अनिल विद्यालंकार
आम तौर से माना जाता है कि भाषा अनुभूतियों और विचारों को अभिव्यक्त करने का एक साधन है। विद्यालयों में बच्चों को भाषा की यही परिभाषा पढ़ाई जाती है। इसे हम भाषा के साधनरूप की परिभाषा कह सकते हैं। मोटे तौर पर देखने पर यह परिभाषा सही भी लगती है। हम अपने विचार व्यक्त करने के लिए जो भाषाएँ हम जानते हैं उनमें से किसी का भी प्रयोग कर सकते है, वैसे ही कि जैसे यदि हमारे पास चार पैन हैं तो आवश्यकतानुसार हम उनमें से किसी को भी काम में ला सकते हैं, या फिर पैन के स्थान पर पैंसिल का प्रयोग कर सकते हैं।
भाषा की इस साधनरूप परिभाषा पर कुछ विस्तार से विचार करना वांछनीय है। साधन उस चीज़ को कहते हैं जिसका प्रयोग साधक अपने कार्य की सिद्धि के लिए करता है। साधन के ऊपर साधक का नियंत्रण रहना चाहिए। यदि ऐसा नहीं है तो साधक और साधन का संबंध खंडित या दूषित माना जाएगा। उदाहरण के लिए, हम यह नहीं कह सकते कि बादल मनुष्यों के लिए वर्षा के साधन हैं या किसी मनुष्य का हृदय उसके लिए अपने रक्त को प्रवाहित करने का साधन है। बादल और हृदय की गति पर मनुष्य का कोई नियंत्रण नहीं है, इसलिए इन्हें मनुष्य के लिए साधन नहीं कहा जा सकता।
फिर हम देखते हैं कि उच्चरित भाषा का प्रयोग भी सर्वदा विचारों के आदान-प्रदान के लिए ही होता हो ऐसी बात नहीं है। माँ अपने नवजात शिशु से कितनी-कितनी बातें करती हैं, यह जानते हुए भी कि बच्चा कुछ भी नहीं समझ रहा होता। सोते हुए बहुत-से लोग अपनी भाषा में बड़बड़ाते हैं जबकि बाह्य रूप से कोई श्रोता नहीं होता। अंतर्मुख प्रवृत्ति के बहुत-से लोगों को राह चलते अपने-आप से बातें करते हुए देखा जा सकता है। संसार में करोड़ों आस्तिक अपनी भाषा में ईश्वर से प्रार्थना करते हैं जिसका प्रयोग अवश्य ही ईश्वर के साथ विचारों के आदान-प्रदान के लिए नहीं होता। नास्तिकों के लिए तो भाषा का यह प्रयोग सर्वथा निरर्थक ही है।
आंतरिक भाषा
साधनरूपी कसौटी को यदि भाषा पर लागू करें तो हम देखेंगे कि भाषा मनुष्य के लिए ऐसा साधन नहीं है जिस पर उसका पूर्ण नियंत्रण हो। यह ठीक है कि वक्ता के मुख से जो शब्द बाहर आते हैं उन पर उसका प्रकट रूप से कुछ नियंत्रण प्रतीत होता है (यद्यपि सभी वक्ताओं के लिए सभी समय यह बात नहीं कही जा सकती)। किन्तु मुख से बाहर आने वाली भाषा ही मनुष्य की भाषा का एकमात्र रूप नहीं है। थोड़ा-सा भी अंतर्मुख होकर ध्यान देने से यह बात स्पष्ट हो जाएगी कि हमारे मस्तिष्क में विचारों के रूप में निरंतर भाषा उत्पन्न होती रहती है। यह आंतरिक भाषा भी उतने ही स्पष्ट रूप में भाषा है जितने कि मुखोच्चरित ध्वनियों के माध्यम से बाहर आनेवाली भाषा। भारतीय चिन्तन में मुखोच्चरित भाषा को वैखरी और मनोगत भाषा को मध्यमा कहा गया है। चिन्तक यदि चाहे तो अपने अन्दर उत्पन्न होनेवाली मध्यमा भाषा के शब्द और वाक्यों को अलग-अलग देख सकता है। वैखरी भाषा की और मध्यमा भाषा की शब्दावली वही रहती है। कोई भी चिन्तक आसानी से जान सकता है कि वह कब किस भाषा में सोच रहा है। इस प्रकार हमारे अन्दर निरंतर भाषा पैदा होती रहती है। जब वह मुख से बाहर आती है तब उसके माध्यम से श्रोताओं तक हमारे विचार पहुँचते हैं। इस अवस्था में उसका नाम वैखरी होता है। शेष समय में यह मध्यमा के रूप में हमारे मस्तिष्क में तरंगायित होती रहती है।
यदि हम अपने अन्दर देखें तो ज्ञात होगा कि मध्यमा भाषा पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं है। हम चाहें तो भी आसानी से अपने विचार-प्रवाह को रोक नहीं सकते। ऐसा नहीं है कि हम जब चाहें तब अपने अन्दर भाषा को उत्पन्न होने दें और जब चाहें तब उसे सर्वथा रोक दें। हम स्वयं नहीं जानते कि हमारे मन में निरन्तर उत्पन्न होनेवाली भाषा कहाँ से आती है, यद्यपि हम उसे प्रतिक्षण अपने अन्दर उठता हुआ पाते हैं।
यदि इस दृष्टि से विचार करें तो हम देखेंगे कि भाषा की साधनरूपी परिभाषा बहुत ही अपर्याप्त है। ध्यानपूर्वक निरीक्षण करने पर ज्ञात होगा कि आधुनिक शिक्षित मनुष्य की अधिकांश भाषा का प्रयोग उसके अन्दर ही होता है। हम मध्यमा के माध्यम से जितना सोचते हैं उसका एक प्रतिशत भी वैखरी (उच्चरित भाषा) के माध्यम से नहीं बोलते। भाषा की परिभाषा इस प्रकार की होनी चाहिए कि उसकी व्याप्ति भाषा के सभी रूपों तक हो।
वैदिक ऋषियों की भाषाविषयक खोज
पश्चिम में भाषा को केवल साधन के रूप में ही देखा जाता रहा है इसलिए ग्रीक चिन्तन से लेकर अबतक भाषा के माध्यम से बहुत सोचा गया है पर स्वयं भाषा के बारे में गहरा और व्यापक चिन्तन नहीं हुआ है। वास्तव में भाषा के साधन रूप से हटकर भाषा को अध्ययन के विषय के रूप में देखना पश्चिम में केवल 200 वर्ष पूर्व ही प्रारंभ हुआ जब विलियम जेम्स जैसे विद्वानों के माध्यम से पश्चिम का परिचय संस्कृत और फिर पाणिनि के व्याकरण से हुआ। पर आधुनिक पाश्चात्य भाषाविज्ञान का अध्ययन करने पर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि पश्चिम के भाषावैज्ञानिक अभी भी भाषा के बाहरी रूप का विश्लेषण करने में ही लगे हुऐ हैं जिसमें बहुत गहरा जाने की गुंजाइश नहीं है। इसीलिए अमेरिका के विश्वप्रसिद्ध भाषावैज्ञानिक नोएम चॉम्स्की ने लगभग दो दशक से अधिक समय तक भाषाविज्ञान के क्षेत्र में नेतृत्व करने के बाद उस शास्त्र की सीमा को समझकर तीन दशक पूर्व भाषाविज्ञान से किनारा कर लिया। आज चॉम्स्की को विश्व के सबसे अधिक प्रभावशाली विचारकों में गिना जाता है पर भाषाविज्ञान के क्षेत्र में नहीं अपितु सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक समस्याओं के क्षेत्र में।
पाश्चात्य परंपरा के विपरीत, वेदिक काल में ही भाषा के संबंध में गंभीर चिन्तन पारंभ हो गया था। वैदिक ऋषियों ने जान लिया था कि मनु्ष्य की भाषा का स्रोत मनुष्य के परे की किसी शक्ति में है। इसलिए उन्होंने भाषा के मूल स्रोत तक जाने का प्रयास किया और गहरी साधना के बाद उसमें सफलता प्राप्त की। उन्होंने पाया कि मनुष्य की उच्चरित भाषा ही भाषा का एकमात्र रूप नहीं है। वे ऋषि भाषा के गहरे से गहरे स्तर तक गये और उन्होंने देखा कि भाषा की वास्तव में विभिन्न अवस्थाएँ है जिनमें से मनुष्य के मुख से बाहर आनेवाली भाषा उसका केवल एक रूप है। वेद में भाषा के सबी रूपों को मिलाकर वाक् कहा गया है। ऋग्वेद के निम्नलिखित मंत्र में वाक् की चार अवस्थाओं का स्पष्ट वर्णन हैः
चत्वारि वाक् परिमिता पदानि तानि विदुर्ब्राह्मणा ये मनीषिणः।
गुहा त्रीणि निहिता नेंगयन्ति तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति।। (ऋग्वेद. 1-164-45) (य़य़)
(वाक् की चार सुनिश्चित अवस्थाएँ हैं जिन्हें मनीषी ब्राह्मण ही जानते हैं। इनमें से तीन अवस्थाएँ मनुष्य के अंदर की गुफा में निहित हैं। मनुष्य चौथी अवस्था की भाषा को ही बोलते हैं।)
वैदिक काल में भाषा की इन चार अवस्थाओं के अलग-अलग स्पष्ट नाम नहीं मिलते पर बाद के समय में भाषा की चार अवस्थाओं पर अनेक प्रसंगों में विचार हुआ है। और यह विचार केवल व्याकरण या भाषाविज्ञान के प्रसंग में ही नहीं हुआ अपितु दर्शन और आध्यात्मिक साधना के पक्ष में इसमें शामिल किए गए हैं, और ऐसा करने का एक बहुत ठोस आधार है।
वाक् की अवस्थाओं की वैचारिक पृष्ठभूमि
भाषा की प्रक्रिया के मूल स्वरूप को जानना किसी भी बौद्धिक कार्य के लिए अत्यंत आवश्यक है। हमारे सामाजिक और शैक्षिक जीवन और शिक्षा के मूल में भाषा ही काम कर रही है इसलिए भाषा पर विचार किये बिना उसके द्वारा कोई कार्य करना ऐसा ही है जैसे टेलीस्कोप या माइक्रोस्कोप की जाँच किये बिना इन यंत्रों के द्वारा ज्योतिर्विद्या और प्राणिशास्त्र का अध्ययन। यदि भाषा हमारे लिए साधन है तो किसी भी बौद्धिक कार्य को वैज्ञानिक ढंग से करने के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि हम प्रयोग से पूर्व अपने इस साधन की जाँच कर लें।
भाषा के बारे में गहरी खोज प्रारंभ करते ही जो बात सबसे पहले ध्यान में आती है वह यह है कि मनुष्य की भाषा सदा ही उसके साथ रहती हैऱ न केवल उसकी वाणी में अपितु उसके विचारों और स्वप्नों में भी। भाषा मनुष्य को अपने से इतनी अविभाज्य मालूम देती है कि देकार्त जैसे महान् दार्शनिक ने अपना अस्तित्व ही अपने चिन्तन की प्रक्रिया के आधार पर सिद्ध किया (Cogito ergo sum– मैं सोचता हूँ इसलिए मैं हूँ)। भारतीय परम्परा में भी कहा गया है कि चिन्तन करने वाला प्राणी ही मनुष्य हैऱ (मनुते इति मनुष्यः)।
इस प्रकार विचार करने पर भाषा हमारे मस्तिष्क के अन्दर उत्पन्न होने वाले शब्दों की एक अविच्छिन्न धारा प्रतीत होती है। ये शब्द प्रायः बोली और लेखन के रूप में बाहर निकलते हैं, लेकिन शिक्षा और सभ्यता के विकास के साथ, हमारे शब्द अधिकतर आंतरिक भाषा या विचारों के रूप में हमारे अन्दर ही तरगांयित होते रहते हैं। यह स्वाभाविक है कि विद्वानों ने इस बात के बारे में अनुमान लगाने की कोशिश की है कि भाषा की इस रहस्यमय प्रक्रिया का प्रादुर्भाव कैसे हुआ। पश्चिम के विद्वानों ने भाषा की उत्पत्ति के बारे में अनेक सिद्धान्त स्थापित किए गए हैं किन्तु वे भाषा के मूल स्रोत को अभी तक जान नहीं सके हैं। फिर भी एक बात तो निश्चित है कि भाषा यदि शब्दों की धारा है तो अन्य सभी धाराओं के समान इसका न केवल कोई आदि होना चाहिए अपितु एक अन्त भी होना चाहिए। और यदि हम किसी कारण से इसके स्रोत का पता नहीं लगा सकते तो भी हम यह जानने के लिए तो स्वतंत्र हैं ही कि भाषा के इस प्रवाह का अन्त कहाँ होता है।
इस प्रकार भाषा को उसके समग्र रूप में, आदि से अंत तक, देखने के प्रयत्न ने ही प्राचीन भारतीय चिन्तन में भाषा की चार अवस्थाओं की खोज को प्रेरित किया। उस विचार-सरणि को एक बार समझने का प्रयत्न करना आज भी उपयोगी और आवश्यक है।
प्रक्रिया के रूप में भाषा
यहाँ इस बात पर ध्यान देना आवश्यक है कि भाषा कोई वस्तु नहीं है, वरन् एक प्रक्रिया है। किसी भाषा की सत्ता उसके बोलनेवालों से अलग नहीं रहती। संगीत भी एक प्रक्रिया है। किसी प्रक्रिया को हम उस प्रक्रिया के साथ समय के आयाम में बहकर ही समझ और जान सकते हैं। इस तरह किसी भाषा को उसके बोलनेवालों के साथ लंबे समय तक रहकर ही जाना और समझा जा सकता है।
इसी बात को दूसरे रूप में इस प्रकार कह सकते हैं कि प्रत्येक भाषा के विषय में कोई कथन वस्तुतः उस भाषा के बोलनेवालों पर लागू होता है। जब हम कहते हैं कि हिन्दी में दंत्य ध्वनियाँ हैं जो कि अंग्रेज़ी में नहीं हैं तो हमारा तात्पर्य केवल यही होता है कि हिन्दीभाषी अपने बोलने की प्रक्रिया में कभी-कभी जीभ को दाँतों से छुआकर कुछ विशेष ध्वनियाँ उत्पन्न करते हैं जबकि अंग्रेज़ीभाषी ऐसा नहीं करते। हिन्दीभाषी स्वरों का उच्चारण करते हुए किन्हीं स्थितियों में अपने नासिका-विवर को खुला रखते हैं। इन स्वरों को अनुनासिक स्वर कहते हैं। जब हम कहते हैं कि फ्रैंच में भी अनुनासिक स्वर हैं तो हमारा आशय यही होता है कि हिन्दी-भाषियों की तरह फ्रैंच-भाषी भी स्वरों का उच्चारण करते हुए कभी नासिका-विवर को खुला रखते हैं और कभी नहीं। हिन्दी की सत्ता हिन्दी-भाषियों के वाचिक और मानसिक व्यवहार से भिन्न नहीं है। स्पष्ट ही किसी भाषा की ध्वनियों या व्याकरण के संबंध में प्रत्येक कथन उस भाषा के बोलने वालों पर लागू होता है।
इसी प्रकार जब हम कहते हैं कि प्रत्येक भाषा के वैखरी और मध्यमा दो रूप हो सकते हैं तो हमारा आशय यही होता है कि प्रत्येक मनुष्य अपनी चेतनावस्था में या तो ऐसी स्थिति में होता है जबकि भाषा उसके मुख से बाहर आ रही होती है या ऐसी स्थिति में कि भाषा उसके मन में विचारों के रूप में उठ रही होती है। यह कथन संसार के सभी मनुष्यों पर समान रूप से लागू किया जा सकता है। हमारे अंदर से निरंतर भाषा निस्तृत होती रहती है, केवल सुषुप्ति और समाधि की अवस्थाओं को छोड़कर। इस प्रकार वाक् या भाषा मनुष्य की चेतना से ऊपर की किसी शक्ति की परिणति है जो बहुधा मनुष्य के न चाहने के बावजूद उसके मन में पैदा होती रहती है। प्राचीन भारतीय शास्त्रों में इसलिए प्रायः मनुष्य को वाक् का कर्ता नहीं माना गया अपितु वाक् का स्वतंत्र अस्तित्व स्वीकार किया गया है। इस वाक्-शक्ति के प्रकट होने के लिए मनुष्य का मस्तिष्क केवल आधार का काम करता है।
प्रसिद्ध भाषादार्शनिक भर्तृहरि ने वाक्यपदीय की टीका में एक श्लोक उद्धृत करते हुए कहा हैः
वागेवार्थं पश्यति वाग्ब्रवीति वागेवार्थं निहितं सन्तनोति।
(वाक् ही अर्थ को देखती है, वाक् ही स्वयं बोलती है और वाक् ही स्वयं शब्दों में निहित अर्थ का विस्तार करती है।)
इस पंक्ति से स्पष्ट है कि भर्तृहरि और उनके पूर्ववर्ती आचार्य वाक् का स्वायत्त अस्तित्व स्वीकार करते हैं। वे इसे पूर्णतया मानव-सापेक्ष नहीं मानते।
वैखरी (भाषा चौथी अवस्था) की परिभाषा
प्राचीन मनीषियों ने भाषा के वैखरी रूप की परिभाषा इस प्रकार की हैः
स्थानेषु विधृते वायौ कृतवर्णपरिग्रहा।
वैखरी वाक् प्रयोक्तॄणां प्राणवृत्तिनिबंधना।।
(वैखरी भाषा विभिन्न उच्चारण-स्थानों में वायु के अवरोध से उत्पन्न होती है। इसमें वर्णों की पृथक्-पृथक् सत्ता रहती है और इसका सीधा संबंध वक्ता की श्वास-प्रक्रिया से होता है।)
इन सभी लक्षणों को हम मुखोच्चरित भाषा पर आसानी से घटा सकते हैं। हमारे बोलते हुए मुख से वायु बाहर निकलती है और मुख के विभिन्न स्थानों पर जीभ के छूने से या स्वरतंत्रियों में कंपन से विभिन्न ध्वनियाँ उत्पन्न होती हैं जो हमारी भाषा के उच्चरित रूप को व्यक्त करती हैं।
मध्यमा (भाषा तीसरी अवस्था ) की परिभाषा
मध्यमा भाषा का लक्षण इस प्रकार बताया गया हैः
मध्यमा केवलं बुद्ध्युपादाना क्रमरुपानुपातिनी।
प्राणवृत्तिम् अतिक्रम्यं मध्यमा वाक् प्रवर्तते।।
भाषा केवल प्रयोक्ता की बुद्धि में रहती है। उसकी आंतरिक ध्वनियों में क्रम रहता है और वह व्यक्ति की श्वास-प्रक्रिया को अतिक्रमण कर जाती है।)
इन लक्षणों को भी हम अपनी मानसिक भाषा पर आसानी से घटा सकते हैं। इनमें विशेष ध्यान देने योग्य एक बात तो मध्यमा भाषा में वैखरी भाषा की ध्वनियों के क्रम का आंतरिक रूप में बने रहना है। हम सभी विचार करते हुए स्पष्ट रूप से यह जान सकते हैं कि हमारी आंतरिक भाषा की ध्वनियाँ भी हमारे मन में उसी क्रम से उठती हैं जिस क्रम से वे मुखोच्चरित वैखरी में बाहर प्रकट होती है। आंतरिक भाषा में भी कर्ता, कर्म, क्रिया आदि उसी क्रम से आते हैं जिस क्रम से कि बाह्य भाषा में। दूसरे शब्दों में, मध्यमा और वैखरी की शब्दावली और व्याकरण एक ही होता है।
मध्यमा के लक्षण में दूसरी विशेष बात उसका श्वास-प्रक्रिया को अतिक्रांत कर जाना है। वैखरी भाषा वक्ता की श्वास-प्रक्रिया से निबद्ध रहती है। अक्षर, शब्द और वाक्यों के उच्चारण में श्वास-प्रक्रिया के योगदान को आसानी से देखा जा सकता है। प्रत्येक शब्द के उच्चारण में वायु हलके-हलके झटकों के साथ बाहर आती है जिससे एक शब्द दूसरे से पूरी तरह मिल नहीं पाता। लंबा वाक्य बोलते हुए हम शब्दों के अंतराल में आवश्यकतानुसार श्वास लेते हैं। प्रायः नया वाक्य प्रारम्भ करने से पहले हम अनजाने में ही नया श्वास भर लेते हैं। किन्तु मध्यमा भाषा का हमारी श्वास-प्रक्रिया से कोई संबंध नहीं होता। हमारे सोचने की गति बहुत तीव्र होती है। जिस श्वास के दौरान हम वैखरी में एक वाक्य बोल पाते हैं उसके दौरान हम मध्यमा में कई-कई वाक्यों के विचारों में से गुजर जाते हैं। जिस समय हम श्वास अंदर ले रहे होते हैं उस समय हम वैखरी का प्रयोग नहीं कर सकते किन्तु मध्यमा भाषा के माध्यम से हमारा चिन्तन अविराम चलता रहता है चाहे हम श्वास ले रहे हों या छोड़ रहे हों।
भाषा की दूसरी अवस्था ऱ पश्यन्ती
एक बार इस बात को समझ लेने के बाद कि वैखरी और मध्यमा ऐसी दो स्थितियाँ हैं जिनमें से किसी एक में प्रत्येक मनुष्य का मस्तिष्क, सुषुप्ति और समाधि की अवस्था को छोड़कर, सारे समय बना रहता है, हम कुछ और आगे बढ़ सकते हैं। प्राचीन भारतीय चिन्तन में भाषा की, अथवा दूसरे शब्दों में उसके प्रयोक्ता मनुष्य की, दो स्थितियाँ और मानी गई हैं ऱ पश्यन्ती और परा। इनमें से पश्यन्ती का लक्षण इस प्रकार दिया गया हैः
अविभागा तु पश्यन्ती सर्वतः संयतक्रमा।
स्वरुपज्योतिरेवान्तः सूक्ष्मा वागनपायिनी।।
(भाषा की पश्यन्ती अवस्था में उसकी ध्वनियों में या पदों में कोई क्रम नहीं रहता, इसलिए उसका किसी भी दृष्टि से विभाजन या विश्लेषण संभव नहीं है। पश्यन्ती भाषा की अवस्था में मनुष्य को अपना आंतरिक ज्योतिर्मय स्वरूप उपलब्ध होता है। भाषा का यह सूक्ष्म रूप अविनाशी है।)
ऊपर कहा गया है कि प्रत्येक मनुष्य की चेतनावस्था में उसके मस्तिष्क से या तो वैखरी भाषा उत्पन्न हो रही होती है या मध्यमा। वास्तव में यह कथन अक्षरशः सत्य नहीं है। सामान्य मनुष्य के जीवन में भी कभी-कभी ऐसे क्षण आते हैं जब वह भाषातीत स्थिति में होता है। कोई भी अद्भुत दृश्य देखकर हम कुछ क्षण अवाक् रह जाते हैं। बहुत सुखद अनुभूति हमें कुछ क्षण के लिए बाह्य और आंतरिक दोनों भाषाओं से मुक्त कर देती है। किन्तु इनके अतिरिक्त एक अन्य स्थिति और भी है जिसमें हम बार-बार वैखरी और मध्यमा भाषा के ऊपर चले जाते हैं वह है ध्यान की स्थिति।
आजकल योग के प्रचार के साथ संसार के सभी देशों में ध्यान में भी रुचि बढ़ रही है और लाखों मनुष्य किसी-किसी रूप में ध्यान का अभ्यास कर रहे हैं। घ्यान सिखाने की अनेक पद्धतियाँ बन गई हैं जिनमें कभी-कभी प्रतिस्पर्धा भी देखने में आती है। पर ध्यान किसी भी प्रकार से किया जाए उसका एकमात्र उद्देश्य है मन को इतना शांत करना कि उसमें शब्द और बिंब न पैदा हों। जिन व्यक्तियों ने ध्यान का अभ्यास किया है वे अनुभव करते हैं कि ध्यान करते हुए कभी-कभी कुछ क्षण के लिए चेतना में ऐसी अवस्था आती है जब अंदर शब्द नहीं उठ रहे होते। यह भाषा की पश्यन्ती अवस्था है। जैसा कि पश्यन्ती शब्द से स्पष्ट है, यह व्यक्ति की वह चेतन स्थिति है जिसमें वह अपने भाषा-प्रवाह को भाषातीत स्थिति से देखता है। और तभी वह अपने चिन्तन से परे हटकर अपने सच्चे आंतरिक शांत स्वरूप को देखना प्रारंभ करता है।
भाषा की पहली अवस्था ऱ परा
भारतीय चिन्तन में पश्यन्ती के परे भी एक स्थिति स्वीकार की गई है जिसे परा कहा गया है। इसमें व्यक्ति स्वभावतः भाषातीत रहता है। वह अपनी इच्छानुसार न केवल वैखरी के परे रह सकता है अपितु उसका चित्त भी इतना शांत होता है कि उसमें मध्यमा का प्रवाह भी नहीं उठता। योग में इसे निर्विकल्पक समाधि की अवस्था कहा गया है। इसमें द्रष्टा को अपने सच्चे स्वरूप का पूर्ण ज्ञान होता है। इस स्थिति को प्राप्त कर लेने के बाद कोई व्यक्ति न केवल भाषा के अपितु संपूर्ण मानव-जीवन को और उसके साथ ब्रह्मांड के रहस्य को भी जान लेता है। न यह केवल विद्या के क्षेत्र में अपितु साधना के क्षेत्र में भी चरम उपलब्धि है।
वैखरी, मध्यमा, पश्यन्ती और परा इन चारों अवस्थाओं का ज्ञान प्राप्त करने के बाद ही भाषा या वाक् को उसके समग्र रूप में समझा जा सकता है। यह दुर्भाग्य की बात है कि आधुनिक भाषाविज्ञान में केवल वैखरी भाषा के अध्ययन पर ही ध्यान दिया जाता है। इसीलिए संसार के हज़ारों भाषा-वैज्ञानिकों द्वारा बड़ी-बड़ी पुस्तकों और पत्रिकाओं में लम्बी लम्बी बहसों के बावजूद भाषाविज्ञान के क्षेत्र में कोई उल्लेखनीय प्रगति नहीं हो पा रही है।
पराशक्ति वाक्
वैदिक काल से अब तक भारत में भाषा-विषयक गंभीर चिन्तन की अविछिन्न परंपरा मिलती है। भाषा-प्रवाह के दूसरे छोर पर जाकर जो कुछ उपलब्ध होता है उसका संबंध केवल भाषा से ही नहीं है। भाषातीत स्थिति में ही जाकर यह बोध होता है कि जिस भाषा को हम केवल विचारों के आदान-प्रदान का साधन समझ रहे थे उसका संबंध केवल हमारी बोली और हमारे विचारों से ही नहीं है, अपितु वह हमें हमारी सत्ता के मूल स्रोत से जोड़ती है। हम वहाँ हैं जहाँ हमारा चिन्तन है, और हमारा चिन्तन हमारी भाषा में है। और क्योंकि हमारी भाषा प्रतिक्षण ब्रह्म से आती है इसलिए हम अपनी भाषा के माध्यम से सृष्टि की अंतिम सत्ता से जुड़े हुए हैं। हम इस बात को जानते नहीं हैं क्योंकि हम सदा अपने विचारों, अर्थात् भाषा की दूसरी अवस्था से घिरे रहते हैं। चिन्तन को शांतकर कोई भी परम सत्य को सीधे जान सकता है।
वेद के अनुसार परमात्मा की स्पष्ट परिभाषा दी जा सकती है ऱ भाषातीत चैतन्य परमात्मा है, अर्थात् जब आपका मन इतना शांत हो कि उसमें कोई शब्द उत्पन्न न हो रहा हो तो आप उस अवस्था में परमात्मा के साथ एकाकार होते हैं। इसे आप अपने पर प्रयोग कर देख सकते हैं। इस परिभाषा को जान लेने के बाद प्रश्न यह नहीं रहता कि परमात्मा है कि नहीं, प्रश्न यह है कि क्या मनुष्य अपने मन को इतना शांत कर सकता है कि उसमें भाषा उत्पन्न न हो। जब तक हम इस अवस्था तक न पहुँच जाएँ तब तक हमें कम से कम अपने अंदर से यह भाव तो निकाल देना चाहिए कि हम भाषा को एक साधन के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं। क्योंकि जैसा हमने ऊपर देखा है, जो चीज़ मनुष्य के पूरी तरह बस में नहीं है उसे उसका साधन नहीं कहा जा सकता।
हमारी बाह्य और आंतरिक भाषा हमारे मस्तिष्क में उत्पन्न होने वाली ऊर्जा के विनियोग का ही एक रूप है। वैखरी भाषा तो ठीक उसी प्रकार एक मांसपेशीय कार्य है जिस प्रकार कि चलना, कूदना या फावड़ा चलाना। मध्यमा की अवस्था में भी हम वाक्शक्ति की तरंगों को अपने अंदर उठते हुए अनुभव कर सकते हैं। ऊपर हमने देखा है कि भाषा-प्रक्रिया पर हमारा कोई बस नहीं है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि ऊर्जा की ये तरंगे, जो कि भाषा के रूप में प्रकट होती हैं, किसी ऐसे स्रोत से आती हैं जो हमारी व्यष्टि चेतना से परे हैं। अर्थात् हमारे प्रत्येक भाषिक व्यवहार में हमने भिन्न और हमसे बड़ी कोई सत्ता काम कर रही होती है। सच्चाई तो यह है कि जिसे हम अपना आपा या अपना जीवन कहते हैं वह भी भाषारूपी इन ऊर्जा-तरंगों का ही खेल है। परा की अवस्था में न केवल नामरुपात्मक दृष्टि के भेद नहीं रहते अपितु स्वयं ज्ञाता का व्यष्टिपरक रूप भी नहीं रहता। आचार्य भर्तृहरि ने इसीलिए कहा हैः
भेदोद्ग्राहविवर्तेन लब्धाकारपरिग्रहा।
आम्नाता सर्वविद्यासु वागेव प्रकृतिः परा।।
(वाक् रूपी शक्ति के भेदों में विवर्त के कारण ही सृष्टि के विभिन्न आकार दिखाई पड़ते हैं। इसीलिए सब शास्त्रों में वाक् को ही परा प्रकृति कहा गया है।)
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जहाँ एक ओर हम वैखरी के माध्यम से अपने समाज से जुड़े हुए हैं वहीं परा के द्वारा हमारा संबंध संपूर्ण सृष्टि और परमात्मा से है। भाषा केवल वही नहीं है जिसके माध्यम से हम अपने श्रोता तक अपनी बात पहुँचाते हैं या जिसके माध्यम में हम चिन्तन करते हैं। भाषा वह भी है जिसके माध्यम से सृष्टि की शक्ति-तरंगे प्रत्येक क्षण हमें आंदोलित करती रहती हैं। इस प्रकार भाषा-विज्ञान का संबंध न केवल शाब्दिक भाषा में प्रकट किये जाने वालों शास्त्रों ऱ दर्शन, मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, राजनीतिशास्त्र आदि से है अपितु गणित, भौतिकी आदि उन सभी विद्याओं से भी है जो सृष्टि के रहस्य के मूल में जाने का प्रयास करती हैं। क्योंकि मानवीय मस्तिष्क द्वारा विकसित कोई भी शास्त्र मानवीय मस्तिष्क की सीमाओं का उल्लंघन नहीं कर सकता, और क्योंकि भाषा की विभिन्न अवस्थाओं में मानवीय मस्तिष्क की निम्नतम से उच्चतम क्षमता परिलक्षित होती है, इसलिए मानव-मस्तिष्क के द्वारा संपूर्ण सृष्टि के रहस्य को उद्घाटित करने में भी भाषा के अध्ययन का अन्यतम योगदान है।
वाक् और ब्रह्मांड
आइए वाक् की संपूर्ण प्रक्रिया को एक रूपक के माध्यम से समझने की कोशिश करें।
हमारे घर के बाहर वर्षा हो रही है और हम वर्षा की प्रक्रिया को उसके पूरे रूप में समझने का प्रयास करना चाहते हैं। क्योंकि हम वर्षा के घिरे हुए हैं इसलिए वर्षा के मूल को जानने के लिए हमें उसके ऊपर जाना होगा। इसके लिए हम एक बड़े गैस के गुब्बारे में बैठकर ऊपर की और जाना प्रारंभ करते हैं। हमारे निम्नलिखित अवस्थाओं में से गुजरने की संभावना है—
एक. सबसे पहले हम वर्षा की धाराओं के बीच में से गुजरेंगे जिनकी एक निश्चित दिशा, गति और मात्रा है। हम कह सकते हैं कि वर्षा की कौन-सी धारा कब कहाँ पर गिरी, कितनी देर वहाँ पड़ती रही और कब समाप्त हुई। हम विडियो कैमरे से इस प्रक्रिया की फ़िल्म आसानी से बना सकते हैं और फिर बाद में कभी भी उस प्रक्रिया का विश्लेषण कर सकते हैं। भाषा से इसकी तुलना करें तो यह वाक् की वैखरी अवस्था होगी जहाँ हम मनुष्य के मुख से बाहर आनेवाली भाषा के शब्दों को आसानी से रिकार्ड कर कह सकते हैं कि कब कौन क्या बोला, और कितनी देर किस प्रकार बोला। यह सर्वथा सार्वजनिक प्रक्रिया है। विडियोफ़िल्म बनाने के बाद हम कभी भी भाषा की उस प्रक्रिया का विश्लेषण कर सकते हैं।
दो. गुब्बारे में कुछ और ऊपर चलते जाने के बाद हम अपने आपको बादलों के बीच पाएँगे जहाँ वर्षा की धाराएँ समाप्त हो गई हैं। यदि अब हम विडियोफ़िल्म बनाना चाहें तो उसमें वर्षा जैसी स्पष्टता नहीं होगी क्योंकि बादलों का आकार निश्चित न होकर प्रतिक्षण बदलता रहता है। फिर भी हम अपने चारों ओर बादलों को देख सकते हैं और उनकी नमी को आसानी से अनुभव कर सकते हैं। हम जानते हैं वर्षा और बादलों का पानी एक ही है, वर्षा में वह मूर्त रूप ले लेता है जबकि बादलों में वह केवल अनुभव किया जा सकता है। बादलों की अवस्था से तुलना करने पर हम देख सकते हैं कि यह भाषा की मध्यमा अवस्था है। जैसे वर्षा और बादलों का पानी एक ही है उसी प्रकार वेखरी और मध्यमा की शब्दावली और व्याकरण एक ही रहता है। पर हम मध्यमा भाषा या चिन्तन की भाषा को बाहर से नहीं देख सकते, न उसे रिकार्ड कर बाद में तय कर सकते हैं कि किसी ने अपने मन में कब किस भाषा में क्या सोचा। चिन्तन की भाषा उच्चरित भाषा से समानता रखते हुए भी उससे एक चरण अंदर चली गई है।
तीन. गुब्बारे में बैठे हुऐ हम लोग यदि ऊपर की ओर चलते जाएँ तो हम अपने आपको एक ऐसी ऊँचाई पर पाएँगे जहाँ आँखों को दिख सकनेवाले बादल समाप्त हो गए हैं पर हम अभी भी हवा में हलकी नमी अनुभव कर सकते हैं। हम जानते हैं यद्यपि बादल हमें दिखाई नहीं दे रहे पर हमारे चारों ओर विद्यमान नमी ही कुछ और ठंडी और सघन हो जाने पर बादलों का रूप ले लेगी। भाषा से तुलना करने पर यह वाक् की पश्यन्ती अवस्था होगी जहाँ ध्यान की अवस्था में व्यक्ति कभी भाषातीत चेतना में रहता है तो कभी कुछ शब्दों को अपने अंदर उठते हुए पाता है। यह व्यक्ति के एक साथ भाषामय और भाषातीत होने की स्थिति है वैसे ही जैसे बादलों के ऊपर की अवस्था में पानी है भी और नहीं भी।
चार. यदि हम साहस कर गुब्बारे में और ऊपर जाएँ तो हम पाएँगे कि हमारे आसपास की की नमी भी समाप्त हो गई हैं। अब चारों ओर आकाश ही आकाश है जहाँ सूर्य चमक रहा है। पर विचार करने पर हम आसानी से जान सकते हैं अंतरिक्ष की उस ऊष्मा में ही वर्षा का आधार है। सूर्य के ताप से समुद्र का पानी भाप बनकर बादलों का रूप लेता है और फिर बादलों से वर्षा होती है। इस प्रकार वर्षा का प्रारंभ वहाँ से होता है जहाँ बरसनेवाले पानी का अंश भी दिखाई नहीं देता। पर यदि सबसे ऊपर का वह स्थान न हो तो वर्षा नहीं हो सकती। इसी प्रकार हमारी भाषा का प्रारंभ वहाँ से होता है जहाँ शब्द अपनी पहचान खोकर एक चैतन्य में लीन हो जाते हैं। सामान्य मनुष्य के लिए यह समझना कठिन है कि उसके मन में उठनेवाली भाषा का स्रोत उसके परे की किसी सत्ता में है वैसे ही जैसे कि एक छोटे बच्चे के लिए यह समझना कठिन है कि उसके घर के बाहर होनेवाली वर्षा का स्रोत उस सूर्य में है जहाँ पानी नाम की कोई चीज़ नहीं है।
वह चैतन्य जहाँ शब्द समाप्त हो जाते हैं, परमात्मा का ही रूप है। हम अपने अंदर आसानी से देख सकते हैं कि हमारे अंदर शब्दों के साथ बिंब या रूप भी जगते हैं। इन्ही शब्दों और बिंबों से हमारी दुनिया बनी है। हम अपने चारों ओर के संसार में अलग-अलग रूप देखकर उन्हें अलग-अलग नाम देते हैं जिससे हमें लगता है कि संसार में अनेक पदार्थ और अनेक प्राणी हैं। आधुनिक विज्ञान हमें बताता है संसार के सभी विभिन्न पदार्थ एक ही ऊर्जा के विभिन्न रूप हैं। वही एक ऊर्जा विभिन्न पदार्थों के रूप में प्रकट हो रही है। वेद के अनुसार सभी प्राणियों में एक ही चैतन्य विद्यमान है, वही अपने आपको उनकी सभी गतिविधियों में प्रकट कर रहा है। हम नाम-रूप के भेद से ऊपर उठकर इस सत्य को प्रत्यक्ष अपने अंदर देख सकते हैं। भारतीय परंपरा में संपूर्ण विश्व ही नाम-रूप या शब्दों और बिंबों का खेल है। और यह खेल हमने नहीं रचा। हमसे ऊपर की कोई सत्ता यह लीला कर रही है और उस लीला में हमारा जन्म होता है और उसी लीला के अनुसार हम अपना जीवन जीते हैं। परमात्मा की वह लीला हमारे अंदर मुख्य रूप से भाषा के रूप में प्रकट होती है।
वैदिक दृष्टि के अनुसार प्रत्येक भाषा का प्रत्येक शब्द प्रतिक्षण ब्रह्म या परमात्मा से आता है। हमें परमात्मा को जानने के लिए कुछ नहीं करना, केवल अपने मन को इतना शांत करना है उसमें कोई शब्द उत्पन्न न हों। इस खोज के आधार पर ही भारत में योग-आधारित साधना की परंपरा का विकास हुआ। यह सच है कि साधना की विभिन्न प्रणालियों को लेकर अनेक मत-संप्रदाय बने पर उस सबके बावज़ूद वैदिक सत्य सदा भारत में प्रकट होता रहा है और बार-बार मनुष्यों को आंतरिक शांति पाने का, परिवार और समाज में सामंजस्य लाने का, और जीवन और जगत् के बारे में अतिम सत्य को जानने का मार्ग दिखाता रहा है। यदि यह संदेश इतना चिरस्थायी रहा है तो उसका कारण यह है कि इसे किसी पुस्तक या व्यक्ति पर आधारित नहीं बनाया गया। भले ही वाक् की चार अवस्थाओं का निर्देश ऋग्वेद में किया गया हो पर वाक् के सत्य को जानने के लिए वेदों को मानने की ज़रूरत नहीं है। वाक् प्रत्येक मनुष्य के अंदर प्रस्फुटित हो रही है और आंतरिक साधना में रुचि रखनेवाला कोई भी व्यक्ति भाषा की गहराई में जाकर उस सत्य की खोज कर सकने के लिए स्वतंत्र है।
भारत की संस्कृति के विकास-काल में प्रारंभ हुई सत्य के अन्वेषण की यह परंपरा अभी भी चल रही है। पिछले सौ-एक वर्षों में ही विवेकानंद, रवीन्द्रनाथ टैगोर, श्री अरविन्द, महात्मा गांधी, जे. कृष्णमूर्ति जैसे विचारक हमारा ध्यान बार-बार इस बात पर दिलाते रहे हैं कि मनुष्य का सत्य उसके अंदर है, और संसार में तभी शांति और सामंजस्य आ सकेगा जब मनुष्य शब्दों के विवादों से ऊपर उठकर अपने अदर विद्यमान शांति और प्रकाश के स्रोत को पहचानेगा। सर्वथा वैज्ञानिक दृष्टि से जगत् का विश्लेषण करने वाले विद्वान भी मानते हैं कि जिस जगत् को हम समझने का प्रयास कर रहे हैं और जिसे हम समझने की प्रक्रिया कहते हैं वह सभी एक समेकित सत्य का अंग है। आज की क्वांटम मैकेनिक्स की भौतिकी में सत्य की खोज करनेवाले मन को उस जगत् में अविभाज्य रूप से संयुक्त माना जाता है जिसका वह अध्ययन कर रहा है। पिछले अंक में हमने भौतिकी में नोबेल पुरस्कार प्राप्त एर्विन श्रडंगर के विश्व चैतन्य को संबंध में विचार देखे थे। इस अंक में आप अन्यत्र उन्हीं के समान वैज्ञानिक अंतर्दृष्टि रखनेवाले ब्रिटिश एस्ट्रोफ़िज़सिस्ट सर आर्थर एडिंगटन को कहते हुए देखेंगे कि विश्व की अंतिम सत्ता चैतन्यस्वरूप है। ऋग्वेद के अनुसार वही चैतन्य हम सभी की भाषा में परिलक्षित हो रहा है। इसलिये वैज्ञानिक दृष्टि से भी विश्व के अंतिम सत्य को जानने के लिए हमें अपने अंदर विद्यमान भाषा के अंतिन सत्य को जानना है।
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भारतीय दर्शन में दो प्रकार के परिवर्तन माने गए हैं ऱ एक विकार और दूसरा विवर्त। विकार वह परिवर्तन है जिसके होने पर परिवर्तित वस्तु को फिर पहली अवस्था में नहीं लाया जा सकता। दूध का दही बन जाना विकार है। हम दही को दुबारा दूध में नहीं बदल सकते। विवर्त वह परिवर्तन है जो केवल प्रतीत होता है। उसमें परिवर्तित वस्तु का मूल रूप विद्यमान रहता है। धागों का बुने जाकर कपड़े में बदलना विवर्त है। कपड़े में से हम धागे फिर अलग कर सकते हैं। सोने का कंगन सोने का विवर्त है। हम कंगन को पिघलाकर फिर सोना प्राप्त कर सकते हैं। भर्तृहरि के अनुसार, और वेदान्त की सामान्य मान्यता के अनुसार, यह संसार परमात्मा का विवर्त है। हम मन को शांत कर नाम-रूप के पीछे विद्यमान सनातन ब्रह्म को कभी भी देख सकते हैं। संसार को इसीलिए माया कहा जाता है क्योंकि इस परिवर्तनशील जगत् के रूप में सदा अपरिवर्तनशील ब्रह्म ही आपने आप को प्रकट कर रहा है। भर्तृहरि के अनुसार इस विवर्त के मूल में हमारी भाषा की प्रक्रिया काम कर रही है।