशास्त्र के निम्न वचन को नहीं भूलना चाहिए:
एवं दूष्येषु अधार्मिकेषु वर्तेत, न इतरेषु। (5/2)
अर्थात्- इन कूटनीति के उपायों का व्यवहार केवल अधार्मिक एवं दुष्ट लोगों के साथ ही करे, धार्मिक लोगों के साथ नहीं। (धर्मयुद्ध में भी अधार्मिक व्यवहार सर्वथा वर्जित था। केवल कूट-युद्ध में अधार्मिक शत्रु को नष्ट करने के लिए इसका प्रयोग किया जा सकता था।)