Sunday, July 31, 2011

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वैदिक गणित के सोलह सूत्र एवं उपसूत्र

जगद्गुरु भारती कृष्ण तीर्थ जी द्वारा प्रतिपादित वैदिक गणित के 16 सूत्र एवं 13 उपसूत्र

16 सूत्र
1. एकाधिकेन पूर्वेण - पहले से एक अधिक के द्वारा
2. निखिलं नवतश्चरमं दशत: - सभी नौ में से तथा अन्तिम दस में से
3. उध्र्वतिर्यक् भ्याम् - सीधे और तिरछे दोनों विधियों से
4. परावत्र्य योजयेत् - विपरीत उपयोग करें।
5. शून्यं साम्यसमुच्चये - समुच्चय समान होने पर शून्य होता है।
6. आनुररूप्ये शून्यमन्यत् - अनुरूपता होने पर दूसरा शून्य होता है।
7. संकलनव्यवकलनाभ्याम् - जोड़कर और घटाकर
8. पूरणापूराणाभ्याम् - पूरा करने और विपरीत क्रिया द्वारा
9. चलनकलनाभ्याम् - चलन-कलन की क्रियाओं द्वारा
10. यावदूनम् - जितना कम है।
11. व्यष्टिसमिष्ट: - एक को पूर्ण और पूर्ण को एक मानते हुए।
12. शेषाण्यङ्केन चरमेण - - अंतिम अंक के सभी शेषों को।
13. सोपान्त्यद्वयमन्त्यम् - अंतिम और उपान्तिम का दुगुना।
14. एकन्यूनेन पूर्वेण - पहले से एक कम के द्वारा।
15. गुणितसमुच्चय: - गुणितों का समुच्चय।
16. गुणकसमुच्चय: - गुणकों का समुच्चय।

उपसूत्र 
1. आनुरूप्येण - अनुरूपता के द्वारा।
2. शिष्यते शेषसंज्ञ: - बचे हुए को शेष कहते हैं।
3. आद्यमाद्येनान्त्यमन्त्येन - - पहले को पहले से, अंतिम को अंतिम से।
4. केवलै: सप्तकं गुम्यात् - "क", "व", "ल" से 7 गुणा करें।
5. वेष्टनम् - भाजकता परीक्षण की एक विशिष्ट क्रिया का नाम।
6. यावदूनं तावदूनम् - जितना कम उतना और कम।
7. यावदूनं तावदूनीकृत्य वर्ग च योजयेत्
8. अन्त्ययोर्दशकेऽपि
9. अन्त्ययोरेव
10. समुच्चयगुणित:
11. लोपनस्थापनाभ्याम्
12. विलोकनम्
13. गुणितसमुच्चय: समुच्चयगुणित:
 
 

गणित शास्त्र-२ : जब विश्व १०,००० जानता था, तब भारत ने अनंत खोजा

लेखक -सुरेश सोनी
संस्कृत का एकं हिन्दी में एक हुआ, अरबी व ग्रीक में बदल कर ‘वन‘ हुआ। शून्य अरबी में सिफर हुआ, ग्रीक में जीफर और अंग्रेजी में जीरो हो गया। इस प्रकार भारतीय अंक दुनिया में छाये।

अंक गणित- अंकों का क्रम से विवेचन यजुर्वेद में मिलता है - सविता प्रथमेऽहन्नग्नि र्द्वितीये वायुस्तृतीयऽआदिचतुर्थे चन्द्रमा: पञ्चमऽऋतु:षष्ठे मरूत: सप्तमे बृहस्पतिरष्टमे। मित्रो नवमे वरुणो दशमंऽइन्द्र एकादशे विश्वेदेवा द्वादशे। (यजुर्वेद-३९-६)। इसमें विशेषता है अंक एक से बारह तक क्रम से दिए हैं।

गणना की दृष्टि से प्राचीन ग्रीकों को ज्ञात सबसे बड़ी संख्या मीरीयड थी, जिसका माप १०४ यानी १०,००० था। और रोमनों को ज्ञात सबसे बड़ी संख्या मिली थी, जिसकी माप १०३ यानी १००० थी। जबकि भारतवर्ष में कई प्रकार की गणनाएं प्रचलित थीं। गणना की ये पद्धतियां स्वतंत्र थीं तथा वैदिक, जैन, बौद्ध ग्रंथों में वर्णित इन पद्धतियों के कुछ अंकों में नाम की समानता थी परन्तु उनकी संख्या राशि में अन्तर आता था।

प्रथम दशगुणोत्तर संख्या- अर्थात्‌ बाद वाली संख्या पहले से दस गुना अधिक। इस संदर्भ में यजुर्वेद संहिता के १७वें अध्याय के दूसरे मंत्र में उल्लेख आता है। जिसका क्रम निम्नानुसार है- एक, दस, शत, सहस्र, अयुक्त, नियुक्त, प्रयुक्त, अर्बुद्ध, न्यर्बुद्र, समुद्र, मध्य, अन्त और परार्ध। इस प्रकार परार्ध का मान हुआ १०१२ यानी दस खरब।

द्वितीय शतगुणोत्तर संख्या-अर्थात्‌ बाद वाली संख्या पहले वाली संख्या से सौ गुना अधिक। इस संदर्भ में ईसा पूर्व पहली शताब्दी के ‘ललित विस्तर‘ नामक बौद्ध ग्रंथ में गणितज्ञ अर्जुन और बोधिसत्व का वार्तालाप है, जिसमें वह पूछता है कि एक कोटि के बाद की संख्या कौन-सी है? इसके उत्तर में बोधिसत्व कोटि यानी १०७ के आगे की शतगुणोत्तर संख्या का वर्णन करते हैं।

१०० कोटि, अयुत, नियुत, कंकर, विवर, क्षोम्य, निवाह, उत्संग, बहुल, नागबल, तितिलम्ब, व्यवस्थान प्रज्ञप्ति, हेतुशील, करहू, हेत्विन्द्रिय, समाप्तलम्भ, गणनागति, निखध, मुद्राबाल, सर्वबल, विषज्ञागति, सर्वज्ञ, विभुतंगमा, और तल्लक्षणा। अर्थात्‌ तल्लक्षणा का मान है १०५३ यानी एक के ऊपर ५३ शून्य के बराबर का अंक।

तृतीय कोटि गुणोत्तर संख्या-कात्यायन के पाली व्याकरण के सूत्र ५१, ५२ में कोटि गुणोत्तर संख्या का उल्लेख है। अर्थात्‌ बाद वाली संख्या पहले वाली संख्या से करोड़ गुना अधिक।

इस संदर्भ में जैन ग्रंथ ‘अनुयोगद्वार‘ में वर्णन आता है। यह संख्या निम्न प्रकार है-कोटि-कोटि, पकोटी, कोट्यपकोटि, नहुत, निन्नहुत, अक्खोभिनि, बिन्दु, अब्बुद, निरष्बुद, अहह, अबब, अतत, सोगन्धिक, उप्पल कुमुद, पुण्डरीक, पदुम, कथान, महाकथान और असंख्येय। असंख्येय का मान है १०१४० यानी एक के ऊपर १४० शून्य वाली संख्या।

उपर्युक्त वर्णन से ज्ञात होता है कि प्राचीन काल में अंक विद्या कितनी विकसित थी, जबकि विश्व १०,००० से अधिक संख्या नहीं जानता था।

उपर्युक्त संदर्भ विभूति भूषण दत्त और अवधेश नारायण सिंह द्वारा लिखित पुस्तक ‘हिन्दू गणित शास्त्र का इतिहास‘ में विस्तार के साथ दिए गए हैं।

आगे चलकर देश में आर्यभट्ट, भास्कराचार्य, श्रीधर आदि अनेक गणितज्ञ हुए। उनमें भास्कराचार्य ने ११५० ई. में ‘सिद्धान्त शिरोमणि‘ नामक ग्रंथ लिखा। इस महान ग्रंथ के चार भाग हैं। (१) लीलावती (२) बीज गणित (३) गोलाध्याय (४) ग्रह गणित।

श्री गुणाकर मुले अपनी पुस्तक ‘भास्कराचार्य‘ में लिखते हैं कि भास्कराचार्य ने गणित के मूल आठ कार्य माने हैं-

(१) संकलन (जोड़) (२) व्यवकलन (घटाना) (३) गुणन (गुणा करना) (४) भाग (भाग करना) (५) वर्ग (वर्ग करना) (६) वर्ग मूल (वर्ग मूल निकालना) (७) घन (घन करना) (८) घन मूल (घन मूल निकालना)। ये सभी गणितीय क्रियाएं हजारों वर्षों से देश में प्रचलित रहीं। लेकिन भास्कराचार्य लीलावती को एक अदभुत बात बताते हैं कि ‘इन सभी परिक्रमों के मूल में दो ही मूल परिकर्म हैं- वृद्धि और हृ◌ास।‘ जोड़ वृद्धि है, घटाना हृ◌ास है। इन्हीं दो मूल क्रियाओं में संपूर्ण गणित शास्त्र व्याप्त है।‘

आजकल कम्प्यूटर द्वारा बड़ी से बड़ी और कठिन गणनाओं का उत्तर थोड़े से समय में मिल जाता है। इसमें सारी गणना वृद्धि और ह्रास के दो चिन्ह (अ,-) द्वारा होती है। इन्हें विद्युत संकेतों में बदल दिया जाता है। फिर सीधा प्रवाह जोड़ने के लिए, उल्टा प्रवाह घटाने के लिए। इसके द्वारा विद्युत गति से गणना होती है।

आजकल गणित एक शुष्क विषय माना जाता है। पर भास्कराचार्य का ग्रंथ ‘लीलावती‘ गणित को भी आनंद के साथ मनोरंजन, जिज्ञासा आदि का सम्मिश्रण करते हुए कैसे पढ़ाया जा सकता है, इसका नमूना है। लीलावती का एक उदाहरण देखें-

‘निर्मल कमलों के एक समूह के तृतीयांश, पंचमांश तथा षष्ठमांश से क्रमश: शिव, विष्णु और सूर्य की पूजा की, चतुर्थांश से पार्वती की और शेष छ: कमलों से गुरु चरणों की पूजा की गई। अये, बाले लीलावती, शीघ्र बता कि उस कमल समूह में कुल कितने फूल थे?‘ उत्तर-१२० कमल के फूल।

वर्ग और घन को समझाते हुए भास्कराचार्य कहते हैं ‘अये बाले, लीलावती, वर्गाकार क्षेत्र और उसका क्षेत्रफल वर्ग कहलाता है। दो समान संख्याओं का गुणन भी वर्ग कहलाता है। इसी प्रकार तीन समान संख्याओं का गुणनफल घन है और बारह कोष्ठों और समान भुजाओं वाला ठोस भी घन है।‘

‘मूल‘ शब्द संस्कृत में पेड़ या पौधे की जड़ के अर्थ में या व्यापक रूप में किसी वस्तु के कारण, उद्गम अर्थ में प्रयुक्त होता है। इसलिए प्राचीन गणित में वर्ग मूल का अर्थ था ‘वर्ग का कारण या उद्गम अर्थात्‌ वर्ग एक भुजा‘। इसी प्रकार घनमूल का अर्थ भी समझा जा सकता है। वर्ग तथा घनमूल निकालने की अनेक विधियां प्रचलित थीं।

इसी प्रकार भास्कराचार्य त्रैराशिक का भी उल्लेख करते हैं। इसमें तीन राशियों का समावेश रहता है। अत: इसे त्रैराशिक कहते हैं। जैसे यदि प्र (प्रमाण) में फ (फल) मिलता है तो इ (इच्छा) में क्या मिलेगा?

त्रैराशिक प्रश्नों में फल राशि को इच्छा राशि से गुणा करना चाहिए और प्राप्त गुणनफल को प्रमाण राशि से भाग देना चाहिए। इस प्रकार भाग करने से जो परिणाम मिलेगा वही इच्छा फल है। आज से दो हजार वर्ष पूर्व त्रैराशिक नियम का भारत में आविष्कार हुआ। अरब देशों में यह नियम आठवीं शताब्दी में पहुंचा। अरबी गणितज्ञों ने त्रैराशिक को ‘फी राशिकात अल्‌-हिन्द‘ नाम दिया। बाद में यह यूरोप में फैला जहां इसे गोल्डन रूल की उपाधि दी गई। प्राचीन गणितज्ञों को न केवल त्रैराशिक अपितु पंचराशिक, सप्तराशिक व नवराशिक तक का ज्ञान था।

बीज गणित-बीज गणित की उत्पत्ति का केन्द्र भी भारत ही रहा है। इसे अव्यक्त गणित या बीज गणित कहा जाता था। अरबी विद्वान मूसा अल खवारिज्मी ने नौं◌ैवी सदी में भारत आकर यह विद्या सीखी और एक पुस्तक ‘अलीजेब ओयल मुकाबिला‘ लिखी। वहां से यह ज्ञान यूरोप पहुंचा।

भारत वर्ष में पूर्व काल में आपस्तम्ब, बोधायन, कात्यायन तथा बाद में व्रह्मगुप्त, भास्कराचार्य आदि गणितज्ञों ने इस पर काम किया। भास्कराचार्य कहते हैं, बीज गणित- का अर्थ है अव्यक्त गणित, इस अव्यक्त बीज का आदिकारण होता है, व्यक्त। इसलिए सबसे पहले ‘लीलावती‘ में इस व्यक्त गणित अंकगणित का चर्चा की। बीजगणित में भास्कराचार्य शून्य और अनंत की चर्चा करते हैं।
वधा दौ वियत्‌ खं खेनधाते,

खहारो भवेत्‌ खेन भक्तश्च राशि:।

अर्थात्‌ यदि शून्य में किसी संख्या का भाग गिया जाए या शून्य को किसी संख्या से गुणा किया जाए तो फल शून्य ही आता है। यदि किसी संख्या में शून्य का भाग दिया जाए, तो परिण ख हर (अनन्त) आता है।

शून्य और अनंत गणित के दो अनमोल रत्न हैं। रत्न के बिना जीवन चल सकता है, परन्तु शून्य और अनंत के बिना गणित कुछ भी नहीं।

शून्य और अनंत भौतिक जगत में जिनका कहीं भी नाम निशान नहीं, और जो केवल मनुष्य के मस्तिष्क की उपज है, फिर भी वे गणित और विज्ञान के माध्यम से विश्व के कठिन से कठिन रहस्यों को स्पष्ट करते हैं।

व्रह्मगुप्त ने विभिन्न ‘समीकरण‘ खोज निकाले। इन्हें व्रह्मगुप्त ने एक वर्ण, अनेक वर्ण, मध्यमाहरण और मापित नाम दिए। एक वर्ण समीकरण में अज्ञात राशि एक तथा अनेक वर्ण में अज्ञात राशि एक से अधिक होती थी।

रेखा गणित-रेखा गणित की जन्मस्थली भी भारत ही रहा है। प्राचीन काल से यज्ञों के लिए वेदियां बनती थीं। इनका आधार ज्यामिति या रेखागणित रहता था। पूर्व में बोधायन एवं आपस्तम्ब ने ईसा से ८०० वर्ष पूर्व अपने शुल्ब सूत्रों में वैदिक यज्ञ हेतु विविध वेदियों के निर्माण हेतु आवश्यक स्थापत्यमान दिए हैं।

किसी त्रिकोण के बराबर वर्ग खींचना, ऐसा वर्ग खींचना जो किसी वर्ग का द्विगुण, त्रिगुण अथवा एक तृतीयांश हो। ऐसा वृत्त बनाना, जिसका क्षेत्र उपस्थित वर्ग के क्षेत्र के बराबर हो। उपर्युक्त विधियां शुल्ब सूत्र में बताई गई हैं।

किसी त्रिकोण का क्षेत्रफल उसकी भुजाओं से जानने की रीति चौथी शताब्दी के ‘सूर्य सिद्धान्त‘ ग्रंथ में बताई गई है। इसका ज्ञान यूरोप को क्लोबियस द्वारा सोलहवीं शताब्दी में हुआ।
 

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साधारणतया यह माना जाता है कि पक्षियों की तरह आकाश में उड़ने का मानव का स्वप्न राइट बंधुओं ने १७ दिसम्बर, १९०३ में विमान बनाकर पूरा किया। और विमान विद्या विश्व को पश्चिम की देन है। इसमें संशय नहीं कि आज विमान विद्या अत्यंत विकसित अवस्था में पहुंची है। परन्तु महाभारत काल तथा उससे पूर्व भारतवर्ष में भी विमान विद्या का विकास हुआ था। न केवल विमान अपितु अंतरिक्ष में स्थित नगर रचना भी हुई थी। इसके अनेक संदर्भ प्राचीन वाङ्गमय में मिलते हैं।

विद्या वाचस्पति पं. मधुसूदन सरस्वती ‘इन्द्रविजय‘ नामक ग्रंथ में ऋग्वेद के छत्तीसवें सूक्त के प्रथम मंत्र का अर्थ लिखते हुए कहते हैं कि ऋभुओं ने तीन पहियों वाला ऐसा रथ बनाया था जो अंतरिक्ष में उड़ सकता था। पुराणों में विभिन्न देवी-देवता, यक्ष, विद्याधर आदि विमानों द्वारा यात्रा करते हैं, इस प्रकार के उल्लेख आते हैं। त्रिपुरासुर यानी तीन असुर भाइयों ने अंतरिक्ष में तीन अजेय नगरों का निर्माण किया था, जो पृथ्वी, जल व आकाश में आ जा सकते थे और भगवान शिव ने जिन्हें नष्ट किया। रामायण में पुष्पक विमान का वर्णन आता है। महाभारत में श्रीकृष्ण, जरासंध आदि के विमानों का वर्णन आता है। भागवत में कर्दम ऋषि की कथा आती है। तपस्या में लीन रहने के कारण वे अपनी पत्नी की ओर ध्यान नहीं दे पाए। इसका भान होने पर उन्होंने अपने विमान से उसे संपूर्ण विश्व का दर्शन कराया।

उपर्युक्त वर्णन जब आज का तार्किक व प्रयोगशील व्यक्ति सुनता या पढ़ता है तो उसके मन में स्वाभाविक विचार आता है कि ये सब कपोल कल्पनाएं हैं। मानव के मनोरंजन हेतु गढ़ी गई कहानियां हैं। ऐसा विचार आना सहज व स्वाभाविक है। क्योंकि आज देश में न तो कोई प्राचीन अवशेष मिलते हैं जो यह सिद्ध करें कि प्राचीन काल में विमान थे, न ऐसे ग्रंथ मिलते हैं जिनसे यह ज्ञात हो कि प्राचीन काल में विमान बनाने की तकनीक लोग जानते थे।

केवल सौभाग्य से एक ग्रंथ उपलब्ध है, जो बताता है कि भारत में प्राचीन काल में न केवल विमान विद्या थी, अपितु वह बहुत प्रगत अवस्था में भी थी। यह ग्रंथ, इसकी विषय सूची व इसमें किया गया वर्णन विगत अनेक वर्षों से देश-विदेश में अध्येताओं का ध्यान आकर्षित करता रहा है।

गत वर्ष दिल्ली के एक उद्योगपति श्री सुबोध से प्राचीन भारत में विज्ञान की स्थिति के संदर्भ में बात हो रही थी। बातचीत में उन्होंने अपना एक अनुभव बताया। सुबोध जी के छोटे भाई अमरीका के नासा में काम करते हैं। १९७३ में एक दिन उनका नासा से फोन आया कि भारत में महर्षि भारद्वाज का विमानशास्त्र पर कोई ग्रंथ है, वह नासा में कार्यरत उनके अमरीकी मित्र वैज्ञानिक को चाहिए। यह सुनकर सुबोध जी को आश्चर्य हुआ, क्योंकि उन्होंने भी प्रथम बार ही इस ग्रंथ के बारे में सुना था। बाद में उन्होंने प्रयत्न करके मैसूर से वह ग्रंथ प्राप्त कर उसे अमरीका भिजवाया। सन्‌ १९५० में गोरखपुर से प्रकाशित ‘कल्याण‘ के ‘हिन्दू संस्कृति‘ अंक में श्री दामोदर जी साहित्याचार्य ने ‘हमारी प्राचीन वैज्ञानिक कला‘ नामक लेख में इस ग्रंथ के बारे में विस्तार से उल्लेख किया था।

अभी दो तीन वर्ष पूर्व बंगलूरू के वायुसेना से सेवानिवृत्त अभियंता श्री प्रह्लाद राव की इस विषय में जिज्ञासा हुई और उन्होंने अपने साथियों के साथ एरोनॉटिकल सोसाइटी आफ इंडिया के सहयोग से एक प्रकल्प ‘वैमानिक शास्त्र रीडिस्कवर्ड‘ लिया तथा अपने गहन अध्ययन व अनुभव के आधार पर यह प्रतिपादित किया कि इस ग्रंथ में अत्यंत विकसित विमान विद्या का वर्णन मिलता है। नागपुर के श्री एम.के. कावड़कर ने भी इस ग्रंथ पर काफी काम किया है।

महर्षि भरद्वाज ने ‘यंत्र सर्वस्व‘ नामक ग्रंथ लिखा था, उसका एक भाग वैमानिक शास्त्र है। इस पर बोधानंद ने टीका लिखी थी। आज ‘यंत्र सर्वस्व‘ तो उपलब्ध नहीं है तथा वैमानिक शास्त्र भी पूरा उपलब्ध नहीं है। पर जितना उपलब्ध है, उससे यह विश्वास होता है कि पूर्व में विमान एक सच्चाई थे।

वैमानिक शास्त्र के पहले प्रकरण में प्राचीन विज्ञान विषय के पच्चीस ग्रंथों की एक सूची है, जिनमें प्रमुख हैं अगस्त्य कृत-शक्तिसूत्र, ईश्वर कृत-सौदामिनी कला, भरद्वाज कृत-अंशुबोधिनी, यंत्र सर्वस्व तथा आकाश शास्त्र, शाक्टायन कृत- वायुतत्व प्रकरण, नारद कृत-वैश्वानरतंत्र, धूम प्रकरण आदि। विमान शास्त्र की टीका लिखने वाले बोधानंद लिखते हैं- 

निर्मथ्य तद्वेदाम्बुधिं भरद्वाजो महामुनि:।
नवनीतं समुद्घृत्य यंत्रसर्वस्वरूपकम्‌॥
प्रायच्छत्‌ सर्वकोकानामीपिस्तार्थफलप्रदम्‌
नानाविमानवैतित्र्यरचनाक्रमबोधकम्‌।
अष्टाध्यायैर्विभजितं शताधिकरणैयुर्तम्‌॥
सूत्रै: पश्चशतैर्युक्तं व्योमयानप्रधानकम्‌।
वैमानिकाधिकरणमुक्तं भगवता स्वयम्‌॥ 

अर्थात्‌-भरद्वाज महामुनि ने वेदरूपी समुद्र का मन्थन करके यंत्र सर्वस्व नाम का एक मक्खन निकाला है, जो मनुष्य मात्र के लिए इच्छित फल देने वाला है। उसके चालीसवें अधिकरण में वैमानिक प्रकरण है जिसमें विमान विषयक रचना के क्रम कहे गये हैं। यह ग्रंथ आठ अध्याय में विभाजित है तथा उसमें एक सौ अधिकरण तथा पांच सौ सूत्र हैं तथा उसमें विमान का विषय ही प्रधान है।

ग्रंथ के बारे में बताने के बाद भरद्वाज मुनि विमान शास्त्र के उनसे पूर्व हुए आचार्य तथा उनके ग्रंथों के बारे में लिखते हैं। वे आचार्य तथा उनके ग्रंथ निम्नानुसार थे। 

(१) नारायण कृत-विमान चंद्रिका (२) शौनक कृत- व्योमयान तंत्र (३) गर्ग कृत-यंत्रकल्प (४) वाचस्पतिकृत-यान बिन्दु (५) चाक्रायणीकृत- खेटयान प्रदीपिका (६) धुण्डीनाथ- वियोमयानार्क प्रकाश

इस ग्रंथ में भरद्वाज मुनि ने विमान का पायलट, जिसे रहस्यज्ञ अधिकारी कहा गया, आकाश मार्ग, वैमानिक के कपड़े, विमान के पुर्जे, ऊर्जा, यंत्र तथा उन्हें बनाने हेतु विभिन्न धातुओं का वर्णन किया है।

विमान की परिभाषा 

नारायण ऋषि कहते हैं-जो पृथ्वी, जल तथा आकाश में पक्षियों के समान वेगपूर्वक चल सके, उसका नाम विमान है।

शौनक के अनुसार-एक स्थान से दूसरे स्थान को आकाश मार्ग से जा सके, विश्वम्भर के अनुसार- एक देश से दूसरे देश या एक ग्रह से दूसरे ग्रह जा सके, उसे विमान कहते हैं।

रहस्यज्ञ अधिकारी (घ्त्थ्दृद्य)-भरद्वाज मुनि कहते हैं, विमान के रहस्यों को जानने वाला ही उसे चलाने का अधिकारी है। शास्त्रों में विमान चलाने के बत्तीस रहस्य बताए गए हैं। उनका भलीभांति ज्ञान रखने वाला ही सफल चालक हो सकता है क्योंकि विमान बनाना, उसे जमीन से आकाश में ले जाना, खड़ा करना, आगे बढ़ाना, टेढ़ी-मेढ़ी गति से चलाना, चक्कर लगाना और विमान के वेग को कम अथवा अधिक करना- इसे जाने बिना यान चलाना असम्भव है। अत: जो इन रहस्यों को जानता है वह रहस्यज्ञ अधिकारी है तथा उसे विमान चलाने का अधिकार है। इन बत्तीस रहस्यों में कुछ प्रमुख रहस्य निम्न प्रकार हैं।

(३) कृतक रहस्य- बत्तीस रहस्यों में यह तीसरा रहस्य है, जिसके अनुसार विश्वकर्मा, छायापुरुष, मनु तथा मयदानव आदि के विमान शास्त्र के आधार पर आवश्यक धातुओं द्वारा इच्छित विमान बनाना, इसमें हम कह सकते हैं कि यह ‘हार्डवेयर‘ का वर्णन है।

(५) गूढ़ रहस्य-यह पांचवा रहस्य है जिसमें विमान को छिपाने की विधि दी गई है। इसके अनुसार वायु तत्व प्रकरण में कही गई रीति के अनुसार वातस्तम्भ की जो आठवीं परिधि रेखा है उस मार्ग की यासा, वियासा तथा प्रयासा इत्यादि वायु शक्तियों के द्वारा सूर्य किरण में रहने वाली जो अन्धकार शक्ति है, उसका आकर्षण करके विमान के साथ उसका सम्बंध बनाने पर विमान छिप जाता है।

(९) अपरोक्ष रहस्य-यह नवां रहस्य है। इसके अनुसार शक्ति तंत्र में कही गई रोहिणी विद्युत के फैलाने से विमान के सामने आने वाली वस्तुओं को प्रत्यक्ष देखा जा सकता है।

(१०) संकोचा-यह दसवां रहस्य है। इसके अनुसार आसमान में उड़ते समय आवश्यकता पड़ने पर विमान को छोटा करना।

(११) विस्तृता-यह ग्यारहवां रहस्य है। इसके अनुसार आवश्यकता पड़ने पर विमान को बड़ा करना। यहां यह ज्ञातव्य है कि वर्तमान काल में यह तकनीक १९७० के बाद विकसित हुई है।

(२२) सर्पागमन रहस्य-यह बाईसवां रहस्य है जिसके अनुसार विमान को सर्प के समान टेढ़ी-मेढ़ी गति से चलाना संभव है। इसमें कहा गया है दण्ड, वक्र आदि सात प्रकार के वायु और सूर्य किरणों की शक्तियों का आकर्षण करके यान के मुख से जो तिरछे फेंकने वाला केन्द्र है उसके मुख में उन्हें नियुक्त करके बाद उसे खींचकर शक्ति पैदा करने वाले नाल में प्रवेश कराना चाहिए। इसके बाद बटन दबाने से विमान की गति सांप के समान टेढ़ी-मेढ़ी हो जाती है।

(२५) परशब्द ग्राहक रहस्य-यह पच्चसीवां रहस्य है। इसमें कहा गया है कि सौदामिनी कला ग्रंथ के अनुसार शब्द ग्राहक यंत्र विमान पर लगाने से उसके द्वारा दूसरे विमान पर लोगों की बातचीत सुनी जा सकती है।

(२६) रूपाकर्षण रहस्य- इसके द्वारा दूसरे विमान के अंदर सब देखा जा सकता है।

(२८) दिक्प्रदर्शन रहस्य-दिशा सम्पत्ति नामक यंत्र द्वारा दूसरे विमान की दिशा ध्यान में आती है।

(३१) स्तब्धक रहस्य-एक विशेष प्रकार के अपस्मार नामक गैस स्तम्भन यंत्र द्वारा दूसरे विमान पर छोड़ने से अंदर के सब लोग बेहोश हो जाते हैं।

(३२) कर्षण रहस्य-यह बत्तीसवां रहस्य है। इसके अनुसार अपने विमान का नाश करने आने वाले शत्रु के विमान पर अपने विमान के मुख में रहने वाली वैश्रवानर नाम की नली में ज्वालिनी को जलाकर सत्तासी लिंक (डिग्री जैसा कोई नाप है) प्रमाण हो तब तक गर्म कर फिर दोनों चक्की की कीलि (बटन) चलाकर शत्रु विमानों पर गोलाकार से उस शक्ति को फैलाने से शत्रु का विमान नष्ट हो जाता है।



विमानशास्त्र का भारतीय इतिहास-२

महर्षि शौनक आकाश मार्ग का पांच प्रकार का विभाजन करते हैं तथा धुण्डीनाथ विभिन्न मार्गों की ऊंचाई पर विभिन्न आवर्त्त दृद्ध ध्र्ण्त्द्धथ्द्रदृदृथ्द्म का उल्लेख करते हैं और उस-उस ऊंचाई पर सैकड़ों यात्रा पथों का संकेत देते हैं। इसमें पृथ्वी से १०० किलोमीटर ऊपर तक विभिन्न ऊंचाईयों पर निर्धारित पथ तथा वहां कार्यरत शक्तियों का विस्तार से वर्णन करते हैं।

आकाश मार्ग तथा उनके आवर्तों का वर्णन निम्नानुसार है- 

(१) रेखा पथ- शक्त्यावृत-
ध्र्ण्त्द्धथ्द्रदृदृथ्द्म दृढ ड्ढदड्ढद्धढ़न्र्‌

(२) मंडलपथ - वातावृत्त-
ज़्त्दड्ड

(३) कक्ष पथ - किरणावृत्त-
च्दृथ्ठ्ठद्ध द्धठ्ठन्र्द्म

(४) शक्ति पथ - सत्यावृत्त-
क्दृथ्ड्ड ड़द्वद्धद्धड्ढदद्य

(५) केन्द्र पथ - घर्षणावृत्त-
क्दृथ्थ्त्द्मत्दृद 

वैमानिक का खाद्य-इसमें किस ऋतु में किस प्रकार का अन्न हो, इसका वर्णन है। उस समय के विमान आज से कुछ भिन्न थे। आज तो विमान उतरने की जगह निश्चित है पर उस समय विमान कहीं भी उतर सकते थे। अत: युद्ध के दौरान जंगल में उतरना पड़ा तो जीवन निर्वाह कैसे करना, इसीलिए १०० वनस्पतियों का वर्णन दिया है जिनके सहारे दो-तीन माह जीवन चलाया जा सकता है।

एक और महत्वपूर्ण बात वैमानिक शास्त्र में कही गई है कि वैमानिक को खाली पेट विमान नहीं उड़ाना चाहिए। इस संदर्भ में बंगलोर के श्री एम.पी. राव बताते हैं कि भारतीय वायुसेना में सुबह जब फाइटर प्लेन को वैमानिक उड़ाते थे तो कभी-कभी दुर्घटना हो जाती थी। इसका विश्लेषण होने पर ध्यान में आया की वैमानिक खाली पेट विमान उड़ाते हैं तब ऐसा होता है। अत: १९८१ में वायु सेना में खाना देने की व्यवस्था शुरू की।

विमान के यंत्र- विमान शास्त्र में ३१ प्रकार के यंत्र तथा उनका विमान में निश्चित स्थान का वर्णन मिलता है। इन यंत्रों का कार्य क्या है? इसका भी वर्णन किया गया है। कुछ यंत्रों की जानकारी निम्नानुसार है- 

(१) विश्व क्रिया दर्पण-इस यंत्र के द्वारा विमान के आस-पास चलने वाली गति-विधियों का दर्शन वैमानिक को विमान के अंदर होता था, इसे बनाने में अभ्रक (ग्त्ड़ठ्ठ) तथा पारा (थ्र्ड्ढद्धड़द्वद्धन्र्‌) आदि का प्रयोग होता था।

(२) परिवेष क्रिया यंत्र- इसमें स्वचालित यंत्र वैमानिक (ॠद्वद्यदृ घ्त्थ्दृद्य द्मन्र्द्मद्यड्ढथ्र्‌) का वर्णन है।

(३) शब्दाकर्षण यंत्र- इस यंत्र के द्वारा २६ कि.मी. क्षेत्र की आवाज सुनी जा सकती थी तथा पक्षियों की आवाज आदि सुनने से विमान को दुर्घटना से बचाया जा सकता था।

(४) गुह गर्भ यंत्र-इस यंत्र के द्वारा जमीन के अन्दर विस्फोटक खोजने में सफलता मिलती थी।

(५) शक्त्याकर्षण यंत्र- विषैली किरणों को आकर्षित कर उन्हें उष्णता में परिवर्तित करना और वह उष्णता वातावरण में छोड़ना।

(६) दिशा दर्शी यंत्र- दिशा दिखाने वाला यंत्र।

(७) वक्र प्रसारण यंत्र-इस यंत्र के द्वारा शत्रु विमान अचानक सामने आ गया तो उसी समय पीछे मुड़ना संभव होता था।

(८) अपस्मार यंत्र- युद्ध के समय इस यंत्र से विषैली गैस छोड़ी जाती थी।

(९) तमोगर्भ यंत्र-इस यंत्र के द्वारा युद्ध के समय विमान को छिपाना संभव था। इनके निर्माण में तमोगर्भ लौह प्रमुख घटक रहता था। 

उर्जा स्रोत- विमान को चलाने के लिए चार प्रकार के ऊर्जा स्रोतों का महर्षि भारद्वाज उल्लेख करते हैं। (१) वनस्पति तेल, जो पेट्रोल की भांति काम करता है। (२) पारे की भाप (ग्ड्ढद्धड़द्वद्धन्र्‌ ध्ठ्ठद्रदृद्वद्ध) प्राचीन शास्त्रों में इसका शक्ति के रूप में उपयोग किये जाने का वर्णन है। इसके द्वारा अमरीका में विमान उड़ाने का प्रयोग हुआ, पर वह ऊपर गया, तब विस्फोट हो गया। परन्तु यह तो सिद्ध हुआ कि पारे की भाप का ऊर्जा के रूप में उपयोग किया जा सकता है। आवश्यकता अधिक निर्दोष प्रयोग करने की है। (३) सौर ऊर्जा-इसके द्वारा भी विमान चलता था। (४) वातावरण की ऊर्जा- बिना किसी अन्य साधन के सीधे वातावरण से शक्ति ग्रहण कर विमान, उड़ना जैसे समुद्र में पाल खोलने पर नाव हवा के सहारे तैरती है उसी प्रकार अंतरिक्ष में विमान वातावरण से शक्ति ग्रहण कर चलता रहेगा। अमरीका में इस दिशा में प्रयत्न चल रहे हैं। यह वर्णन बताता है कि ऊर्जा स्रोत के रूप में प्राचीन भारत में कितना व्यापक विचार हुआ था।

विमान के प्रकार- विमान विद्या के पूर्व आचार्य युग के अनुसार विमानों का वर्णन करते है। मंत्रिका प्रकार के विमान, जिसमें भौतिक एवं मानसिक शक्तियों के सम्मिश्रण की प्रक्रिया रहती थी, वह सतयुग और त्रेता युग में संभव था। इसमें २५ प्रकार के विमान का उल्लेख है। द्वापर युग में तांत्रिका प्रकार के विमान थे। इनके ५६ प्रकार बताये गए हैं तथा कलियुग में कृतिका प्रकार के यंत्र चालित विमान थे, इनके २५ प्रकार बताये गए हैं। इनमें शकुन, रूक्म, हंस, पुष्कर, त्रिपुर आदि प्रमुख थे।

उपर्युक्त वर्णन पढ़ने पर कुछ समस्याएं व प्रश्न हमारे सामने आकर खड़े होते हैं। समस्या यह कि आज के विज्ञान की शब्दावली व नियमावली से हम परिचित हैं, परन्तु प्राचीन विज्ञान, जो संस्कृत में अभिव्यक्त हुआ, उसकी शब्दावली, उनका अर्थ तथा नियमावली हम जानते नहीं। अत: उसमें निहित रहस्य को अनावृत (क़्ड्ढड़दृड्डड्ढ) करना पड़ेगा। दूसरा, प्राचीनकाल में गलत व्यक्ति के हाथ में विद्या न जाए, इस हेतु बात को अप्रत्यक्ष ढंग से, गूढ़ रूप में, अलंकारिक रूप में कहने की पद्धति थी। अत: उसको भी समझने के लिए ऐसे लोगों के इस विषय में आगे प्रयत्न करने की आवश्यकता है, जो संस्कृत भी जानते हों तथा विज्ञान भी जानते हों। 

विमान शास्त्र में वर्णित धातुएं
दूसरा प्रश्न उठता है कि क्या विमान शास्त्र ग्रंथ का कोई भाग ऐसा है जिसे प्रारंभिक तौर पर प्रयोग द्वारा सिद्ध किया जा सके। यदि ऐसा कोई भाग है तो क्या इस दिशा में कुछ प्रयोग हुए हैं? क्या उनमें कुछ सफलता मिली है?

सौभाग्य से उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर हां में दिए जा सकते हैं। हैदराबाद के डा. श्रीराम प्रभु ने वैमानिक शास्त्र ग्रंथ के यंत्राधिकरण को देखा, तो उसमें वर्णित ३१ यंत्रों में से कुछ यंत्रों की उन्होंने पहचान की तथा इन यंत्रों को बनाने हेतु लगने वाली मिश्र धातुओं को बनाने की जो विधि लोहाधिकरण में दी गई है, उनके अनुसार मिश्र धातुओं का निर्माण संभव है या नहीं, इस हेतु प्रयोग करने का विचार उनके मन में आया। प्रयोग हेतु डा. प्रभु तथा उनके साथियों ने हैदराबाद स्थित बी.एम.बिरला साइंस सेन्टर के सहयोग से प्राचीन भारतीय साहित्य में वर्णित धातु, दर्पण आदि का निर्माण प्रयोगशाला में करने का प्रकल्प लिया और उनके परिणाम आशास्पद हैं। अपने प्रयोगों के आधार पर प्राचीन ग्रंथ में वर्णित वर्णन के आधार पर दुनिया में अनुपलब्ध कुछ धातुएं बनाने में सफलता उन्हें मिली है। इडद्ध/ऊ
प्रथम धातु है तमोगर्भ लौह। विमान शास्त्र में वर्णन है कि यह विमान को अदृश्य करने के काम आता है। इस पर प्रकाश छोड़ने से ७५ से ८० प्रतिशत प्रकाश को सोख लेता है। यह धातु रंग में काली तथा शीशे से कठोर तथा कान्सन्ट्रेटेड सल्फ्युरिक एसिड में भी नहीं गलती।

दूसरी धातु जो बनाई है उसका नाम है पंच लौह। यह रंग में स्वर्ण जैसा है तथा कठोर और भारी है। तांबा आधारित इस मिश्र धातु की विशेषता यह है कि इसमें सीसे का प्रमाण ७.९५ प्रतिशत है जबकि अमरीका में भी अमरीकन सोसायटी ऑफ मेटल्स ने कॉपर बेस्ट मिश्र धातु में सीसे का अधिकतम प्रमाण ०.३५ से ३ प्रतिशत तक संभव है, यह माना है। इस प्रकार ७.९५ सीसे के मिश्रण वाली यह धातु अनोखी है।

तीसरी धातु है आरर। यह तांबा आधारित मिश्र धातु है जो रंग में पीली और कठोर तथा हल्की है। इस धातु में ङड्ढद्मत्द्मद्यठ्ठदड़ड्ढ द्यदृ थ्र्दृत्द्मद्यद्वद्धड्ढ का गुण है। बी.एम. बिरला साइंस सेन्टर (हैदराबाद) के डायरेक्टर डा. बी.जी. सिद्धार्थ ने इन धातुओं को बनाने में सफलता की जानकारी १८ जुलाई, १९९१ को एक पत्रकार परिषद्‌ में देते हुए बताया कि इन धातुओं को बनाने में खनिजों के साथ विभिन्न औषधियां, पत्ते, गौंद, पेड़ की छाल आदि का भी उपयोग होता है। इस कारण जहां इनकी लागत कम आती है, वहीं कुछ विशेष गुण भी उत्पन्न होते हैं। उन्होंने कहा कि ग्रंथ में वर्णित अन्य धातुओं का निर्माण और उस हेतु आवश्यक साधनों की दिशा में देश के नीति निर्धारक सोचेगें तो यह देश के भविष्य के विकास की दृष्टि से अच्छा होगा। उपर्युक्त पत्रकार परिषद्‌ को ‘वार्ता‘ न्यूज एजेन्सी ने जारी किया तथा म.प्र. के नई दुनिया, एम.पी.क्रानिकल सहित देश के अनेक समाचार पत्रों में १९ जुलाई को यह प्रकाशित हुए।

इसी प्रकार आई.आई.टी. (मुम्बई) के रसायन शास्त्र विभाग के. डा. माहेश्वर शेरोन ने भी इस ग्रंथ में वर्णित तीन पदार्थों को बनाने का प्रयत्न किया। ये थे चुम्बकमणि, जो गुहगर्भ यंत्र में काम आती है और उसमें परावर्तन (रिफ्लेक्शन) को अधिगृहीत (कैप्चर) करने का गुण है। पराग्रंधिक द्रव-यह एक प्रकार का एसिड है, जो चुम्बकमणि के साथ गुहगर्भ यंत्र में काम आता है।

इसी प्रकार महर्षि भरद्वाज कृत अंशुबोधनी ग्रंथ में विभिन्न प्रकार की धातु तथा दर्पणों का वर्णन है। इस पर वाराणसी के हरिश्चंद्र पी.जी. कालेज के रीडर डा. एन.जी. डोंगरे ने क्ष्दड्डत्ठ्ठद ग़्ठ्ठद्यत्दृदठ्ठथ्‌ च्ड़त्ड्ढदड़ड्ढ ॠड़ठ्ठड्डड्ढर्थ्न्र्‌ के सहयोग से एक प्रकल्प लिया। प्रकल्प का नाम था च्ण्ड्र्ढ द्मद्यद्वड्डन्र्‌ दृढ ध्ठ्ठद्धत्दृद्वद्म थ्र्ठ्ठद्यड्ढद्धत्ठ्ठथ्द्म ड्डड्ढद्मड़द्धत्डड्ढड्ड त्द ॠथ्र्द्मद्वडदृड्डण्त्दत्‌ दृढ ग्ठ्ठण्ठ्ठद्धद्मण्त्‌ एण्ठ्ठद्धठ्ठड्डध्र्ठ्ठत्र्ठ्ठ.

इस प्रकल्प के तहत उन्होंने महर्षि भरद्वाज वर्णित दर्पण को बनाने का प्रयत्न नेशनल मेटलर्जीकल लेबोरेटरी (जमशेदपुर) में किया तथा वहां के निदेशक पी.रामचन्द्र राव, जो आजकल बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के कुलपति हैं, के साथ प्रयोग कर एक विशेष प्रकार का कांच बनाने में सफलता प्राप्त की, जिसका नाम प्रकाश स्तंभन भिद्‌ लौह है। इसकी विशेषता है कि यह दर्शनीय प्रकाश को सोखता है तथा इन्फ्र्ारेड प्रकाश को जाने देता है। इसका निर्माण इनसे होता है- 

कचर लौह- च्त्थ्त्ड़ठ्ठ
भूचक्र सुरमित्रादिक्षर- ख्र्त्थ्र्ड्ढ
अयस्कान्त- ख्र्दृड्डड्ढद्मद्यदृदड्ढ
रुरुक- क़्ड्ढड्ढद्धडदृदड्ढ ठ्ठद्मण्‌ 

इनके द्वारा अंशुबोधिनी में वर्णित विधि से किया गया। प्रकाश स्तंभन भिद्‌ लौह की यह विशेषता है कि यह पूरी तरह से नॉन हाइग्रोस्कोपिक है। हाइग्रोस्कोपिक इन्फ्र्ारेड वाले कांचों में पानी की भाप या वातावरण की नमी से उनका पॉलिश हट जाता है और वे बेकार हो जाते हैं। आजकल क्ठ्ठक़२ यह बहुत अधिक हाईग्रोस्कोपिक है। अत: इनके यंत्रों के प्रयोग में बहुत सावधानी रखनी पड़ती है जबकि प्रकाश स्तंभन भिद्‌ लौह के अध्ययन से यह सिद्ध हुआ है कि इन्फ्र्ारेड सिग्नल्स में (२ द्यदृ ५छ) (१थ्र्उ१०-४क्थ्र्‌) तक की रेंज में यह आदर्श काम करता है तथा इसका प्रयोग वातावरण में मौजूद नमी के खतरे के बिना किया जा सकता है।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि महर्षि भरद्वाज प्रणीत ग्रंथ के विभिन्न अध्यायों में से एक अध्याय पर हुए कुछ प्रयोगों की सत्यता यह विश्वास दिलाती है कि यदि एक ग्रंथ का एक अध्याय ठीक है तो अन्य अध्याय भी ठीक होंगे और प्राचीनकाल में विमान विद्या कपोल-कल्पना न होकर एक यथार्थ थी। इसका विश्वास दिलाती है। यह विश्वास सार्थक करने हेतु इस पुस्तक के अन्य अध्याय अपनी सत्यता की सिद्धि हेतु साहसी संशोधकों की राह देख रहे हैं।